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Full text of "Napoleon Bonapart Ka Jivan Charita (1911)"

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सर्वाधिकार दराक्षित हैं | 









॥ ओश्म ॥ 
“दिल पन्माजा 75 
नेपोलियन पै 
बोनापाटे 
का 


जीवन चरित 


सम्पादक तथा प्रकाशक 


मुन्शीराम जिक्ञासु 


पृं० अनन्तराम प्रिन्टर द्वारा 
सडम्मे प्रचारक यन्त्रालय गुरुकुल काँगड़ी 
में मुद्रित 
री अल पार मर 


संबत्‌ १९६८ वि० 





दयानन्दाब्द २८ | सन्‌ १९११ ३० 


करम प्रधान विस्व करि राखा । 
जो जस करहि सो तस फर चारा ॥ 


( तुल्सीदास ) 


॥ ओश्म ॥ 


सम्पादक की प्रस्तावना। 








विन की 


आदित्य ग्रन्यमाछठा की पहिली मणि स्वेत्ाधारण के सन्‍्मुख रख कर मुझे 
बहुत ही प्रसन्नता हुई है। निस आरय्यंगाषा की उन्नति के लियि मेंने उर्दू के 
उस्तादों की झाड़े सहकर भी उसका क्रमशः प्रवेश उद्‌ दानों की वाणी तथा हृदय 
में कराने का प्रयत्ञ किया, जिस मातृ भाषा को उस की प्राचीन राजथानी 
पंचनद्‌ प्रधान देश में फिर से अधिकार दिलाने के लिये सहर्सों की आधिक हानि 
की परवा न की, जिस देवी को उसका प्राचीन रानसिहासन दिलाने के प्रयत्न करने 
वाले भारतभूषणों के पीछे चलकर में अब तक केवल उनके पृरुषाथ की स्तुति कर- 
ने में अपने कत्तत्य की समाप्ति समझता रहा, उसके प्रकाशमय कोष की पूर्त्ति में 
एक नए ग्रन्थ के सम्पादन द्वारा सेवक का पद्‌ उपलब्ध करना मेरे लिये आज बड़ा 
ही आल्हादजनक है । आय्यमाषा के साहित्य में यह ग्रन्थमाल्ा एक ख़तन्त्र स्थान 
ग्रहण करे, यह मेरी हार्दिक इच्छा है । 

एक नए ग्रन्थकर्ता के पुरुषाथ का यह जीवनचरित पहिला फल है, निस का आदर 
होने पर आशा है कि आय्येमाषा प्रेमियों के मनोरंनन तथा शिक्षा का नित्य नया 
प्रबन्ध होता रहेगा । इस ग्रन्थमाला में मणि पिरोने का काम करने के लिये मातृ- 
भाषा के अन्य भक्त भी तय्यार होरहे हैं । परमात्मा आशीर्वाद दे कि आदित्य 
बारवार उदय होकर आय्येजाति को प्रकाश देता रहे । 


सुंशीराम जिज्ञास 
स्थान गुरुकुल 


न्थकार की भूमिका । 








सभा. गगकन>बम्बीक सर" 


जापान की पाठशाल्यओं में सब से प्रथम पाठ्यपुस्तक नेपात्य्यिन बोनापार्ट का 
जीवनचरित है । इस असाधारण प्रुष का जीवनचरित है भी ऐसा ही, कि प्रत्यक 
बाटक युवा या परिणत मनुष्य को इस का अनुशीकन अवश्य ही करना चाहिये । 
बालक इस से उत्साह ओर शक्ति का पाठ पढ़ सक्ते है, युवा इस से अपनी अस- 
ग्भव इच्छाओं का परिमित करना सीख सक्ते हैं ओर वृद्ध इस से अपने अन्तिम 
जीवन को सन्तोषदायक बना सक्ते हैं, क्योंकि किसी भी साधारण सत्पुरुष का अ- 
न्तिम जीवन उतना दुःखपूण नहीं हो सक्ता, जितना नेपोंडियन का था । जिस 
जीवन से सब अवस्थाओं के प्ररुष उपदेश ले सक्ते हैं, आय्ये भाषा में उसका होना 
अत्यन्त आवश्यक है ॥ 

वंशानुक्रम से नेपोलियन किसी बड़ी सामानिकस्थिति का न था | जब उस 
के पिता का देहान्त हुआ, तब वह छोटे से अनाथ के सिवाय कुछ नहीं कहा जा 
सक्ता था। विद्यालय में वह सारे विद्यार्थयों के उपहास का केन्द्र बना रहता था। 
जिस विद्यालय मे उस की शिक्षा हाती थी, वहां फ्रांस के बड़े ठाकुरों के पृत्र अरत्र 
शम्त्र शिक्षा सीखते थे | नेपोझियन के छोटे वंश का उन्हें पता था, इस लिये वे सदा 
उसे अपमान की दृष्टि से देखते थे । कोर्सिकावासी होने से; उस के नखवण 
में भी फ्रांत निवासियों से भेद था, उस के ठिये भी उसे बारसों अवाच्य सहन 
पड़ते थे | किन्तु वह दृढ़ निश्चय वाला मनृप्य अपनी गन सीधी किये, किसी की 
परवा न करता हुआ, अपने रास्ते चलता गया | 

जब वह अपने वास्तविक सेन्‍्य जीवन में प्रावेष्टठ होता है, उस का दुर्भाग्य दब 
भी उसका पीछा नहीं छोड़ता। एक मोची के घर में उत्पन्न हुए २ अवारागदे सिपाही 
के भाग्यों से अच्छे भाग्य, उस के पंने नहीं पड़ते | कीर्सिका से मगाया जाकर वह फ्रांस 
में शरण लेता हे । वहां के सैन्य के साथ टउलन पहुंच कर, अपनी असाधारण करामात 
दिखाता है, कैन्तु दुर्भाग्य उस के साथ गांठ बांधे पीछे ही पीछे चछा जाता है। टउछन 
का विनेता केद में डाछा जाता है, और पन्द्रह दिन तक उसे नरकयातना भुगतनी 
पड़ती है । कैद से छूट कर उसे फिर एक वार आवारागर्दी का जीवन बिताना पड़ता 


( ४ ) 


है । निराशा और दरिद्रता से दबाया जाकर वह अपने आप को नदी में डुबोने के 
लिये तय्यार करता है, किन्तु अब सारे नीवन में पहली वार उसका भाग्यचन्द्रमा 
अपनी चमक दिखाता है। उसका एक मित्र ऐन समय पर उसकी सहायतार्थ आन 
पहुंचता है, ओर उसे पुष्कल धन देकर पूर्णहस्त कर देता है । यहां तक नेपोलियन 
के जीवन की पूवे पीठिका-दुःख पीठिका-समाप्त होती है । यह दुःखपीठिका हर एक 
विपद्ग्रम्त आदमी के लिये शिक्षादायिनी है; विशेषतया वे छोग जो अपने वंश की 
नीचता के कारण संसार में उच्च उन्नति का मार्ग सार्गल पाते हैं, इस जीवन से 
धैर्य ओर अवष्टम्म का पाठ सीख सक्ते हैं | वे इस प्रकाशमय जीवन के तमोमय 
प्रार्म्म से जान सक्ते हैं, कि मेत्रमण्डल से स्थागित होकर भी चन्द्रमा अपनी कान्ति 
को खो नहीं देता; किन्तु समय पाकर पहले से मी अधिक चांदनी से चमक सक्ता है। 

पहली दुःखपाठिका के पीछे, नेपोलियन के जीवन की विनयपीठिका या आश्वर्य- 
पीठका शुरू होती हैं। इस पीठिका के शुरू में, हम उसे एक पतला स! साहसिक 
सिपाही पाते हैं। कोई २० वर्षों के अन्द्र ही, वह फूलछता २, एक शक्ल॒दार सम्राट 
बनजाता हैं। वह अपना विजनयप्रसज्ञ एक सेनापाति के रूप में प्रारम्भ करता है। 
पहले से ही विजयश्री उस्त की खड़ग का साथ देती है, जिधर उस की आंख फिर 
जाती है, उधर ही सहस्नों वर्षों मे स्थित राजवंशों के मुकुट झुक जाते हैं । एक 
घोर आंधी की तरह वह योरप के एक किनारे से दूसंर किनारे तक कंपक्रंपी फेला 
देता है; सारे देश उस के विनयी बोड़ों की ठाप से गून उठते हैं; ओर थोड़े ही 
दिनों में, हम, सिवाय उस के और उप्त की सेना के, कुछ नहीं छुनते । शेष सभी 
प्म्राट्‌ हिमालय की घेरनेवाढी छोटी २ पहाड़िये दीखती हू । आस्ट्रिया का नरेश 
तीन वार अपनी राजधानी से निकाछा जाकर, साथि के लिये उत्सुक हो रहा है; 
प्रशिया का राजा मान ओर स्थान से शून्य हुआ हुआ दीनता को प्राप्त होकर अपने 
लड़के को विजेता की शरीररक्षक सेना में प्रविष्ट कराना चाहता है; रूस का आभि- 
मानी जार समय के विनेता के साथ विनीतमैली करने में अपना गौरव समझता 
है। अन्य छोटे २ देशों का तो कहना ही कया है ? वे तो दिग्विजयी का झण्डा - 
उठने में अपना अहोभाग्य मानते हैं | यह दशा है निम्त में हम नेपोलियन को आ- 
स्टयन विजनययात्रा के परचात्‌ देखते हैं । क्या इस से बढ़ कर कोई सांसारिक पद 
हो सक्ता है ? क्या दो एक ऐतिहासिक व्यक्तियों को छोड़ कर और किप्ती ने भी 
आज तक विनयढक्ष्मी के इतने कौशल दिखलाये हैं ! 


(५ ९ ) 


यह नेपोलियन की युवावस्था थी | उस की प्रतिभा उच्चतम शिखर पर विचर 
रही थी; शरीर पर उस का अवाधित अधिकार था; दबाने वाले आन्तरिक 
शत्रुओं पर उस का पूरा विनय था; उसे गुड़ाकेश कहें तो भी झूठ न होगा | न 
वह कभी थकता था, ओर न वह कभी आहुप्ती होता था । दिन और रात 
उप्त यदि कोई चिन्ता थी तो विजय की; यदि कोई स्वप्त था तों विनय का | यह 
समृद्ध अवस्था की उच्च कोटि थी । 

आप पमझते होंगे कि नेपोलियन इस समृद्ध अवस्था में बड़ा प्रसन्न होगा, 
किन्तु यह आप की भूल है। वह इस अवस्था में उतना ही असन्तुष्ट था, नितना 
असस्तुष्ट कोई मनुष्य हो सक्ता है। कई बड़े मनुष्यों को असन्तोष ओर पड़ियरूपने 
की बीमारी होती है, ओर नेपोलियन उस का आदर स्थान था | वह कभी अपनी 
अवस्था से सन्तुष्ट न होता था; कोई भी बात-कोई भी उच्च से उच्च पद- उसे 
प्रसन्न न कर सक्ता था | वह कर्मी हँंसता हुआ नहीं सुना गया, ओर हंसी ही 
सम्तुष्ट चित्त का चिन्ह है । वह सदा अन्दर २ ही सड़ा करता था, ओर कुछ न 
कुछ ओर चाहता रहता था। इसी रोग ने, उसे, इस समृद्ध अवस्था में भी असमन्तुष्ट 
बना दिया; अब भी वह चुप न बैठ सका । एक बड़ा साम्राज्य स्थापित करके, 
ओर प्रायः सारे योरप का भाग्यनिश्वायक बन कर भी, उसे सन्तोष न था। सारे 
योरप का सम्राट बनने के लिये, उस का असन्‍न्तोषी मन, उसे प्रोरेत कर रहा 
था | यदि नेपोलियन सारे योरप का राजा हो जाता तब भी सन्देह है कि वह 
सन्तुष्ट होता । तब वह निःसन्देह एशिया ओर अफ्रीका को जीतने का भी उप- 
क्रम करता । 

इसी रोग ने उस का भयानक अधःपात उपस्थित किया । निरन्तर परिश्रम 
तथा सिचाव से उस की बुद्धि ठिकाने न रही, ओर शरीर शियथिरू पड़ गया; 
किन्तु तोमी विनयवासना ने उस्त का पिण्ड न छोड़ा । वह जड़े से बढ़े 
कार्य्यों का आरम्म करने लगा । स्पेन के राज्य में अपनी टांग पसारना और रुप के 
ऊपर आक्रमण करना, ये दो काय्ये उस के अधःपात के कारण थे, और वे 
इसी असन्तोषरोग के फल थे | 

यह नेपोलियन के जीवन की दूसरी पीठिका है। यह पीठिका मर :य जाति को सन्तोष 
और शम का उपदेश देती है, ओर विनेताओं को सिखाती हैं कि विना अपनी 
महत्त्वाकांक्षा को परिमित किये, संसार में रहना कठिन है। 


( ६ ) 


अब हम उस के जीवन की तीसरी पीठिका पर पहुंचते हैं । वह पीठिका 
आश्चरयदायक वीरता और घर्य्य के साथ प्रारम्म होती है और सेप्टेहलीना की सूखी 
और चुटीली पहाड़ियों में समाप्त होती है। उस पीठिका में, हम, एक बड़े शानदार 
और मध्य आकाश में चमकते हुए सितारे को, बादलों से छुपे २ पाश्विम दशा में 
लम्बायमान होता हुआ देखते हैं। रूस की विपात्ति के पीछे ही, शत्रु, चारों ओर से 
उमड़ आते हैं ओर फ्रांस अपने विजयें का कर अदा करने रूगता है । नेपोलि- 
यन इस आक्रमण का सामना अनपमेय साहस और शॉस्य के साथ करता है, 
किन्तु थोड़ी संख्या पर बड़ी संख्या का विनय होता है। फिर वाटल का युद्ध 
आता है, जो, नेपोडियन के सुविस्तृतसाम्राज्य को सेप्ट्हेलीना में बनी हुईं एक छोशी- 
सी कोठरी तक ही परिमित कर देता है। सेप्टहेडीना की कथा अरृभव के स्नायुवों 
की तोडने वाढी है | एक मनुष्य की जितने दुःख मिल सक्ते हैं 
विजेता को वहां पर मिलते हैं; ओर पांच साल तक केदखाने में सड़ 
दुःखित प्राण पखेरू उद्वजाते हैं । 

इतनी कथा है, जिसका विस्तार इस प्रस्तक में किया गया है | यह कथा 
मनोरञज्मक है इस में सन्देह नहीं, किन्तु साथ ही यह उपदेश देने वाढी भी 
है | इस से उपदेश कौन स मिल सक्ते हैं, यह ऊपर दिखा दिया गया है; यह 
कथा मनोरम्नक है यह सिद्ध करने के लिये सारी शेष पुस्तक विद्यमान है । नेपोलि- 
यन के जीवनचरित जितनी घनतया मनोरब्नक पुस्तक मिलनी बहुत कठिन है।उस 
के काये हम से इतने दूर हैं, ओर वे हमे ऐसे असम्मव तथा अशक्य प्रतीत 
होते हैं कि हम उन्हें सिवाय मनोर|भ्जक के ओर कुछ नहीं समझ सक्ते । देवी 
राक्षतां और गन्धरवों की कथायें हमें मनोरेज्नक प्रतीत होती हैं, क्‍योंकि वे 
हम से बहुत दूर हैं; क्योंकि उन के समझने में हमें अपनी कल्पनाशाक्ति का अभीष्ट 
विम्तार करना पड़ता है । इन्हीं दोनों कारणों से नेपोलियन का चरित भी हमारे 
लिये मनोरब्नक है। 

ऐसा मनोरञ्जक और उपदेशप्रद चरित है, निसे में आप के सामने रखने 
लगा हूं । सम्भव है, में इसे यथायोग्य उपदेशप्रद और मनोरब्नक न बना स्का हूं, 
और सम्भव है, इस से बहुत अच्छा ओर जीवन लिखा जासक्ता हो । सम्भव ही क्यों, यह 
निश्चित ही है कि यदि अधिक योग्य और अधिक अनुभवी पुरुष इस चरित को लिखे 
तो वह इस वत्तेमान चरित से बहुत ही उत्तम होगा । किन्तु मुझे निश्चय है कि 


रे रा 


( ७ ) 


यह क्षद्र यज्ञ भी निर्थक नहीं होगा । और कुछ नहीं, तो यह आप के मनों में 
उस भविष्यत्‌ मे लिखे जाने वाले चरित के .लिये, उत्सुकता तो पेदा कर ही 
देगा । नेपोलियन के इतने छोटे चरित से, सिवाय उत्सुकता पेदा करने के ओर कुछ 
हो भी नहीं सक्ता । उस के चरित के बीस पतच्चीस बरस असाधारण घटनाओं से इतने 
भरे पड़े हैं, कि विना नमक मि्च के छगाये उन का उल्ेग्व ही वत्तमान प्रस्तक 
से दसगृणी मोटी पृस्तक को भर सक्ता हे | सरवाल्टरस्काट न, नेपोलियन का जीवन 
चारिदे, इस पुस्तक जितने बड़े २ दस भागों में लिखा है। जब किसी ने उस से 
पृछा कि तुम ने इतना लम्बा जीवनचरित क्यों लिखा है, तो उस ने उत्तर दिया 
कि इस से छोटा लिखने के लिये मेरे पास समय नहीं था । नेपोलियन के जीवनचारति 
की लम्बा करने के लिये परिश्रम नहीं चाहिये, परिश्रम उस के छोटा करने के छिये 
अपो्षिद है । कोनसी बटना छोड़ी जाय, ओर कीनसी लिखी जाय ! किस का विस्तार 
किया जाय ओर किस्त को थोड़े में छिखा माय : हत्यादि प्रश्न हैं, जो छोटा मीवन- 
चरित लिखने वाले के सिर पर आपड़ते हैं । नेपाल्यिन का रम्बा चरित लिखना 
कठिन नहीं, कठिनता छोय लिखने में अनुभूत होती है । लाडरोनबर्ी ने केवल 
सेण्टहेीना की केद का वृत्तान्त लिखा है, और उस की पुस्तक इस पुस्तक की आधी 
के टुल्य ह। इस से आप अरुमान कर सक्ते हैं कि वत्तेमान चरित के लिखने में, लेक 
को, कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा। कई दिनों तक वह केवछ एक 
परिच्छेद में लिखने योग्य घटनाओं को ही सोचता रहता था ओर तब भी यह पता 
न छगता था कि उन्हें इतने छोटे आकार में केसे छाया जाय ! 

शायद आप पूछे कि फिर यह पुस्तकबड़ी ही क्‍यों न लिखी गई ” यदि 
इसे बडे आकार में लिखा जाता तो हानि क्‍या थी? इस कठिन प्रश्न का उत्तर 
भी सुन छीजिये | अभी हमारी आय्यभाषा के पढने वालों मे उत्तमोत्तम ग्रन्थ पढ़ने 
का शोक नहीं हुआ, अभी तक वे भाषा की पस्‍्तकों पर पैसा ख्नना हराम समझते' 
हैं । हमें यह डर था कि कहीं हमारी नोसौ हजार प्ृष्ठों की छपी छपाई पृस्तक; 
हमारे ताक की शोभा ही न बनी रहे, इसी लिये, पहले, नेपोलियन के चरित को, 
इस छोटे आकार में 'छिख। गया है। यदि इस पुस्तक को वर्तमान आकार से पांच 
छः गुणे आकार में लिखा जाय, तो इस की मनोरब्जकता भी कम से कम पांच छः 
गुणी हो सक्ती हैं। चरित की घटनायें जितने ही अधिक विस्तार और परिपूर्णभाव 
से लिखी जांय, उतनी ही मनोरम्नक होती हैं। यदि इस पृस्तक के परीक्षण ने यह 


( ८ ) 


प्िद्ध कर दिया कि आयेभाषा के प्रेमी नेपोलियन के जीवनचरित को पसन्द करतें 
हैं, तो हम थोड़े ही वर्षों में, उन की सेवा में, इस चारित से पांच छः गुणे आकार 
का मोटा चरित उपस्थित करेंगे, जो मनोरब्जकता में भी इस से पांच छः गुणे से 
कम न होगा । 

नेपोलियन का जीवनचरित लिखने में, केवल छोटा करने की कठिनाई हो- 
ऐसा नहीं; और भी कई तरह की कठिनाओयें हैं जिन का सामना करना पड़ता है। 
नेपोलियन का चरित इतना विस्तृत है कि हर एक योरप निवासी किसी न किसी तरह 
उस से सम्बद्ध हैं| कोई उस का दात्र है ओर कोई उस का मित्र। उस के शत्रुओं 
के लिखे हुए जीवन चरित्र, उसे वैसा ही काछा बताते हैं, नैसा निप्कलेक चन्द्रमा 
उसे उस्त के भक्त कहते हैं। सरवाल्टरस्काट छेमटाइन आदि उस्त के शरत्रदरू के 
मुखिया हं, ओर ऐबट आदि उस्त के मित्रदल में प्रधान हैं। इन दोनों दल के 
लिखे हुए नेपोलियन विषयक ग्रन्थ पढ़ने से, मनुष्य मायाजाल में फंस जाता है 
ओर उसप्त की मति चकरा जाती है। एक पक्ष वाले कहते हैं नेपोलियन राक्षम था, 
दूसरी तरफ वाले कहते हैं वह देव था । सत्य मानें तो किसे मानें, झूठ कहें तो 
किसे कहें ? जैप्ता विवादप्रस्त चरित नेपोलियन का है, ऐसा शायद ही किसी अन्य 
एक मन॒प्य का हो। इस पर भी तुरो यह कि उमके चरित की बटनायें बहुत ही स्पष्ट 
हैं; उम्त के एक २ दिन की दिनचर्या पूरी सचाई के साथ मिलती है। बटनाओं के 
सप्ट हांते हुए भी, उस के विषय में इतनी मिन्न २ सम्मतिय आइचय में डालने 
वाढ्ी हैं। ऐसी अवस्था में, किप्ती एक निरिचित, तथा निष्पक्षपात सम्मति पर 
पहुंचना, बहुत ही कठिन कार्य है। भूस्त ते अनाज को प्थक्‌ कर लेना पहल है, 
दूध को पानी में से निकाल लेना भी सुगम है, किन्तु नेपोलियन के विषय में ठोक २ 
सम्मति बनाना बहुत ही दुप्कर कार्य है । 

अग्रेन इतिहाप्तज्ञ, अब भी, नेपोलियन का जीवननचरित्र लिखते हुए यह कल्प 
ना कर छते हैँ कि वह उनके साथ लड़ रहा है; अब भी वे यही समझते हैं कि 
उनके छिखे हुए ग्रन्थों से नेपोलियन की सेनाओं का नाश होना है । किसी अन्य मृत 
पृरुष के साथ, ऐसी शत्रुता कहीं नहीं देखी गई । गोल्डाम्मिथ और सरवाल्टरस्काट 
आदि के ग्रन्थ, नेपोलियन के विरुद्ध ज्वालामुखी पर्वत के सिवाय अन्य कुछ नहीं । वे 
उसकी सब बुरी बातों को सामने छाने ओर सब अच्छी बातों को पीछे छुपाने 
की लीला में, साधारण सत्य की अवधि को पार कर गये हैं । कहीं २ सचाई की 


( ९ ) 


हत्या करके भी, उन्हों ने, नेपोलियन के चरित्र को यथाप्तम्भव काछा करने का 
यत्ञ किया है । 


यह तो हुईं शत्रुओं की बात, अब मित्रों की भी कथा सुन लीजिये। नेपोलियन 
के भक्तों में से सब से अधिक प्रापिद्ध ऐबट हुआ है। एक अंग्रेज होते हुए भी, उस 
ने, सम्राट के प्राते जो भक्ति तथा प्रेम का भाव दिखाया, वह प्रशंसनीय था, किन्तु 
शोक यहां हैं कि उस के भाक्त तथा प्रेम भी, उसे इतिहास की निष्पक्षपात स्थली से 
बहुत दूर ले गये । जहां नेपोलियन के शत्रु उसे दोषों का पुंज प्िद्ध करने का 
यत्न करते हैं, वहां ऐबट डसे संसार के सारे उच्चतम भावों का ढेर दिखाना 
चाहता है। वह उसे सवेथा निर्दोष सिद्ध करना चाहता है, जो एक मनुष्य में 
होना असम्भव है। रूस के आक्रमण को और स्पेन के साथ युद्ध की भी, वह 
अशद्धि मानने के लिये तय्यार नहीं है । उस की भक्ति ऐतिहापिक भक्ति की 
काष्ठा से गुजर गई है। वह एक इतिहासन्ञष प्रतीत नहीं होता, किन्तु नेपोलियन 
की सेना में छड़ने वाछा, ओर “महाराज नचिरंजीवी हों! परुकारने वाछा, भक्त सिपाही 
प्रतीत होता हैं ! 

ऐसे कैंटीले ओर दुगेम जड्जल में सत्य का खोज निकालना बड़ा कठिन कार्य है। 
ब्रन्थकर्ता ने अपनी शक्ति और प्मझ के अनुमार जो कुछ खोजा है, वह इस ग्रन्थ 
में सन्निहित कर दिया है। सम्मव है अधिक ज्ञान तथा परिश्रम से उप्ती सम्मतियें 
बदल जांय, किन्तु कम से कम इतना वह अवश्य बड़ी चेन से कह सकता है कि 
उम ने अपने मन को पक्षपाद से राहित करके यह ग्रन्थ लिखा है। यदि पाठक लोग 
इस को पढ़कर गत शतताब्दि के सब से बड़े विभेता, तथा शासक के विफ्य में कुछ भी 
सम्मति बना सके, यदि यह ग्रन्थ इस को्सिकन ऐन्द्रजालिक के इन्द्रनाछ की पेचीदा 
पहेली के बूझने में कुछ भी सहायक हो सके, ओर यदि इस तुच्छ ग्रंथ को पढ़कर 
अध्येतृगणों की ऐतिहासिक अनुशीलन में कुछ भी प्रवृत्ति हो सके , तो ग्रन्थकत्तो 
अपने सारे यत्ञ को सफल समझेगा । 

इस पुस्तक के लिखने में, जिन २ गन्थों से साहाय्य लिया गया है, उन 
सब का नाम लिखना काठन है । काठनता का कारण पुस्तकाी की बड़ी संख्या नहीं, 


किन्तु उन की अनेकविषयता है। नवीन योरप का कोई ऐसा इतिहास नहीं, निसमें 
नैषोलियन का चरित न दिया गया हो। बीस वर्ष के अन्तर में, सिवाय उसके इति- 


( १० ) 


हास के योरप का कोई इतिहास ही नहीं ) उन सत्र से सहायता लेने के अतिरिक्त, 
ऐबट, सर वाल्टरस्काट, रोमबरी, बुरीने, एलीसन, कीलेण्ड, ओमन, फिफ्फ 
आदि विद्वानों के ग्रन्थों को पढ़कर, इस ग्रन्थ का मसाछा तय्यार किया गया है। 
फांस की राज्यक्रान्ति क विषय में लिखने के लिये, मिचलेट, मिग्नेट, काछाइल 
तथा स्टीफन्स के इतिहासों से विशेष सहायता छी गईं है । 

यहांपर भूमिका का अन्त करने से प्रथम, उन सुहृदों तथा कृपालुओ का धन्य- 
वाद करदेना नी आवश्यक है, मिन्‍्हों ने इस ग्रन्थ के प्रफ देखने में, मापा की बना- 


#7 ५ 


वट सुझाने में, तथा कही २ अशुद्धिये सुधारने में सहायता दी है । 


गुरुकुल काइडी ग्रन्थकत्तों 
११-६-६८. 





विषय सूचि । 


प्रथम भाग--(फ्रांस की राज्य क्रान्ति) 
प्रथम परिच्छेद---राज्यक्रान्ति की तस्यारी । 
द्वितीय परिच्छेद--राज्यक्रान्ति का फट पडना। 
तृतीय परिच्छेद--भीषण हत्याऋण्ड । 


दितीय भाग--(बालसूये का उदय) 


प्रथम परिच्छेद---नैपोलियन का शैशव । 
द्वितीय परिच्छेद---टठलन का विजय । 

तृतीय पारिच्छेद---घोर अंधेरा और चमक । ... 
चतुर्थ परिच्छेद--डटली मे प्रथम विजय । 

पश्चम परिच्छेद--कैम्पोफोमियो की सन्धि | ,.. 
प४  परिच्छेद--पेगिस में वेशानिक जावन । 
सप्तम परिच्छेद--मिश्र देश में पराक्रम । ... 


तृतीय भाग--(साम्राज्य लब्धि) 
प्रथम परिच्छेद--संस्था का भंग । सा 


द्वितीय परिच्छेद---प्रथम शासक । 
तृतीय परिच्छेद-- आजन्म शासक । 
चतुथ परिच्छेद--साम्राज्य लब्धि | 


चतुथ भाग--(दिग्विजय यात्रा) 


प्रथम परिच्छेद---ऊल्म और ऑस्टर्लिटस । ,., 
द्वितीय परिच्छेद --टिस्सिट का सन्धि। 


तृर्ताय परिच्छेद--साम्राज्यविस्तार और आन्तरिक विस्फोट । ... 


चतुथ पारिच्छेद--आस्टियन विजययात्रा । 
पश्चम परिच्छेद-- फ्रांस का शासन । 


प्रथम परिच्छेद--विधिवेपर्रात्य । 


द्वितीय परिच्छेद--रुसी विपकत्ति । ,...  ... .., 


तृतीय परिच्छेद--जय और पराजय । 5४ 


खनुर्थ परिच्छेद---एल्बा और फिर पेरिस । ... .. 


पश्चयम परिच्छेद---वाटलु । 


पष्ठ परिच्छेद--सेण्ट्हेिलीना । . ... .., 
सप्तम परिच्छेद---सिंहावलोकन । 


पंचस भाग---(दुःखमय अन्त) 


प्‌, 
५ 
प्‌ 


श््ण 


7-८६ «| छधवय 


7-3 गज ध्य5 


« जूल॑ 
- ६१ 
/. ६६ 


- ७९ से ८६ 
पृ. 2८७ से ९६ 
- ९७ से १०६ तक । 
- १०७ से ११६ तक । 


१ से८ 
९ से १४ 
१५ से२२ 


तक । 
तक | 
तक । 


२५ 
३० 
२५ 
४ रे 


८ 
नजि 


तक | 
तेक । 
तक | 
तक । 
तक । 
तक । 
तक । 


ः्<्‌ शी 
श्णज. ०९ 


“7 ८:४9 54 चर आए 2/ “87 
“97. «४ 
छ 


(८ 4१ 
>डीती 8 


तक ॥ 
तक | 


' ११७ से १२६ तक। 
: १२७ से १३८ तक । 
- १३५ से १४५ तक 
- १४९३ से १६६ तक । 
. १५७ से १६४ तक । 


१६७ से १७१ तक । 


, १७२ से १८४ तक । 
. १८५ से १९९ तक । 
- २०० से २०६ तक । 
- २०७ से २१६ तक । 
- २१५७ से २२३ तक |! 
« गे२४ से २३५ तक। 





नपोडियम बोभा पा । 


बल ०5ज» >> लल-लज ४ +नजीिन-न+ता+ण। अचियि-- कतदीदीन सन+-+नननझमाना 2 तीन मनन मीनीनननिनाायान.. ओिज-जरन कम 33 निब?७-+त-«मगनमकानम...3 मन 2अशनभभ--+. 3६33 .3+.>33+क कान न १३७).नअनन-मनन-+-क- का 3 &834॥»/8-+.-नककमसाका३०७०३ ५८ पानी. ला स८कथ३५+>++--.3 2-3 लआ५क+--३-+-पा>+443७७)नकन+क ८... ल्‍३ 33. ५-.-.+4+-५०३--९एसमाि----.पाकन-पैमाा-पाक ५" »-. काम) या. ८७4०: >कन-ाग५: .ि००-०+ज-ाक 


अथम-भाग । 


फ्रांस को राज्यक्रान्ति । 


अं रे. न बन बल जलन . +» ७ न न्त ल्दर 


प्रथम-परिच्छेद । 





राज्यक्रान्ति को तस्यारो । 


अपि ग्रावा रादित्यपि दलाते वजरय हृदयम । भवभूति । 


बुद्धिमानों का कथन है कि इस संसार में कोई भी क्रिया विना प्रयोजन के नहीं 
होती | विना किसी उद्देश्य के एक तिनके का दृटना भी असम्भव है । अतुल शक्ति 
शाल्ली परमात्मा की सृष्टि में कोई अनथक बात कैसे हो सक्ती है ! यह कथन और 
भी अधिक सन्र प्रतीत होने लगता है जब हम छोटी २ क्रियाओं को छोड कर, से- 
सार की बड़ी २ क्रियाओं के ऊपर विचार करते हैं। विचक्षण लोगों ने बढ़े २ यत्ष 
कर के यह पिद्ध करने की चेप्टा की है कि संसार की रंगम्थली में जो अदृभत नाटक 
खेले जाते हैं; जो आश्चय्येदायक तथा असाधारण घटनायें होती हैं, वे सप्रयोजन हाठी 
हैं--उन्हें निप्प्रयोनन समझना भूल है | निस अवस्था तथा जिस घटना चक्र में उस 
एक घटना का आना होता है, वहां वह आवश्यक ही होती है, उम्र के विना 
वह घटनाचक्र अंग हीन हाने स टीक ५ नहीं चल सक्ता, परमात्मा की इच्छा पूरी 
नहीं हो सक्ती । चाहे वह घटना किसी को प्रिय लगे दा अप्रिय, उस की आवश्य- 
फता में ओर सप्रयोजनता में सन्देह नहीं होसक्ता । फूछ, खिलने मे प्रथम, मृकुल के 
रूप में आता है, यह नियम है । किन्तु कोन व्यक्ति चाहता है कि मनोहर 
पृष्ष का स्थान, सोन्दस्ये रहित म॒ुकुल लिये रहे, सब यही चाहेंगे कि किसी 
तरह एक दम फूछ खिल जाय ओरहम उस से आनन्द ले सकें । किन्तुऐसा हो 
नहीं सक्ता । यद्दि मुकुछ न हो तो फूल खिलने की आशा की उत्पत्ति केसे हो ! और 
अगर आशा न हो तो फूछ खिलने से जो आनन्द हो, वह जो आनन्द 
होता है उस की अपेक्षा आधा भी न रहे । इससे प्रदीत होता है कि जिम घटना क 
हम नहीं चाहते, जिसे हम व्यथ समझते हैं, वस्तुतः वह वेसी नहीं-वह सार्थक हे । 

में एक बड़ी भारी घटना आप के सामने रखना चाहता हूं । में एक ऐसा जी- 
वन-चरित्र आप के सामने रखना चाहता हूं, जो यद्यपि एक बड़े घटनाचक्र का 
अग है तथापि जिस को स्वय एकाकी देखना भी महत्व से खाली नहीं है ! वह घटना 


९ नेपोलियन बोनापार्ट । 


नैपोलियन बोनापार्ट का विख्यात चरित्र है। नेपोलियन का तरित्र योरप के ही क्‍यों 
संसार के इतिहास में कितनी बड़ी घटना है यह आप को इस नरित्र के सादन्त अनु- 
शीलन से स्वये ही पता छग जायगा । जब कोई भी घटना ओर विशेषत: बड़ी घटना, 
विना प्रयोजन के नहीं होती, तब नेपोलियन के चरित्र जितनी बड़ी घटना किसी प्रयोजन 
के विना ही हो गई हो, ऐसा मानना बड़ी भारी गलती होगी । 

तब यह जानने के लिये कि नेपोलियन बोनापार्ट की इस संसार में क्या आवश्य- 
कता थी, परमात्मा को उस के द्वारा संसार का क्या भरक्ता करना था, हमें 
यह देखना आवश्यक है कि वह कैसे समय में पेदा हुवा, उस समय को किस 
चीज की आवश्यकता थी, ओर क्या नेपोलियन अपने समय को वह चीज दे सका ! 
अगर देसका तो मानना पड़ेगा कि नेपोलियन का चरित समप्रयोनन था, वह ईख़र 
प्रेरित था । अन्यथा नहीं । 

इन सब बातों को ध्यान में रख कर, मेंने यह उचित समझा है कि नेपोलियन का 
निन चरित प्रारम्भ करने से पूर्व, उस के पूर्व समय में फ्रांस देश की-जिस में नेपा- 
लियन का जन्म हुवा था-क्ष्या दशा थी यह दिखला दूं । 

नेपोलियन के वास्ताविक चरित का आरम्भ, उस समय से होता है निस समय 
फ्रांस देश में क्रान्ति रूपी आम की ज्वाला चारों ओर बढ़े जोर से धधक रही थी। पुराने 
राजनेतिक तथा धार्मेक विचार लोगों के मनों से उड़ चुके थे; पराना एक सत्तात्मक 
राज्य, जिस में एक राजा ही देश के सब निवासियों के जीवनों ओर सम्पत्तिया 
का स्वाधिकारी था, समूल नष्ट हो चुका था; वह क्रिश्चियन धमं, जिस ने किसी 
दिन फ्रांस के निवासियों के दिल्लोँ पर पूरा अधिकार प्राप्त करके उन की बृद्धियों पर 
मुहर रूगा दी थी, धूल में मिल गया था; वे ठाकुर ओर बड़े २ जूमीन्दार छोग, जो 
किमी दिन राजा के दाहिने बाहु समझे जाते थे और सर्वमाधारण पर अपना अखण्डित 
अधिकार समझते हुवे अकड़े फिरते थे, अपनी २ जान बगल में दबाये फ्रांस की हद 
के बाहिर बेठे हुवे अपराधियों की तरह अपने प्राण बचाने का फ़िक्र कर रहे थे । 
किम्बहुना, पुराना सारा ही ढंग बदुछ गया था । राजा ओर उस के दरवारियों की 
जगह स्वसाधारण का राज्य होगया था। “बाबा वाक्यम्प्रमाणम! की जगह “तक! शक्ति 
प्रधान होगई थी । और फ्रांस उस समय एक नये युग में से गुजर रहा था-एक नये 
समय में से जा रहा था । े 

यह क्रान्ति फ्रांस के लिये ही नहीं, किन्तु सारे योरप भर के लिये इतनी आ- 


चोदहर्वे ल्यूह का राज्य । ५ 


वश्यक थी, कि इसे योरप के इतिहास में सदा व्शिष स्थान दिया जाता है। निस 
क्रान्ति को इतना विशेष समझा गया है, जिस क्रान्ति ने फ्रांस देश की एक शताब्दि 
के चोथे भाग में ही काया पल्ट दी, ओर निस क्रान्ति के भीतर नेपोलियन का सारा 
चरित्र केवल एक खण्ड मात्र है; वह क्‍या थी ? क्यों हुईं ? और कसे हुईं / इत्यादि 
विषयों पर कुछ थोड़ा सा निर्देश कर देना भी पाठकों के लिये अवश्य मनोरंजन का 
हेतु होगा । 

फ्रांस देश में सैकड़ों वर्ष पृर्व से बोबीन वंश के राजा राज्य करते आये थ । 
उसी वंश का चौदहवां ल्यूं नाम का राजा सतरहवी शताब्दि के मध्य में फ्रांस के 
राज्यसिहासन पर आरूढ़ हुवा | यह राजा बड़ा ही विचित्र नरेंश था । यह बड़ा 
ही प्रबछ, किन्तु नीच था । यह फ्रांस के आधिपत्य की हदों को बढ़ाने की तृप्णा से 
व्याकुल होकर सारे योरप में हल चल मचा रहा था, किन्तु अपनी प्रभा के सुख पर 
जरा ध्यान न देता था । युद्धों के लिये सामग्री की आवश्यकता पहने पर, विना सोच 
विचार के अपनी दररिद्र प्रभमा पर धडाघड कर लगा देता था । किन्तु मेंर युद्धीं से 
मेरी प्रभा की मिलता क्या हे यह कमा भी न विचारता था। उस के समय मे, 
फ्रांस के आधिराज्य की सीमा चाहे कितनी ही बढ़ गई हो, किन्तु वह अमागादेश 
दीनों ओर दरिद्रों से भर पूर था ओर एक बड़ा भारी हस्पताल प्रतीत होता था । ल्यूई 
के युद्ध फ्रांस से बाहिर होते थे, किन्तु घायल फ्रांस की प्रजा हो रही थी । इधर तो 
ये युद्ध तज्ञ कर रहे थे, ओर उधर चोदहवें ल्यूई का दरबार की सजावट से बे: 
हद प्रेम था। कहा जाता है कि जेसा उज्ज्वल तथा बेतहाशा सजा हुवा चोदहवे 
ल्यूई का दबर था, वैसा-दो चार ऐसे ही ओर दृष्टान्तों को छोड़ कर-अन्य किसी का 
आज तक नहीं देखा गया । इन सनावटो के लिये भी रुपया गरीब प्रजा की हड्डियों 
सेही चूसा जाता था | लोग बिल्कुल निधन हो रहे थे, उन्हें एक समय खाने को भी 
' मुश्किल से मिलता था । 

अपनी प्रजा को दीन ओर दया योग्य दशा में छोड़ कर १७१५ इईंस्वी की 
प्रथम सेप्तेम्बर के दिन, इस प्रबल किन्तु क्रूर राजा ने इस लोक से प्रयाण किया । उस 
समय पन्द्रहवां ल्यूइ केवल पांच बरस का बारूक था । अतः पहले आठ बरस तक ड्यूक 
आव ओलींन उस की जगह शासन करता रहा। फिर ल्यूई ने स्वयं शासन किया । 
किन्तु इस निर्बेल राजा का शासन, शासन कहाने के योग्य नहीं है। इसके शासन को 
फ्रांस का अधःपात कहें तो अयोग्य न होगा । इस राजा के आचरण बड़े ही गिरे 


६ नैपोलियन बोनापार्ट । 


हुवे थे; यह सदा किसी न किसी ख्री के वश में रहता था; राज्य के काम की स्रये 
देख भाल करना इस के लिये हराम था। इन निबलताओं के होते हुवे इसे शामन 
उस देश का करना था जो बड़ा ही द्रिद्र तथा दु:ःखित हो रहा था, और जो अब तक 
केवल चोदहव ल्यूई के बल्वान्‌ द८्ड के ४रसे चुप चाप बैठा हुवा मोका ताक रहा था | 
चोदहव ल्यूई की एकत्रित की हुई दुर्नियम्य शक्ति को काबू में रखना इस कमजोर 
दुराचारी के लिये असम्भव था । उम्र असम्भवता का फल जो होना था वही हुवा । 
गज्य का प्रबन्ध झैेला पडुगया । दबी हुवी प्रजा दबाव के उठनाने पर बड़े अदम्य 
जोर मे ऊपर को उठने ढगी । शासन प्रणाली, धर्म, और कर आदि सम्बन्धी स्व॒तन्त्र 
विचार चारों ओर फेलने लगे | स्वाधीनता पाने के लिये छोगों में तस्यारी शुरू हुई । 
इमी समय क्रान्ति के तीन मुख्य दाशनिकों ने अपने नये विचारों के प्रभाव मे मारे 
फ्रांस को प्रशालित कर दिया । 

वे तीन दाशनिक, मोप्टस्क्यू वाल्टेयर आर रूशो थे। इन में से प्रथम, मोप्ट- 
मक्‍्यू ने (१६८९-१७५१९) अपने “नियम तत्व! ( 7॥0 5]॥7॥ ० 89७ ) के द्वारा 
फांस में विद्यमान राजकीय संस्था का बहुत कुछ विरोध कर के, इंग्लेण्ड की राजकीय 
मेस्था का मण्डन किया था । दूसरा वोल्टेयय ( १६९४-१७७८ ) था । यह 
बड़ा ही प्रचण्ड छेगक था । दूसरे की हंसी उड़ा देने और नई २ परिभाषा बढ़ने में, 
बहुत थोड़े लेखक शायद इस के ममान हुवे हों | इस न अपनी तीक्ष्ण किन्तु तक 
गभभा छेखिनी से, उस समय के धर्म तथा शासनसंम्था के दोपों की खूब घज्निये उड़ाई । 
इस ने, पुरान विचारों का विश्वेस कर के क्रानत के लिये रास्ता साफ कर दिया । 
तमिरा क्रान्ति का सच्चा दाशनिक रूशों (१७१२-१७७८ ) था । इसने ही वस्तुतः 
क्रान्ति की हृढ़ नाव राखी | इसन एक तरह से फांस की राज्यसेस्था की जड़ पर ही 
कुल्हाडा ग्व दिया | अपनी ०८०७) (०॥7४० नाम की पुस्तक में रुशों ने 
यह मिद्ध कर के दिखाया कके प्रक्कते न हर एकमरुष्य को दूसरे के समान तथा 
स्नन्त्र उत्पन्न किया है। पूर्व समय में मनुष्यसमाज की प्राकृतिक दशा थी। उस 
समय काई शासक या शासनीय न थे, सब समान ओर स्वतन्त्रये। किन्तु पीछे दस्युओं 
के भय से, उन्होंने परस्पर अपनी स्वतन्त्र इच्छा से एक ठहराव या इकरार 
( “०॥./३८( ) कर लिया । उस के द्वारा उन्होंने अपने में से ही कुछ को अपनी 
रक्षा का भार सौंप दिया, और उस के बदले में रक्षकों को वे कर देंने लगे और 
अपनी खतन्‍त्रता को थोडासा कम होजाने दिया । इस तरह रुशो ने यह दिखाया कि 


प्रजा की दुरवस्था । ७ 


शासन करने वाले सब पुरुष या संस्थायें समान की अपनी क्वति हैं, उन्हें समान जब 
चाहे बदल सक्ता है। साथ ही उसने यह मी बताया कि सब मनुण्य परस्पर समान तथा स्वतन्त्र 
हैं। रूशों के इन सिद्धान्तों ने क्रान्ति के होने में बडी सहायता दी । क्रान्ति का 
मूलमन्त्र 'स्वाधीनता, समानता, श्रातृता या मृत्यु! भी रूशो के ही दाशानिक विचारों 
का गुर था । 

इधर दाशनिक लोग सर्वतताधारण को इस प्रकार की शिक्षा दे रह थे और 
उधर राजा उस के दबारी तथा अन्य ठाकुरलोग आर क्रिश्चियनवर्म के पादरी 
अत्याचार अन्याय आर दुराचार के द्वारा उस शिक्षा रूपी आश्न में व्रत की आहुर्तिये 
डाल रहे थे | राजा के अधिकार, जैसा में ऊपर बता आया हूं, अनन्त होरहे थे, 
उन की कोई सीमा न थी । राजा की इच्छा के सामने कोई प्रतिबन्ध न था, वह स्वेथा 
म्वाधीन थी। प्रजा के प्राण सम्पात्ति ओर परिवार सबके सब राजा की स्वाधीन इच्छा पर 
अवलाबित थे । कर लगाने में भी राजा स्व॒तम्त्र था। दबार की सनावटके लिय,प्राय:प्रजा 
पर रोज ही कर लगा करते थे;दबा रियो, अय बंडे जमीरदारों, लार्डो तथा ठाकुरों का ओर भी 
बिगड़ा हुवा हाल था | उन ढोगों के बहुत से आधिकार छिन चुके थे, तथापि अपने इलाके 
में उन का आधिपत्य बेरोक टोंक था । जिस किसान को चाहें मारे, जिस को चाहें 
बहाल करदें, कोई उन्हें प्रतिबन्ध न था । इन परमात्मा के बिगड़े हुवे पुत्रों के शिकार 
खेलने में रोक न हो, इसालिये किसान लोग अपने खेतों के चारों ओर बाड़ न लगा सक्ते 
थे। उन बेचारों को खाने के लिये तो एक समय भी मश्िकिल से मिलता था किन्तु जमीन्दार 
छोग जब चाहते पुल ओर सड़कों पर भी कर छगाकर जो कुछ उन के पास था उसे भी 
क्ीनने का यत्ष करते थे। राजा को अधिकार थाके वह जब चाहे निम मनुष्य के नाम कैद 
की आज्ञा निकाल कर उसे बिना अभियोग के कैद कर सक्ता था।छाड लोग राजा को 
प्रसन्न कर के उस के इस अधिकार का भी पुरा छाभ उठाते थे । क्रिश्वियनघर्म के 
धरमौधिकारियों का भी बड़ा बिगड़ा हुवा हाछू था । वे छोग घमोाधिकारी या पादरी तो 
नाम के ही थे, उन का मुख्य कार्य छोगों सेघम के नामपर आयका दशांशलेकर 
उसे अपने उपभोग में ख़चे करना था। वे छोग, सर्वेप्ाधारण में सुख की जगह दुःख 
का प्रचार करने वाले थे | इस सब पर भी अनोखी बात यह थी के सारा का सारा 
राजकीय कर निचली श्राणे के छोगों से लिया जाता था, छा छोग और धमाथिकारी 
लोग उन से छूटे हुवे थे । 


परमात्मा की सष्टि में उसी के पुत्रों परऐसा अत्याचार होता रहे, यह सम्मव नहीं। 


८ नेपोलियन बोनापार्ट | 


अत्याचार की भी कोई हद होनी चाहिये । बेहद अत्याचार क्रान्ति उत्पन्न किये 
विना नहीं रह सक्ता । आप फुटबाल में हवा भरते जाइये, वह फूलता जायगा और 
हवा उस के अन्दर दबती जायगी । किन्तु कोई अवधि आयगी जनिम्त के आगे हवा उस 
के अन्दर ओर नहीं दब सकेगी । अगर दबाने का आप यत्न करेंगे तो फुटबाल का 
चमड़ा फट जायगा। वायु का दबने का धर्म छुप जायगा और दबाने का धर्म प्रादुर्भूत 
होनायगा । यही मनुष्य प्रकृति की अवस्था है। आप मनुष्य पर अत्याचार कीजिये, 
वह बहुत देर तक उसे सह सक्ता है। किन्तु उस सकने की भी कोई अवधि है । 
उस के आगे यदि आप अत्याचार करेंगे तो वह सकने की सीमा से निकल जायगा 
और मनुष्य की दबने की प्रकृति की जगह उस की दबाने की भयानक शक्ति आप 
के सामने आकर उपस्थित होगी। उस समय हम कह सकेंगे कि अब उस मनृष्य में 
क्रान्ति होगई है । 
यही अवस्था थी जब फ्रांस में क्रान्ति की अश्नि, अत्याचारों की प्रताहु- 
तियो से बढ़ाई जाकर, ओर स्वतन्त्रता पूर्ण दाशानिक विचाररूपी पवन के झोको से 
फैलाई भाकर, सारे योरूप की आंखों को चौंधियाने के लिये तथ्यार हुवी । 


द्वितीय परिच्छेद । 





राज्यक्रान्ति का फूट पड़ना । 


कन्तगेघ: प्रगुणितरयः कन वा वारणीय: ! 


भने प्रथम परिच्छेद में बताया था कि मनुप्य की सहन शक्ति कभी असीम नहीं 
हा सक्ती, उस का कहीं न कहीं अन्त होनाता है। उस अन्त के पहुंचनाने पर, 
उस सीमा के पार हो जाने पर, या ता वह मरृप्य मर जायगा, या उस व्याधि के दूर 
करने की चेष्टा करेगा | यदि उसे कोई ऐसा अच्छा वद्य मिल गया, जिस ने रोग के स्वरूप 
ओर निदान को ठोक २ जान कर औषध का प्रयोग किया तो रोगी की चेष्टा सफल 
हो जायगी, ओर यदि दुभभाग्यवश ऐसा वेद्य उसे न मिलना तो हन्त ! उस का रोग 
ओर भी प्रबल हो कर उसे अशक्त कर देगा और नजाने कितने भविष्यत्‌ वर्षी के 
लिये उसे चारपाह का अतिथि बना जायगा । 

जो मनृप्य की दशा है वही राप्ट्र की भी ममझनी चाहिये । राष्ट्रों के भी अपने 
रोग होते हैं, जिन से वह समय २ पर पीड़ित होते रहते हैं। वतेमान काल के 
राजनैतिक विचारके की यह सिद्ध करने की ओर बड़ी प्रबल चेष्टा हो रही है कि राष्ट्‌ 
एक 'देह' के समान “अंगी' है । अरगों में विकार हो जाने से अगी रोगग्रस्त होता 
है, राप्ट्र भी अपने अंगों के बिगड़ने से ही बीमार पड़ता है । 

जिस समय का यहां वर्णन होरहा है, उस समय फ्रांसंदेशीय राप्ट्र बीमारी की 
हालत में था, वह सर्वथा स्वस्थ न था । चारों तरफ फेले हुवे आक्रन्दन ओर 
प्रतिनाद, दूर २ देशों तक उस रोगी की रुग्ण दशा को प्रकाशित कर रहे थे। जिन 
अन्य देशों के यात्रियों ने उस समय फ्रांस को देखा, उन्हों ने मुक्तकण्ठसे यही कहा कि 
जल्दी या देर में-फ्रांस में तूफान अवश्य आने वाला है!। फ्रांसीसी राष्टू के अंग वि- 
कार युक्त होगये थे, उन में कीड़े छग गये थे । उसे उस समय एक ऐसे वेद्य की 
आक्श्यकता थी जो उस के रोग को पहिचाने और उस का इलाज करे । वह वेद्य 
आया, वह क्रान्तिरूपी वैद्य फ्रांस देश को रोगमुक्त करने के लिये बड़े जोर शोर से 


१० नैपोलियन बोनापार्ट | 


आया, ओर उस ने उस के विकृत अगों की ऐसी सुन्दर काट छांट की कि उसे देख 
कर संसार चाकत हारहा है। जब वह काट छांट हो रही थी तब सारा संसार उस व्यय को 
धिकारता था, कोसता था, कापुरुषों की न्‍्याई उसे क्रूर कहता था । परन्तु अच्छा वैद्य 
वही कहाता है जो अपने कार्य्य के समय सारे संसार को भूल जाय आर केवल उप 
रोगी के रोग पर ही ध्यान रखे | क्रान्ति ने भी किसी की एक न सुनी, उस ने 
अपना कार्य्य जारी रखा ओर अन्त में यद्यपि फ्रांसीसी राष्ट्र उस चीर फाड़ की क्रिया 
से कुछ कमजोर होगया, परन्तु इस में मन्देह नहीं कि वह नीरोग भी होगया, उस के 
विकार नो उसे रोगी कर रह थ नष्ट हागये । 

और वे विकृषत अंग कौन से थे ? विना पिझकने के सीधा जवाब यह है-'राजा, 
बड़े बढ छाड ओर पादरी छोग ही फ्रांसीमी राष्ट्र के विक्ततअंग थे'। क्रान्ति का कास्ये 
उन्हें ही काट देना था, वह होाजान पर क्रान्तिवंध कृतकृत्य हो कर फ्रांस को 
छोंड कर चछा गया । 

मेने ऊपर कहा के उस समय फ्रांस की ऐमी अन्तदाहसुक्त दशा थी कि जो 
कोई भी यात्री वहां आया उस न यही कहा के जल्दी में या देर में-फ्रांस में तृफान 
अवश्य आने वाला है। यही नहीं, फ्रांस के अन्दर भी ऐसे लोग विद्यमान थ जो इम 
भविष्यद्राणी को कह रहे थ । यहां तक कि, दुराचारी छग्पट ओर नि पन्द्वहवां 
ज्यूड भी जाता हुवा कह गया कि हमारे पीछे जलविप्लव होगा! । वह वर्ष 
१७७४ ३० था जिस में इस जल तिप्ल्व के उठाने वाले मनुष्य ने इस व्थिवी पर से 
अपने कऋलंक्ित शरीर का भार उठा लिया । 

ग़ज्यभार मोलहवे ल्यूइ के जवान कन्धों पर पड़ा। जिस समय उस का राज्याभिषेक 
गरहा था, उसी समय दूर से आते हुव विपत्तियों के घोर बादल का गजन उसके कानों 
में पढ़ रहा था। उस ने भयर्भात होकर अपने महायकों को दढूँढने के लिये चारो ओर 
देष्टि दोंडाई, किन्तु उस ने देखा कि इस ६थ्वरी पर कोई ऐसी शाक्ति नहींजो उस आते 
हुवे तूफान से उसे बचा सके, ओर क्रान्तरूपी वंद्य के ती८ण छुरे से उस्त की रक्षा 
कर मक्रे । उस समय वह घबरा गया ओर उस के मुंह से ये शब्द निकल पढ़े,- 
'परमात्मन्‌ ! तुम हमारे रक्षक ओर रहवर बनो, हम अभी इतने जवान हैं कि शासन 
नहीं कर सक्ते! | इंख्र ने इस प्राथना को सुनकर भी अनसुना कर दिया, क्‍यों कि उस 
के अठछ नियम के सामने एक व्यक्ति की प्रार्थना कुछ नहीं करसक्ती । 

सोलहवां ल्यूईं, यदि इस क्रान्ति के समय में उत्पन्न न होता तो शायद संप्तार के 


साधारण रानसभा । ११ 


सर्वोत्तम राजाओं में एक गिना जाता । सदाचारी, मितन्ययी, प्रमाहित को चाहने 
वाला, दयादे हुदय, म्नेही-इस प्रकार का सोलहवां ल्यूई था । ये सब गुण 
साधारण समय में एक राजा को बड़ा उत्तम बना मक्ते हैं, किन्तु क्रान्ति के 
समय में ऐसे राजा कुछ नहीं कर सक्ते । वे देखते हैं कि उन के नीचे से 
सिंहासन खिसक रहा है किन्तु वे हिलने में असमर्थ होते हैं | ऐसे समयों के लिये 
ऐसे राजा की आवश्यकता होती है जो या तो बड़े कठोर दबाव से क्रान्ति को कुचल 
सके, या बड़ी प्रबल मानामक शक्ति से क्रान्ति का पथदशक वन जांवे। ये दाना ही गुण 
इस राजा में न थे । वह कठोरता न कर सक्ता था, ओर उम की मानापिकशाक्ति बड़ी 
नि्बंट थी । वह झट ही किसी दूसरे के कहने में आ जाता था ! 


उस ने राजा बनते हो देखा कि देश की आंथक दशा बड़ी बिगड़ 
रही हे । राजकोष खाढछी पड़ा हैँ। इमका प्रदीकार करने के लिये उसने कई योग्य 
योग्य मनुष्यों को अपना मुख्य मन्त्री बनाया, किन्तु कोई भी उस दशा को न सुधार सका। 
उसने क्ृपापात्र श्रेणि के पुरुषों की एक मभा बुलाई, बड़े २ छाड़ उसमें आय, उन 
से राजा ने धन सन्बन्धी सहायता मांगी, लेकिन उन क्ृतन्नों की ओर से सृखा जवाब 
मिला, किसी ने एक कार्नी काडी देने की कृपा न की । तब ते! ठ्ञ होकर राजा ने 
एक 'साधारण राज समा' बुलाई, जिसमे छार्टों ओर पादरियों के आतिरिक्त 
साधारण के भी प्रतिनिधि बुठाये गये ! यह मभा फ्रांस के राजाओं द्वारा पहले भी 
समय २ पर बुलाई जाती रही थी,किन्तु यह एक विशेष समय था| चिरकाल के अत्या- 
चारों, नये दाशनिक विचारों आर सावदाशिक ऋान्ति के मिद्धान्तों से प्रभावत फ्रांस 
की मध्यम अभ्रणि की शिक्षित प्रजा ने यह एक अच्छा अवसर हाथ पाया | उस समा 
में लार्डों ऑर पादरियों के तीन२सो, किन्तु सर्वसाधारण के छम्ी प्रातिनिधि आने को 4। 
इस सभा का बुलाना मानों अत्याचारों से पीड़ित होकर शब्बर चछाने की 
इच्छा रखने वालों के हाथ म॑ सर शस्त्र दे देना था। सत्र माधारण को ज्यों ही 
अपनी शिकायतें सुनाने का अवमर मिला त्यों ही उन्‍्हों ने उस अवमर को हाथ से 
न खोने की मन में ठानीं । 


१७८९, इंस्वी के मई मास की पद्चम प्रविष्टा के दिन 'साधारण राज सभा' की 
बैठक प्रारम्भ हुईं । प्रारम्भ में ही 'कृपापात्र श्रेणि के लोगों! (पादरियों ओर छा्डों ) 
से सर्व स्ताधारण के प्रतिनिधियों का झगड़ा शुरू होगया । कृपा पात्र लोग चाहते थे 


१२ नेपोलियन बोनापार्ट । 


कि तीनों श्रेणियों के छोग हर एक प्रश्न पर पृथक २ स्थानों में विचार 
करें | तीनों के एथक्‌ २ निश्चय से जो परिणाम निकले उनमे देखा 
जाय कि दो श्राणियं क्या चाहती हैं ? जो वे चाहे वही हो और एक 
श्रेणिका अल्प मत नमाना जाय । किन्तु सवेसाधारण इस तरीके को ठोक न समझेत 
थे।वे चाहते थे कि तीनों श्रेणियों के प्रतिनिधि एक ही जगह विचार करें, ओर जिस 
पक्ष में सारों में से अधिक प्रतिनिधि हो वही पक्ष स्वीकार किया जाय । क्ृपापात्र 
लोग सर्वसाधारण के संख्याबहुत्व का लाभ उड़ाना चाहते थे ओर स्व साधारण 
उसे रखना चाहते थे । विवाद यहां से उठा और परिणाम यह निकव्ण कि सब साथा- 
रण के प्रतिनिधियों ने तंग आकर अपने आपको ही साधारण राज सभा! की जगह 
राष्ट्रीय' परिषद्‌ में परिणत किया और समस्त राज्य का प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया। 
कृपापात्र श्रेणियों के कहे ओर लोग भी 'राष्ट्रीय परिषद्‌' में आ शामिल हुवे । 

राजा तथा उसके आगे पीछे चलनेवाके क्ृपापात्र, 'साधारण राज सभा' के इस 
साहापिक आक्रमण पर बड़ी त्रबराहट में पढ़े । राजा ने राष्ट्रीय परिषद' का राजकीय भवन 
में होना बन्द कर दिया । किन्तु राष्ट्रीयपरिपद्‌ , विश्वास तथा चस्य के साथ एकटेनिस- 
कोट में मिली, सब प्रतिनिधियों ने खड़े होकर प्रतिज्ञा की कि जब तक वे फ्रांस 
की राजकीय संस्था को सुधार न लेंगे कमी भी एक दूसेर से जुदा न होंगे । 
इधर 'राष्ट्रीय परिषद' में यह हो रहा था ओर उबर पेरिस में कुछ ओर ही 
गुल खिल रहे थे। पारस के लोगों ने जब सुना कि राजा में तथा परिषद्‌ में विरोध 
चल रहा है, ओर राजा परिषद से तंग आकर अपनी रक्षार्थ बहुत सी सेनाये अपने 
चारों ओर एकत्रित कर रहा ह, तब उन्हें अपनी जान का भी खतरा पड़ा । उन्हें 
डर हुवा कि कहीं इस एकत्रित सेना द्वारा राजा पेरिस तथा परिषद्‌ को दबाने का कार्य 
न प्रारम्म करे । इस विचार के साथ जितने मुंह उतनी बातें होने लगी । एकने कहा 
कि आज रात को राजा की सेना पेरिस और परिषद्‌ पर धावा करेगी, दूसरे ने इस में ओर 
मिलाकर इस बात को तीसरे से कहा कि रात को परिषद के सब प्रतिनिधि केद किये 
जांयगे । इस प्रकार के मन्देह डर तथा अविधास के समय में, पोरिस में शान्ति स्था- 
पनाके लिये उसके प्रधान प्रधान जन नेताओं ने एक सर्मिति बनाठी ओर उसको 'क्रान्तीय 
नगर प्रबन्धकर्नी! सभा के नाम से पुकारा गया। वह वहां शान्ति तथा रक्षा का काम 
करने लगी । उसके नीचे काम करने के लिये नगरस्थ देश भक्तों ने अपनी एक सेना भी 
तय्यार करही और इसका नाम 'ाष्ट्ररक्षकसेना! हुवा । इस प्रकार, इन दो ऐसी 


बेस्टाईंल का ध्वप्त । १३ 


संस्थाओं की बुनियाद स्वयमेव पड़ गईं, जिन से सारी क्रान्ति में एक बड़ा भारी 
काय्ये किया जाने को था । 

दुभाग्यवश उस माल फ़ूंस में अन्न भी थोड़ा ही हुवा; कुछ देव का कोप 
रहा; कुछ लोग राजनैतिक झगडों में पड़े रहने से ठोक तौर पर खेती बाड़ी का 
काम न कर सके । इस का परिणाम यह हुवा के अन्न का टोटा पड़ने लगा । 
पोरिंस को इसका प्रभाव विशेषतया अनुभूत हुवा क्योंकि इधर उधर के भी बहुत से 
लोग अन्न की कमी से वहीं आ कर आश्रय लेने रंगे। लेकिन उन्हें खाने को 
कॉन दे ? वे परिषद्‌ में जाकर चिल्ाये, उन्होंने नगरप्रबन्धकर्त्री सभा में फयोद की, पर 
उन्हें कोई अन्न कहां से निकाल कर दे! एकाएक अशान्त जन समूह में शोर मच गया 
कि हमार लिये अन्न का प्रबन्ध करने वाली राष्ट्रीयपरिषद्‌ की जिसने एकत्रित करने 
की माह दी थी, राजा का वह मन्ली “ नेकरः पदच्युत कर दिया गया है; इस शोर 
ने जलती हुवी आग में आहुति डाल दी। हरएक आदमी के मन में यही आया कि 
उस समय वह किसी तरह इस चेष्टा का बदला निकाले । सब के मनों में जोश भरा 
देख, एक दिलचल ने चिल्ला कर कहा कि आज उस राजकीय महादुग का ध्वेस क- 
रना चाहिये, जिस में राजा कैदियों को स्वेच्छया बीसों बरसों तक केद 
रखता है | उस महादुर्ग का नाम ' बैस्टाइंठ ” था । बेस्टाइंह नाम ने बिजली की 
तरह मत्र लोगों पर असर कियां और जुछाई की चौदहवीं प्रविष्टा के दिन, तीस चालीस 
हज़ार आदमी उस पुराने तापों से सुरक्षित दुगे पर उमड़ पड़ । दुर्ग ले लिया गया, 
उमरका प्रबन्धकर्तो मारा गया, और वह बेलगाम खल्कत, राजा की शक्ति के सब से 
बड़े निशान की द्ववारें पृथ्वी पर 'बिछा कर पोरिस को छोट आई । 


जब इस प्रकार, जनसमूह ने अपना बाहुबल दिखाया, तब राजा तथा राजक्ृपा- 
पात्र श्रागि के लोग ( लाड़े तथा पादरी ) चिन्ता में पड़े । राजा ने सव साधारण के 
शान्त करने का अन्य उपाय न देख कर लार्डों तथा पादरियों को आज्ञा दी |फिवे 
भी राष्ट्रीय परिषद में जा मिले । इस चेष्टा से उसने समझा कि उसने अपने 
पिर पर से बला टाल दी । उधर छार्ड तथा पादरी भी जानते थे कि कुछ कारगुजारी 
दिखाये बिना अब जनसमूह से पीछा नहीं छूट सक्ता । उन्होंने भी राष्ट्रीयपरिषद में 
खड़े हो हो कर अपने परम्परागत भूमेकर तथा दशांश सम्बन्धी अधिकार छोड़ने 
शुरू किये । उस दिन अगस्त की चौथी प्रविष्टा थी । एक राजा को छोड़ कर, उप्त दिन 
की परिषद्‌ ने, ओर सब फांस निवासियों को एक ही तल पर छा रक़्खा। यह क्रान्ति 


१४ नेपोलियन बोनापार्ट । 


का प्रथम महाविजय था । इस महाविज्य के बाईस दिन पीछे परिषद्‌ ने मनुष्य के 
अधिकारों का आघोषणापतन्र प्रकाशित किया, जिस के द्वारा सब्च मनृष्यों की समानता 
तथा स्वतन्त्रता स्वीकार की गई और साथ ही यह भी बतलाया गया कि वास्तविक राज 
शक्ति का केन्द्र राष्ट्र में होना चाहिये-किसी व्यक्ति विशेष में नहीं । अतण्व 
राजनियम, राष्ट्र की सम्मति के प्रकाश के [पिवा और कुछ नहीं हो सकते । 

परिषद्‌ में यह सब कुछ हो रहा था किन्तु भूखा पेरिस रोटी के लिये तरस 
रहा था । जब भूख लोगों ने देखा कि हमें ओर कहीं से अन्न की आश्ञा नहीं रही 
तब वे भूख कुत्तों की न्‍्याई राजा के महत्ये पर टूट पड़े । राजा की सारी रक्षा को 
पददालठित कर के वे सीधे राजा के पास पहुच आर उमर को परिवार सहित गाड़ी में बिठा 
कर पोरिस में ले आये। जन समूह की इस साहमिक चेष्टा से फांस के राजा का राजसिहासन 
एक दम डांवाडोल हो गया | खछकन की इस साहासिक चेष्टा को सुन कर सब क्रपापात्र- 
श्राणि के लोग एक दम स्तम्मित हो गये । वे छोग एक दम इरगश । जब उनका 
आश्रय ही उनके पास से चत्य गया, तोब फ्रांस में क्रिस आमरे पर रहते ! बस, छाड ओर 
पादरी जोक दर मोक फांस की हद को पार करने लढंगे। सत्र को अपनी जान बचाने का 
फिक्र पड़ गया, जिसे जिधर रास्ता मिला वह उधर ही भाग निकला । परिषद ने 
भी ऐसे मौके का हाथ से न जान दिया। च्च की सारी जमीन, जो पहले पादारयों के 
अधिकार में थी, राष्ट्र के आधिपत्य में छ ली गंढ। आर बचे हुव स्वृतन्त्र विचारक पाद- 
रियो के गुजारे के लिये रानकाप से प्रबन्ध कर दिया गया । जो छाई लोग भाग गये 
थ, उनकी सम्पत्ति भी राप्ट्र की सम्पत्ति में मिला छी गई । 

इन सत्र छोटे २ परिणामा के पछझ आखिर / १७९१ ) सितम्बर की १४ वीं 
प्राविष्टा के दिन राष्ट्रीय परिषद्‌ ने फांस देश की सम्पूर्ण रानकीय संस्था बना कर 
प्रकाशित की । इस नई संस्था के अज॒मार, राजा यद्यपि देश का प्रधान शासक रहा 
तथापि एक नियामक परिपद्‌ बनाई गईं जो सारे राजनियर्मों के बनाने वाढी तथा सबे- 
साधारण की सम्मति को प्रकाशित करने वारढी थी। इस नई संस्था को बना कर 
क्रांति की नेत्री राष्ट्रीय परिषद्‌ टूट गई | ओर यहीं तक पर फांस की राज्य क्रांति की 
पूव पीठिका समाप्त होती है । 


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ततलीय-परिच्छेद । 


ब्च्टः5- जज. 


प्रीषण-हत्या-काण्ड । 








विनिकश्रष्टानां भवरति विनिषातः शतमुख्य: । हरिः । 


पुरानी राप्ट्रीय परिषद समाप्त हुवी आर नह नियामकपरिषद्‌ ने अपना काय्य प्रारम्भ 
किया । नह संस्था में यह नियम कर दिया गया था कि नियामकपरिषद में 
राप्ट्रीयपरिषद के समासदों में से कोई न छिया जावे । इस हछिये, जब नियामक 
परिषद ने अपना कार्य्य शुरू किया तब वह नये विचारों से युक्त नॉजवानों से भरपृर 
थी | इन नोशीले नौजवानों के विचार भी दो ख्रोतों में बंटे हुव थे। एक तरह के 
विचार वाले तो नह संस्था के प्षपाती थ ओर चाहते थे कि फ्रांस का असली राज्य 
राजा ओर नियामकपरिषद के सम्मिलित अधिकार में रहे । दूसरी तरह के विचार 
वाल छोंग “गिरोण्डिस्ट' कहाते थे, ओर उन का मत था कि फ्रांस की शासन संस्था 
अमेरिका की न्याईं प्रजा के प्रतिनिधियों के अप्रातिहत अधिकारों मे युक्त होनी चाहिय, 
राजा के मुख्य रहने की कोई आवश्यकता नहीं | यद्यपि, इस प्रकार, इन दी दलों के वि- 
चारों में परस्पर बहुत कुछ मौलिक भेद विद्यमान थे, और अतएव आपस के जह्ढ के 
सामान पहले से ही परिषद्‌ में रक््ख हुवे थे तथापि आरम्भ २ में इन विचारमभेदो ने 
कोई स्पष्ट रूप धारण नहीं किया । इस का प्रथम कारण तो यह था कि घर में अथी 
ऋरान्ति के विरोधी ही इतने थे कि परिषद्‌ परस्पर के झगड़े से डरती थी । अभी तक 
बहुत से ऐसे छाडे फ्रांस के अन्दर विद्यमान थे जो राजा के लिये अपनी जान तक 
देने को तस्यार थे; राजा भी राजधानी में ही विद्यमान था। इस आन्तरिक शत्रुओं 
के डर के साथ, बाह्य आक्रमण का ओर भी प्रब्ठ डर मिला हुवा था । 

जिस क्षण से फ्रांस में राजाओं के अर्चित अत्याचारों के दलन करने वार्ली 
राज्यक्रान्ति का प्रारम्भ हुवा, सारे के सारे यूरोप के राज्यों के कान उसी क्षण से खेंडे 
होगये थे । अपने प्रभाव की रक्षा करने की इच्छा रखने वाले किन्तु भय से कांपते हुवे 
हृदयों से, वे इस सारे घटनाओं के क्रम का निर्रक्षण सावधानतापूवंक कर रहे थे। वे 
जानते थे कि फ्रांस में राजा का गिरजाना, यूरोप के सब सिहासनों के गिराने का 


१६ नेपोलियन बोनापार्ट । 


कारण होगा । वे ख़ब अच्छी तरह समझते थे कि एक देश में, प्रजा का राजा 
के प्राते विरोध यदि फलीभूत हो जाय तो अन्य देशों की प्रजा का उस क्रिया के लिये 
साहस कितना बढ़ जायगा । इस लिये वे सोलहर्वे ल्यूई की रक्षा से अपनी रक्षा, और 
उस के पराजय से अपना पराजय मानते थे । 


अब, जब कि राजा का पेरिस में केद होना प्रसिद्ध होगया, तो योरप भर के 
राजासैहासन हिल पड़ । आस्ट्रिया ने प्रशिया के साथ '्िछठ कर फ्रांस पर आक्रमण 
किया । परिषद्‌ ने भी (२० अप्रेल १७९२) इन दोनों शक्तियों के विरुद्ध युद्ध की 
आधोषणा देदी ओर लहाफेयट (-99)८५८) आदि वीर सेनापतियों को सेना सहित उन 
के साथ समरभूमे में मृठभेड़ करने के लिये प्रम्थित किया । परन्तु शुरू २ में फ्रांस 
की सेना अपने स्थान पर स्थिर न रह सकी और शत्रुओं के बड़े दल से पंदे पंदे हार 
खाती हुवी राजधानी की ओर को लोटने लगी । शत्रुओं के सेनापतियों का उत्साह 
इस विजय से बहुत बढ़ गया। अब फ्रांस को अपन चुंगल में दबा ममझकर, उन्होंने फांस 
के निवासियों का अपमान करना तथा ब्रोषणाओं द्वारा उन्हें धमकाना शुरू किया । 
उन्हें अपने घोषणा पत्रों में विजित जाति की तरह याद किया, ओर उन के नाम 
आज्ञायें निकालनी प्रारम्म की । गत्र युक्त व्यवहार ने प्रत्येक देशभक्त फ्रांसासी के 
नसों में एक प्रकार की रूह फूंक दी । एक विदेशी सेनापाति ! फ्रांसीसी राष्ट्र का 
अपमान करे ! यह फ्रांसीसियों द्वारा सह्य नहीं हो सक्ता था | उन का जोश उबल 
पडा, वे आपे से बाहिर हो गये, ओर इम जोश में अन्चे होकर उन्हों ने नो कुछ 
किया उसे याद कर शरीर के रोगंट खड़े होजाते हैं | सवंसाधारण लोगों ने यह देख 
कर कि वे शत्रुओं की सना का कुछ नहीं बिगाड़ सक्ते, अपना रोष शत्रुओं के 
आन्तरिक पक्षपातियों पर निकालन की ठानी । १० अगस्त ( १७९२ ) के दिन 
पोर्सि के बाजारों मे इकढ्ठ हुवे फ्रांस के सब प्रान्तों के लोगों के समूह ने मिल्ल कर 
राजा के निवासस्थान पर थावा किया । राजा के सारे रक्षक मारे गये, ओर राजा ने 
अपने आप को निराश्रय तथा अकेला पाकर, परिवारसाहित नियामकपरिषद्‌ के धर 
में शरण छी । परिषद्‌ न राजा को शरण तो दे दी, किन्तु उसे उस के अधिकारों से 
कुछ देर के लिये च्युत कर के बन्दीगृह में डा दिया और शासनसंस्था को फिर 
से बदलने के लिये देश के प्रतिनिधियों की एक विचारसभा बुलाई । इसी अन्तर 
में शत्रु राधधानी के ओर भी पास पहुंचगया; लोगोंका जोश दुगना होगया 
और वह क्रूरता नो आदमी में प्रायः जान पर आ बनने पर आजाती है, उन में आ- 


सेप्ेम्बर का सवेषध । १७9 


गई । उस समय सर्वसाधारण ने वह घोर पाप किया जिसे इतिहास सेसेम्बर के सवेवध 
के नाम से याद करता है। 

सेपतेम्बर का हत्याकांड राजनेतिक संसार के जीवन में एक बड़ा भारी रुधिर से 
भरा हुवा पब्बा है। उस में नोश से अन्धे हुंवे हुवे पारिस के ननममूह न वह घोर जनवात किया, 
निसे याद करके आज भी शरीर के रोंगटे खड़े होजाते हैं । उमर दिन की घटना ने 
यह भर्ती प्रकार से सिद्ध कर दिया कि साधारणयोग्यता वाले किन्तु सतेमाधारण को 
भड़कान की शक्ति रखने वाले छोग जितना बोर अत्याचार मंसार में कराना चाहें 
करा मक्ते हैँ । मारा नाम का एक पत्रसम्पादक, जिस की निह्या आग की शिखा 
आर हृदय एक बड़ी भट्टी के समान थे, परिस के छाोगों की उत्माहित करता फिरता 
था । सत्र कारागागे में से निकाल २ कर उस दिन कुठीन कंदियों के गले काटे गये । 
जिस पर जरा सन्देह हुवा, उस का सिर थड़ से ग्थक्र किया गया | कहते है इस 
बोर हत्याकांड में कम से कम १४ सो मनुष्यों का बंध किया गया। और यह प्षारा- 
वध किस के नाम पर किया गया ? ख्वतन्त्रतादेंबी के नाम पर ! स्वर्ग के नाम पर 
पशु वध इसी को कहते है । 

इस सेप्रेम्बर के हत्याकाण्ड ने न केवल फ्रांस में, अपितु मारे योरप में एक प्रकार 
की कंपकँपी फेला दी । विदेशी राज्यों के सिहासन जड़ में हिलने लग गये, विचारकों 
के दिल्ली में ऋत्ति में वणा उत्पन्न हो गई । फ्रांस में इस हत्या का परिणाम यह 
हुआ कि राजपक्षपानियों की सब चेष्टाये सवेथा दब गंट । उन छोगोीं की चि्त- 
वृत्तिय सतवेथा भयभीत हो गंई । चारों ओर बीभत्स रस का संच्रार हो गया । इसी 
बीभत्स रत को देंग्वकर, राष्ट्रीय शासक समिति के कई सभासदों को भी इस मब्र- 
राज्य से घ्रणा उत्पन्न होने लगी । 

इस बोर हत्याकांड के पश्चात्‌ देश की भाविनी राज्यसंन्ध को स्थिर करने 
के लिये एक राष्ट्रीयविचारमभा बुलाई गई । इस राष्ट्रीय तरिचारसभा को बुलाकर 
नियामक समिते समाप्त हो गई | विचार सभा २० सेंपेम्बर ( १७९२ ) के दिन 
स्थापित हुई ओर उस ने विचार प्रारम्भ किया | विचार के अनन्तर उस ने निश्चय 
किया कि फ्रांस में प्रमातन्त्र राज्य की स्थापना की जाय ओर एकतन्त्रराज्य को 
सवंधा उठा दिया जाय । जिस दिन इस प्रजातन्त्र राज्य की स्थापना हुई, उस दिन से 
नया वर्ष शुरू किया गया और उसे स्वतन्त्रता के प्रथम वर्ष के नाम से पुकारा गया । 


इतनी कार्य्यवाही करके, वह विचारसभा एक ओर घोर कार्य्य करने के लिये 


१८ नेपोलियन बोनापाटे | 


उद्यत हुई । फ्रांस के कैदी राजा ने बीच में एक बार कैद से निकल कर भाग जाने 
की चेष्टा की थी । किन्तु फ्रांस की भूमि छोड़ने के प्रथम ही, वह पकड़ लिया गया। 
उसे पोरिस में फिर से बंद किया गया । अब उस के भाग्यनिश्चय का समय आया । 
प्रथम प्रश्न यह उठा कि क्‍या यह राष्ट्रीय विचारसभा राजा के अपराध पर विचार 
कर सक्ती हे: विचार सभा ने स्वयं ही निश्चय कर लिया कि वह राजा पर मुकद्दमा चलाने 
का ओर फेसला देने का अधिकार रखती है । तब राजा को सभा में बुलाकर एक अपराधी 
की तरह खड़ा किया गया और .उस से कई एक प्रश्न किये गये। राजा ने तथा राजा के 
पक्षपाती वकीलों ने राजा को निरपराधी सिद्ध करने का भरपूर प्रयत्ञ किया । उन्हों ने 
न्याय ओर मनुप्यता के नाम पर सभा से अपील की । किन्तु वह विचारसमा, 
साधारणसम्मति के अत्याचार का नमूना थी | वह मनुप्यता या न्याय का नाम ही 
न जानती थी । वह जानती थी कि राज्य की रक्षा के साथ उस की मृत्यु बँधी हुईं 
है। अतः उस सभा ने एक रूम्बे विवाद के पश्चात्‌ राजा को फांसी चढ़ाये जाने का 
हुक्म दिया । तदरुसार, इस से किन्तु निबेछ राजा सोलह ल्यूहे का दुःखमय 
अन्त हुवा । | 

समेम्बर के हत्याक्राइ का दृश्य देखकर भी यदि कुछ विचारशील लोग ऋान्ति 
के पक्षपाती रह गय थे, तो राजा का वध सुनकर उन के भी दिल घ्रणा से उन 
गये । इस बोमभत्सकृत्य की लीछा को देग्व कर, प्रत्येक दयायक्त मनृप्य का हृदय 
घुणायुक्त हा गया | अनन्त काल से स्थिर हुई राजशक्ति की चिता को फ्रांसरूपी 
इमशान नाम मे मस्मीभूत होता हुआ देखकर, सारे यूरप के सम्रारों के.दिल दहल 
गये । फ्रांस को चारदीवारी के बाहिर क्रान्ति के पक्षपाती दोचार ही रह गये । 
भांगे हुए छार्ड तथा ठाकुर लोगों ने इस अवसर को देवलब्ध समझ कर राजाओं को 
क्रान्ति के उमन करने के लिये प्रोत्साहित करना, तथा सेना इकट्ठा करना प्रारम्भ 
किया । इंग्लण्ड, प्रशिया, आस्ट्रिया ओर अन्य कई छोंटे राज्यों की सरकारों ने मिल 
कर फ्रांस की राजधानी पेरिस को अपने वश में करने, ओर क्रान्ति की मृत्युदुन्दुमि 
बजाने का निश्चय क्रिया | इधर बाहिर वालों का क्रान्ति पर दबाव देख कर फ्रांस में 
रहने वाले राज पक्षपातियों ने भी कुछ कुछ सिर उठाना शुरू किया । 


बाहिर आर अन्दर-दोनों ओर से दबाये नाकर-क्रान्ति ने और भी भयानक रूप 


धारण किया । चारों तरफ से निराश हो कर-सब को शत्रु ही शत्रु पाकर-मनुप्य की 
जैसी “शरीरं वा पातयेयम-कार्य्य वा साधयेयम्‌ ” वाढी साहसिक हालत हो जाती 


राष्ट्र का क्रीच । १९, 


है-फ्रांस की क्रान्ति की भी उस समय वैसी ही हो गई । जब उसे अपनी जान के 
लाले पड़ गये, तब वह ओरो के रुघिर. की क्या कीमत समझने छगी ? इस लिये, 
चारों ओर से दबाव पड़ने पर, विचार-सभा (0०॥४८॥४०॥) ने दो उपसभायें बनाई । 
अन्दर के राजपक्षपातियों को दबाने के लियेएक क्रान्ति-न्यायाल्य ([२९०४०७(४०१४- 
79 0ए॥4)) और अन्य खुले शत्रुओं का सामना करनेके लिये छोकरक्षक-उपसभा 
((0०979॥6८ ० 7?200॥८ $409) बनाई गई । कऋरन्तिन्यायाल्य, न्यायालय काहे 
का था-वह तो यमाल्य था । पांच २ मिनट में वह एक २ दोषी के दोषों का 
निधोरण कर देता था । दोषी के आने पर जनों में से एक पृछता “ क्‍या तुम किसी 
कुलीन (3॥50८770 के पत्र हो ? ? वह उत्तर देता * हां ! | पर्ग्याप्त है' कहकर 
मुख्य जन कहता कि : फांसी दी जाय । अगढछा अपराधी छाया जाय ? और बस, 
उस बेचारे दोपी का भाग्यनिश्चय हो गया । एक २ दिन में सो २ कल्पितदोषियों 
को फांसी पर चढ़ाया जाता था । 


जब कोई राप्ट्‌ अन्चा हो जाता है, तब वह जिन अत्याचारा को कर सक्ता है, 
उपर्युक्त बीमत्सकीलाय उन के उदाहरणमात्र हैं । रा्टररूपी सिंह देर म॑ कुद्ध होता 
है; किन्तु जब वह क्रुद्ध हो जाता है, तब सारी पार्थिव ओर दिव्य शक्तिय मिल कर 
भी उसे शान्त नहीं कर सरक्ती । राप्ट्रूपी सिंह का नरुसाना ही अच्छा है, उंस 
शान्ति से अपनी उन्नाति करन देना ही भा है । एक बार भी उस की गति 
की रोकी-एक वार भी उस की प्राकृतिक चाल में बाधा डालो-ओर वह रुष्ट हो 
जायगा । राष्ट्री का रोप कोई छोटी मोटी घटना नहीं है । रोषयुक्त राष्ट्रों की 
अत्याचार तथा ओज से भरी हुईं चेष्टा के सामने, गगनभेदी पंत और दिगन्तविस्तारी 
समुद्र कुछ चीज्ञ नहीं । एक रुष्ट हुंवे हुवे राप्ट्‌ के,सामने सा मिले हुए देशों के राजा मी 
तृण के समान हैं-एक अकिंचन कोट के समान हैं। उस समय जो राष्ट्र के रोपरूपी 
अनल के सामन आया वहीं भस्मीभूत हुवा । 

सेंसेम्बर के हत्याकांड ओर राजवध के घोर कम्म से, कई विचारसभा के नता भी 
खिन्न होगये । वे भी इन अत्याचारों से घबरा गये। उन्हों ने इन अत्याचारों के तथा 
नये न्यायालय .ओर छोकरक्षक उपसभा के विरुद्ध शब्द उठाया । क्रोध से भरे हुए 
राष्ट्र ने और अंधे हुए हुए पेरिस के जनसमूह ने-और उन के प्रतिनिधि रोबस्प्येर 
आदि “क्रान्ति के गम नेताओं ने-इस नमेपार्ट की अपने स्थान से गिरा दिया । इस 
नर्म पार्टी के सारे नेता चुन २ कर फांसी चढ़ा दिये गये । अत्याचार पर तुले हुए 


२० नेपोलियन बोनापार्ट । 


राष्ट्र के सामने शान्ति की बात ! यह असम्भव था । नरम पार्दी ने, जिसे उस समय 
गिरौंड पार्टी कहा जाता था, असम्भव करने का यत्न किया ओर वे समाप्त होगये । 
किन्तु इस में दोषी कोन था ? इन हत्याओं का पाप किस के पिर चढ़ा ? निःसन्देह 
उन के पर, जिन के दबाव नेइस क्रान्ति को उत्पन्न किया तथा भ्रीषण रूप धारण 
कराया । 

नर्मपार्ट का घात कर के गमपार्टी ने अपना अबाधघ राज्य प्रारम्भ किया । 
सत्रसे प्रथम काय्य, जो गर्म विचारसभाने किया, रानी का बध था । रानी का बंध कर 
के, दूसरा काय्ये क्रिश्चियन धर्म का उड़ाना था । विचारसभा की आज्ञा से क्रिश्वियन 
मन्दिरों में से मूर्तिय उठा दी गईं | विचारसभान तो इतनाही किया, पारिस के जन 
समूह ने शेष काय्य समाप्त किया । पादरियों ने अपने २ पदत्याग कर दिये। 'पा- 
थत्र राजा के साथ स्वर्ग के राजा का भी क्षय होना चाहिये' यह नाद था जो चारों 
ओर फेक गया। और इस घटना-इस बातक घटना-के होने पर क्रान्ति का भयानकतम 
ओर नीचतम रूप प्रकट हो गया। जहां क्रिश्वियन देवों की पूजा होती थी, वहां 
तंकदेव स्वतन्त्रतादेवी ओर प्मानतादेवी की पूजा होने छगी। इन्हीं की मूर्तियं चारों 
ओर पजने लगी। 

गम विचारसभा का तीसरा कास्य चार सभा के उन सभ्यों का फांसी चढाना 

था जो कुछ कम गम थे, नो कुछ २ शालि की ओर झुक चल थे, आर जिन की 
मम्मति थी कि अब पग्याप्त हत्थायें हो चक्की, क्रानित रूपी काठी देवी की उदर 
पूर्ति के लिये काफी रुधिर बह चुका, अब शालनि होनी चादिये। इस सम विचार 
सभा में केवल अत्यन्त तीतप्रमोंगी सभासद्र ही दशष थे। जिन में ज़रा भी दया 
का केश था वे सब देशद्राही कह कर फांसी पर चढ़ा दिये गये । शाप सभासदों का 
नेता रोबस्प्यर था | जब सब प्रति द्ून्द्मी मरगंये तत्र उस ने अपना विजयदिन 
मनाया। उस की पोरिस में पूजा हुवी । उस ने अपने आप को फ्रांस का राजा ख्याल 
किया । 

“अत्याचारों की परा काष्ठा हो चुकी, अब शांति होनी चाहिये! | यह नाद था 
जो अब चारों ओर गूंजने लगा । कई एक भागों को छोड़ कर, सब स्थानों में शान्ति 
और स्थिरता के लिये इच्छा प्रकट होने लगी । मनृष्यप्रकृति आखिर मनृण्य प्रकृति 
ही है, वह सदा राक्षसप्रकृति का रूप धारण किये नहीं रह सकती । चारों ओर 
उल्टी लहर चलने लगी । क्रान्तिन्यायाल्य, लोकरक्षकसभा, और विचारसभा के गर्म 
नेता, लोगों में अप्रिय होने लगे । इस उल्टी लहर का प्रथम परिणाम यह हुवा कि 


शक 


प्रतिक्रान्ति । २१ 


गर्मों का नेता रोबर्प्येर भी उसी गातिको प्राप्त हुवा, निस को उससे पूर्व सैकड़ों छोग 
उसी के कारण प्राप्त हो चुके थे । उल्टी लहर का दूसरा पारणाम यह हुवा कि 
विचारसभा ने नई गवरनमेष्ट का एक ढांचा तय्यार किया, जिस में शासन कास्थ में 
लोकसत्ता का उतना असर न था, जितना पहले क्रान्तिसमय के ढांचों में होता 
था । इस नये ढांचे द्वारा शासन का मुख्य काय्य एक डायरटरी को सौंपा गया । 
उस के पांच समासद्‌ नियत हुव । उन की सहायता, तथा उन की शक्तियों के 
प्रतिबन्धार्थ दो ओर समभाएं बनाई गईं, जिन में से एक का नाम 'पांचसो की समिति! 
और दूसरी का नाम वृद्धों की समिति” रक्खा गया । इन दोनों सभाओं का सम्बन्ध 
ऐसा स्थिर किया गया, जिस द्वारा ये एक दूसरे का भी प्रतिबन्ध करें ओर डाय- 
रक्‍्टरी का भी | साथ ही, विचारसभान यह भी निश्चय कर दिया, कि नई नियमन्त्री 
प्रतिनिधि समा के दो तिहाई सभासद्‌ वे ही हो जो पहली नियन्त्रो समा के थे । 

इस नेये ढांचे की ध्रोषणा होते ही, फ्रांस के छोक समूह में आग लग 
गई । उन्होंने कहा कि यह विचारसमा भीपणक्राति का फिर से विस्तार करना 
चाहती है। नई नियामक सभा के दो तिहाई परान सभासद्‌ निश्चित कर के, विचार- 
सभा अत्याचारों को जारी रखना चाहती हे । 


इस बात के फेलेत ही पेरिस के जन समूह ने विचारसभा पर आक्रमण कर के 
उस का विष्वेस कर देने का विचार किया । पेरिस की बस्तियों के भी लोग इक्ट्ठे हो- 
गये। कोई ८०००० लोगों ने मिल कर विचारसभा के मकान पर आक्रमण प्रारग्भ 
किया । 


यह समाचार जब विचारसभा की मिला, तब उस में बड़ी खलबली मची । 
पहले तो सभासदू बहुत इर गये, किन्तु पीछे से उन्होंने निश्चय किया कि चाहे कुछ 
हो हम अपने स्थानों को न छोड़ेगे । सत्य के लिये प्राण भी जाये तो परवा नहीं । 
तब विचारसभा ने अपनी रक्षा के लिये सेनापाति को बुलाया, तथा सभा की सक्षार्थ 
सन्नद्ध होने के लियि कहा । सेनापति घबराया हुवा था । उस ने कहा, उसे यह 
विश्वास नहीं कि उस की सेना पेरिस के लोगों पर शस्त्र प्रहार करेगी, अतः वह उस 
का आश्रय नहीं ले सकता । हां एक साधन है, ओर वह यह कि में एक कोर्सिका के 
नवयुवां को जानता हूं, यदि वह इस समय विचारसभा की रक्षा के लिये तत्पर हो, 
तो कर सकता है। सिवाय उस के, इस भय से और कोई हमें नहीं बचासकता। 


२२ नेपोलियन बोनापार्ट । 


बह नवयुवा आया, उस ने विचार सभा की आज्ञा ढी और रक्षा का प्रण कर 
के चला गया । थोड़ी सी सेना तथा थोड़े से अछ्नों का सहाय्य लेकर, उसने 
८० हजार राजविद्रोहियों का सामना किया | उस की तोर्षों का निनाद चारों 
ओर गूज गया-ओर उस गूंज में से एक ही शब्द निकलता था और वह शब्द था- 
औ, 4 €्‌ 
संपोलियन बोनापाट । 
यह नवयुवक कौन था-इस का वृत्तान्त अगले पृष्ठों में पढ़िये । 





बालसूय्य का उदय । 


जन ि?७लमबब्ण > आती ऑजनअअकिनणा +3ज७- जिन जि जन 775 अनिन वजन पाया किन आज जता 5 जन जत++ 5 जि निज >> चित ल फजनाटणलाज ओिणललजणण 


प्रथम परिच्छेद । 


वुकममर+मममम9कम 5. 





शैेशव । 
मातमान्पितृमाना बार्य्यवान्पुरुपेी वेद । 


फ्रांस देश के इतिहास के स्नात को छोड कर, अब हम नेपोलियन के चरित का 
अनुशीलन प्रारम्भ करते हैं, जिस स उपस्युकत प्रकार सेहम परिचित हो चुके हैं । 
नेपोलियन के पूर्वपुरुषा कई पीढ़ियोंस कोर्सिका द्वीप के एनकियो नामक मुख्य नगर में 
निवास करते थे | पहल यह द्वीप इटलो के राज्य में था, किन्तु १७६७ में फ्रांस की 
सेना ने इस पर आक्रमण किया । प्रसिद्ध कोसिकन सेनापति पियोली ने दशणक्तों के एक बड़े 
जत्थे की सहायता से बहुत चेष्टा की कि वह फ्रांस के पंजे में न फंसे, परन्तु अन्त में फ्रांस की 
सेना का विजय हुवा ओर कोर्सिका में फ्रांस के तरीके का राज्य प्रचलित होगया | कुली- 
नो पादरियों और सर्व साधारण के प्रतिनिधियों की बनी हुवी प्रान्तीय शासन सभा उसे प्राप्त 
होगई, किन्तु वास्तविक राज्य बारह कुलीनपुरुषों को सौंपा गया | इस उच्च न्याया- 
लय का एक वकील था, जिस का नाम चालेस बोनापाट था । यह चालम, जोजफ 
बोनापार्ट के तीन लड़कों में सब्र से बड़ा लड़का था । चार्ूस बोनापाटे को अपने पिता 
से कुछ सम्पत्ति प्राप्त हुवी थी, परन्तु वह बहुत अधिक न थी। एक घर एनेकियों में 
ओर थोड़ी सी जमीन्दारी द्वीप के किनारे पर उसे मिली थी, जिन में से अन्तिम में 
वह गर्मी के दिनों में निवास करता था । 

जब वह उन्नीस बरस का था, उसी समय उस का लेटीशिया रोमिलिनो नाम की 
लड़की से विवाह होगया । लेटिशिया रोमिलिनो सारे कोर्मिका द्वीप की सौंदय्य की 
देवी थी, और जैसी ही वह सुन्दर थी वैसी ही घीर तथा बुद्धिमती भी थी। १७७९ 
में कुलीनों की समिति ने चालस को फ्रांस के राजदबार में अपनी ओर से प्रतिर्निधि 
निश्चित करके भेजा । कार्य्यवश चाल्स को बहुत वार फ्रांस की यात्रार्ये करनी 
पड़ती थी। यद्यपि उसे इन यात्राओं के लिये व्यय का एक बड़ा भाग राज्य की 
ओरे से प्राप्त होता था, तथापि वह न्यय इतना अधिक था कि उस के अवशिष्ट भार 


२६ नेपोलियन बोनापार्ट । 


से चाल्स की आर्थिक दशा बहुत खराब होगई । इसी दीन अवस्था में, (१७८५ 
में) उस का देहान्त होगया, जिस का कारण उदरगत फोड़ा कहा जाता था । चारुस 
की मृत्यु पर, उस के सब पुत्रों तथा उन की. माता का भार, चालुस के छोटे भाई 
ल्यूशियन बोनापार्ट के कन्घे पर पड़ा । वह एजकियों में मुख्य धर्माचार्य्य था । 

चाल्स बोनापार्ट मरता हुवा अपने पीछ पांच लड़कों ओर तीन रूड़कियों को 
छोड़ गया । सब से बड़े का नाम जोजफ था । दूसरा इस चरित का नायक नेपोलियन 
बोनापार्ट था । जिस समय नेपोलियन का जन्म हुवा, उस्त समय उस की माता रण्क्षेत्र 
में अपने पंति के साथ गई हुवी थी । वंहीं पर एक झोंपड़ी में लेटिशिया न नपोलियन 
की जन्म दिया | कहते हैं कि जिस समय नेपोलियन उत्पन्न हुवा, उस की 
माता ने एक चादर ओढदी हुवी थी जिस पर इलियड के युद्ध के चित्र थे । 
नेपोलियन ने इस प्रसार में श्वास छेते ही, यदि कुछ देखा तो युद्धसम्बन्धी 
चित्रों से चित्रित पट, ओर यदि कुछ मना तो युद्धक्षेत्र में तोपों का निनाद । 
जिस नेपोलियन का संसार में आगमन ही ऐसा हुवा था, उस का भविष्यत्‌ ख्वयमेतर 
अनुमित हो सक्ता है। 

नेपोलियन की माता एक आदर माता कहे जाने के योग्य थी । वह अपने 
बच्चों के लिये यथोचित कठोर और यथोचित मृदु थी। जैसी ताड़ना ओर जैसी ला- 
छना आठ्कों की करनी चाहिये, नेपोलियन की माता उन सब को ठीक २ जानती थी। 
जब नेपोलियन अपने गो के शिखर पर पहुंच चुका था, तब वह कहा करता था 
कि में जो कुछ बना हूं, अपनी मात्रा के किये ही बना हूं। उस की सम्मति थी 
कि “मनृष्य के बनाने में सब से बढ़ा भाग उस की माता का होता है! । इसी लिये 
हमारे प्राचीन ऋषियों ने मनुष्य के तीन शिक्षकों में से, सब से प्रथम पद माता का 
रखा हैं- 

'मातृमान्‌ पितृमान्‌ आचास्पेवान्‌ परुषों वेद 

माता चाहे तो अपने पुत्र को स्तन्‍्य के माथ ही सुगुणामृत का पान करा 
सक्ती है, ओर चाहे तो उसे दुर्गुणविष का घड़ा बना सक्ती है । नेपोलियन की 
माता ने उसे बाल्यावस्था से ही स्तन्य के साथ वीरोचित तथा महापृरुषोचित गुणों 
का पान करा दिया था । नेपोलियन के सब भाई बहिन भी, अपने जीवनों के अन्त 
तक अपनी माता की स्नेह किन्तु शिक्षा और ताड़नासे भरी हुवी दृष्टि को नहीं भूंले 
थे । नैपोडियन जब अभी छोटा था, तभी वह अपनी माता की गोद में बैठ कर युद्ध 


शेशव-शिक्षा | २७ 


और साहसिक कार्य्यों की कथाये सुना करता था । उस की माता, आपबीती घट- 
नाओं के सुनाने में खूब प्रवीण थी। पयोली की अध्यक्षता में वह अपने पति के साथ 
रणक्षेत्र में बूमती थी, उस ने संग्राम की कालीदेवी की बहुत सी खेलें देखीं थीं। 
जब वह उन सब कथाओं को क्रमशः अपने पत्रों में से योग्यतम पृत्र को सुनाती, 
तब वह आंखों में आंमू भरे हंवे बड़े ही मनोयोग के साथ उन्हें सुनता । कोई उस 
समय नहीं कह मक्ता था किवे आंसू मच है या झूठे ? किन्तु नेपोलियन का हृदय 
बाल्यावस्था से ही बड़ा अनुभावी था। वह अनुभव करना जानता था ओर इन्हीं अनु- 
भवों ने उस के जीवन को एसे ढांचे में ढाल दिया कि उसे देख कर आज सारा 
संसार चकित होरहा हैं। 

नेपोलियन शशव अवस्था में बढ़ा चुप चाप रहता था । उसे खेलने कूदने से 
विशेष प्रेम न था | जब उस के ओर मब भाई बहिन हरे घराससे शोमित मदान में 
आंखमिचानी खलते, तब वह कहीं एकान्त में एक पत्थर पर बैठ कर कुछ मन ही 
मन में सोचा करता या मसमृद्र के तट पर बेठ कर उस की उठती गिरती हुवी 
लहरों का निरीक्षण किया करता | उस का प्रमिद्ध खिलोना एक पीतल की छोटी सी 
तोप थी। जब कर्मी उसे अपन मन के साथ बात चीठ करने से अवकाश मिलना, तत्र 
वह इस तोप के साथ खा करता था | 


पहले से ही नंपोलियन का स्वभाव बहुत चिड़चिड़ा था। बहुत शीघ्र ही उसे 
क्राध आजाता था | साथ ही वह मानी भी था । वह क्रिसी का प्रतिबन्ध नहीं सह 
सक्ता था । एक वार निरपराध ही उम्र उस की माता ने कुछ दण्ड दिया । नंपोलि- 
यन ने उस समय अपनी वकाल्‍रूत नहीं की | चुपके से वह दण्ड सह लिया ।ै पीछे से 
भी बराबर तीन रोम कुछ खाये पिये बिना ही तिता दिये। तब उस की माता को 
पता लगा कि वह निरपराधी था। उस ने अपने पृत्र को प्यार देकर मना लिया और 
नेपोलियन ने तब खाना पीना शुरू किया । 

छोटी अवस्था में, नेपोलियन की एक कन्यापाठशाल् में प्रविष्ट किया गया | फिर 
वहां से वह ब्रीने की पाठशाला में पढ़ता रहा । नेपोलियन का विद्यार्थिनीवन आदर्श 
था । वह जो कुछ करता था, उस में सर्वोत्तम रहना उस का स्वभाव था। वह यह नहीं 
सह सकता था के श्रेणी में कोई उस से आगे रहे। वह आराम के समय भी पढ़ता था, 
रात को भी बहुत कम स्ोता था और दिन का पाठ याद्‌ करता था। इस का परिणाम 


२८ नेपोलियन बोनापार्ट | 


यह हुवा कि वह अपनी श्रेणी में प्रायः प्रथम रहता था । उसे विशेष प्रेम गणित इति- 
हास और भूगोल से था।ये तीनो विद्याएं उस के भविष्यत्‌ जीवन में विशेषतया काम 
आने वाली थीं। यह गणित का ही प्रभाव था कि वह अपने प्रथुविस्तार वाले साम्राज्य 
का धनसम्बन्धा॑ प्रबन्ध करवद्रवत्‌ रखता था। इतिहास के अनुशीलनने ही उसे इस 
योग्य बनाया था कि वह इतिहास बनासके; और भूगोलके अध्ययतका तो कहना ही 
क्या है ! युद्ध के समय में शन्न॒ के देश में जाकर वह ऐसे युद्धोपयोगी स्थान निकाल 
लेता था, जिन्हें शत्र स्वये भी नहीं जान सकता था | एक बंडे भारी युद्धविद्या- 
विज्ञ की सम्माति है कि नेपोलियन की सांग्रामिक गुरुता का कारण उस का अगाघ 
भीगोलिक ज्ञान ही था । ह 

१७८९ में फ्रांस उस कूान्ति रूपी आंधी से घिर गया, जिस का वृत्तान्त 
पहले परिच्छेदों में आचुका है। उस समय नेपोलियन प्रांस को छोड कर अपनी जन्‍्म- 
भूमि कोर्सिका में ही आगया । वह ओर उस के सब भाई क्रान्ति के बड़े भारी 
पक्षपाती थे । नपोल्यिन का छोटा भाई ल्यूशियन क्रांति का वक्ता' प्रसिद्ध था । 
वह अपनी जन्‍्मभूमि में क्रांतिविषयक वक्त॒तार्थे खूब दिया करता था । १७९२ में 
कोर्सिका के राष्ट्रीय दल का नेता पियोली इंग्लेंड से लोटकर वहां पर आया । 
कोर्सिकावासी पियोछी की गुरु तथा देव के समान पुजा करते थे । नेपोलियन और 
उस के भाई भी उस के बड़े भक्त थे। कोर्सिका के पावतीय लोग विशेषदया उस 
से प्रेम रखते थे । अतः, पियोढी के आने पर कोर्सिका में खूब खुशिय मनाई गई । 

किन्तु कुछ ही दिनों में वे खशिय कुछ कम रह गंई । फांस में, वहां के राजा 
१६ वें ल्यूई के फांसी चढ़ाये जाने का समाचार चारों ओर फेल गया । किसी ने 
उसे प्रसन्नता से सुना ओर किसी ने शोक से । पियोली दूसरी तरह के मनुष्यों में से 
था। उसेने इस समाचार को सुनते ही बड़ा भारी रोष प्रकट किया ओर कहा 
के फांस के अत्याचारों के नीचे रहने की अपेक्षा वह इंग्लेड के नीचे आना 
अच्छा समझता है | पियोढी उस तरह के विचारकों में से था, नो इंग्लैंड की शासन- 
प्रथा को सर्वोत्तम मानते थे | पफियिली की सम्मति को सुनेते ही ध्ारे बोनापार्ट उस 
से विरक्त हो गये । सारे कोर्सिकाद्वीप ने फियोली की सम्मति तथा आज्ञा के अनु- 
कूल क्रांति के त्रिवर्ण झंडे गिरादिये, किन्तु बोनापार्ट के नगर एनेकियों ने अन्त 
तक क्रांति के केतु के गिराने से निषेध किया । इस कारण पियोली तथा बोना- 
पार्ट परिवार में विरोध उत्पन्न हुआ । पियोहीने अपने अनुयायियों द्वारा नेपोलियन 


विपत्ति | २९ 


के सारे भाई बन्धुओं को केद करने का विचार किया | किन्तु, नेपोलियन की माता 
की पियोली के इस विचार का पता छग गया । वह अपने सब पुत्रों सहित एक 
छोटे से बोट में चढ़ कर कोर्सिका द्वीप से रात के समय विदा हुवी । वह योरप- के 
भात्री नग्शों से भरी हत्री छोटी नोका मार्सेल्स बन्द्र पर आलगी | 

यह कहने की आवश्यकता नहीं कि इन सब साहसिक कार्य्यों में मुख्य चलाने 
वार्की कल नेपोलियन था। यद्यपि जोजफ नेपोलियन से आयु में बड़ा था तथापि 
ब्राद्धि और सलाह में नेपोलियन से सदा दबा रहता था। नेपोलियन का चचा उस की 
माता से सदा कहा करता था, कि यद्यपि आयु में बूढ़ा जोजुफ ह तथापि बद्धि में 
बरद्ध नेपोलियन ही हैं । कवियों की तरह, महापुरुष भी उत्पन्न होते हं-वे बनाये नहीं 
जाते । मिस्र आत्मा में बड़े कार्य करने की शक्तिय होती हैं-वह पहले से ही अपनी 
शक्तियों को प्रकट करता रहता है | बालसूर्य की क्रिरणें भी पता के मस्तकों पर 
ही पड़ती हैं, चरणों पर नहीं गिरती। इसी प्रकार महान्‌ आत्मायें सभी अवस्थाओं में 
मुख्यता को प्राप्त होनाती हैं । 

नेपोलियन के बाल्यकाल के अनुशीलन करते समय, एक और बात पर भी 
ध्यान रखना चाहिये। वह रणंक्षत्र में उत्पन्न हुआ, उस की माता उम्र के नन्‍्मकाह 
में युद्धचित्रों से चित्रेत पट को ओढे पड़ी थी। ओर उस ने शेंशव में कथाएं भी 
गुद्ध की ही सनी थीं। तब उस के दिल में युद्धप्रेम का उदित हो जाना स्वाभाविक 
था। यह सत्र विचारकों का माना हुआ सिद्धान्त है कि जैसे कच्चे घड़े में किया हुवा चिन्ह 
कर्मी भी नहीं मिटता, इसी प्रकार बाल्यावस्था में आत्मा पर पड़े हुवे असर कभी दूर नहीं 
होते । नेपोलियन पर भी, जो बाल्याक्‍स्था में युद्ध कथाओं के प्रभाव पड़े, उन पते उस 
का भविष्यत्‌ जीवन बहुत कुछ युद्ध की ओर ढल गया । यद्यपि उस्र के युद्ध की 
ओर दढलने के अन्य भी कई कारण थे और उन का वृत्तान्त आगे आयगा तथापि 
इस में सन्देह नहीं कि उस के भावी आत्यन्तिक युद्धप्रेम के हेतुमूत यही बाल्य 
के संम्कार थे । 


द्वितीय परिच्छेद । 


टउलन का विजय । 
बालस्यापि रवे: पादा: पतन्त्युपरि भूमताम । 

क्रांति अपनी युवावस्था को प्राप्त हई। फ़ांस एक भयानक शासन से शासित होने 
लगा । रोद्रमूर्ति रोबरप्येर का विनय डेका चारों आर बन निकला । घोर से धोर 
अत्याचारों ने अपना अधिकार जमा लिया । लोकरक्षकसामति ने राजपक्षपातियों 
की चुन २ कर गिलोटान पर चढ़ाना शुरू किया, एक२ दिन में सेकड़ों क्‍या हज़ारों 
लोगों का व होने छुगा, नेपोलियन के भाई ल्यूशियन के समान जोशीली वक्त॒ता 
देने वाल अठारह २ वष के बालक भी नगरों ओर प्रान्तों के अध्यक्ष बनकर अत्याचार 
का दोरदीरा मचाने लंगे। सारांश यह कि सारा फरांस एक धवकर्ता हुंई आग से 
व्याप्त होगया । ह 

राजपक्षपाती नगर इन अत्याचार में हेंग आकर विद्राह करने लगे-व क्रान्ति 
से विगहन लगे । लियोन नगर ने क्रांति के विरुद्ध क्षण्य खड़ा किया, किन्तु 
उस के उत्तर में, क्रांति के नताओ ने उम्र के सब सम्श्नान्त ब्रा को उजाड़ बीयाबान 
कर दिया ओर आदमियों को चुन २ कर नदी में बहा दिया | दूसरा नम्बर 2उलन 
नगर का था। टउलन नगर देवयोग से अन्दरगाह भी था। इस छिये, वहां के 
राजफक्षपातिया ने सीधे ब्रिटिश सरकार की सहायता के लिये लिखा । इस प्राथना - 
के उत्तर में, ब्रिटिश सरकार ने छाहहुड को एक जबद॑स्त सामुद्रिक सेना के सहित 
टउलन भेजा । लाडेहुड ने वहां पर आकर विनय का क्षेत्र तय्यार पाया। बन्द्रगाह 
के द्वार उस के लिये खुले हुवे थे, वह उन मे प्रविष्ट हो गया | 

ब्रिटिश सरकार पहले दिन से ही फांस की क्रान्ति के विरोधियों की सहायता 
करने पर तुली हुवी थी। इस विरोध का कारण ूंढ़ुना ज़रा कठिन काम है । इस 
विषय में लोगों के बहुत मतभेद हैं | कई कहंते हैं कि फूचनाति ओर अंग्रेजनाति 
का नैस्र्गिक विरोध ही इस में कारण था । अन्यों की सम्मति में, इंग्लेण्ड का क्रान्ति 
से सच्चा डर ही इस में निमित्त था । मेरी सम्मति में यहां मुख्य कारण वही था जो 
प्रो.सीले ने अपने * इंग्लेण्ट का विस्तार ” नामक पुस्तक में लिखा है । वह कारण 
यह है कि उस समय ये दोनों देश, उपनिवेश प्राप्ति के लिये, तथा साम्राज्य के 


टउलन का विनय । ३१ 


बढ़ाने के लिये यत्ञ कर रहे थे। इंग्लेण्ड को निश्चय था कि फांस का विजय ओर इंग्लेण्ड 
का पतन समानार्थक शब्द हैं | उस ने फ्रांस की क्रान्ति को नीतते हुवे देखा और 
उस से भय खाकर उस ने उस का विरोध शुरू किया | इस में इतिहास साक्षी है 
कि इंग्लैण्ट की सरकार ने ऋरान्ति के दबाने में नव से शिखा तक जोर लगाया। इस 
का परिणाम क्या हुआ ! इस प्रश्न का उत्तर पेचदार श्रमजाल में पड़ा हुआ हे-उस 
का निकालना कटिन है । 

अल्मप्रसंगेन | छाई हुई अपने दलबल साहित टउलछन की बन्दरगाह में आ वि- 
राजे । ऋन्‍्तिमयी गवर्न्मेष्ट को इस की सूचना मिली ओर उस ने जनरल काटये को 
३० सहसत्र सेना के साथ ब्रिटिश शक्ति को निकाल कर बाहर करने के लिये भेजा । 
जनरल काटब्यू टठछन तक पहुंच ता गया किन्तु अपनी अशक्ति के कारण कुछ कर न 
सका । जत्र वह कुछ दिन निक्रम्मे बिता चुका दो रिपब्लिक ने इयुगोमियर की उस 
का स्थान. लेने के लिये भना । सरकार के मुख्व्य सेनापाति कार्नों ने डयूगोमियर का 
टउलछन के विजय के लिय एक मानचित्र भी बना दिया था, जिस के अनुसार कास्ये 
करने से वह विजय पा सक्ता । किन्तु हंगरिच्छा बलीयसी”। वह भी अपन पवेवर्ती की 
तरह आहल्स्य को मूर्ति ही था। उस ने वहां आकर स्वयं कुछ भी कार्य्यन किया। 
हां; एक अछ की बात अवश्य की, कि बन्दग्गाह को सर करने का काम एक क्रिया- 
शील नवयुवक को सौंप दिया जो उस के नीचे तोपां का ऐंनिनियर था | 

इस नवयुवक सेनापति ने, कास्ये का भार सेभालते ही, पोताश्रय का वश मे 
करने के लिये, एक नया हा उपाय घड़ा | उस के पहले बन्दर को जीतने का यह 
उपाय अवलरूम्बित किया गया था कि सीधा ब्रिटिश जहाजों पर गाढा चलाया जाय 
ओरे उन्हें भगा दिया जाय । किन्तु, चिन्ताशील नवयुवक ने, इस उपाय की निःसारता 
की शीघ्र ही समझ लिया । जब तक एक पक्ष ऐसी स्थिति में अपने तोपखाने को न 
जमा ले, जहां पर से उस का प्रहार तो शत्रु पर होसके, किन्तु शत्रु वहां तक अपना 
गोला न पहुंचा सके, तबतक युद्ध में दोनों पक्लो को बड़ी भारी हानि रहती है। दोनों 
पक्षों के बल का रुधिर विना प्रयोनन के बहता हे। इस लिये, सब से प्रथम, यह आव- 
श्यक है कि नीत चाहने वाला पक्ष, ऐसे स्थान को काबू करे जिस पर शात्रु का अख्र- 
प्रहार असर न कर सके । इन सब बातों को विचार कर, और सांप्रामिक नीतिमत्ता 
का पूरा २ आश्रय लेते हुए, नेपोलियन बोनापार्ट ने-वह नवयुवक सेनापति बोनापार्ट 
ही था-बन्दरगाह पर आक्रमण करने के स्थान पर, “ छोटाजिबराल्टर ! नाम के एक 


३२ नेपोलियन बोनापार्ट । 


दुर्ग को काबू करने का निश्चय किया, क्योंकि उपय्युंक्त गुणों से युक्त दुर्ग यही 
था । वहां से शत्रु के जहाजों का ध्वंस किया जा सक्ता था, किन्तु शत्रु वहां पर 
अपना अस्रप्रहार न कर मक्ता था । क्‍ 

हम यहां पर अपने चरितनायक नेपोलियन को फिर से आ मिले है । हम ने 
उसे मर्सेल्स में छोड़ा था | वहां पर वह अपने सब भाधयों तथा माता के साथ 
कोर्सिका से माग कर आया था । बहुत दिन तक वह विना किसी कार्य्य के धूमता 
रहा । उस का बड़ा भाई जोज़फ कुछ कमा कर परिवार का पालन करता था । 
छोटा भाई ल्यूशियन सेप्ट्मेक्सिमिम नाम के एक ग्राम में रिपज्लिक की ओर से अधि 
कारी निश्चित होकर चला गया । इस बोनापार्टों के भविष्यत्‌ शाही परिवार ने कह 
दिन इसी हालत में बिताये | इसी तरह निकम्मे दिन बिताते ९ नपरोलियन पारिस की 
गलियों में पहुंच गया आर वहां पर सेना में भर्ती हो गया । जिस सेंना में वह भर्ती 
हुआ, वह थोड़े ही दिनों पीछे टउहन को भेजी गयी-नेपोंडियन भी उमर के साथथा 
ओर वहीं पर अब हम उस से मिल गये हैं । 

नेपोलियन बड़ जोर शोर से युद्ध की तस्यारियों में लग गया । यह कहने की 
आवश्यकता नहीं कि दिन और रात नेपोलियन घोड़े पर सवार रहता था। उसे 
काय्य के सामने विश्राम कुछ चीज न दीखती थी । दिन भर स्थानों की देख भाल 
करना, उस स्थान के मानचित्र देखना, शत्रु के बल की परीक्षा करना-बस यहां उस 
का काय्ये था | जिन लोगों ने उसे उस समय देखा था, वे कहते हैं कि उसे सोने 
के लिये समय न था | इसी तरह के अनवरत परिश्रम से, उस ने तोपखाना इकट्ठा 
किया और छोटे जिबराल्टर को लेने के लिये प्रयाण शुरू किया । 

आधी रात का समय है । आंधी ओर तूफान ने चारों दिशाओं को रुद्ररूप 
धारण करा रक्खा है| प्रलयकाल उपस्थित हुआ दीख पड़ता है । घर से बाहर 
निकलने की कौन कहे-अन्दर बैठे हुए भी मन में शान्ति नहीं होती । ऐसे समय में 
'ठउलननगर के निवासी भी अपने २ घरों के अन्दर बैठे हुए अंगीठियें सेक रहे हैं । 
एकाएक घोर नाद सुनाई देता है। धोरनाद के साथ ही फटने की आवाज होती है 
और उस के पीछे चिलाने और रोने का कहणाजनक शब्द सुनाई देता है।एक, दो, 
और तीन । निरन्तर यही क्रम चल रहा है। अशान्त प्रकृति में यह और अशान्ति 
मच गई है | नगर पर धड़ाधड़ तोप के गोलों की वर्षा हो रही है। घर में आग और 
बाहर आंधी । एक तरफ सांप और दूसरी तरफ कुवां | बेचारे टउलन के निवासी 


टउलन का विजय । -. ३३ 


बुरी विपात्ति में पड़े हैं। उन की अवस्था देखकर तरस आता है । किन्तु प्रिय 
पाठक ! आप भी कहीं तरस करने न बेठ जावें, क्यों कि जो नगर अपने देश और 
राष्ट्र के विरुद्ध दूसरों के साथ जा मिलता है, उस को ऐसा ही फल मिलना चाहिये । 

ठउलन नगर का घ्वस करने वाले तोप के गोले नेपोल्यिन की फोन के छोड़े 
हुए हैं । आर्धीरात के समय नेपोलियन ने छोटे निबराल्टर को सर करने के लिये कू 
बोल दिया । आंधी ओर पानी कूत के विरुद्ध प्रस्ताव कर रह थे । किन्तु नेपोलियन 
इन प्रस्तावों की परवा न करता था । वह उस मसाले से न घड़ा गया था, जो 
प्रस्तावों और संशोधनों के सामने दब जाता है | वह उन फोलाद के टुकड़ों से बना 
हुआ था मिन्‍्हें आंधी उड़ा नहीं सक्ती और जिन्हें पानी गला नहीं सक्ता । सो 
विना किसी रोक के विचार किये, इस चोबीस वर्ष के युवा ने सेना को आक्रमण 
करने की आज्ञा दी | पहाड़ आंधी के सामने झुक जावे, किन्तु सच्चा क्षत्रिय प्राकृ- 
तिक वि्नों के सामने नहीं झुकता । सूख्य ओर चन्द्र ईंधर की आज्ञा को तोड़ दें, 
किन्तु सच्चा वीर कर्मी सेनापाते की आज्ञा को नहीं तोड़ता । नेपोलियन की सेना भी 
क्षणभर में आक्रमण के लिये उद्यत होगई । 

जिबराल्टर पर जो ब्रिटिश फोज थी, उस ने बड़ा कठोर सामना किया । फेंच 
सेना ने थावा किया । ब्रिटिश सेना की तोपों ने गोला से उस का उत्तर दिया। फ्रेंच 
सेना की पहली कतार गो्ों से भुन कर गिर पड़ी | पिछली कतारें आगे बढ़ने लगी । 
गो्लों की बाद-और फिर एक कतार भूतलशायिनी हुईं | पिछली कतारों ने फिर बढ़ना 
शुरू किया। दुर्ग की खाईं तक जहां पिछली सेना पहुंची, वहां गोल की वर्षा से फिर उम 
का स्वागत हुआ । अगली श्रेणी मन गई, किन्तु उन के चीथड़ों से खाई भर गई । 
पुर हुईं हुईं खाई पर से होती हुईं फुंच सेना फिर आगे बढ़ने लगी । अन्त को किर्चों 
और हूरों की लड़ाई शुरू हुईं। एक युवा से चलाई हुईं फुंच सना मुड़ना नहीं जानती थी । 

इस आक्रमण में नेपोलियन सब जगह विद्यमान था। क्षणभर में उस की पतली सी 
पीली मूर्ति सेना के आगे ओर क्षणभर में पीछे दिखाई देती थी । उसे अपने कतंव्य 
पालन के सामने प्राण एक तिनके के बराबर भी न दीखत थे । जब सेनापाति को अपने 
प्राणों से प्यार न हो तो सेना क्‍यों मुड़ने लगी ? छोटे निबराल्टर की दीवारों पर 
केच सेना जा पहुंची । उसी समय नीचे बन्दरगाह के जहाजों में हलहल होनी शुरू 
हुईं | लाई हुड ने छोटे जिबराल्टर पर फ्रेंच सेना की तोप का नाद सुनते ही जहानों 
को इंगलेंड भागने की आज्ञा दी । 


द्रे 


३४ नैषोल्यन बोनापाटे । 


-नैपोलियन ने अपने हाथ से फ़ांस का त्रिवर्ण झंडा, निबराल्टर की दीवार फर 
खड़ा किया और उस के साथ ही नेपोलियन बोनापार्ट का भावी कीर्तिकेतठु उप 
तूफान के मध्य में लहराने रुगा । 


ठतलीय-परिच्छेद । 





चोर अन्धेरा और चमक । 


त्वे सिल्चन्नमृतेन तोयद ! कतोडप्याविष्कृतो वेषला ।. जगन्नाथ: । 


टउलन के विनय के पश्चात्‌ नेपोलियन कुछ दिनों तक वहीं समुद्रतट पर रहा । 
पेरिस की लोकरक्षकप्तमिति ने उसे चतुर तथा उद्यमी पाकर, तट की रक्षा के लिये 
दुरगबन्दी के काम पर रूगाये रक््खा । वह बहुत दिनों तक अपने नेसर्गिक परिश्रम 
तथा यत्ञ के साथ उप्त काय्ये को करता रहा । ठउलन के विजयके दिनों में, तथा 
पीछे की रक्षा के इन दिनों में, उस का दो सैनिकों से परिचय हुआ | इस समय यह 
परिचय साधारण था, किन्तु भविष्यत्‌ में यह बड़े बड़े फल उत्पन्न करने वाला था । 
उस का प्रथम परिचय एक नवयुवा से हुवा । एक दिन की बात है, कि 
नैपोलियन घोड़े पर सवार हुवा हुवा, अपने तोपखाने को शत्रु के ऊपर धावा करने 
के लिये प्रेरित कर रहा था । अकस्मात्‌ उसे एक आज्ञा लिखाने की आवश्यकता 
पड़ी । उस ने पीछे देखकर कहा कि यदि कोई अच्छा लिखना जानने वाला हो तो 
वह आंगे आ जाय, ताकि मैं उसे आज्ञा लिखा सई । यह सुनकर एक सिपाही 
ने आंगे बढ़कर प्रणाम किया । नेपोलियन ने उसे लिखाना शुरू किया । एक दम 
शत्रु की तोप का गोला दोनों के समीप ही आकर फठा, और मट्टी का बादल उन 
के चारों ओर चक्कर लगाने लगा । वह नवयुवा सिपाही अकस्मात्‌ बोल उठा- वाह 
वाह अच्छा हुवा ! अब कागज की स्याही को सुखाना न पड़ेगा |” इतना चैय्थ 
देखकर नेपोलियन आश्चार्यत हो गया । उस ने उस नवयुवा को, निप्त का नाम 
ज्यूनो था, कहा कि * युवक ! में तुम्हारे लिये क्‍या कर सकता हू? ! युवा ने 
सिर झुकांये हुए कहा कि * सब कुछ ! आप मेरे लिये सब कुछ कर सकते हैं” उस 
समय नेपोलियन सब कुछ न कर सकता था । हां ! वह दिन भी आखिर आया जब 
जैपोलियन सब कुछ करने के योग्य हो गया । उस दिन उस ने अपने वचन का 
पालन किया, और यही निर्धन सैनिक ज्यूनो फ्रांस के राज्य स्तम्मों में से एक हो 
गया और डूयूक आव एबरण्टीज बनाया गया । 


३६ नेपोलियन बोनापार्ट । 


दूसरा परिचय उस का ड्यूरोक से हुआ । वह भी एक नवयुवा था, जिस की 
कीर्तिदुन्दुभि भविष्यत्‌ में दिग्दिगन्त को गुंजाने वाली थी.। 

टउलन का प्रबन्ध करने के अनन्तर, नेपोलियन को इटली में गई हुई फ्रेंच सेना 
के साथ भेजा गया। यह फ्रेंच सना डुयसाविथन नाम के सेनापति के अधीन 
एल्प्स पहाड़ के रास्ते से इटली पर धावा करने के लिये भेजी गई थी। कारण इस 
का यह था कि उस दिशा से आस्ट्रिया आदि देशों की सेनाओं का आक्र- 
मण पम्मावित था । उस आक्रमण की लहर को वहीं पर बन्द कर देना इस 
पेना का उद्देश्य था। नेपोलियन को भी इसी सेना के साथ भेजा गया । उस 
ने अपनी स्वाभाविक चतुरता सूक्ष्मदर्शिता तथा आयासित्रा से कांस्य शुरू कर दिया। 
पेनापाते डयमावियन बूदा हो गया था | उस ने इतने परिश्रमी सहायक को 
पाने में अपना सोभाग्य समझा। सारा कार्य उस के युवक कन्वों पर रख कर अपने 
आप छुट्टी पा छी । नेपोलियन ने अपरिश्रान्त परिश्रम के साथ सेना की स्थिति को 
हृढ़ करना शुरू किया | कोई घाटी कोई रास्ता और कोई कन्दरा उस ने विना खोने 
न छोडी । दिन और रात वह स्थानों की देख भाल और पुस्तकपाठ में छगा रहता था। 

एक रात, दो बने के समीप वह सेना के कास्ये से निवत्त होकर अपने 
विश्रामोपानवेश में गया । चार बने उस का एक मित्र, जों अभी तक कारण 
विशेष से सोया न था, उस के उपनिवेश में आया | आकर देखा तो नेपोलियन दिया 
जछाये बेठा है ओर देशों के मानचित्रों ओर पुस्तकों के पत्र उल्ट रहा हैं । उस 
के मित्र ने अचम्मे में आकर पूछा कि “ नेपोलियन ! यह क्या ? अभी तक सोये 
क्यों नहीं ? ? नेपोलियन ने उत्तर दिया कि : में सो चुका * 

मित्र ने कहा “अभी सो चुके ? अभी दो बने तो सोये ही थे!। नेपोलियन ने 
उत्तर दिया कि एक मनुष्य के लिये दो घंटे की गाढ़ी नींद पर्याप्त हैं! । 

रात को दो दो घंटे सो कर ही नेपोलियन ने वह तेन और बुद्धिमत्ता पाये थे जिन्‍्हों 
ने उसे अदम्य और अप्रतिवार्य बना दिया । किन्तु जरा हम लोगों पर भी दृष्टि 
डालियि जो दिन रात मं २४ भेंटे ऊंचा करते हैं, और चाहते हैँ कि नेपोलियन जैसे 
बन जांय । | 

निस समय नेपोलियन इटली की सेना में अपनी शक्तियों का परिचय दे रहा था, 
उसी रमय पेरिस मे भीषण क्रान्ति का सांप फुंकारें मार रहा था । उस समय पोरिस 


नेपोलियन ओर रोबस्प्येर । ३७ 
की क्रान्ति उप्त दशा में थी जिप्त मे रोबस्प्येर ने अपना सिक्का जमाया हुवा था । 
उसी नृशंस किन्तु शुद्धाचारों रोबरप्यर का छोटा भाई इटछी की सेना के साथ 
लेकरक्षकप्तामाति की ओर से प्रतिनिधि निश्चित था । उस के साथ नपो- 
लियन की मित्रता हो गईं | वह ओर नेपोलियन दोनों ही इकट्ठे प्राटियों और नदियों के 
तय पर थूमा करते थे। छोटा रोबसर्प्येर नेपालियन को प्रायः परिस के समाचार सुनाया 
करता था । सारा संस्तार रोबसर्प्येर को क्रूर ओर नृशंस कहता था । किन्तु उस्त का 
छोटा भाई रोबस्प्येर उसे ऐसा न समझता था । वह उसे सच्चा देश प्रेमी किन्तु तीत्र 
स्वभाव का आदमी मानता था | नेपोलियन के सामने वह अपने भाई का ऐसा ही 
चित्र खींचा करता था । नेपोलियन भी बड़ी आशाएँ रखने वाढा नौजवान था । 
वह फांस की सरकार के प्रधान पुरुष के भाई के साथ मेल रखने को अपने 
उदय का हेतु समझता था । छोटा रोबस्प्येर प्रायः नेपोलियन को पारिस जाने के 
लिये कहा करता था उप्त का विख्वास था कि नेपालियन को वह अपने भाई की 
सहायता से पेरिस की रक्षिका सेना का अधीश बनवा सकेगा । 

किन्तु नेपोलियन को ऐसा वि्वास न था । वह समझता था कि पोरिस की सना 
का अध्यक्ष बनने के लिये पर्याप्त आयु तथा अनुभव अभी उस में नहीं हैं । इस 
लिय वह अपने मित्र के उत्तर में निम्नलिग्वित वाक्य कहा करता था । इस वाक्य में बहुत 
सा भविष्यत्‌ वाणी का भी अश विद्यमान था । 
वह कहता था “अभी में सेना में ही अच्छा हू-पोर्सि में जाने की मुझे जरूरत 
नहीं । हां, वह भी दिन आयगा जब में पेरिस की सेना का अध्यक्ष बन जाऊंगा । 
किन्तु सब दिन एक से नहीं रहते । रोबरप्येर परिवार पर भी पेरिस में आपत्ति आई । 
उस आपत्ति का कुछ वर्णन प्रथम भाग के तृतीय परिच्छेद में हो चुका है। दोनों भाई 
इकट्टे फांसी चढ़ाये गये । नेपोलियन भी रोबस्प्येर का मित्र था । नई सरकार की 
कुद्ृष्टि उस पर भी पड़ी । उस कुद्दष्टि के बढ़ाने में एक्र और भी कारण हुवा । 
निन दिनों अभी वह समुद्र तट की रक्षार्थ दुगेबन्दी कर रहा था, तभी उस 
ने वहां एक पुराना टूटा फूटा दुगे खण्डरात की दशा में पाया । नेपोलियन छोटी से 
छोटी चाज से भी उपयोग लेना मानता था.। बड़ी आत्माओं का यह एक स्वा- 
भाविक गुण होता है। वे छोटी से छोटी चीज को भी उपयोग में छाये बिना नहीं 
छोड़ते। उस ने उस टूटे फूंटे पुराने दुगे की मरम्मत शुरू करवादी । मरम्मत शुरू 
करवा कर वह इत्छी की सेना में जा मिला । वह दुर्ग ठीक होता रहा । नेपोल्यिन 


३८ नेपोलियन बोनापार्ट । 


के किसी द्वेषी ने पोरिसि की छोकरक्षकसमिति के पास रिपोर्ट मेन दी के नेपोलियन 
बैस्टाईल के किले को फिर से स्थापित करना चाहता है। समिति के लिये इतना 
सुनना पयाप्त था | नेपोलियन को एक दम गिरिफ्तार करने की आज्ञा दी गई। क्षणभरपूर्व 
का सच्चा देश भक्त, घोर विद्रोही के रूप में परिणत होगया । नेपोलियन कोई १५ 
दिनों तक केद में रहा | अन्त में, उस्त के उपकृत मित्र ज्यूनो के यत्न से, उस की 
निरदोषता सिद्ध हो गई । सामीति को निश्चय हो गया कि वह निरपराध है । नेपोलियन 
केद से छोड़ दिया गया । | 


कैद सेतो वह छूटगया, किन्तु सेना में से उस की अपना पद्‌ छोड़ना पडा। कई- 
यों की सम्माति है कि उसे समिति ने निकल्वादिया, और कइयों का कहना है कि 
उस ने समिति के काय्य॑ से अप्रसन्न हो कर स्वयं पदत्याग कर दिया । चाहे जो 
कुछ हो; इस में सन्देह नहीं की समिति उस से अपूसन्न हो गई ओर वह समिति से 
अपूछत्र होगया । नेपोलियन सेना से पद॒त्याग कर के कोई वृत्ति ढूंढने पेरिस को 
चल दिया । पेरिस उस का स्वागत करने के लिये उद्यत नहीं था | पेरिस एक ऐसे 
मनुष्य का स्वागत कैसे करता, नो रोबस्प्येर नैसे क्रर मनुष्य के साथियों में से गिना 
जाता था । वह अपने पुराने मिल्रों के पास गया, उन में से कई एक उस समय अच्छे २ 
अधिकारों पर थे। किन्तु उन सब ने टके सा कोरा ओर मरुस्थल सा सूखा उत्तर 
दिया । नेपोलियन ने जिन के साथ किसी दिन भरा किया था-उन की ड्योढ़ियं भी 
देखीं-किन्तु चारों ओर में उसे वही रूखे नेत्रों की मात्रा दिखाई दी । संसार का 
यही रास्ता है। 


चारों ओर से निराशाजनक उत्तर पाकर नेपोलियन का मन-वह दृढ़ मन जो 
बड़े से बड़े सांग्रामिक भय के उपस्थित होने पर भी रंचमाल न हिलता था-वह 
बज समान मन जिस को सहस्नों अवछाओं का आक्रन्दन और सैकड़ों कुर्लों का कदन 
भी अपने उद्देश्य से न हिला सकता था-वही मन आज अधीर हो उठा । नेपोडियन 
एक दम उस अन्धतामिल्न के गंदे में गिर पड़ा जिस में हर एक बड़े आत्मा को अपने 
जीवन के किसी न किसी भाग में गिरना पड़ता है । वह राणापूताप भी-जिन की 
दृष्टि के सन्‍्मुख बड़े से बड़े छत्रपतियों की प्रचण्ड सेनायें भेड बकरियों से अधिक की 
मत न रखती थीं-एक वार अपने बच्चे के हाथ से बिल्ली द्वारा रोदी का टुकड़ा 
छिन जाने पर अधीर हो गये थे । इसी महापुरुषों की परम्परागत 


निराशा में आशा संचार | ३९ 


अधीारता ने नेपोलियन के हृदय को आ दबाया। इस पिशाची के वशीभूत हो कर, उस 
ने अपने शरीर को सोन नदी में गिरा कर, इस उपद्रवमय संसार से छुटकारा पाने 
का संकल्प किया । परमात्मा की दयादुताः आज कहां है ? क्या वह मेरी आपत्ति 
को नहीं देखता ? तब उस की दयादुता झूठी है। जब वह दयालु नहीं तो उस के 
अत्याचारी संसार में जीने से क्या छाभ ?” इस प्रकार के विचार करते हुंवे नेपोलियन 
ने अपने देह को नदीसात्‌ करने की ठानी । किन्तु नेपोलियन ! तू मत समझ कि 
एक तेरी इस वेदना से परमात्मा की दयालहुता की सत्ता का निषेध हो जायगा । 
परमात्मा दयालु है, ओर उस की दयाढुता का पारावार नहीं। जब रात्रि के समय चारों 
ओर से श्याम वर्ण मेघमण्डल उमड़ कर आकाश को ढांप छेता है, चारों ओर 
अधकार का राज्य हो जाता है, जी घबराने लगता है, तब हम देखते हैं, 
के पाश्चिम दिशा से एक वायु का झोंका उठता है औरमेष मण्डल को छिल्न भिन्न कर 
के चन्द्र की चकोरचार्चित चांदनी का विकाश कर देता हैं । ऐसे दृश्य दिन और 
रात हमारे सामने उपस्थित होते हैं। किन्तु फिर भी पिक्कार है हमारी अज्ञता को, निस 
के व्शीभूत हो कर हम निराश हो बेठते हैं, और ईख़र पर से भरोसा तोड़ देते हैं। 
ऐ नेपोलियन ! यादे इस सिद्धांत में तुझे विश्वास नहो तो वह देख तुझ से दस कृदम 
की दूरी पर खड़ा हुआ तुझे कोन आवाजें दे रहा है ? वह तेरे एक पुराने पारीचित 
म्रित्र के सिवा ओर कोई नहीं । 

जिस समय नेपोलियन अपने शरीर को नदी में गिराने के लिये कमर कसरहा था, उसी 
समय उस का एक मित्र उस से कुछ दूरी पर खड़ा उस की अवस्था को देख रहा था । 
नेपोलियन की आंख पहले उस ओर नहीं फिरी, किन्तु ज्यों ही उसने उस ओर देखा, 
त्यों ही वह अपने मानासिक भावों को दबाकर उस मिल के पास पहुँचा । नेपोलियन 
के मित्र ने उस से कहा; - 

“नेपोलियन ! मे तुम्हें देख कर बहुत प्रसत्न॒ हुवा हूं” । इतना कह कर वह 
जाने लगा, किन्तु अकस्मात्‌ रुक कर फिर उस्त ने कहा कि 'यह क्‍या ? तुम्हारा 
क्या हाल है ! तुम मेरी बात नहीं सुनते हो ? तुम मुझे देख कर प्रसन्न नहीं 
हुवे इस का क्‍या कारण है ? तुम्हारी सुर इस समय ऐसी होरही है जैसी 
आत्मघात करने की इच्छा रखने वाले मनुष्य की होती है । वास्तविक बात क्‍या 
है!” नेपोलियन के पास और कोई उत्तरन था, उस ने अपनी सारी कथा आदि 
प्े अन्त तक कह सुनाई । उस की वेदनाओं और मृश्तीब्तों का हाल सुनकर नेपोलि- 


४० नेषोल्यिन बोनापार्ट । 


यन के मित्रने कुछ देर सोचा और बग़ल में से एक थेली निकाल कर नेपोलियन के हाथ 
में देकर कहा कि 'बस इतनी बात के पीछे ही घबरा रहे हो । इस थेली में छे सहख् 
डालर हैं। उन्हें उपयोग में लाओ । अपनी माता के कष्ट दूर करो । मुझे इन डालरों के 
देनेसे कोई हानि न होगी!। नेपोलियन ने अज्ञानसे थेढी पकड़ ली । किन्तु उपयुक्त 
बांत सन कर उस ने ऊपर को आंख उठाई | पहले इस के कि नेपोलियन आंख 
उठा कर देखता, उस का मैत्र वहां से चम्पत होगया। नेपोलियन ने वह पाया हुवा 
घन एक दम अपनी माता के पास मार्सेक्स को रवाना किया और अपने उदार सहा- 
यक की खोज प्रारम्भ की । कई दिनों और रातों तक, नेपोलियन पागृर्ं की तरह 
पेर्सि की गलियों में, अपने सहायक मित्र को पाकर उसका धन्यवाद देने के लिये बूमता 
रहा । किन्तु उस का मित्र न मिला । क्‍यों नेपोलियन ! क्‍या अब भी तुझे इंखर 
की सहायता पर भरोसा हवा या नहीं : 

इस आपत्ति से छुटकारा पा कर नेपोलियन का दिल कुछ हलका हुवा। उस ने 
विश्राम पाते ही अपने ग्रन्थानशीलन में मन दिया | उस के भाग्यों का 
पलड़ा फिर भारी होने लगा: अच्छे कर्मों का परिणाम सामने आने रूगा । वह 
इस अधम दशा को छोड़ कर उन्नति करने छृगा । वह उन्नति उसने कैसे की, 
इस का स्मरण कराने के लिये हम आप को प्रथम भाग के तृतीय परिच्छेद में ले जाते हैं! 

फ्रांस की विचारसभा नई शासन संस्था बनाकर बेठी हुई थी, जब उसने सुना कि 
पेरिस नगर में ८० सहस्र मन॒प्य उस पर आक्रमण करने की तय्यारियां कर रहे है । 
विचारसभा ने घबरा कर पोरिस सेना के अध्यक्ष बारा को अपनी रक्षार्थ यत्न करने के 
लिये कहा । बारा ने पाहिले तो रक्षा करने में अपनी अयोग्यता बताई, किन्तु पीछे से 
उम्र ने एक नवयुवा का निर्देश किया जो विचारसभा की रक्षा के योग्य था । विचार 
सभा के प्रधान ने आज्ञा दी कि उस नवयशुवा की हमारे सामने छाया जाय । जिस 
काय को बारा जैसा अनुभवी योद्धा नहीं कर सकता, जो नव युवा उस कार्य्य को कर 
सकेगा-वह अवश्यमेव बड़ा रूम्बा चोड़ा राक्षमरूपी जवान होगा, ऐसी आशा से सारी 
विचारसभा द्वार की ओर दृष्टि लगाये प्रतीक्षा करने छगी । आप उन के आश्चर्य्य 
का अनुमान करसक्ते हैं, जब उन्हों ने एक नोंटे कमजोर से शरीर को दरवाने में से 
घुसकर प्रणामानवत होते हुंवे देखा | नो नवयुवा इस समय सभा के सन्मुख उपस्थित 
हुआ; उस का दरीर कृश था, मुख का रंग कुछ सांवछा तथा पीला था, गार्लें अन्द्र को 
घुस्ी हुवी थी, हाथ पतले और बड़े ही नर्म थे; किन्तु प्रिर शरीर के अनुपात 


विचारसभा की रक्षा | ४ ९ 


से बहुत बड़ा था ओर आंखें तन और ओज का पुंज थीं।उस नवयुवा ने सभा के सन्मुख 
खड़े होकर प्रणाम किया । सभा के प्रधान ने पछा-- 

* क्‍या तुम विचारसभा की रक्षा का भार अपने ऊपर लेने की तय्यार हो £ 
उत्तर मिल्ा-* हाँ ” सभापति ने फिर पृछा “ क्या तुम जानते हो कि तुम कितने 
बड़ भयानक उत्तरदातृन्व को सिर पर ले रहे हो / ” वहीं गम्भीर शान्त तथा दृढ़ 
शब्द बोल्य * बहुत अच्छी तरह । जिस कार्य्य के करने म॑ं मेरी शक्ति न हो, उसे 
अपने जिम्मे लेने की मेरी आदत नहीं, किन्तु एक आनि आवश्यक बात है कि सारी 
सना को मेरा कथन स्वीकार करना होगा । ? इन वाक्यों में कुछ ऐसी हृढ़ता भरी 
हुवी थी कि उस कोमछ तथा बालोपम काय को देखते हुए भी सब ने उस पर 
ही अपनी रक्षा का भार सौंपना उचित समझा । समा की अनुमाति पाते ही नेपो- 
लियन बोनापार्ट अपनी स्वाभाविक चतुरता तथा छगन के साथ, रक्षा के कास्य में 
प्रवत्त हुआ । 

- रात भर वह तस्यारियों में छगा रहा । प्रमात के समय पेरिस के छोग थावा 
करन वाले थे । उस समय से पृत्र ही, उस ने विचारसभा के गृह को चारों 
ओर से अपने थोड़े से शख्त्रा तथा सनन्‍्यों से खूब सन्नद्ध कर लिया । नितने रास्ते 
तथा उलछ थ, उन की ऐन मीच म॑ उस ने तोपे जमा दी । सभा के प्रत्येक सभासद्‌ 
की भी एक २ बनतूक तथा कह २ गोडिये बांट दी गए । अन्त को प्रभात का समय 
हुआ । सारा पेरिस छोगो के अआविशनाद से परिप्रित हो गया । भीषण खुद्ध 
दुन्दुभि बनने लगी । देखने ही देखने ८० सहसख्र मनृप्पों का समूह समृद्र की 
तरह उमइता हुआ, विचारसमाभवन की ओर को बढ चल्या | इन थावा करने वाले 
लोगां को निश्चय था कि सभा की सना कदापि हमारे ऊपर शा्त्र प्रहार न करेगी | 
पहले कई वार पोरिस का जनसमूह राष्ट्रीय समिति को धमका चुका था, उस ने 
समझा कि अब भी वही समय है । किन्तु उसे नहीं पता था, कि अब फ्रांस के 
आकाशमण्डलरू में एक नई दीप्ति का उदय हुआ है, एक नये जादूगर का आगमन 
हुआ है, जो सारी सेना को मन्त्र बद्ध करके जो चाहेगा करा लेगा । खुशी से भरा 
: हुआ जनसमूह समाभवन के पास पहुंचने लगा । सामने देखा, विचारसभा की सेना 
खड़ी है। उस ने समझा यह भाग नायगी-किन्तु नेपोलियन के मन्त्रादेश के वशी- 
भूत सेना न हिली । जनसमूह ने उस पर बन्दूकों के मुंह खोल दिये । नेपोलियन के 


04 


लिये इतना पर्याप्त था । वह प्रथम प्रहार का अम्यासी न था-रक्षा में ही शत्त्र 


किन जी++ +- न न्नल 


४२ नेपोलियन बोनापाटे । 


उठाने को वह अच्छा समझता था । पहल विद्रोहियों ने की, नेपोलियन के लिये यह 
काफी था । क्षण भर में सभाभवन अपने सहस्नों मुखों से, काछ के गोल़ों की धांय 
धांय वर्षा करने लगा । एक दम सारे तोपखाने का मुंह खोल दिया गया। तोष के 
सामने विद्रोहियों की दाल क्या गलनी थी ? चार पांच मिनट के कदन से ही उन 
के पेर उखड़ गये । वे भागे । नेपोलियन के सिपाही किर्चे चढ़ाये उन के पीछे हो 
लिये । धष्टों तक विद्रोहियों का पीछा करके उन्हें तितर वितर कर दिया गया । 
विचारसभा की रक्षा हो गई । नेपोलियन की विजय ओर कीर्ति की पताका फ्रांस 
के आकाशमण्डल में बड़े जोर से फहराने लगी । 


व्कम बज जज नस» हे नल ओ+- “++++- आओ ज>+]+ >> 


2. नेपौलियन की कृशता के विषय में एक बड़ी मजेदार कथा प्रसिद्ध है । विचारसभा की रक्षा के 
अनन्तर जब नेपोलियन अपनी सेना के कुछ सिपाहियों के साथ पेरिस की गलियों में घूम रहा था, तब एक 
जगह बहुत से लोग एकत्रित थे। उन में से एक मोटी ताजी ही सिव्राहियों की ओर को देख कर बोली कि 
£ भला इन सिपाहियों को हम लोगों की दान दशा से क्या मतऊुब ? जब तक इन के उदर भरे रहें ये 
हमारी क्‍या परवा करने लंगे ” । नेपोलियन ने यह सुन लिया । उस ने झट उस लत्त्री के सन्मुख हो 
कर कहा कि “' ऐ कुलान महिले ! मेरी ओर देख, ओर फिर बता कि हम दोनों में से कौन अषिक कृश 
है!” वह स्थूलकाय ज्ली इस उचित उत्तर को सुन कर कुछ शर्मिन्दी सी होगईद्र-और असन्तुष्ट मनुष्यसमूह 
भी हंसता हुआ इधर उधर बिखर गया । 


चतुथे परिच्छेद । 


हटलो में प्रथम विजय । 
लोदी का युद्ध । 

अणरपि मणि: प्राणत्राणक्षमो विषभक्षिणां-प्रकृतिमहतां जात्य॑ तेंजो न मृर्तिमपेक्षते । 
विचारसभा की रक्षा ने नेपोलियन बोनापार्ट का नाम चारों दिशाओं में प्रसिद्ध 
कर दिया । हर एक फ्रांसनिवासी पूछने लगा कि यह नया आदमी कोन सा हे निस 
ने पेरिस के अदम्य जनसमूह का दमन किया ? यदि विचार किया जाय तो प्रतीत 
होता है कि निःसन्देह नेपोलियन इस समय एक बड़ी ही आद्चर्योत्पादक अवस्था में 
विद्यमान था। वह अभी केवल २६ वष का था । इस अवस्था में साधारण पुरुष 
अपने विद्यालय के काय्ये को भी समाप्त नहीं कर पाते । अभी वे अध्यापकों के 
सामने कांपते हुए पाठ सुना रहे होते हैं। नेपोलियन ने इसों अवस्था में न केवल सेना 

में उच्च पद प्राप्त कर लिया, साथ ही दिगन्तज्यापिनी कीर्ति भी प्राप्त कर ली । 
विचारसभा की बनाई हुईं नयी शासनसंस्था स्थापित होंगई । पांच डायरेक्टर 
नियत हुए । उन डायरेक्टरों ने, शासन का काय्ये, दो सभाओं के साहाय्य से प्रारम्भ 
किया । उन्हों ने कास्यैप्रारम्भ करते ही जब देश की सीमाओं पर दृष्टि डाली, 
तब उन्हें पता लगा कि उन का देश बड़े संकट में है । शत्रुओं ने देश को चारों 
ओर से बेर रक्खा है। विशेषतया इटही की ओर इटछी तथा आस्ट्रिया की 
सेनाएं, अपने दुगे बांधे पड़ी हुईं थीं। उन का सामना करने के लिये जो फ्रेंच सेना 
भेजी गई थी, वह सर्वथा निरचेष्ट पड़ी हुई थी । शत्रु आगे को बढ़ रहा था, किन्तु 
उसे रोकने वाला कोई न था । डायरेक्टरी ने किसी सहायक की खोज के लिये 
नम्र उठाई-ओर उन्हें बालसूस्ये नेपोलियन बोनापाट के सिवाय कोई और दृष्टिगोचर 
न हुआ । तदनुसार, नेपोलियन को इटली की सेना का अध्यक्ष बनाया गया । 
२६ बर्ष का नवयुवा, जिस के मुंह पर अभी तक अच्छी तरह से मूछें भी न आई थीं, 
बूढ़े * ओर अनुभवी सेनापतियों की अध्यक्षता करने के लिये रवाना हुआ । 
नैषोलियन की इस यात्रा के साथ उस विजयमाला का प्रारम्भ हुआ, जिप्त से २० 





जी >>-+>  >22. मर ब 





१, इसी वर्ष नेपोलियन ने जैसोफाईन नाम की एक योग्य विधवा से विवाह कर लिया था । 





४४ नेपोलियन बोनापार्ट । 


व तक चकाचोंध हुआ हुआ सारा योरप अचम्मे ओर आश्चर्य्य से केवल एक 
मनुष्य के साथ अकृत्यक्ृत्य संग्राम करता रहा । 

एक बालक को सारी सेना का अध्यक्ष होते हुवे देख कर, एक बूंढ़े सेनानी ने 
उस से कहा कि तुम अभी बहुत बालक हो” नेपोलियन ने उत्तर दिया कि जनाब ! 
आप एक वर्ष के पीछे या तो मुग्रे वृढ्ा पायंगे, या में इस संसार से बिदा हो गया 
हूँगा ! | वह वृद्ध सेनापति उस समय इस वाक्य को न समझा, किस्तु एक वर्ष के 
पीछे वह एक वृद्ध ही क्या, संसार भर के वद्धों की ममझ में वह वाक्य आगया। पहले 
तो सेना के वृद्ध छोग नेपोलियन के से बालक को अपने ऊपर प्रधान देख कर बहुत 
बबराये । बूडा सेनानी आगीरियो, जिस ने कई रिपव्लिकन यद्धों में अपनी तलवार 
के जोहर दिगाये थ, पहले पहल बड़ा शोर मचाता रहा, किन्तु थोड़े ही दिनों में वह 
ठण्डा पड़ गया । नंपोलियन ने जब सना में पहुंचते ही अपनी स्कीम के अनुसार 
काम करना शुरू किया, तब एक बूढ़ा भनापति उस के पास आया और कहने छगा 
कि 'सेनानी ! यद्यपि तुम मेरे अन्यक्ष हो, तथापि में इतना कह देना चाहता हू कि 
तुम युद्ध क्री कअ के विरुद्ध कास्य कर रहे हो, इस तस्ह शत्रु न जीताजा सकेगा ! 
नेपोलियन ने उत्तर दिया कि * महाशय ! आप थीर रहिये । थोड़े ही दिनों में आप 
देखेंगे कि आस्ट्रियन छोग युद्धकछ की सत्र पुस्तकी को अप्नि देवता के अपण कर 
देंगे, आर उन्हें पता भी न छंगेगा कि वे क्या करें / 

वम्नुतः बात यह थी कि नेपोलियन की युद्धकछा निगली ही थी । पुरानी यद्ध- 
का को वह जजेरित समझता था । गति की तीत्ता, प्रहार की बनता आर हृढता 
को ही वह विजय का कारण समझता था । रोने ढरें के युद्ध के नियमों पर 
उस का विश्वास न था । जत्र नेपोडियन ने अपनी तीत्र गति से आस्ट्रिया के बूढ़े २ 
सेनापतियों के नाकों में दम कर दिया, आर थोड़े ही दिनों में उन के छक्के छुड्डा दिये, 
तब एक आस्ट्रिया का सेनापाति कहता हुआ सुना गया कि ' यह लड़का युद्धाविया 
के नियमों को कुछ भी नहीं जानता । युद्धविद्या के नियमों का जैसा यह भंग 
करता है-उसे देख कर ऊब उत्पन्न होती है । अगर आन संबेरे वह हमारे आगे है, 
तो शाम को हमोरे पीछे आ छापा मारता है। कल देखो तो हमारी दाईं ओर और 
परसों फिर सामने आ घमकता है। युद्धाविद्या के नियमों का ऐसा मंग अक्षम्य है |! 
पुराने युद्धविद्या के नियमों का ऐसा ही भंग था, निस ने विनय देवता का चमकीला 
हाथ नेपोडियन के प्र पर घर दिया | 


सेना का प्रोत्साहन । | ४५ 


सेनापति बनने ही, विना कुछ समय खोने के,नेपोलियन अपनी सेना में आ मिला । 
फ्रांस की सारी सेना, जो इटली में विद्यमान थी, ३३००० थी । उनका सामना 
करने के लिये २०००० पीडमोण्ट की सेना कौली की अध्यक्षता में और ३८००० 
आस्ट्रियन सेना व्यूलियों की अध्यक्षता में जमी हुवी थी। नेपोलियन ने जाकर जब 
अपनी सेना की दशा को देखा तो उसके रोंगटे खड़े हो गये । सना के सिपाही 
क्या थे, चीथड़ों के ढेर थे | सब के जूते टूटे हुवे, कपड़े फटे हुवे, शस्त्र बिगड़े हुंवे- 
यह उप्त सेना की दशा थी, जिससे नेपोलियन योरप की सत्र से उत्तम सेना के दांत 
खट्टे करने के लिये तय्यार हुवा था। पहुंचते ही नेपोलियन ने एक त्रोषणापत्न सेना 
आधोषित कराया । त्रोषणापत्र में छिखा था- 

(सिपाहियो ! तुम भूखे और नेंगे हो, गवर्न्मप्ट ने तुम्हारा बहुत कुछ देना है 
किनत वह कुछ दे नहीं सक्ती । इतने कष्टो में तुम्हारा धैग्ये और उत्साह सराहनीय 
है, किन्तु इस से तुम्हारे शम्त्रों की कीर्ति नहीं होती । में तुम्हे उन स्थानों 
जाने आया हूं, निन जैमा शस्यधान्यबुक्त स्थान संसार में ओर नहीं है । धनी प्रान्त और 
मालदार नगर, थोड़े ही समय में तुम्हारे चरणों पर आ पड़ेंगे | वहां तुम बहुत अनाज 
नामवरी ओर कीर्ति पाओगे। इटढी के सिपाहियो ! क्या तुम इस अवसर में 
पीछे रह जावोंगे! | इस घोषणापत्र का असर सिपाहियों पर वित्ली का सा पड़ा। उन 
के अन्दर एक दम क्रियाशक्ति उत्पन्न हो गयी । सारा कैम्प अग्नि से प्रज्वलित हो 
गया । 

नैपोलियन ने अपने शन्नुओं की श्थाति पर विचार किया । उन में से कौली का 
उद्देश्य पीडमोण्ट की रक्षा करना था, और ब्यूलियों का उद्देश्य,लम्बार्डी को बचाना था | 
नपीलियन ने सब से प्रथम यह उचित समझा के किसी तरह इन दोनों सेनाओं को 
आपस में मिलने न दिया जाय ओर उन्हें फाडकर अल्हदा २ कर डाछा जाय । 
इसी विचार के अनुसार उस ने दोनों सेनाओं के बीच में प्रहार करने का निश्चय 
किया । 

दोनों को श्थक्‌ २ फाड़ कर मोप्टिनोट पर उसने पहलीवार आस्ट्रिया की सेना को 
पराजित किया ओर फिर कौली को मिल्लेसिमो पर घोर शिकस्त दी । मोण्टिनोट नेपो 
लियन का पहला बड़ा युद्ध था | पीछे से वह कहा करता था कि 'मोण्टिनोट में 
पहले २ मुझे समाज में उच्चपद प्राप्त दुवा' समय न खोकर उसने एक दम आस्ट्रिया 
का पीछा शुरू किया, और पहले इस के कि वे अपने युद्ध में लंगे हुवे धावों 


8६ नेपोलियन बोनापार्ट । 


को धो सक्ते, डीगो पर उन्हें आ दबाया । आस्ट्रिया को यहां ठोक करके फिर 
बड़ी फूर्ती से वह पीडमौष्ट की सेना के पीछे हुवा और उन्हें केवा ओर मौण्डावी पर 
अन्तिम पराजय दिया । पीडमोप्ट के राजा ने पराजय के पश्चात्‌ नेपोलियन से युद्ध 
बन्द करने के लिये सन्धि करी और नेपोलियन अब अकेली आस्ट्रिया की सेना का 
सामना करने के लिये स्वतन्त्र हो गया । 

इस युद्ध में एकवार नेपोलियन ऐसा फंस गया था कि यदि वह अपना आत्मिक 
शक्ति से काम न लेता तो उसका बचना कठिन था | एक दिन वह कोई सी एक 
सिपाहियों के साथ, लोनेटी नाम के गांव में से गुजर रहा था । अकस्मात्‌ वह गांव 
आस्ट्रिया के दो सहस्न योद्धाओं से घिर गया । आस्ट्रियन सेनापाते ने, नेपोलियन के 
पास शख्त्र फेंककर कैदी बन जाने का सन्देशा भेजा । नेपोलियन के पास वार्ता- 
हर आंखें बांध कर छाया, गया । उसकी आंखें खुली तो उसेने नेपोलियन 
को सामने खड़ा पाया । नेपोलियन ने गन कर कहा कि “अपने सेनानी के पास 
लोट नावो । उसे कहदो कि में उसे शस्त्र रख देने के लिये ८ मिनट की मोहलूत 
देता हूं । वह फ्रेंच सेना के बीच में घिर गया है-उसे अब बचने की सब आशा 
छोड देनी चाहिये ।” कांपत हुवे सन्देशहर ने लोट कर अपने सेनानी को नेपोलियन 
का सन्देशा सुना दिया, ओर आठ मिनट के पूर्व ही २००० आए्ट्रियन सेना 
नेपोलियन की बन्दी हो गई । 

नेपोलियन के एक सेनानी के साथ भी एकवार ऐसा ही मामला हुवा । सेना- 
नी का नाम लेनस था । लेन बड़ा ही वार योद्धा था । एक वार वह केवल दो 
अफ्सरों तथा दस या बारह सिपाहियो के साथ जा रहा था । आगे देखा तो 
३०० रोम के घुड़सवार उस पर प्रहार करने आ रहे हैं। लेनस आगे बढ़ा ओर घुड़सवारों 
के सेनापति को धमकाकर कहा तुम यहां क्‍या कर रहे हो? तलवार म्यान में क्यों नहीं 
डालते? हरे हुवे रोमन सेनापाति ने कहा 'बहुत अच्छा” लेनस ने फिर डपटकर कहा 
“अपने छोगों को कहदो कि वे सब घोड़ो पर से उतर जांय और मेरे उपनिवेश में 
उन्हें छोड़ आंय” रोम की सेना के अफूसर ने आज्ञा पाहन की और ३०० घोड़े ले- 
नस के उपनिवेश में पहुंचा दिये । 

नेपोलियन अमी नवयुवा था-उस्त के नीचे बंडे २ बूंढे सेनापति थे। नेपोलियन 
को आज्ञा पालन कराने के लिये यह आवश्यक था कि वह पहले अपन आप को सब 
से आहत करवाता । इस लिये, नेपोलियन इस समय व्तुतः मुनितुल्य वृत्ति से 


नेपोलियन की गम्मारता । ४७ 


निवांह करता था । राग रंग और दराब का पीना, जो सारे सिपाहियों का साधारण 
धम है-उस से नेपोलियन कोसों दूर रहता था । हंसी ठ्ट्टे में या खेल तमाशे में 
वह कभी भी सम्मिलित न होता था । खुलकर वह कभी न हंसता था । कइ्यों की 
तो सम्मति है कि वह कभी खुलकर हंस ही न मक्ता था। अपने जीवन में कहीं भी 
वह हंसता हुवा नहीं सुना गया | वह केवल मुस्कराता था-किन्तु उस का मृस्कराना एक 
विशेष आकर्षण शाक्ति से भरा हुवा था । वह पत्थर से पत्थर दिल को भी आकर्षण 
कर लेता था । बंडे आदमियों का मुस्कराना प्रायः चुम्बक की शक्ति रखता है । 
म॒स्कराने के सिवाय अन्य समय में नेपोलियन का मुंह बन्द रहता था-उसके होंठ 
भिचे हुंवे रहते थे | उन होठों को देखते हीं पता छगता था वे अभी आज्ञा देने के 
लिये खुले ओर अभी खुले । उस का मुख आज्ञा देने के लिय ही बना था-हँसेने 
के लिये नहीं । नेपोलियन के नेल्ों में दो वस्तुओं का ही निवास था-या आकपषण 
शक्ति का या मृत्यु का । 

नैपोलियन की आंखों में से केसा भीषण भय निकलता था, इसका एक उदा- 
हरण प्रसिद्ध है। उस के छोटे माई ल्यूशियन का एक चित्रकार बड़ा ही मित्र 
था। उन दोनें; की बड़ी दोस्ती थी । वे आपस में खूब मखोल किया करते थे । 
एक वार नेपोलियन एक कमेरे में ल्यूशियन से बात चात कर रहा था । ल्यूशियन 
का मित्र उस मिलने आया । उस ने यह नहीं देखा कि ल्यूशियन किससे बाते कर 
रहा है! वह बड़ी चालाकी से छुप २ कर ल्पूशियन के पीछे आया ओर एक दम 
उस पर कूद पड़ा । किन्तु पीछे ज्योंही नमर उठा कर देखा तो नेपोलियन की आंखें 
उसकी ओर देख रही थीं। उन भयानक आंखों में न जाने क्या भरा था कि वह 
चिल्कार उन्हें देखते ही वहां से भगा | भगता हुवा वह बाग में आया, बाग़ से भगता 
हुवा शहर में पहुंचा, वहां सेफिर भगा ओर एक जज्जल में घुस गया । फिर कई दिन 
तक उसने उस तरफ को मुख नहीं मोड़ा । 

इस विषयान्तर को छोड़ कर फिर हम नेपोलियनकी विजयमाला का साथ करते 
हैं। पीडमोप्ट की सेना को शान्त करके नेपोलियन आस्ट्रिया के पीछे हुवा | जब तक 
वह पीडमोप्टकी सेनाके साथ मिड़ता रहा, तबतक आस्ट्रिया की सेना दृढ़ होती रही। पहले 
आस्टर्या की सेना का ब्यूल्यो सेनापति था-अब उस के ऊपर एक बड़ा बूढ़ा बम्सेर नाम 
का सेनापीति निश्चित किया गया । वम्सर ने भी बड़ी दृढ़ता से युद्ध आरम्भ किया । सब 
से प्रथम, नेपोलियन चक्र काटता हुवा, एक लकड़ी के पुल पर से पो नामक नदी को पार 


४८ नेपोलियन बोनापार्ट । 


करके उसी मैदान में आगया जिस में बम्सेर अपनी सेना लिये हुवे पड़ा था। वर्म्सैर बूढ़ा 
था-नैपोलियन जवान था । वर्म्मर नेपोलियन की गति को न पासक्ता था। नेपोलियन 
की सेना की गाते अदूभृत थी । आज तक कोर सेना इतनी तेज गाते से चलती 
हुईं नहीं सुनी गई | कभी २ एक रात में नेपोलियन की सेना तीस २ मील तक 
रास्ता तयकर जाती थी । नेपोलियन की सेना आस्ट्रियन सेना को आमिली। आस्ट्रिया की 
विच्छिन्न सेना आगे हुवी ओर नेपोलियन उन के पीछे २ चला । अन्त को आस्ट्रियन 
सेना लोदी नाम के गांव में पहुंची । वहां मे भी नेपोलियन ने उन्हें भगा दिया । लोदी 
गांव ऐडा नाम की नदी के किनारे पर है। आस्ट्रियन सेना ऐडा को एक तह्ढ लकड़ी 
के पुल से पार कर गई, और उसने दूसरे पार एक ऊँचे किले में अपना अड्डा जमा दिया। 
वह दुर्ग ऐसी जगह था कि उस पर से तोप की सीधी मार पुल पर पड़ती थी । अतः 
आस्ट्रियन सेनापति ने उम्र पुछ की उड़ने की आवश्यकता न समझी । उस ने तो 
उल्टा यह विचारा कि यदि नेपोलियन उस प्ुल्ठ पर मे पार उतरने की चेष्टा करेगा 
तो फिर उम्त की मृत्यु में सन्देह ही क्या है? उस पुल पर से दो तीन आदमी भी 
एक साथ न निकंल मक्ते थे , फिर तोपों की सीधी मार । उस से बचना मठप्य का 
कार्य्य नहीं । यह सोच कर वह पुल वैसा ही बना रहने दिया गया । 

नेपोडियन ने अपनी मेना को छोदी गांव में टिकाया। उस ने इतिकतेव्यता पर वि- 
चार किया, और मेनापतियों से भी सम्मतिय पूछी । मत्र ने यही कहा कि इस पुल 
पर से पार उनरने की चेष्टठा करना अपने हाथों अपने जीव्रन को बेचना है। 
किन्तु नेपोलियन को किसी की सल्यह पसन्द्र न आई । उस ने उसी पुल पर से पार 
होने का निश्चय किया । एक सेनापति नेपोलियन के इस विचार को सन कर 
चिल्ला उठा कि इतनी तोपों की मार के रहते हुवे काई मनृप्य इस पुर पर से जा- 
सके-यह असम्भव ह' । नेपोलियन ने शान्ति से उत्तर दिया "क्या कहा ! अ- 
सम्भव है ! अम्रम्भव शब्द तो मंने फ्रेंच भाषा में नहीं पढ़ा' | वस्तुतः नेपोलियन किसी 
दूसेरे की सम्मति की परवा न करता था | एक वार नेपोलियनके असाधारण विनयों 
से इर कर डायरक्टरी ने, इस के साथ ही एक ओर सेनापाति इटली में भेजना चाहा- 
नेपोलियन ने उत्तर में अपना अस्तीफा भेज दिया, ओर साथ ही लिख भेजा कि रण- 
क्षेत्र मं एक ही मगज काम करसक्ता है-दो नहीं। 

नेपोलियन ने उस पुल के इस तरफ, अपनी तोपों की एक कतार ऐसी अवश्थिति 
में रखदी जिस में शत्रु के आदमी आकर पुल को न उड़ा सकें । फिर पुल के पास 


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लोदी का पुल । ४९ 


ही एक बाजार के बीच में उस ने अपनी सारी सेना खड़ी करदी | आज्ञा दी गई और 
ढोल बनने शुरू हुवे । चक्कर काट कर फ्रेंच सेना के वीर योद्धा पुल पर चढ़ने लगे | 
एक दम वज्ञाघात का सा नाद हुवा ओर तोपों के मुखों में से गोलों की वर्षा होने लगी। 
फ्रेंच सेना का अगला भाग मुनकर गिर पड़ा | पिछले सिपाही अगलों की लाशों पर 
चढ़कर आगे बढ़ने लंगे | फिर गोर्छों की एक बाढ़ छूटी और अगले सिपाहियों के श- 
रीर भुन गये और वे मी वहीं सेतुशायी हुए | शरीरों से निकलते हुवे रद्द से सारा 
पुल भर गया। लहू नदी में चू गया-ओर नदी भी छाकू होगई | भयानक दृश्य उप- 
स्थित हुवा। भीतिे खाये हुवे फ्रांसीसी सिपाही पीछे को मुड़ने लगे। आगे बढ़ने का सा- 
हस टूटने लगा | 


नेपोलियन यह न देख सका । वह घोड़े पर से उतर पड़ा और एक झण्डा हाथ 
में लेकर घोर अग्निवर्षा के अन्द्र कूद पड़ा । चारों ओर-आगे और पीछे दाये _और 
बायें-अग्नि की वर्षा होरही थी, बीच में एक छोटा सा शरीर झण्डा हाथ में लिये आंगे 
बढ़ा । नेपोलियन के बड़े २ सेनापति लैनस, मैसेना, बार्दियर उस के पीछे हुवे । 
फ्रेंच सेना की ओर मुड कर नेपोलियन ने कहा “अपने सेनापाति के पीछे चलो” | वहां 
एक भी मनष्य ऐसा न था, जो इस अवस्था में पीछे कदम रखता । सारी फ्रेंच सेना 
अपने अमाडंषिक सेनानी के पीछे २ भागती हुई अग्नि के समृद्र में घुस गई | फिर 
किसी ने नहीं देखा कि किनने मेरे ओर कोन मरे । एक मिनट भर में ैनस और उस - 
के पीछे २ नेपोलियन पुल के पार हुवे | उन के साथ ही फ्रांस की सेना के सिपाही 
धड़ाघड़ पुल से कूद पड़े । 


इस समय, सेनापाति लैनस ने बड़ा ही असाधारण शोण्य दिखाया। वह आवेश 
में भरा हुवा अकस्मात्‌ कई आस्ट्रियनों के जत्थे में घुस गया । चारों ओर से उस पर 
शस्त्र प्रहार होने लगे | उस के घोड़े के भी गोली लगी । किन्तु लैनस ने देरी नहीं 
लगाई | वह अपने घोड़े पर से कूदा ओर एक आस्ट्रियन सवार के पीछे जा बेठा | 
तलवार से उस सवार को काट गिराया ओर उसी घोड़े पर कई आस्ट्रियन सिपाहियों 
को काटता हुवा अपनी सेना में आमिला। 


नेपोलियन के पार होते ही आस्ट्रियन सेना के कदम उखड़ गये । कई सिपाही 
कैदी किये गये। बहुत सा ग्रुद्ध का सामानभी नैषोलियन के काबू आया। इस प्रकार 
पे यह इतिहास्नप्रसिद्ध विजय नेपोलियन को प्राप्त हुवा | इस अदभुत तथा आशचपय्थ- 


हा 


५ ० नेपोल्यिन बोनापार्ट | हु 


दायक विनय को देख कर, सारी फ्रेंच सेना ने नेपोलियन को देवता समझना शुरू किया। 
'सेना को मस्यु के मुख में से निकाह कर विभयपव॑त पर चढ़ाने की शक्ति नेपोल्यिन में ही 
थी | नेपोलियन को भी इस विजय से अपनी असाधारण शक्तियों का पता रूग गया । 
वह पीछे से कहा करता था कि 'लोदी के संग्राम के पीछे में अपने अन्दर एक असा- 
धारण शक्ति का भान करता था-में अपने आप को ओर सब छोगों से बहुत ऊंचा 
समझने लग गया था-मैं अपने आाष को वायु में चलता हुवा प्रतीत होता था |! 


सारी सेना के मनमें भी इस युद्ध के पीछे नेपोलियनके लिये बड़ी देवबुद्धि हो गई । 
सेनानियों ने मिल कर अपनी ओर से नेपोलियन को छोटा सेनाध्यक्ष” की उपाधि दी । 
लोदी के संग्राम के पीछे, विनेता नेपोलियन, राजधानी मिलान में दाखिल हुवा | इटली 
के देशभक्तो ने नेपोलियन का खुले दिल से स्वागत किया । उन्हों ने उस 
को अत्याचारों में छुड़ाने वाला रक्षक पाया । नेपोलियन ने वहां आते ही रिपिब्लिक 
(प्रमातन्त्र राज्य) आघोषित कर दिया, ओर त्रिवर्ण झण्डा मिलान के घरों पर फहराने 
लगा । मिलान के रानगृह पर एक फट्टा लगा दिया गया। उस पर लिखा हुवा था 
“यह मकान किराये पर चढ़ सक्ता है। जो लेना चाहे वह फ्रेंच सेनापति से प्राथना करे! 
राजतन्त्र शासन को उड़ाकर प्रजातन्त्र शासन की बुनियाद डालदी गई । 


इन संग्रामों में नेपोडियन ने ख़ब लूटमार मचाई थी । उसके सिपाही भूखे 
नंगे थे, उन्हें खाने पीने और वर्त्री की आवश्यकता थी, अतः नेपोडियन ने भी ढूट- 
मार करने से उन्हें विशेष न रोका । यद्यपि संग्रा्मों के पहले विस्तृत की गई पोषणा- 
ओं में साफ शब्दों में उस ने वहां के निवासियों के लूटने का निषेध कर दिया 
था-तथापि थोड़ी बहुत छूट का सब सेनाओं को अधिकार है । कौनसी सम्य सेना है 
निसने आक्रमण करते हुवे विजयी हो कर लूट नहीं मचाई ! 
चीन के युद्ध में सोरे योरप के सिपाहियो ने नो गुल खिलांये थे, उन्हें कौन नहीं 
ज्ञानता / नितनी लूट सब सेनाओं के लिये आज्ञापित है, नेपोलियन की सेना ने उस 
से अधिक न मचाई थी। किन्तु नेषोलियन के शत्रु, जो उस्त की निन्‍्दा करने में सच 
झूठ में भेद करने को पाप समझते हैं, यह शोर मचाते हुवे नहीं थकते कि नेपोलियन 
की सेना लुटेरी था ओर उस ने बहुत लुटा। 


मिलान में नेपोलियन ने अपनी सेना को ख़ब तय्यार करना शुरू किया | कई 
राते और दिन उस ने घोड़े की षीठ पर गुमारे | जब रण्षेत्र के पास पहुंचने का 


विद्रोह दमन । ५१ 


समय होता था, तब नेपोलियन की नींद कहीं भाग जाती थी | किन्तु जहां संग्राम 
शुरू होगया, नेपोलियन के बताये हुंवे उपायो से सेना ने छड़ना शुरू किया, वहां 
वह निश्चिन्‍्त हो जाता था ओर उसकी निद्रा छोट आती थी । समर भूमि में कभी 
कभी घोड़े पर ओर कमी नीचे उतर कर वह से जाता था । सेना का नेपोलियन 
से अगाध प्रेम था । प्रेम होता भी क्‍यों न ? वह उन से वत्ताव ही ऐसा करता था। एक 
वार मिलान में नेपोलियन घोंडे पर चढ़कर घूम रहा था । एक सन्देशहर सिपाही 
ने सामने से झककर कुछ आवश्यक कागन उस के हाथ में दिये । नेपोलियन ने उन्हें 
पद्म और मौखिक उत्तर देकर उसे बहुत शीघ्र छोटने को कहा। सिपाही ने कहा कि मेरे 
पास कोई थोड़ा नहीं है। एक था, वह भी जोर से भागने के कारण अभी आप के 
द्वारपर मर गया है । नेपोलियन ने उत्तर दिया “तो तुम मेरा घ्रोड़ा ले जाओ।' ओर 
ऐसा कहकर वह घोड़े पर से उतर पड़ा । सिपाही सेनापति का धाड़ा लने से प्रबराया । 
यह देखकर नेपोलियन कहने छगा “शायद तुम मेरे घोड़े का बहुत ही उत्तम आर 
बहुमूल्य समझते हो । किन्तु यह तुम्हारी मूल है । फ्रांस के सिपाही के लिये कोई 
चीज भी बहुमूल्यवती नहीं ।” ऐसी बातें झट सारी सेना में प्रसिद्ध हो जाती थी, और 
नेपोलियन को सारी सेना अधिक प्यार करने लगती थी । 

मिलान में सेना को ख़ब तय्यार करके नेपोलियन आस्ट्रियाकी सेना के पीछे हुवा । 
इसी समय पेविया और मिलनीज में; नेपोलियन के जीते हुवे छोगों ने, फिर से सिर उठाया। 
वहां ठहरी हुई फ्रांसीासी सेना को बेर लिया ओर नेपोलियन के विरुद्ध घोषणा देदी । 
. नैपालियन पहले उधर ही को मृड़ा ओर ऐसी क्रूरता तथा दृढ़ता से उन को दबाया 
कि फिर उन्हों ने (ओर न किसी अन्य नगर में) विनेता का सामना करने का यत्न किया | 
कई लोगों को नेपोलियन की इस क्रूरता पर बहुत आशंका है | उन का कथन है कि 
यहां पर उसे मूढुता से काम लेना चाहिये था । किन्तु ऐसे लोगों की आशंका वथा है । 
विनेता जिस स्थान को जीत जाता है, यदि उस में वह हृढ़ता से शान्ति की स्थापना न 
रक्‍्खे तो उसका सारा विजय निष्फल होजाय । युद्ध शान्ति से किया जा सकता है, 
किन्तु विद्रोह शान्ति से नहीं बिठाया ना सक्ता | 

इन विद्रोहियां को शान्त करके, नेपोलियन अपनी छोटी सी किन्तु अकुशसमान 
सेना को लेकर, आस्ट्रिया की गजसमान वृहृदाकार सेना का दमन करने के हिये प्रस्थित 
हुआ। उसने आस्ट्रिया के सेनापाति को कार्स्टिगलियान पर से हटकर मे5चु आ नाम के 
नगर पर बेरा डाल दिया । बस्सेर को भी वस्सेनों के युद्ध में हतकर सेठखुआ नगर में 


५२ नेपोलियन बोनापार । 


बघेल दिया । इस बेरेकी तोड़ने के छिये अल्विंनी नामके सेनापति ने नेपोलियन पर 
आक्रमण करना चाहा | उस ने अपने आक्रमण का सारा विचार, विस्तार पूर्वक, एक 
पतले कागन पर लिखा। उसे मोड़ कर एक छोटे से मोम के गोले में धर दिया। वह 
मोम का गोला एक किसान के स॒पुर्द किया गया। वह किप्तान उसे मेब्चुआ में बन्द 
पड़े हुवे वम्सेर के पास ले चला । रास्ते में वह किसान पकड़ा गया । पकड़े जाते ही, 
उस ने वह गोला मुंह में डालकर पेट तक पहुंचा दिया । नेपोलियन ने औषधों 
द्वारा उस के पेटकी बाधित कर दिया कि वह उस मोम के गोले की छोड़ दे । 
मोम का गोला निकलते ही अल्विंनी की पोल खुल गईं । नेपोलियन सारी चालाकी 
को जान गया। वह अपनी सेना का थोडासा हिस्सा लेकर अडीगे नदी को पार करता 
हुआ ऐसा घूम गया, कि दूसरी रात को वह अल्विनी की सेना के 
पीछे जा जमा । ु 

जहां पर नेपोलियन ने अपनी सेना को जमाया, वह स्थान एक दलदल के बीच 
में था। सामने आस्टिया की सेना पड़ी थी। बीच में आकोला नाम का गांव था । गांव 
तथा नेपोलियन की सेना के बीच में, एक छोटासा नाला था। उस पर एक लकड़ी का पुल 
था । ग्राम को जीतने के लिये उस पुल पर से उतरना आवश्यक था | आस्ट्रिया की 
सेना की तोपे सामने जमी हुईं थीं। सेना जरा सी झिझकी । नेपोलियन के लिये यह 
पर्य्याप्त था । वह घोड़े पर से उतरा, और एक झण्डे को हाथ में लेकर आगे हो लिया। 
सेना की ओर देखकर उस ने कहा 'छोदी के विनिताओ ! अपने सेनापति के पीछे 
आओ? । बस फिर क्या था ? एक भी कायर या भीरु वहां न था । युद्ध एक दिन 
तथा थोड़े से प्रतिरोध के साथ रात भर ओर फिर दूसरे दिन भी होता रहा । नैपो- 
लियन की सेना आस्ट्रिया की सेना से आधी थी, किन्तु नेपोलियन के फोलाद के 
सामने वज्ञ भी क्या चीज था ? आस्ट्रिया की फोन के पैर उखड़ गये। वह भागी- 
किन्तु नेपोलियन उन के पीछे था । दूसरे दिन रिवर्वेला पर आल्विजी ने अपने हथि- 
यार रख दिये । 

आकौंला का विजय बड़ी ही असाधारण घटना समझी जाती है । बड़े २ युद्ध 
नीतिविज्ञ भी कहते हैं कि उस विजय में नेपोलियन ने असम्भव कर दिखाया | 
युद्ध के प्रथम, सब को निश्चय था कि अब इस उगते हुए सितारे के डूबने का दिन 
आगया, किन्तु इस युद्ध के पीछे सब ने उस छोटे से सितारे को बड़े भारी दिवाकर के 
रूप में पारिणत होते हूंवे पाया । क्या धनी और क्या दीन,. सब के मुख से नेपोलियन 


मेम्चुआ का वशीकरण । ५३ 


क लिये प्रशंधासूचक शब्द निकले । नेपोलियन ने पीछे से कई वार कहा था कि 
उसे अपने भाग्यों पर पूरा भरोसा आकौंढा के युद्ध से ही हुवा है। इसी युद्ध में, 
नेपोलियन की भाग्यपरीक्षा का एक ओर अवसर भी उपस्थित हुवा । नेपोलियन, 
घोड़े पर सवार, सेना की गाति को देख रहा था कि अकस्मात्‌ एक तोप का गोला 
आकर उस के पास फटा । उस का घोड़ा चारों ओर से बिध गया । घबरा कर 
वह भागा । घोड़ा ऐसे जोश में था कि नेपोलियन उसे थाम न सका । भागता 
भागता वह दूलदल में जा पड़ा, और पड़ते ही मरगया । नेपोल्थिन भी दलदल में 
फंसगया । उस ने निकलने की चेष्टा की तो वह और भी अन्दर को धसने लगा। 
आखिर वह गरदन तक दलदल के बीच में जारहा । चारो ओर आस्ट्रियन सेना थी- 
बस किसी सिपाही की दृष्टि पईने की देर थी, या गदेन से ऊपर के हिस्से की भी 
दुलूदल में घुसने की देर थी । दोनों मे से कुछ होते ही, चमकता हुवा सितारा एक 
दम गुम हो जाता । किन्तु भाग्यों का फेर देखिये कि अकस्मात्‌ एक फ्रांसीसी 
सिपाही की ही दृष्टि उस पर पड़ गई । बस फिर क्या था-सारी सेना नेपोलियन 
की रक्षाथ उपस्थित होगई, सदा के लिये भूल जाने से एक मिनट पूर्व ही नेपोलियन 
दुलदल से निकल कर अपनी सेना का नियमन करने छूगा । बहुत से विग्नह के 
बाद, बम्सेर ने मेम्चुआ नगर भी २तीय फेब्रुवरी के दिन नेपोलियन के अधीन कर 
दिया । जब कोई सेनापाति श्त्रु के सामने हथियार रख दे, तब उस की खड़ग लेली जाती 
है। प्रायः एक सेनापति ही दूसेर सेनापाति की तलवार ले सक्ता है । वम्सेर बूढ़ा था; 
नेपोलेयन लड़का था । यदि नेपोलियन अपने हाथ से वम्सेर की तलवार लेने जाता 
तो वम्सैर को बहुत शर्म आती । इस लिये; नेपोलियन ने अपेन अधीन सेनापातियों 
में से एक बूढ़े को भेज कर उस द्वारा वर्म्सर की तलवार मंगाी । इस तरह आएशटिया 
की यह बहुत भारी सेना, नेपोलियन की बुद्धि तथा प्रतिभा के सामने धूल में मिल गई। 
अब केवल आस्ट्रिया की एक सेना रह गईं। आकंड्यूकचालेस, नो आस्ट्रिया के महाराज 
का भाई था, एक बड़ी सेना के साथ, सामने पड़ाहुआ था । नेपोलियन ने उस का 
पीछा किया। आकंडयूक भी पीछे को हटने लगा।हटते २ वह आस्ट्रिया की राजधानी 
यीना के पास पहुंच गया । तब तो आस्ट्रिया के महारान ओर उस के भाई बहुत 
घबराये । प्बराकर उन्हों ने नो कुछ किया उसे अगले परिच्छेद में पढ़िये । 





पञ्चम परिच्छेद । 
केम्पोफोमियों की सन्धि । 


शरं कृतश दुढविक्रमब लक्ष्मी: स्वयं याति निवासहतो: 

वार वार नीचा देख कर और पराजय पर पराजय खा कर आ्ट्रिया के 
महाराज का भय बहुत बढ़गया । उस  गर्वित जाति के गर्वित मुख्य पुरुष का भी मद 
लुप्त हो गया । नंपोलियन बीना से कुछ दूरी पर सेना लिये पड़ा था । तब आस्ट्रिया 
के महाराज न सन्धि के लिये प्राथना भेजी । नेपोलियन ने इस से पूर्व ही, महाराज के 
भाई ओर सेनापति आकंड्यूकचालर्स के पास लिखा था कि यह तो निश्चित ही है कि तुम्हारा 
पराजय होगा- तत्र तुम शान्ति ही क्‍यों नहीं कर लेते ? किन्तु तब चाल्स ने, इस 
सन्धि की ध्वजा का ग्रहण करना, अपने महत्व से नीचे समझा था। अब उन्हें 
स्वयं सान्‍धि के लिये प्राथना करनी पड़ी | कहते हैं ककि उस समय तक कभी किसी 
भी शत्रु न इटली के रास्ते से वीना मे प्रवेश नहीं किया था, अतः सारा नगर बहुत ही 
डर गया था । थोड़ी दर के लिये दोनों ओर से युद्ध बन्द कर दिया गया-ओर सन्धि के 
नियम कंम्पोफार्मिया नाम के एक ग्राम में निश्चित होने छगे । वहां पर आस्ट्रिया 
के महाराज के कुछ एक प्रातानोधे एक ओर बैठे और नेपोलियन दूसरी ओर बैठा । 

सन्धि के नियमों पर विवाद शुरू हुआ। आएट्रिया के प्रतिनिधियों ने ऐसी शर्तों 
का प्रस्ताव करना शुरू किया, जिन्हें नेपोलियन फ्रांस की सरकार के लिये मानहानि 
करने वाला समझता था । तब भी नेपोलियन चुप बेठा रहा । नेपोलियन की 
चुप को देख कर तो आस्ट्रिया के प्रतानोधि शेर हुए । एक बोला कि यदि 
हमारी पेश की हुईं सन्धि की इर्तें न मानी जायेगी, तो रूस की सेना के साथ मिल 
कर, हम फ्रांस को उन शर्तों के मानने के लिये बाधित करेंगे | दूसरा बोला कि उस 
मनुप्य को धिकार है, जो केवढ अपनी युद्धाकांक्षा को पूरा करने के ।किये अन्य देशों की 
शान्ति की परवा नहीं करता । इन सब अपमानजनक शब्दों को, विजेता नेपो- 
लियन शान्ति तथा गम्भीरता से सुनता रहा । 

जब आस्टिया के प्रतिनिधियों की सब हवा व्ययित हो चुकी, तब बड़ी फुर्ती 
से नेपोलियन उठ खड़ा हुआ । उस के पास ही एक बहुमूल्य प्याली पड़ी हुई थी । 


कैम्पोफोर्मियों की सन्वि | ५५९ 
वह किसी विनित नरेश ने उसे भेंट में दी थी | नेपोलियन ने उसे हाथ में उठा 


लिया, और शान्ति किन्तु बल से भरे हुए शब्दों में कहा कि ' महाशय ! जो 
शान्ति हुईं थी, वह टूट गईं । अब से युद्ध फिर प्रारम्भ होगा । किन्तु याद रक्खो, 
कि तीन महीनों में मैं तुम्हारे सारे साम्राज्य को ऐसे ही छिन्न भिन्न कर दूंगा, नेसे 
इस समय इस प्याली को छिलन्न भिन्न करता ईं ।? इतना कह कर उस ने 
वह प्याली फश पर दे मारी ओर चारों प्रतिनिधियों के सन्‍्मुख कुछ झुक कर उस 
कमरे से बाहिर हो गया । बाहिर आते ही एक गाड़ी में बेठ कर, वह अपनी सेना 
की ओर को खाना हुआ । आस्टरया के प्रतिनिबि यह दृश्य देख कर अवाकू रह 
गये । वे समझते थे कि नेपोलियन लड़ तो सक्ता है किन्तु नीति में उसे हम यूही 
जीत लेंगे। अब उन्हों ने देखा कि यहां भी नेपोलियन बाजी मार गया। 
. यह सब नाटक उस ने जान बूझ कर ही किया था। आस्ट्रिया के- प्रतिनिधि स्त्रय॑ 
नेपोलियन के पास आये ओर जेंसे सन्धि के नियम उस ने लिखाये वैसे ही उन्हें 
स्वीकार करने पड़े । 

इस सन्धिद्वारा फ्रांस की सत्ता हाईन तक बढ़ा दी गई | सिसैप्लाइन रिप- 
ब्लिक को स््रीकार किया गया ओर बेनिसत के कई एक प्रदेश आस्ट्रिया को दे दिये 
गये । इस सन्धि से कुछ देर पहिले, फ्रांत की डायरेक्टरी ने नेपोलियन को लिखा 
था कि वह आस्ट्रिया से सन्धि न करे, क्योंकि ऋन्‍न्ति का राज्य कभी भी एक 
सत्ताक राज्य के साथ सन्धि नहीं कर सक्ता । किन्तु नेपोलियन ने जिस दिन से 
इटली में पेर रक्खा था-उसी दिन से उस ने डायरेक्टी की कोई परवा नहीं की 
थी । वह प्रायः कहा करता था कि मैं इन गद्दों पर बेंठे हुए वकील-पिशाचों से शासित 
नहीं हो सक्ता | सेना की अध्यक्षता जब से उस ने स्वीकार की, तभी से अपने 
आप को स्वथा डायरेक्टरी से प्रथक्‌ समझ ढिया था | विश्ञेषतया लोदी के पल की 
लड़ाई जात कर तो उसे यह अनुभव होने लग गया था कि सारा संसार उस के नीचे 
विचर रहा है और वह आकाश में उड़ रहा है। उसे लोदी आकॉला ओर रिवोली 
के युद्धों में विनय पाकर, अपनी असाधारण शक्तियों पर विशधास ही नहीं किन्तु 
पूरा भरोसा हो गया था । 

इस सन्धि के साथ नेपोलियन के प्रथम चमकीरछे विनय का अन्त हुआ । इस 
विजय के साथ उपमा रखने वाढी और विजय इतिहास में मिलनी काठन है । यह 
विजय एक मनुष्य ने पाई-यह मानने की इच्छा नहीं करती । केवल पचास सहल 


६६ नेपोलियन बोनापार्ट । 


सेना की सहायता रखते हुए, फ्रांस की सीमा से लेकर वीना तक जीत लेना-और 
आस्ट्रिया जैस समृद्ध तथा पुराने देश के सब सेनापतियों के शस्त्र रखवा लेना कोई 
छोटी बात न थी। इन आश्चयेमय, किन्तु सत्य विनयों के हेतु क्या थे ! 

निःसन्देह इन विनयों में कारण नेपोलियन के आत्मिक तथा शारीरिक गुण 
थे। उस की प्रतिभा विचित्र थी-वह बड़ी ही शीध्रगामिनी, अनथक, ओर विस्‍्ता- 
रिणी थी । कोई भी ऐसी बात न थी, जिसे नेपोलियन की प्रतिमा ग्रहण न कर 
सक्ती थी । उस के एक सचिव का कथन है कि उस ने किसी समय भी, नेपोलियन 
के मन को थके हुए नहीं पाया | वह दिनों तक काय्ये करता था-संग्राम के लिये 
तय्यारियें करता था-और फिर जब कभी भी कोई विषय विचार योग्य आ माय-तब 
भी वह कभी उस पर विचार करने से पीछे न हटता था। 

उस की सेना की फुर्ती ओर हृढ़ता, उस के विजय के मुख्य कारणों में से 
एक थी। वह विद्युत्‌ कीसी तीत्र और आकर्षण शक्ति की तरह निश्चित थी। शत्रु उम् 
की गति को पा नहीं सक्ते थे। पहले उस के कि वे यह जानते कि नेपोलियन की 
सेना चल पड़ी हें-वह उन के ऊपर आ पड़ता था | कभी कभी जब शत्रु समझता 
था, कि उस ने नेपोलियन को सर्वथा बेर कर अशक्त कर दिया, उसी क्षण में वह 
देखता था कि नेपोलियन की तीज्रता तथा प्रतिभा ने उसे ही घेर लिया है। 
आकोला के युद्ध से पूर्व उस ने एलजी को जैसा छकाया था-वह पीछे आ चुका 
हैं । कहते हैं कि रोमन लोग सब से बड़े योद्धा थे, किन्तु नेपोलियन की सेना की 
चाल के सामने उन की चाल भी मध्यम पड जाती थी । 

नैपोलियन को जिताने वाला सब से बड़ा गुण उस का अपना साहस था। 
और उस का दूसरा बड़ा गुण यह था कि वह अपना साहस दूसरे में फूंक सकता 
था | बस फिर क्‍या था । समुद्र ओर आंधी उस मनृष्य के सामने तृण समान भी 
नहीं, भिप्त में साहसरूपी अग्नि विद्यमान है। नेपोलियन का साहस लोदी और 
आकोंला के युद्धों में अपनी पराकाष्ठा को पहुंच गया था । जिस स्थान में चारों 
तरफ से अग्नि की घोर वर्षा हो रही हो-वहां हाथ में झण्डा लेकर कूद पड़ना-यह 
उन्हीं लोगों के भाग्यों में लिखा हुआ है, जो नेपोलियन और सीजर की तरह 
संसार को कंपाने के लिये आते हैं । वह अपने साहस को सेना में किस तरह फूंक 
देता था-इस में उस के घोषणापत्र प्रमाण हैं । उस ने इटलछीविमय का प्रारम्भ ही 
एक ऐसे प्रोषणापत्र से किया था । एक वार की बात है कि उस की सेना निरन्तर 


विनय के कारण । ५७ 


दो रात तक चलती रही और दो दिनों में चार संग्राम लड़ चुकी-इतना कुछ करके 
उस ने विश्राम लेने का विचार ही किया था जब उस ने सुना कि शत्रु उस पर 
पीछे से आक्रमण कर रहा है । नेपोलियन ने देखा कि उस की सेना थकी पड़ी है। 
उस ने एक घोषणापत्र निकाला, जिस में अपनी सेना की वीरताओं का वर्णन करते 
हुए उसे ऐसा उत्साह दिया कि सारी की सारी सेना फिर वँसे ही अप्निवत्‌ उद्दीपित हो 
गईं, जैसी पहले थी । | 

ऐसे २ कई कारण थे जिन से नेपोलियन ने इन असाधारण विजयों को प्राप्त 
किया । वह अपनी सेना के सब सिपाहियों की मूरतों को पहिचानता था । 
जब किसी सिपाही के चोट छूगती, तो वह कभी २ अपने हाथ से उसके पट्टी बांधता 
था । एक वार बराबर तीन दिन के गुत्थम गुत्था के पीछे, उप्त की सेना विश्राम 
करने के लिये ठहरी । रात का समय था, किन्तु नेपोखियन को विश्राम कहां था । 
वह अपने उपनिवेश के चारों ओर धूमता हुआ पहरेदारों की देख भाल कर रहा था। 
एक स्थान पर आकर उस ने देखा कि एक सिपाही पहरा देते २ सो गया हे 
आर उसप्त की बन्दूक पास पड़ी है। वह बन्दूक उठा कर उस की जगह 
स्वयं पहरा देने लग गया । थोड़ी देर में पहरेदार की जाग खुली । पहरेदार ने 
ज्यों ही सेनापति को देखा, उस के तो होश हवास उड़ गये । किन्तु नेपोलियन 
ने उस के पास आकर, सांत्वना देते हुए कहा कि ९ में नींद के लिये तुझे दोष नहीं 
देता, क्योंकि में जानता हूं कि तीन दिन की थकावट एक लोहकाय को भी 
थकाने के लिये पय्याप्त है, किन्तु तो भी आगे से पहरे पर सावधान रहना अच्छा है ।! वह 
पहरेदार इस दया से नेपोलियन का कितना क्ृतज्ञ हुआ होगा-इस का आप ही 
अनुमान कर सक्ते हैं। ऐसी घटनाओं से सारी सेना अपने ' छोटे सेनापति ” से 
बड़ा ही प्यार करती थी । आकोंछा के पुल पर आज्ञा देंते हुए एक वार नेपोलियन 
ऐसी जगह खड़ा हो गया, जहां चारों ओर से तोप के गोलों की सीधी मार थी । 
एक सिपाही ने नेपोलियन के इस खतरे को देख लिया और उसे वहां से हटने के 
लिये कहा। नेपोलियन हटने में जरा झिप्नका-किन्तु उस सिपाही ने जोर से उसे पीछे को 
धक्का देकर कहा कि “यदि तू मारा जायगा तो हमें इस इन्द्रनाल से कौन निकालेगा ! 
तब नेपोलियन को पीछे हटना पड़ा । 

नैषोलियन के विजय के ये सब कारण ये । इन्हीं कारणों से, जब नेपोलियन 
झण्डा हाथ में लेकर, सेना के आगे होता था, तब सेना के मरे हुवे सेनिकों के अन्दर भी 


५९८ नेपोलियन बोनापार्ट । 


प्राण फूंक जाते थे, और उन के लिये जीना और मरना एकसा हो जाता था । किन्तु 
नेषोलियन के इन प्रथम विजर्यों का उद्देश्य क्या था ? वह किस लिये इन सब सं- 
>करशीमोीं को कर रहा था : इन प्रश्नों का उत्तर देना यद्यपि कठिन है, तथापि असम्मव 
नहीं । यद्यपि यह प्रश्न विचार साध्य है, तथापि उस में प्रयुक्त विचार दुष्प्रयुक्त 
होगा । 
इस में जरा भी सन्देह नहीं कि जब वह पहले पहल इटली की सेना का से- 
नापति बना, तब उस की कोई बड़ी उन्नत अभिलाषार्ये न थीं । यद्यपि, टउलन वि- 
जय तथा डायरेकूटरी की रक्षा से उस को अपने शस्त्रों पर बहुत कुछ भरोसा हो- 
गया था, तथापि अभी वह अपने आप को असाधारण प्ररुंष न समझने लगा था। 
अभी वह अपने आप को आकाश में उड़ता हुवा नहीं पाता था । तब उस के अ- 
न्दर वही कत्तेव्य का भाव काम कर रहा था, जो एक अच्छे सेनापतिमें होना चा- 
हिये। वह डायरेक्टरी का नोकर था, अतः रिपाब्लिक अभीत्‌ प्रजातन्त्र राज्य का 
पक्षपाती था; किन्तु, वस्तुतः उस के सिद्धान्त प्रमातन्त्र राज्य की ओर न झुकते थे। 
बाल्यावस्था से ही वह क्रान्ति के अत्याचारी नियम से डरता था, उसे खलकत के 
राज्य से घरणा थी । जब पेरिस के बाजार क्रान्ति की आग से धधक रहे थे, तब 
नेपोलियन उन में दुःखित दिल से घ्रूमता था-वह ऐसी क्रान्ति को बहुत ही 
पसन्द न करता था। अतः उस की सम्मतिर्य डायरेकूटरी की सम्मतियों से सवंथा वि- 
रुद्ध थीं । किन्तु, एक अच्छे सेनापति की तरह वह अपने स्वामी की आज्ञा के अ- 
नुकूल चलता था । 
नेपोलियन उस सिद्धान्त के लिये न लड़ता था, जिस के लिये क्रान्ति के 
अन्य सेनापति लड़ते रहे थे । वह स्वतन्त्रता, समानता और श्रातृता के लिये न 
युद्ध करता था । उस के युद्ध के उद्देश्य वे थे-नो उस ने इटली में आते ही, अ- 
पनी सेना के सामने एक घोषणापत्र में रकखे थे । उस ने घोषणापत्र में कहा था 
कि तुम्हें इटछी के जीतने पर आदर ओर कीर्ति प्राप्त होंगे! | वह कीर्ति ओर 
आदर के लिये युद्ध करता था | किन्तु इस धावे के शुरू २ में वह स्व॒तन्त्र इच्छा 
से काय्ये न करता था । छोदी के विजय ने उस को परिवर्तित मनुष्य बना दिया; 
उस समय से उसे अपनी गुप्त शक्तियों का भान होने लगा; तब उसे पता लगा कि 
वह एक साधारण मनुष्य नहीं है, किन्तु मनुष्यों का अधीख्वर है । तब उसे प्रतीत 
हुवा किवह स्वयं क्या कुछ कर सक्ता है और औरों से मी क्‍या कुछ करा सक्ता है! 


उद्देश्य ओर साधन । ६९ 


इस प्रतीति के होते ही उस के कस्तविक भाव और वास्तविक सिद्धान्त बाहिर आने 
लगे । उस के विजय ओर उस की सन्वियें-सब आदर और मान के लिये थे, वे क्रान्ति 
के प्रचार के लिये न थे । ह 


इसी समय एक घटना और होगई, जिम्त ने नेपोलियन को डायरेकूटरी की 
अधीनता से बहुत ही स्व॒तन्त्र कर दिया । डायरेक्टरी को नेपोलियन की अरुद्ध वि- 
जयों से भय प्रतीत हुवा, अतः उस ने एक ओर सेनापति को सेना का आधिपत्य 
बांटने के लिये भेजा। नेपोलियन ने अपना मृक्तिपत्र भेन दिया | तब डायरेक्टरी 
को चिन्ता पड़ी क्योंकि वह नेपोलियन को कदापि न छोड सक्ती थी | कह अब तक, 
अन्य सेनापतियों की अपेक्षा नेपोलियन के गोरव को ख़ब समझ गई थी । वह देख 
चुकी थी, कि जहां डेढ़ छाख से अधिक सेना के साथ जोडेन और मोरियों इधर 
उधर मारे २ फिर रहे थे, वहां नेपोलियन अपने ४० सहख आदमियों का छेकर 
अचम्मे दिखा रहा था ओर सारे योरप को मन्त्रमुग्ध कर रहा था । डायरेक्टरी ने 
नेपोलियन की सेनाध्यक्षता को बांटने का प्रस्ताव उठा लिया । इस के साथ 
ही नेपोलियन वस्तुतः डायरेक्टर से ऊपर होगया-वह डायरेक्टरी का स्वामी 
बन गया। 


नपोलियन 


इस के पीछे ने जो कुछ करता था, फ्रांस की ओर अपनी कीतें 
के लिये करता था । वह सांग्रामिक कीर्ति को ही कीतें समझता था । यह 
भी वह जानता था कि फ्रांस की कीर्ति और उस की कीर्ति साथ मिली हुई हैं; 
उस का विजय फ्रांप्त का विजय है और फ्रांस का विनय उस का विजय है । यह 
कहना असम्मव है कि इन दोनों में से उस के अन्दर प्रधानता किस की थी ! बहुतों 
की सम्मति है कि उसे फ्रांस की अपेक्षा अपनेआप से अधिक प्रेम था । किन्तु में 
ऐसी सम्माते रखने वालों के कथन को सर्वथा निष्प्रमाण समझता हूं-ओर उन से 
अपने पक्षसाधन में युक्ति देने के लिये प्राथेना करता हूं । 


नैषपोलियन सब कुछ फ्रांस की और अपनी कीर्ति के लिये करता था । शायद 
उस का कीर्ति का भाव ठीक न था-ऐसा कहा जा सक्ता है। इसी लिये, वह म- 
नुष्यों ओर देशों को विजय के सामने कुछ न समझता था। मनुष्यों को वह केवल शत- 
रंज के मोहरे समझता था-और अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिये उन्हें जहां चाहे 
रखने में कोई अशुद्धि न मानता था । भूमि को वह केवछ एक कपड़े के थान के 


६० नेपोलियन बोनापाटे | 

समान देखता था; उस के टुकड़े फाड़ २ कर जिन्हें चाहता था बांट देता था | ये सारे 
विजय तथा कीर्ति के साधन कहां तक आचार शाख से अनुमोदित थे ! यह प्रश्न 
और है-किन्तु नेपोलियन के ये उद्देश ओर ये साधन सदा ध्यान में रखने 
चाहिये । 


षष्ठु परिच्छेद । 


पेरिस में वेज्ञानिक जीवन । 
गुणा: पूजास्थान गुणिष न च लि६ज्ठ न च वय। । भवभूति । 

विजय का सेहरा सिर पर रक्खे हुवे, ओर सहर्नों नरनारियों के अभिनन्दनों का 
हृदय से ग्रहण करते हुवे, नेपोलियन ७ दिसम्बर ( १७९७ ) के दिन फ्रांस की 
राजधानी पेरिस में आ पहुंचा | लम भग एक वर्ष पूवे, वह उस स्थान से इटछी का 
सेनापाति बन कर गया था।जब वह गया था तब में ओर अब में बड़े भेद हो गये 
थे। न केवल नेपोलियन ही बदल गया था, फांसका झासन भी सर्वथा परिवर्तित 
होगया था । डायरेक्टरी, जिस की नेपोलियन ने ही रक्षा की थी, इस समय 
बहुत ही अलोकप्रिय हो रही थी । विशेषतया पांच सौ प्रतिनिधियों की 
समा तो उन के बहुत ही विरुद्ध हो चुकी थी ।नेपोलियन एक साधारण सेनापाते से, 
फ्रांस का रक्षक ओर अनुपम योद्धा बन चुका था । जब इटली से लोट 
कर आया, तब वह फ्रेच लोगों का पूज्यदेव बना हुवा था। प्रातिषदा के चन्द्रमा की 
तरह, हर एक मनुष्य की उंगली उस की ओर को ही उठती थी । जहां वह जाता 
था, सारे लोग उस के देखने के लिये उतावले हो जाते थे, ओर उस का बड़ा ही 
गौरवयुक्त स्वागत होता था । ये अभिनन्दन-ये स्वागत-एक छोटे दिल के मनुष्य 
के ज्ञान चक्षुओं के अन्धा करने के लिये पर्याप्त होते; किन्तु नेपोलियन मनुष्य- 
प्रकृति के ज्ञान में पूरा २ * गोतम मुनि ” था । वह इन सब लोकोत्सवों का मूल्य 
जानता था । उस के मित्र तथा निजमन्त्री बुरीने ने उस से कहा कि “ इन सब 
उत्सवों तथा सनाव्ों को देख कर तुम्हें अवश्य हर होता होगा ” नेपोलियन ने 
उत्तर दिया-'वाह ! यह अविचारशील जनसमूह, मेरे पीछे उत्त अवस्था में भी ऐसे 
ही लग जाय, निस अवस्था में, मुझे शूली पर चढ़ाने के लिये भेजा जा रहा हो। ! 


बेरिस को जाते समय उसने अपनी सेना को निम्नलिखित शब्दों से सम्बोधन . 
किया था--- 


“सैनिको ! मैं कल तुम्हें छोड़ंगा। तुम्हें छोड़ते हुवे भी, मुझे यह सन्‍्तोष है-कि 





६२ नेपोलियन बोनापार्ट । 


में शीघ्र ही फिर तुम्हें मिलेगा, और फिर तुम्हारे साथ साहापिक कार्य्यों में लगूंगा। 
सेनिको ! जब तुम आपस भें जीते इवे नरेशों और विजित जातियों के विषय में 
बातचीत किया करना, तो यह भी कहा करना कि “आगामी दो बरसों म॑ हम इससे 
भी अधिक विजय पायंगे! ।” 

नेपोलियन ७ दिसम्बर को पेरिस में पहुंच गया । वहां उसका जो स्वागत 
हुआ, वह ओर स्थानों से कही बढ़कर था । पेरिस के जिस किसी भी बाजार में से 
नेपोलियन की बाल्समान छोटी सी मूर्ति निकल जाती थी, वहीं बाजार स्वागत- 
सभा का रूप धारण कर लेता था । इस साधारण अभिनन्दन के अतिरिक्त, ओर 
पेरिस के बड़े २ आदमियों ने भी नेपोलियन के आने के उपलक्ष में बड़े उत्सव 
कराये । डायरेक्टरी इस समय बड़ी कठिनता में पड़ी । नेपोलियन के विजयों को 
देखकर ही वह इंष्याग्नि से तप रही थी, पेरिस का आभिनन्दन देख कर तो वह जल 
उठी । अतः वह उसका विशेष स्वागत करने को तय्यार न थी । किन्तु, लोकमत 
बड़ा प्रबल गुरु है; वह न पढ़ने वाले विद्यार्थी के अन्दर भी अभीष्टपाठ डाल ही 
देता है। इस लिये, डायरेकरी के समासदों को भी नेपोलियन के स्वागत के लिये 
सभा करनी पड़ी । 

एक बड़ा भारी पंडाल बनाया गया । उसमे एक ऊँचे और सुसज्जित आसन 
पर, डायरेकूटरी के पांचों सभ्य बड़ी शान के साथ विराजमान हुंवे । चारों ओर 
दर्शकी की भीड़ थी | सारी सभा की दृष्टि द्वारा की ओर लग रही थी। एक भी 
शब्द सारे पण्डाल में नहीं सुनाई देता था । द्वार में से एक छोटे सी और छश, 
किन्तु शान्त और गम्भीर मूर्ति प्रविष्ट हुई । उसके साथ विदेशीयसचिव छंगड़ा 
टेलीरेंड था । ज्योंही वह मूर्ति दिखाई दी, त्योही सारा मंडप तालियों से गूज उठा। 
तब वे दोनों प्लेटफार्म पर पहुंचे । टेलीरेंड ने, ऊँचे शब्द से सब को सम्बोधन 
करके, नेपोलियन का परिचय दिया ओर साथ ही कहा कि 'पहले पहले, इस व्यक्ति 
के इतने अनुपम कारनामों को देखकर में डर गया था। मैंने सोचा था कि कहीं 
यह समानता के नाश का साधन न हो, किन्तु मुझे पता लगा।के में भूल पर था । 
व्यक्तिगत गौरव, यदि राष्ट्रीयसेवा में निस्तवाथभाव से प्रयुक्त किया नाय, तो 
निस्सन्देह राष्ट्र के लियि अमृत है ।! 

इन प्रशंसा तथा प्रेम से भरे हुवे शब्दों का उत्तर देते हुवे, नेपोलियन ने कहा 
“देश वासियो ! इस वाक्य के अन्तिम शब्द निःसंदेह एक भविष्यत्‌ वक्ता की वाणी 


डायरेक्टरी द्वारा अभिनन्दन । ६ ३ 


के योग्य थे । फ्रांस के निवाप्तियों को स्वाधीन होने के लिये, राजाओं से युद्ध 
करने पड़ते हैं । तक पर आश्रित राजसंस्था की स्थापना के लिये उन्हें हजारों वर्षों 
से गड्दी हुईं वासनाओं का सामना करना पड़ता हे....। वह सन्धि, जो तुमने अभी 
की है, प्रतिनिधिसत्तात्मकराज्य का प्रारम्भ समझना चाहिये ।....मुझे तुम्होरे 
सामने, कैम्पोफोर्मियो की सन्धि रखेने का आदर प्राप्त हुवा है। शान्ति से स्वतन्त्रता, 
सम्पत्ति और कीर्ति की प्राप्ति होती है । ज्योंही फ्रांस को स्वतन्त्रता और विश्राम 
प्राप्त होंगे, त्योंही सारा योरप स्वतन्त्रतारूपी सुधा का पान करेगा ।! 

नेपोलियन के बोढ चुकन पर, डायरेक्टरी के वक्ता बारा ने नेपोलियन को 
सम्बोधन करके कहा, 'प्रकृति ने बोनापार्ट के बनाने में अपनी सारी शक्तियों का व्यय 
कर दिया है । बोनापाट ! तुम जावो, ओर जाति के मुखपर से अपमान का 
प्रज्ञाऊन करके अपने उज्वल जीवन को ओर भी देदीप्यमान करो । रुण्डन की 
क्ेबिनट को भयाक्रान्त करके उसे दिखादो कि स्वतन्त्र जाति कितनी वीरता दिग्वा 
सक्ती है। होईन ओर पो के जीतने वाली सेना को टेम्स नदी के विजय का यश 
प्राप्त कराओ! 

इस वक्तता के साथ यह उत्सव समाप्त हुवा । किन्तु, इस वक्तुता के अन्तिम 
वाक्यों के साथ एक नये युग का प्रारम्भ हुवा । यह नेपोलियन और इंग्लेण्ड की 
प्रतिद्वन्द्ठिता का युग था । इस समय से ही उस विरोधिभाव का प्रकाश हुवा, जिस 
का अन्त सेप्टहेलना में नेपोलियन के देहपात से प्रथम नहीं हुवा । इस समय इस 
विरोध का प्रकाश ह॒ुवा-किन्तु यह प्रतिद्वन्द्रिभाव और विरोध था पुराना । इस विरोध 
का प्रारम्भ, दोनों देशों के इतिहासों के प्रारम्भ के साथ ही होनाता है । किन्तु 
नेपोलियन के नीचे यह एक वि्शिष तथा भयानक रूप धारण करने को था । जब 
अभी नेपोलियन, अस्ट्रिया की सेना का पीछा करता हुवां बीना की दीवारों की 
छाया में जा पहुंचा था, रुण्डन की केबिनट के दिल में उसी समय एक श्यामल्छाया 
का संचार हो गया था । उसी समय से, उनकी नेपोलियन के छोटेसे देह में ब्रिटिश 
साम्राज्यरूपी हस्ती का अकुश दिखाई देने छग गया था | यही विरोधिमाव फेलता 
हुवा, घोर रूप धारण कर गया । ईजिप्ट का विजय उस बविरोधपूणे नाटक 
का प्रथम अह्ड था। 

इन सभाओं और उत्सवों के पीछे, नेपोलियन ने अपने जीवन को बहुत ही 
सादा बना लिया । | सेनापति का वेश उतार कर, उसने एक अच्छे विद्याप्रेमी का 


६४ नेपोलियन बोनापार्ट । 


रूप धारण कर लिया । बड़ी २ विद्वत्ममाओं का वह सभासद्‌ बन गया । विद्वानों 
की सभाओं में भी वह वैसा ही प्रसिद्ध हो गया, जैसा इटछी की सेनाओं 
में था। 

किन्तु, उसे यह शान्त जीवन देर तक व्यतीत न करना मिला। एक विद्वान्‌ के 
ढीले कपड़े उतार कर, उसे फिर शीघ्र ही बूट और सूट में अपने शरीर को कसना 
पड़ा । जब तक उसे इस शान्त अवस्था में रहना मिला, वह अपनी नेसर्गिक यत्र- 
दीलता से विद्यासम्बन्धी विषयों में भाग लेता रहा | यद्यपि उसने विद्यालय में 
बड़ी उच्च शिक्षा न पाई थी, तथापि अपनी असाधारण प्रतिभा के प्रभाव से, वह 
सवेथा अपठित विषयों पर भी बड़ी ही सरलता के साथ बातचीत कर ब्रक्ता था । 
निस्सन्देह इस अवस्था में वह किन्हीं बड़े बनने की इच्छाओं से बहुत दूर था। 
वह यूं ही असम्बद्ध कामों में भाग लेना न चाहता था, और अपनी वक्त॒ता में प्रशंसित 
शान्ति से, सचम॒च प्यार करता था | 

किन्तु डायरेक्टरी, राजनेतिक शासकों की सन्देहशीलछता से प्रेरित हो कर 
कभी भी उसे पूरे विख्वास की दृष्टि से न देखती थी । वह उस पर पूरा ध्यान 
रखती थी, गुप्तचर उम्र को चारों ओर से घेरे रहते थे ओर उस की एक २ बात 
की खबर डायरेक्टरी के पास भेजते रहते थे । नेपोलियन भी यह सब कुछ जानता 
था । वह सब कुछ जानता हुवा भी, न जानने का सा व्यवहार करता था। 
केवल इतना ध्यान रखता था कि वह डायरेक्टरी के कार्य्यों में सम्मिलित न हो और 
उस के साथ एकीभूत न समझा जाय । कहते हैं कि डायरेक्टरी ने एक वार अपने 
पूल्सि विभाग के अध्यक्ष फु्ञा ( 7०पघटा८ ) को नेपोलियन के गुप्तघात 
की आज्ञा दी थी । घूत फूशा ने उत्तर दिया कि नेपोलियन इस अक्स्था में 
तुम्हारे द्वारा वध्य नहीं हो सकता, ओर न ही फूछा नेपोलियन का धातक हो 
सकता है? । चतुर पुलिस का अध्यक्ष, डायरेक्टरी की अलोकप्रियता और नेपोलियन 
की लोकप्रियता में अच्छी प्रकार से अन्तर कर सकता था। 


अन्त को डायरेक्टरी ने; नेपोलियन को पेरिस से दूर करने का यही साधन 
समझा कि उसे सेना के साथ किसी ऐसे स्थान में भेना जाय, जहां से 
यातो वह जीता न लोटे-या उन के सब से बढ़े शत्रु को मार कर आय । उन्हें ने 
उसे इल्नलैण्ड के द्वीपों पर प्रहार करने के लिये निदेश किया । नैषोलियन राष्ट्रीय 


मिश्र विजय की तस्यारी। ६५ 


रक्षण का कार्य करने के लिय तय्यार ही था ओर उसे यह भी डर था कि कहीं 
उस का ऐसा एकान्तवास उसे लोगों की दृष्टि में सवंथा भुठा ही न दे । अपने एक 
मित्र से उसने ये विचार प्रकट मी किये थे। वह समझता था-और उस के बाल्य के संस्कार 
तथा शिक्षा उसे समझन के लिये बाधित करते थे-कि सांग्रामिक विजय हीं कीर्ति का 
रास्ता है। उस रास्ते में चलने के लिये, वह अपने आप को सवंथा तय्यार पाता था, 
अतः वह झटपट फिर से पृस्तक के स्थान में तेग पकड़ने के लिये उद्यत हो गया । 

पहले उसे डायरेक्टरी ने सीधा इंग्लेण्ड पर धावा करने के लिये आज्ञा दी । किन्तु 
वह मूख नहीं था । वह इंग्लेण्ड की अवस्था से ऐसा अज्ञ न था जैसे डायरेक्टरी के 
आरामकुर्सियों पर लम्बी तानने वार वकील थे । उस ने इंग्लेण्ड पर स्रीधा आक्र- 
मण करने की कठिनाइयें उन्हें खूब अच्छी तरह समझा दी । इंग्लेण्ड का सामृद्रिक 
बल, उस के निवासियों की देशमक्ति तथा साहस उसे इस कास्ये के करने से रोकते 
थे ।उस ने डायरेक्टी को यह बात समझाते हुवे इंग्लण्ड के पराजित 
करने का जो नया तथा स्वमूछक उपाय बताया, वह सचमृच उस की विचित्र बुद्धि 
का परिचायक था । उस ने उन्हें बताया कि यदि इंग्लैण्ड को जीतना हैं, तो उस पर 
एशिया में आक्रमण करना चाहिये । उस का पूरा प्रस्ताव यह था कि मेडिटरेनियन 
सागर के रास्ते माल्या मिश्र सीरिया आदि को जीतकर, उसी रास्ते से अंग्रेजी 
भारतवर्ष पर अधिकार जमाया जाय, तथा वहां से अंग्रेजों को खंदेड दिया जाय । 
उस की सम्मति में ऐसा करने से न केवल अंग्रेजों का साम्राज्य ही मलियामेट हो 
जाता, उम्र का सामुद्रिक महत्त्व भी विलुप्त हो जाता । नेपोलियन का यह महत्तत- 
युक्त प्रस्ताव डायरेक्टरी की समझ में भी आगया । उसप्त ने नेपोलियन को मिश्र देश 
( इजिप्ट ) की ओर यात्रा करने की आज्ञा दी । 

केवल इंग्लैण्ड के मद पर चोट लगाना ही नेपोलियन का उद्देश्य न था ; पश्चिम 
में उस्त को अपने वीय्यं तथा शौर्य के अदुकूल साम्राज्य स्थापित होता नज़र न 
आता था । सिकन्दर के पूर्वायविनय भी उस की आंखों के सामने फिर रहे थे । 
यह विचार भी उस के मन में काम कर रहा था कि यदि वह अफ्रीका तथा 
एशिया के असभ्य देशों को स्म्य बना देगा, यदि वह वहां के अत्याचारी राज्यों के 
स्थान में उदार राज्य स्थापत कर देगा, तो वह मनुष्यजाति के उद्धारकों में से एक 
समझा जायगा । इन सब विचारों को मन में रखता हुआ नेपोलियन मिश्र के विजय 
के लिये सनद्ध हुआ | 


सप्तम परिच्छेद । 


मिप्नदेश में पराक्रम । 

हेतोः कुतो:प्यसदुशा: सुजनाः गरीयः, कार्य्याश्निसगंगुरवः स्फुटमारभन्ते । रलाकर। 

चारों ओर किवदन्ती फैल गई कि छोदी ओर आर्कोला का विजेता कहीं पर 
आक्रमण करने वाला-उस की युद्धप्वना किसी ओर को प्रस्थान करने वाली है। 
इस के सिवाय ओर किसी को कुछ पता न था । कोई कहता था कि 'छोटा सेनापाति! 
इंग्लैण्ड के राजा की गद्दी छीनने चला है; कोई कहता था कि यह नया. सिकन्दर भारतवर्ष 
को अपने चरणों पर लिटाने चला है। सारांश यह कि जितने मुंह उतनी बातें सुनाई 
देने लगी । नेपोलियन तथा डायरेक्टरी के सिवाय और कोई न जानता था कि वह 
मिश्र के विजय के लिये सन्नद्ध हो रहा है। नेपोलियन के अधीन सेनापाति भी अपने 
अध्यक्ष के उद्देश्य से अनभिज्ञ थे । 


नेपोलियन अपनी नेसर्गिक चतुरता से इस नये काय्य॑ के लिये तय्यार होने 
लगा । पेरिस के सारे पुस्तकालयों में उसे मिश्र के विषय में नितनी प्रस्तकें मिली, 
उन सब को उस ने पढ़ डाछा | उधर बन्दरगाह पर बेड़ा तय्यार होने लगा ! इधर 
इटली की सेना को फिर से उस ने नियमबद्ध करना शुरू किया । इस वार सेना में 
चालीस सहस्न सैनिकों के अतिरिक्त, बहुत से भूगोलादिवेत्ता विद्वान्‌ भी लिये गये । 
उन का उद्देश्य मिश्र के भोगोलिक तत्त्वों का पता लगाना था । ठउलन में सारा 
बेड़ा सन्नद्ध किया गया । निःसन्देह जिस साहसिक काय्ये के करने के लिये नेपो- 
लियन तय्यार हुआ था, वह बहुत ही असाधारण था । इंग्लेण्ड का बेड़ा भूखे चीते 
की तरह समुद्र में घूम रहा था। उस समय मिश्र में उतरना, फिर वहां पर अपनी थोड़ीसी सेना 
को लेकर रुधिर के पिपासु ममलूकों को पराजित करना--यह कोई हंसी ठंडे की बात 
न थी । किन्तु नेपोलियन का साहसिक मन इन ध्यानों में न फंसता था, वह हर- 
एक साहस को सम्भव समझता था । असम्मव शब्द उस की सम्मति में फ्रेच न था। 


१९ मई ( १७९८ )का दिन आ पहुंचा। वह सेना की तय्यारी का दिन था। 
नैपोलियन अपने थोड़े से मुख्य २ सेनाध्यक्षों के साथ टउलन पहुंचा । वहां साशी 





मिश्र के लिये प्रस्थान । ६७ 


सेना को इकट्ठा करके, उस ने प्रोत्साहक शब्दों से उसे उत्तेनित किया । पराने 
विजयो का स्मरण कराते हुए, और रोम की सेना का उदाहरण सामने रखते हुए, 
उस ने देश की समूद्धि, मुष्य जाति की प्रसन्नता और अपनी नामकरी के 
लिये लड़ने की प्रेरणा न की। यह बात यहां पर ध्यान देने योग्य है कि यद्यपि उस् ने 
अपनी सेना को स्वतन्त्रता, समानता, या आतृता के नाम पर उत्तेजित नहीं किया, 
तथापि उस ने किन्हीं बहुत नीच भावों का लोम सेना को नहीं दिलाया । 
किन्तु इंग्लैण्ड के पत्रों ने, जो नेपोलियन को अभी से अपना प्राणान्त श्र समझने 
लग गये थे , इस वक्तृता की एक विचित्र ही रिपोर्ट प्रकाशित की, जिस में नेपो- 
लियन के मुख से बड़ी ही नीच बाते कहाई गंई। यदि किसी ने छापा कि नेपोलियन ने 
सेना को लूट मार का छोम दिया था, तो किसी ने कहा कि उस ने उन्हें जमीन 
खरीद देने के नाम पर उत्साहित किया था; किन्तु उस की वक्तृता में वस्तुतः इन 
चीजों का गन्ध भी नथा । 


अस्तु । १९ मई के दिन नेपोलियन का जबर्दस्त बेड़ा पोतस्थान से बाहिर 
हुआ । वह बड़ा भारी गर्नता और चमकता हुआ मेघ समुद्ररूपी वायुमण्डल में 
विहार करने लगा । समुद्र में मी नेपोलियन वैसा ही कार्य्यव्यप्म था, नेसा वह 
स्थल पर होता था । बेड़े के सारे निवासियों का समय, कार्य्यों में बंठा हुआ था । 
सारी सेना नियत समय पर शास्त्र चलाने का अभ्यास करती, समय पर भोजन तथा 
विश्रामादे करती थी । उस का और उस के अनुयायियों का समय इसी प्रकार 
बंधा हुआ था, जैसे ऋतुओं का समय वर्ष भर में बंधा रहता है । वहस्वयं भी, सारे के 
सारे बेंडे की देख माल के अतिरिक्त, बातचीत करने ओर पढ़ने लिखने में अपना 
समय बिताता था । उस का मन मोम का बना हुआ था-वह उसे जिस समय 
जिस तरह चाहता था, मोड़ लेता था | सेना की स्थिति का प्रबन्ध करते २ 
क्षणमर में यदि एक भूगोल के पण्डित ने आकर कोई बात छेड़ दी, तो उस में थी 
नैपोल्यिन किसी से पीछे न रहता था। कई लोग उस को सर्वज्ञ समझते थे, 
क्योंकि वह हर एक विषय में, अपनी असाधारण प्रतिभा के बल से, एक्सी ही 
सुलमता से बातचीत कर सक्ता था । 


४ ग्राम॑ गच्छन्‌ तृ्णं स्शाति ” इस न्याय के अनुसार रास्ते में जाते २ उस ने 
साल्टादीप को भी अपने वश में करके, फिर आगे प्रस्थान किया । रास्ते में कभी २ 


६८ जैपोलियन बोनापार्ट । 


बेड़े पर से कोई मनुष्य समुद्र में गिर पड़ता था | यह सामुद्रिकपोतों में एक साथा- 
रण बात है। किन्तु नेषोलियन के लिये यह एक साधारणे बात न थी । वह एक भी 
प्राणी के निरुपयोगी प्राणहरण को न सह सक्ता था। जहां किसी के गिरने की आवाज 
आईं, वहीं “ छोट सेनापदि ' के कान खड़े हो जाते थे | सारा बेड़ा खड़ा किया 
जाता था, ओर पानी में डूबने हुए श्यक्ति के बचाने का यत्ञ किया जाता था । जो 
कोई तेराक डूबते हुए को पकड़ नाता , उस की पांचों उंगलियि थी में थीं; 
नेपोलियन उसे खूब इनाम दिल्वाता था। एक रात बड़ा मज़ाक हुआ । किसी 
भोज्य पदार्थ का एक टुकड़ा जहाज पर से नीचे गिर पहा । सब जहाज खड़े कर 
दिये गये | तराक चारों ओर मंत्र २ कर बूमने रूगे | अन्त में वास्तविक बात का 
पता लगा । नेपोलियन ने तेराकों को पहले से भी अधिक इनाम दिया , क्‍यों कि उस 
की सम्मति में यदि वह मन्प्य ही गिरा होता तब भी वे ऐसा ही यत्र करते ! इनाम 
परिश्रम तथा सहभात र का था-न कि निकाली हुईं वस्तु का । 

प्रथम जुलाई ( १७९८ ) के सायंकाल के समय, वह शरों से अधिप्ठित बेडा 
मिश्र की बन्दरगाह अलेग्जाणिड्रथा के कुछ दूर पर आ पहुंचा । वहां आते ही 
नेपोलियन को पता छगा कि एक दिन पृ वहां पर इंग्लेण्ड का बेड़ा उम्र की तलाश 
में आया था, और अब फिर झुड गया है । वस्तुतः बात यह थी कि नब से 
नंपालियन टठलन से चलता था, अंग्रेजों का बेडा तभी से खूनी चर की तरह उम्र 
की ढूँट में फिर रहा था ; दूँईते २ वह नपोहियन से एक दिन पहिल 
अछेग्जेण्डिया में आया ओर उस वहां नपा कर फिर छोट गया । नेपोलियन 
की समद्रयात्रा मे इंग्लिश केब्रिनट के दिल दहल गये थे ओर दिन रात उन्हें सिवाय 
नेपोलियन ' के ओर कुछ न मसूझता था | 

नपोडियन सायकाल के समय वहां पहुँचा। रात भर सेनार्थे किनारे पर उतरती 
रहीं । प्रातःकाछ होते ही सारी सना सन्नद्ध होगई। अलेग्ज़ेण्डिया नगर उत्ती दिन 
काबू कर लिया गया । उसे काचू में कर के नेपोलियनने मिश्र वासियों के नाम एक 
त्रोपणा निकाली । उस में उस ने उन्हें बताया कि में तुम्होरे धम को नष्ट 
करने नहीं आया हू। में खदा की, हजरतमुहम्मद की, और कुरानशरीफ्‌ की उन लोगों 
से अधिक इज्जत करता हू जो तुम्हांर ऊपर शासन करते हैं । तुम्होरे शासक मम- 
लूक छोग हैँ । वे तुमपर अत्याचार करते हैं, में तुम्हें उन अत्याचारों से छुड़ाने 
आया हूं। नो मेरे साथ रहेगा उसे सब सुख प्राप्त होंगे, किन्तु नो मेरा विरोध करेगा 


केरो को प्रस्थान । ६९, 


उस का चिन्ह भी इस भृतल पर न रहेगा ।” यह ह घोषणापत्र मिश्र के निवासियों 
को, नेपोलियन के झण्डे के ते छाने के लिये पर्याप्त था । बहुधा कहा जाता है 
कि नेपोडिलन ने यहां पर अज्ञ छोगों को मोहित करने के लिये केवछ आइम्बर 
मात्र रचा था क्योंकि नपोडियन क्रिश्चियन था, सृसल्मान नहीं। किन्तु वस्तुतः बात 
यह थी क्रि नैपोडियन ने कमी भी अपने आप को कट्टर ईसाई नहीं कहा । वह 
ईइवर में विज्ञास रखता था, तथा सभी बड़े धर्म प्रचारकों में उस की श्रद्धा थी। वह 
धर्म के कई मोलिक सत्यों से प्रेम रखता था-किसी विशेष मत से नहीं । निःसन्देह वह 
मृहग्मदी धर्म को नष्ट करने वाला न था, तब उस का यह घोषणापत्र छछ रूप नहीं 
हो सक्ता । हां, इस में सन्देह नहीं कि यद्यपि यह पत्र सत्य था, तथापि नेपोलियन 
उसे खब अच्छे मोके पर काम छाया । इस लिये, नेपोलियन के श्रोपणापत्रपर यह दोप 
दिया जासक्ता है क्वि उस ने धर्म जेसी पविन्न वस्तु को राजनोतिक विनय का साधन 
बनाया । 
कि दिन तक नेपोलियन अलेग्ज़ेणि ड्था में रहा, फिर तीन सहस्त्र सेनिकों को वहां 
छोड़ कर उस ने मिश्र की रामवानी केरो के विजय के लिये प्रस्थान किया। नाते हुवे 
उस ने अपने सामुद्रिक सेनापति श्रयुईस (27५०)७) को आज्ञा दी कि वह अपने 
बडे को उस्त अरक्षित अवस्था से-जिस में वह उस समग्र पड़ा हुवा था-निकालकर, वन्दर 
के मध्य में ले आंव, ताकि उस पर आक्रमण करने का किसी शत्रु की साहस न 
हो सके। नेपोलियन की शेप सेना का प्रस्थान आरम्म हुवा । जिस रास्ते नपोलियन को 
जाना था, वह सारा का सादे रेतीले मेदानों से भरा पड़ा था । रास्ते में पानी ओर हरि- 
यावल का कहीं नाम न था | पांच दिन ओर पांच रात तक सारी सेना को इसी मरुस्थल मे से 
गुजरते रहना पड़ा । इन दिनों में, सेना के चैेये की तथा नेपोलियन के प्रति प्रेम की 
बड़ी गहरी परीक्षा होगई । इन दिनों ने सिद्ध कर दिया कि सना के साथ नेपोलियन 
किन्हीं कच्चे बन्धनों से नहीं जुड़ाहुवा, किन्तु वे बन्चन नो उसे अपनी सेना के साथ 
जोड़ते हैं फ़ोछाद और वजू के बन्चनों से कही दृह हैं । नेपोलियन भी इन दिनों 
में अपने घोड़े की पीठ पर से उतर कर छोटे २ कदम रखता हुवा पेदल ही चलता 
था । नीचे रेत में ही सो रहता था, और सैनिकों का सा ही सादा भोजन करता था। 
बातों ने, उन के बन्धन को और भी दृढ़ कर दिया। इस यात्रा मे ममलुक 


सिपाहियो ने भी फ्रेंच सेना को ख़ब तंग किया । कभी रात की, कभी दिन को, 
इधर उधर से आकर छापा मार देते ओर दो चार की मारकर भाग जाते । 


शक नेपोलियन बोनापार्ट । 


अन्त को इस विपद्‌ का भी अन्त हुवा । छे दिन की निरन्तर यात्रा के अनन्तर, 
सारी फ्रांसीसी सेना कैरों नगर के समीप आगई । नील दरिया के पृर्वीय तटपर कैरो 
नगर वसा हुवा है, उस के पश्चिमीय तट पर नेपोलियन अपनी सेना लेकर आपहुंचा । 
वहां मैदान में अपनी सेनासहित खड़े हो कर, जब उस ने चारों ओर देखा, तो उसे 
मिश्र के बहुत पुराने पिरामिड दिखाई दिये । उन को देखते ही उस के कवितुल्य 
कल्पनापूर्ण मन में एक दम बड़ाही तेजस्वी भाव उत्पन्न हो आया, ओर अपनी सेना 
के सामने से वह यह कहता हुवा गुजरगया कि “ सैनिको ! उन दूरवर्ती पिरोमिडों 
पर से चालीस शताब्दिय तुम्हारे अद्भुत काय्यों को निहार रही हैं ।' इन शब्दों 
ने नेपोलियन की सेना को अरक्तरसितसा कर दिया-और वे अपनी स्वाभाविक वारता को 
प्राप्त हो गये । सुरादबे-जो ममलूकी का सरदार था-अपने दसहमार घुडसवारों 
के प्ामने संसार की किसी भी शक्ति की आधिक न समझता था । दस सहस्त बड़ 
सवारों की सहायतार्थ २९ सहस्न पेद सेना थी। इस शक्ति के साथ मुरादबे ने 
नेपोलियन पर आक्रमण किया । उस्त के पास नितनी ब्रिटिश सरकार की भेजी 
हुवी तोपे थी, उन्हें उस ने लकड़ी के आधारों पर नगर के सामने ऐसे गाड़ रखा 
था कि वे मुड न सक्ती थीं । नेपोलियन ने दूरसे ही यह ताड़ लिया । अतः 
सामने का प्रहार छोड़ कर, उसने एक पार्वे से प्रहार किया | यह देख कर मुरादब 
को और भी जोश आया । अपने घुड़सवारों को आक्रमण करनें की आज्ञा देते हुवे 
उसने कहा ॥के इन कुत्तों को घास की तरह काट दो । निःसन्देह ममलूक घुड़सवारों 
की बराबरी का और घुड़सवार संसार में मिलना काठिन था । युद्ध हो चुकने पर नेपो- 
लियन ने कहा था कि''यदि मुझे फ्रेंच पेदल सेना के साथ ममलृक बुड़सवार मिल जांय 
तो में सारी पथ्वी का राजा हो सक्ता हूं ।! 

ममलूक घड़सवारों ने प्रहार किया, किन्तु फ्रांसीसी सेना दीवार की तरह खड़ी 
रही । नेपोलियन के तोपखाने ने भी अपना मुंह खोल दिया । बस फिर क्‍या था ! 
एक घंटे से भी थोड़ी देर में आधे से आधिक घुड़सवार भुनगये-जो शेष थे वे भाग 
गये । पेद्ल सेना भी शहर को छोड़ कर सात नो ग्यारह हुवी। सेना का एक बड़ा भाग 
दरिया में डूबगया । नेपोलियन की विजयी सेना कैरो नगर की, और साथ ही मिश्र 
की स्वामिनी हो गई। इस युद्ध का नाम, पिरामिडों का युद्ध रक्खा गया । यह युद्ध 
नपीलियन के बहुत प्रापिद्ध तथा भाग्यरक्षक युद्धों में से एक था । 

इस युद्ध ने एशिया ओर अफ्रीका में नेपोलियन के नाम की धाक बांधदी । 





पिरामिडों का युद्ध 
सेनिक्रो ! उन दूरी पिरामिडों पर से चालीस शताब्दियें तुम्द्ारे अद्भुत कार्यों 
को निद्दार रही हैं घू० ७० 


प्रिश्न का शासन । ७१ 


उसप्त का. नाम “आग का सुल्तान! पड़ गया चार्रो ओर यह विजयी नाम 
प्रसिद्ध हो गया। किन्तु विनय में उदारता दिखाना ही सजनता का चिन्ह है। ज्ञाने 
मोन क्षमा शक्तो! यही सजजनता का रक्षणहै। 'विकारहेती सति विक्रयन्ते येपालचेतां- 
सिसत एवं धीरा:। वही पीर हैं, निन के मन विकार का कारण प्राप्त होने पर भी 
विक्षत नहीं होते । कारण न प्राप्त हुवे ही जो अपने मन को विकृत रखते हैं, वे 
तो मनृष्य नाम से कहे जाने योग्य भी नहीं । नेपोलियन ने इस समय क्षमा तथा 
दया का माव दिखा कर अपनी सत्पुरुषता तथा महानुभवता दिखाई । मुरादबे की 
खत्री कैरों में थी । उस का राजपत्नी समान आदर किया । सारे नगर में त्लीमाति को 
सुरक्षित करने की आज्ञा देदी, और साथ ही पुराने अपराधियों को क्षमा कर दी । 
तब नेपोलियन ने मिश्र को सम्य बनाना शुरू किया । न्यायविभाग का 
संशोधन उस ने सब से प्रथम किया । रोगियों के लिये ओषधालय बनाये | स्थान २ 
में सांग्रामिक उपनिवेश स्थापित किये । पुरानी इमारतों और मस्निदों की रक्षा 
में विशेष ध्यान दिया । अरब छोग नेपोलियन की इस दयापूणे तथा सौम्य नेष्टा से 
आश्चर्यित थे । नेपोलियन की न्यायप्रियता का एक बड़ा अच्छा उदाहरण प्रसिद्ध 
है। एक दिन वह कई एक शेर्खों के साथ बात चीत कररहा था, जब उसे सूचना 
मिली कि कई लुटेरे एक किसान को मार गये हैं । नेपोलियन ने आज्ञा दी के 
इसी समय उन छुटेरों को पकड़ लिया जावे । शेख छोग, जिन्हें एक किसान के साथ 
न्याय करना विचित्र प्रतीत होता था, बोल उंठे-'क्या वह तेरा सम्बन्धी था जो उस 
की मृत्यु पर इतना नाराज हुवा है? नेपोल्यन ने शान्ति से उत्तर दिया- 

"वह मेरा सम्बन्धी से मी अधिक था-परमात्माने उस की रक्षाका भार मुझे सौंपा 
था! आश्चार्येत हुवे हुवे शेख ने कहा के 'अहो ! तूतो खुदा के भेजे हुवे की तरह 
बोलता है ।! 

इसी सम्य करने के पविल काये में लगे हुवे नेपोलियन ने सुना कि उस 
का बेड़ा, नो अटेग्मुण्डिया मे विश्राम कर रहा था, विघ्वस्त हो गया। लाडैनैल्सिन 
भिटिश जेड़े को लिये फ्रांसीसी बेड़े को ढूंढता हुवा फिर रहा था, अन्त को उसने 
उसे पा लिया। अभी तक सेनापाति ब्र्यूइस ने नेपोलियन के कथनाजुसार सुरक्षित स्थान का 
आश्रय न लिया था-अतः नेल्सन ने शाघ्र ही उसके सारे बेड़े को नष्ट कर दिया । 
यह समाचार नेपोलियन के लिये बढ़ा ही भयानक था, क्योंकि इस बेड़े के ध्वंस से 
मैपोलियन एक तरह से मिश्र में कैदी हो गया । अब वह किसी तरह भी बाहिर न 


७२ नेपोलियन बोनापांट । 


निकल सक्ता था । किन्तु नेपोलियन ने इस समाचार को शान्ति से सुना, और सेना 
की भी निराश होने से रोकने का यत्न करता रहा । 

इस घटना के कुछ दिनों बाद मुरादबे ने, जो कैरो से भागा हुवा था, एक बड़ी 
भारो गृप्तमन्त्रणा की-। कई ममलूक सैनिक इस मन्त्रणा में संमिलित थे | एक दिन 
निश्चित किया गया, जिस दिन सारे कैरो नगर को बेर कर नेपोलियन को सना सहिय 
मार दिया जाय । कुछ देर के लियि यह मन्त्रणा कृतकृत्य भी हुईं । कई फ्रेंच 
सिपाही अचानक मारे गये । किस्तु नेपोलियन इन तुच्छ मन्त्रणाओं के काबू में 
आने वाला आदमी नहीं था | उसने बड़ी ही कठोरता में अपराधियों को दण्ड दिया। 
आर इस समय कठोरता आवश्यक भी थी । वह विनातीय निवासियों के अन्दर 
पड़ा हुवा था, यदि वह यहां पर कठोरता से इन विद्रोहों कोन दबाता तो वह और 
उसके वीर सेनिको में से एक भी जीता हुवा न बचता । 

नंपोलियन न इसी समय सुना कि कुछ सेना इकटठ्ठी होकर सीरिया की ओर 
से उस पर आक्रमण कर रही है।उस न यह सुनते ही निश्चय किया कि चाहे कुछ ही 
हो सीरिया का भी अवश्य विजित देशों में मिला लना चाहिये। बस फिर क्‍या था ! 
सारी सना को नस्यार करके उसने सीरिया के विनय के लिये प्रस्थान किया । जिस 
शत्रु के साथ युद्ध करने के लिये नेपोलियन ने प्रस्थान किया था; वह तुके छोगों 
की खंख्वार सेना थी । उस सेना की सहायता के लिये इश्जंलण्ड घड़ाधड़ अखशख्त् 
ओर मिपाही भेम रहा था । रूस के जहाज भी अपनी सनाओं को छिय इधर उधर 
घूम रहे थे । शत्रुओं की पचास साठ हजार सेना का एक विदेश में सामना करने के 
डिये नेपोलियन कोई पन्द्रह हमार सेना लेकर रवाना हुवा । 

शत्रु की सेना को उसने एकर नगर के समीपस्थ मेदान में एक बड़ी भारी 
शिकस्त दी, ओर उस नगर को चारों ओर से ब्रेर छिया । नगर के अन्दर इद्नलेण्ड का 
सेनापति सर सिडने स्मिथ अपनी सम्य तथा सज्न सेना को लिये पड़ा हुवा था | 
नेपोलियन का विचार था कि वह बहुत दिनों तक इसे बेर कर अपने वश में करंले। 
दो मास तक वह निरन्तर घेरा डाले पड़ा रहा। किन्तु, उसके पश्चात्‌ भी स्थान काबू में न 
आया | इतन पर ही बस न थी। उस्ती समय अह्ग्रेनों के जहाज, तुर्कों की सेनाओं को 
नेपोलियन के साथ लड़ने के लिये निरन्तर सीरिया में उतार रहे थे | इन सब कठि- 
नाइयों को विचार कर, नेपोलियन ने बेरे को छोड़ कर मिश्र को छौटने का ही 
विचार किया । तदनृप्तार २० मई के दिन नेपोलियन, एकर को अपने भाग्यों पर 


विपत्ति में फंसमया । ७३ 
छोड़ कर कैरो की ओर को छोट पडा । तीन महीने की यात्रा के पश्चात्‌ फिर वह 
अपनी राजघानी से प्रविष्ट हुवा । 

इस समय नेपोलियन बड़ी ही कठिन अवस्था में पड़ा हुवा था । उसकी सेभा 
में प्लेग फेलजाने से सिपाहियों की संख्ब्या कम हो रही थी । उधर यद्धभ में भी सैनिकोकी 
एक बड़ी संख्या गिर चुकी थी । फ्रांस का बेडा बिहकुछ तबाह हो चुका था-इस 
लिये सहायता की भी कोई आशा न थी । इधर ता यह हाछत थी, और उधर 
ब्रिटिश जहाज तुक सेनाओं की चड़ाचड आजअूकिर की खाड़ी में उनार रहे थे। इस 
समय इह्डलेण्ड नेपाल्ियिन के खून का प्यास्ता हो चुका था-वह नेपोलियन का परा- 
जय करने पर तुला हुवा था | शायद उसे नपोहियन के विजयी होने पर भारतवर्ष 
के साम्राज्य खुसने का डर था; शायद वह फ्रांस्री बहती हुई शक्ति को अपनी 
व्यापिनी शक्ति के लिये घातक समझता था। चाहे कुछही हो-किन्तु वह नेपोलियन के 
विज्यक्रम का बन्द्र करने पर तुछा हुवा था: और मरी सम्मति में उसका विरोध 
बहुत अशो में ठीक तथा आवश्यक था । किसी भी गेक से न रोका गया नेपोलियन: 
न नाने क्या करता ! क्या सारा संसार भी उसकी महत्तताकांला के सामने तुच्छ 
न जचता ! 

इधर तो इश्जलेण्ड का ऐसा विरोध ओर यत्न, उपर फ्रांस में भी बुरा हाल 
हो रहा था | घर में फूट से आर बाहिर पराजयों से फ्रांस की प्रानी कीर्ति धूल में 
मिल रही थी। इस से भी नपरोव्यिन बहुत चिस्तित था। इन दोनों कारणों से उसने 
फ्रांस को लोट जाने का विचार क्रिया, किन्तु छोटना भी कोई सुलम कार्य नथा । 
आधजूकिर की खाड़ाम १८ महस्र ठुर्क सना अपने डेरे डाडे पह्ी थी ओर अधिक 
सेनाओं के आने की प्रतीक्षा कर रही थी । ऐमी भयानकातैपत्तिरूपी रात में, 
नपोलियन के मैन में अकम्मात्‌ साहस रूपी चन्द्रमा का उदय हो आया । यह महा- 
पुरुषों का एक चिन्ह है। मब चारों ओर निराशा रूपी मेब्र बिर जाता हे-तब 
उनके मनों में उत्साहवायु का एक झोंका उठता है जो निराशा के सब 
मेत्रों को तितर बितर कर देता है । नंपोलियन के मनमें भी अब एता ही एक विचार 
उदित हो आया । उसंन जितनी जल्दी हो सके, आवूकिर में पड़ी हुवी सेना को 
काट डालने का निश्चय किया। तत्क्षण सारी सेना करो को छोड कर आबूकिर की 
ओर को प्रस्पित हुई । 

मरुस्थल के कठोर रास्ते में दिन ओर रात चढती हुई नेपोलियन की अनथक 


७४ नैषोलियन बोनापा्े । 


सेना, सात दिन में आबूकिर पहुंच गई । नेपोलियन की थकी हुईं सेना केवल आठ 
हजार थी, और सामने पड़ी हुई शत्रु की तानी सेना १८ सहसख्त से कम न थी, और 
तो भी, यह अमाचापिकशक्तिसम्पन्न मनुष्य डरना न जानता था । २५ जुलाई के 
प्रातः: का, जब अभी तुर्कलोग अपने विस्तरों पर लेट लगा रहे थे, नेपोलियन ने 
एकाएक आक्रमण बोल दिया । तु लोगों को सज्जित होने के लिये भी पय्योप्त समय 
न मिला था कि नेपोलियन की घुड़सवार सेना का अध्यक्ष मूरा अपने अनिवाय्ये 
सवारों के साथ उनके उपर जा पड़ा । मूरा नेपोलियन की घुड़सवार सेना का 
सब से बड़ा अध्यक्ष था। जब वह जवान अपनी जंगी फोन के साथवार करता था, तब 
शत्रु को सारी चोकड़ी भूल जाती थी । उसकी सेनाके प्रहार को रोकना कोई "हँसी 
ठट्टा न था । जब वह अपने दीघेकाय घोड़े पर सवार होकर दांये हाथ से तलवार 
की हिलाता और आक्रमण कर्ताओं के आंगे हो जाता था, तब उसकी सेना में 
राक्षसीलीला का प्रवेश हो जाता था । इतिहास ने कोई भी मूरा का ऐसा धावा नहीं 
लिखा, जो बृथा गया हो । ऐसा विकटवीर मूरा जब तुर्कों पर जा पड़ा तब फिर 
उसकी शरण कौन न हो सक्ता था? थोड़े ही समय में वह अद्ठारह हजार वीरों का सैन्य 
शून्यशैेष गया । उनके शर्रारों के रुधिर से सारी खाड़ी छाल हो गई ओर उसी लाल 
खाड़ी के बीच में, नेपोलियन अपने साथ कोई ५ सो सिपाही लेकर एक नौका में 
फ्रांस जाने के लिये सवार हुवा । 

आबुकिर के युद्ध के अनन्तर, नेपोलियन ने अपनी ओर अपनी सेना की स्थिति 
पर बहुत विचार किया । उसके पास कोई जहाजी शक्ति न थी-जिम्मपते वह मिश्र 
से फ्रांस तक पहुंच सक्ता । ३० सहस्र सेना को पार कैसे उतारा जाय ? । यह प्रश्न 
था, जिस पर नेपोलियन को विचार करना था । फ्रांस में डायरेक्टरी स्वयं ही डूब 
रही थी-वह नेपोलियन की सेना की सहायतार्थ क्या कर सक्ती थी ? इस के आति- 
रक्ति डायरेक्री नेपोलियन से ईप्या रखती थी | उस ने उसे ईनिप्ट भेजा ही मरने 
के लिये था | तब वह विरत्ति में उतक्मी सहायता क्यों करती ? इन सब बातों का 
विचार करके, नेपोलियन ने नितना शीघ्र हो सके स्वये फ्रांस को छोट कर सेना के 
फ्रांस तक पहुंचाने के प्रबन्ध करने का निश्चय किया । इस परोपकारमाव के आति- 
रिक्त एक स्वाये का भाव भी था, जो नेपोलियन को शीघ्र ही फ्रांस तक जाने के 
लिये प्रोरित कर रहा था। वह जानता था ॥की फ्रांस में डायेरक्टरी की सत्ता नि हो 
रही है । इस लिये उसे यह निश्चय था कि थोड़े ही दिनों में फिर शासन संस्था में 


जाफ़्फा का बध | ७५ 


परिवर्तन आयगा । तब ऐसे परिवर्तन के समय वहां उपस्थित होना वह आवश्यक 
समझता था | वह अपनी शक्ति और लोकप्रियता से परिचित था, अतः इस्त 
अमूल्य अवसर को हाथ से निकलने न देना चाहता था । 

अपने इस निश्चय का विशेष परिचय उसने कुछ एक विश्वासपात्रों को छोड़ कर ओर 
किप्ती को न दिया । २२ अगस्त के दिन १० बजे के समीप वह अपने ५६०० 
साथियों सहित नोंका में सवार होकर फ्रांस के लिये रवाना हुआ । जीवन भर में 
नैषोलियन ने नितने साहातीक कार्य्य किये, उनमें से इस कार्य्य का पद बहुत ही ऊंचा 
है । निध्त समय नेपोलियन अपने इस क्षुद्रपोत में समुद्र तछ पर बैठा, उस समय 
लाडे नैल्सन अपने अदम्य बेड़े को लिये मेडिट्रेनियन सागर की रक्षार्थ घूम रहा 
था । नेपोलियन भी इस रक्षा के यत्ञ से अनमिनज्ञ न था| किन्तु नेपोलियन निम्त 
साहस के आश्रय पर नेपोलियन बना, वह जब तक उसके पास था तब तक वह 
पृथ्वी ओर आकाश में किपती भी शक्ति से न डरता था । नेपोलियन की प्रतिभा, इस 
छोटे से बेंडे को सरक्षित दशा में फ्रांस के पोतस्थान पर ले गई । नेल्सन हक्का अका सा 
देखता ही रह गया । 

इस प्रकार से नेपोलियन की यह असाधारण तया स्मरणीय विजययात्रा समाप्त हुईं । 
इस यात्रा के सम्बन्ध की दो ऐसी बातें हैं जिन्हें हम इस परिच्छेद को समाप्त 
करने से प्रथम लिख देना आवश्यक समझते हैं । निस्न॒ समय वह सीरिया के 
विनय के लिये जा रहा था, उसने शत्रु के दो सहस्न सिपाहियों को बेर लिया । 
सिपाहियों ने शस्त्र रख दिये । नेपोलियन ने विजयी के योग्य उदारता दिखाते हुवे 
उन्हें खतन्त्रया जाने की आज्ञा देदी । किन्तु वे सिपाही, अपनी प्रातिज्ञा में बद्ध 
होकर रहने की जगह फिर अपनी सेना में जा मिले । जाफफ़ा नगर को जब नेपोलियन 
ने घेरा तो वेहँ सिपाही फिर लड़ने वालों में शामिल थे । नेपोलियन ने उनके पास 
एक दूत भेजा नो उन्हें लड़ने से बन्द करे । उन्हों ने उस दूत का सिर काट कर वृक्ष प्ले 
टांग दिया ।निषोलियन की सेना को इस पर क्रोध आया ओर थोड़ी देर में वे दो सह 
सिपाही फिर पकड़ लिये गये । उन्हें केदी तो कर लिया गया,किन्तु उनके खाने पीने 
और रहने के लिये नेपोलियन के पास सामान न था । उसकी सेना खय॑ं मुश्किल में 
थी-तब वह उन्हें कैसे पाछता । दूसरी सूरत यह थी कि उन्हें छोड़ दिया जाता । 
किन्तु यह अस्म्भव था । जो प्रिपाही एक वार प्रतिज्ञा तोड़ चुके हों, वे फिर 
शत्रु से न जा मिलेंगे, इस में प्रमाण क्या था ! नेपोलियन की सेना पहले ही शत्रु 


७६ नैपोलियन बोनापाटे | 


की सेना के सामने ऐसी थी नैसे समुद्र के सामने एक छोटा सा तालाब । तब उसका 
कर्तव्य शत्रुसेनारूपी समुद्र को सुखाना था न कि उस में और नदियों को डाल देना । 
इतना होने पर भी नेपोलियन उन सिपाहियों को छोड़ने के लिये तत्पर था, परन्तु 
उसकी सेना कहां मानती थी | वह तो इन शत्रुओं से तग आ चुकी थी । इन 
सब कठिनाइयों को देखकर नेपोलियन ने उन सब सिपाहियों को मरवा दिया । 
यद्यपि यह कास्य बड़ा ही क्रूर तथा नृशस था, तथापि नेपोलियन ने उसे तंग आकर 
ही किया था | यह कहने को में तस्यार नहीं हूं कि नेपोलियन इस कास्ये के करने 
में सर्वथा निर्दोष था, किन्तु इसी वध के कारण उसे हत्यारा या नुशंस कहना भी 
टीक नहीं | ह 

दूसरी घटना नेपोलियन की अद्सुत प्रतिभा को जनढाने वाढी है । जब वह 
एकर का वेरा डाले पड़ा था, तब उसके पास गोलों की कमी हो गई | उसने बहुत 
विचार कर गोले प्राप्त करने की एक विचित्र तरकीब निकाढी । एकर के पास ही 
बन्दरगाह थी-वहां पर सर सिडनेस्मिय के कई जहाज खड़े थे, नेपोलियन ने उन के सामने 
समृद्र के किनारे पर बहुत से सिपाहियों को भेज दिया । ममृद्र का किनारा रेतीला 
था । नेपोलियन के सिपाहियों को देख कर नहानों ने गोछे बरसाने शुरू किये । 
रेत में आकर गोले फटे नहीं-वेसे के वेसे ही पड़े रहे । नरोल्ियन के सिपाही उन्हें 
उठा २ कर ले आये । प्रतिदिन नेपोलियन इंग्लिश जहाजों करे साथ यही मखोल 
किया करता था । 


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ततीय-भाग । 


साम्राज्यलद्धि । 


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प्रथम परिच्छेद 


संस्था का भंग । 
अधोमुखस्यापि कृतरव बन्हदेनौषः शिखा याति कदाचिदेव । कालिदास । 

निस्न समय नेपोलियन समुद्र में घूमते हुवे पहरेदारोँ की आंख बचाकर लोग, 
उस समय फ्रांस विचित्र दशा में था। आंधी ओर पानी आने से कुछ पूवे आकाश 
की जैसी दशा होती है, उस की दशा उस समय वेसी ही होरही थी | वहां की तत्का- 
लीन शासनसंस्था बहुत ही अराक्षित अवस्था में थी | डायरक्टरी के आसन के नीचे 
बारूद रक्‍खा जा चुका था, देरी केवल फटने की थी। उस समय फ्रांस में तीन 
राजनेतिक दढ थे | एक राजपक्षपाती दल, दूसरा क्रान्तिपक्षपाती ढूल और तीसरा 
संस्थापक्षपाती दुल । इन में से राजपक्षपाती दुल यद्यपि पहले बहुत निबेल होगया 
था, तथापि पिछले दिनों की प्रतिक्रिया में फिर उस ने कुछ बल पकड़ लिया था । 
क्रान्तिपक्षपातीदुल॒ अब तक भी वैसा ही भीषण बनाहुवा था, जैसा दो वर्ष पू्व 
था । सर्वताधारण के चित्त पर अभी तक उन का वैसा ही जादू विद्यमान था । 
तीसरा संस्थापक्षपाती दल था । वह थोड़ा था, और साथ अल्पशक्ति था । उस्त 
दल के पीछे कोई शक्तिशाली भाव काम न कर रहा था, कोई विलीन बल उस में 
विद्यमान न था। ये तीन राजनेतिक दल थे-और ये तीनों ही उस समय की शासन 
संस्था-विशेषतया डायरेक्टरी-से असंतुष्ट थे । 


राजपक्षपाती तो उन से प्रसन्न हो ही नहीं सक्ते थे। उन का और डायरेक्टरी 
का सम्बन्ध ३ और ६ का था। क्रान्तिपक्षपाती भी उन से प्रसन्न नथे । वे 
उन्हें क्रियाहीन नपुंसक ओर सापेक्षकसद समझते थे। तीसरा दल संस्थापक्षपातियों 
का था । वे लोग डायरेक्टरी के कुछ २ पक्ष में हो सक्ते थे, किन्तु डायेरक्टरी 
की अशक्ति ने उन का सहाय्यस्तम्भ भी उस के नीचे से निकाल दिया । डायरेक्टरी 
के पांच सम्य थे । उन पांचों में सब की न्यारी २ माति थी। वे सब के सब प्रधानता 
और मुख्यता के लिये लड़ते और झगड़ते थे | न वे घर में शान्ति रख सक्ते थे, 
और न बाहिर शत्रुओं पर विजय प्राप्त कर सकते थे। घर का यह हाल था कि 
साधारण प्रजा करों के भार के नीचे पिस रही थी । कर युद्ध के लिये ओर डायेे- 





८० नैपोलियन बोनापार्ट । 


क्टरी के उड़ाने के लिये उगाहे जाते थे, किन्तु न युद्ध ही ठोक तरह से होते थे, 
ओर न ही डायरेक्टरी का अपरिमेय उदर भरता था । नेपोलियन के जीते हुवे सब 
स्थान एक एक कर के फ्रांसे के हाथ से निकछ गये । आस्ट्रिया फिर से शेर हो गया 
और इंग्लैंड की कैबिनट ने फिर से अपनी थैलियों के मुह खोल दिये। चारो ओर रिश- 
बतें घूमने छर्गी ! मुवर्ण की मूर्ति भी विचित्र है। बड़े में बढ़े नरेशों को यह अपना 
दास बना छेती है, और मंयत से संयत महात्मा से चरण पृजवा लेतीं है। 
इंग्लिश केबिनट इस थेली की शक्ति में खब परिचित थी-ओर उस ने अपने इस परि- 
चय को निरुपयोग नहीं छोड़ा ! 

सारांश यह कि जब नेपोलियन मिश्र से छोटा, फ्रांस की आर उस की शासन संस्था 
की दशा पातोन्मृख हो रही थी। दुःख दरिद्रता और पराजय से पराभूत हो कर, सारी 
फ्रेंच प्रभा अपने रक्षक ओर पालक विनेता नेपोलियन की ओर देख रही थी । मिश्र 
की ओर हाथ जोड़ कर वह परमात्मा में छोटे मेनापति' के लोटाने के लिये प्राथना 
कर छोड़ती थी। जब नेपोलियन आया तंत्र उम्र ने सारे देश को अपने हार्दिक 
स्वागत करने के लिये उद्यत पाया | निम किसी ने नेपोलियन के आने की खबर 
सुनी, उस के मुंह में यही शब्दानकले कि “अब हम मुरक्षित हैं!। फ्रांस के सारे नगरों 
में दीपमाछा की गई । खशी के बेटे बनाये गये ओर अपरिगेय प्रसन्नता प्रकट की 
गई । सारी प्रजा नंपोछियन के चरणों पर पहने के लिये तय्यार थी । 

नेपोलियन ने पारिस में पहुंचते ही भाविनी इतिकत्तत्यता पर विचार शुरू किया । 
उस ने चारों ओर दृष्टि उठाई-ओर देश की वास्तविक स्थिति का चिन्तन किया । 
उम्र ने देखा कि सारादेश मानरक्षा ओर प्राणरक्षा के लिये उन्त की ओर आशाभरी 
हष्टि से देख रहा हैं। यह भी उस ने ठीक प्रकार से निश्चय कर लिया कि सिवाय 
उम्र के और कोई विद्यमान विपत्तियों में फ्रांम को छुड़डा नहीं सक्ता | साथ ही वह 
आत्मोदय के विचार को भी भूछा हुवा नहीं था । वह अपनी शक्तियों को जानता 
था, ओर उन के अनुकूल ही इच्छायें रखता था | उस ने देखा कि सारा देश उस 
की अपना मूधन्य बनाने के लिये उद्यत है, आर वह भी मूर्घन्य बनने के लिये तय्यार 
है। जब दोनों ओर से रेखाये आकर एक ही स्थान में मिलती थीं, तब फिर कोण का 
बनना आवश्यक था | अमाधारणशक्ति और प्रातिभा से सज्ञित नैषोलियन, फ्रांस की 
शासनसंस्था में समयारुरूप परिवत्तन करने के लिये उद्यत हुवा । 

एक विद्यमान सरकार को जड़ से उखाड़ कर उस के स्थान में अपना आधिषत्य 


नीते विस्तार ८१ 


जमाना कोई साधारण बात नहीं थी । ऐसा संसार में बहुत वार हो चुका है, किन्तु 
पहले इस के कि ऐसा हो जाय खन की नदियें बही हैं | रक्त की नदियों के बहांये 
बिना, एक गवनमेंन्ट को सर्वथा उड़ादेना बहुत कठिन कार्य है। विशेषतया फ्रांस नैसे देश 
में, जहां सर्वसाधारण में भी स्वतन्त्रता और समानता के भाव फेल चुके हैं । किन्तु 
यह नेपोलियन की बुद्धिमत्ता थी, जिसने उसे अपने इस कठिन काम को रुधिर की 
एक बूद के बहाये बिना ही पूरा करने के लिये योग्य बनाया । 
पेरिस में आते ही, नेपोलियन ने मन में किंकततव्यता का निश्चय करके, तद- 
नुकूल काये करना शुरू करदिया । सब से प्रथम उसने अपनी सेना का वेष उतार कर, 
साधारण नार्गारेक का वेष धारण किया । उप्र के पश्चात्‌, उस्त ने दो बातें आवश्यक 
समझी। वह जानता था कि जब तक वतेमान डायरेक्टर अपने अधिकारों से स्वये 
मुक्तिपत्र न दें, तब तक उन को पदच्युत करना रुधिर बहाये विना नहीं हो सक्ता। 
इस लिये उस ने डायरेक्टरों को अपने काबू करना प्रारम्भ किया । डायरेक्टरों में से 
सब से अधिक बुद्धिमान सरीयेस था । पहले नेपोलियन और वह एक 
दूसरे को बहुत सन्देह की दृष्टि से देखते थे । किन्तु थोड़े ही दिनों में, दोनों को यह 
प्रतीत हो गया कि उन में से कोई भी एक दूसरे के विना कार्य नहीं करसक्ता । सीयेस 
नैपोलियन के भाग्यसूर्य को उद्त होता हुवा देख रहा था, ओर यह भी वह जानता था 
कि उसे न उदित होने देना शक्ति से बाहर है। समझदार पुरुष की तरह उस ने उस् 
उदय में विप्नकारी बनकर अफल्यक्न होने की अपेक्षा, उस के सहायक बनना ही अच्छा 
समझा । सीयेस के साथी दो ओर डायरेक्टर भी नेपोलियन के स्ताथ मिल गये। 
दो डायरेक्टर शेष रहे, नेपोलीयन ने उन की परवा न की । जब बहुप॥। उम्र 
की ओर हो गया तब विशेष यत्र करना उस ने योग्य न समझा । 
डायरेक्टरों के अतिरिक्त सेनाओं के सेनापतियों को भी न भुठाया जाम्क्ता 
. था | नेपोलियन जानता था कि कई सेनापाति उप्त की कीर्ति से बहुत हसद खाते हैं, 
अतः उसने सेनापतियों को भी अपने गुट्ट में मिलाना निश्चित किया । मूरा आदि 
सैनिक, जो उस के नीचे लड़ चुके थे, उस के लिये मरने कटने को तय्यार थे । 
सेनापति सोरियों (१४०:८४०) नो नेपोलियन का प्रतिद्वन्द्दी समझा जाता था, वस्तुतः 
उस से इंष्यां रखता था । किन्तु सेनापाति केवह बल रखता था, नेपोलियन में 
बुद्धि भी थी। नेपोलियन ने उसे अपने यहां भोजन दिया, और मोरियो नेपोलियन 


का सहायक बनगया । लफेज्र [.०(८०:८ पेरिस की सेना का सेनापाति था । 
ृ 


८२ नेपोलियन बौनापाट । 


जब उस ने सुनां कि नेपोलियन कुछ गड़बड़ करना चाहता है, वह 
उससे इस विषय में पूछने गया | उस के आते ही नेपोलियन ने उसे देख कर कहा 
लफेत्र ! क्या रिपब्लिक के स्तम्भरूप तुम यह सहन कर सक्ते हो कि ये वर्काल 
लोग देश का सत्यानाश करें ? क्या तुम मुझे इनकी सत्ता का नाश करने में सहा- 
यता दोंगे ? यह कहते हुवे उसने विश्वास की सूचना देने के लियि अपना एक आभूषण 
लफेब्र के गले में डाल दिया । लफेत्र हार गया; महती प्रतिभा ने उसे दबा लिया । 
वह चिल्ला उठा हां, हम इन वकीलों को दरिया में बहा देंगे । ! 

इस प्रकार से, उस ने सेनापातियों की भी अनेक नीतैयों के वशी भूत करके अपनी 
नीते का विस्तार प्रारम्म किया। शासनसंस्था में तीन शक्तिये थीं, डायेरक्टरी, वद्धसभा, 
और पांच सो प्रतिनिधियों की सभा। डायेरक्टरी को तो नेपोलियन ने शीघ्र ही काबू कर 
लिया । सिधेस ओर उस के दो साथियों ने अपने मृक्तिपत्र दाखिल कर दिये। शेष 
रह गये दो डायेरैक्टर । उन को नेपोलियन ने अपने आप बहुत समझाया बृझाया, 
किन्तु उन्हों ने अपने मृक्तिपत्र देने स्वीकार न किये। डायेरेक्टर बारा ने इस समय इस 
कार्य्य के लिये नेपोलियन को झाड़ बतानी शुरू की | किन्तु नेपोलियन ऐसी झाड़े सुनने 
के लिये न जन्मा था! उस ने उत्तर में बारा को इस प्रकार सुनाई---' वह सुन्दर 
फ्रांस कहां है निसि में तुम्हारे पास छोड गया था | में तुम्हारे लिये शांति छोड़ गया था, 
और अब में यहां युद्ध पाता हूं। में तुम्हें विनयी छोड़ गया था, किन्तु अब में 
तुम्हें परानित देखता हूं । में तुम्हें इटछी से छाये हुवे छाख्रों रुपयों से धनी छोड़ गया 
था, अब में आकर दरिद्रता के सिवाय कुछ नहीं देखता । मेरी कीर्ति के सहल्नों साथी 
कहां हैं ? वे सब मर गये | यह अवस्था अब स्थिर नहीं रह सक्ती । यह अब एक 
ऋन्ति में परिणत होगी ! । 

नेपोलियन की इस बल्वती उक्ति को सुन कर बारा ने तो मक्तिपन्र दे ही 
दिया था । शेष दी डायेरक्‍्टरों को आनाकानी करता देख कर, नेपोलियन ने उन्हें 
कैद कर डिया । इस प्रकार डायरेक्टरों से छुटकारा पाकर, उस ने वृद्धसभा की ओर 
ध्यान मोड़ा । बृद्धसभा वस्तुतः सीयेस के हाथ में थी। वह उस से नो कुछ 
चाहता था करा लेता था | इस समय भी उसने अपने प्रभाव से काम लिया । वृद्ध 
सभा ने एक प्रस्ताव पास किया, जिम के द्वारा नेपोलियन को पोश्सि नगर की 
सारी सेंना की अध्यक्षता दी गई । वद्ध॒सभा के प्रस्ताव का भाव यह था कि क्योंकि 
रिपड्डिक खतरे में है, इसे लिये नेपोलियन सेना की सहायता से हमारी रक्षा करे । 


उद्योग पवे | ८३ 


इस प्रकार से सारे नगर का वास्तविक शासन नेपोलियन के हाथ में देकर, वृद्धसभा 
ने दूसरे दिन दूसरा निश्चय यह किया कि ' क्योंकि यह डर है कि पेरिस का जन- 
समूह शासनसंस्था में हस्ताक्षेप करे, अतः केल वद्धसमा तथा पांच सौ प्रतिनि- 
धियों की सभा पेरिस से दूर सेण्ट क्लाउड में हो? | ये दो निश्चय करके, वद्धसभा 
का यह अधिवेशन समाप्त हुआ | 

अगले दिन नवम्बर की ९, वीं तारीख़ थी | रिपब्लिकन सम्वत्‌ के अनुसार वह 
१९ वां ब्रूमेयर था । इसी दिन पर नेपोलियन का सारा भविष्य अवलम्बित था। चिन्तित 
किन्तु बढ़ आक्वाति को धारण किये हुवे, उस दिन प्रातःकाल ही नेपोलियन अपने 
घोड़े. पर सवार हुवा। पेरिस की सारी सेना को पहले से ही सन्नद्ध रहने की आज्ञा 
मिल चुकी थी। सारी सेना, अपने पुराने विजेता सेनापति द्वारा निरीक्षण कराने के 
शोक से तय्यार थी। प्रातःकाल से ही, पेरिस के बाजारों में सेना के घोड़ों की 
टॉप सुनाई पड़ने लगी । सब के आंगे लब॒ुकाय पीतवर्ण नेता, और उसके पीछे 
संसार भर की सेनाओं में से वीर सेना-यह दृश्य बड़ा ही विचित्र था । नपोलियन 
अपनी सेना को साथ लिये सेप्टक्लाउड पहुंचा । वहां पर, वृद्धसमा तथा पांचसो प्रति- 
निधियों की सभाओं के अधिवेशन हो रहे थे | यही नेपोलियन के जीवन में फेर 
का समय था, यह उस की सब शक्तियों की परीक्षा का अवसर था| यदि वह इस 
में अनुत्तीणें हुआ, तो फिर सिवाय फांसी के और उसका कोई भविष्य नथा । नेपो- 
लियन ! सावधान ! 

बड़ी सावधानी और चतुरता से नेपोलियन ने अपना काय्ये शुरू किया । 
नेपोलियन के एक प्रतिद्वन्द्नी सेनापति बर्नेंडौटू ने कहा --'निपोलियन ! तुम फांसी 
के मुख में जा रहे हो । ” नेपोलियन ने उत्तर दिया 'देखा जाय । क्या होताहे !”! 

सब से प्रथम, वृद्धसमा का अधिवेशन प्रारम्म हुआ । पहले दिन के प्रस्तावों पर 
विचार शुरू हुआ । कहयों ने नेपोलियन के हाथ में सब शक्तिय देने पर शंका 
की । नेपोलियन यह सुनते ही स्वयं वहां जा पहुंचा ।वहां उसने दृढ़ किन्तु टूटी फूटी 
भाषा में कंहा 'ऐ वृद्धसभा के सम्यो ! तुम सारे राष्ट्र के हिताचिन्तक हो; रिप- 
ब्लिक की रक्षा के लिये यत्र करना तुम्हारा ही कार्य्य है । में तुम्हारे कार्य में 
सहायता देने के लिये सैनाध्यक्षों सहित यहां उपस्थित हुआ हूं । ! 

मध्यान्ह के समय पांचसो प्रतिनिधियों की समा का अधिवेशन प्रारम्भ हुआ । 
. उसे सभा का सभापति नेपोलियन का माई स्यूशियन था । वद्धसभा में तो नेपोलियन 


८४ नेपोलियन बोनापार्ट । 


को शप्रिविजय प्राप्त हुईं थी, किन्तु प्रतिनिधिसभा में मामला ऐसा सरल न था । 
प्रतिनिधियों में स्वतन्त्रता और समानता के कई पुराने वकील अब भी विद्यमान थे । 
सभा लगते ही स्थानपरिवतेन का प्रइन उठाया गया । पोरिस से सेण्टक्राउड आने 
के कारण पर विचार प्रारम्भ हुआ । नेपोलियन के विरोधियों को यह मोका हाथ 
लगा, उन हछोगों ने प्रस्ताव पेश किया कि सब सभासद पुरानी राज्यसंस्था को रक्षण 
करने की प्रातिज्ञा करें । सब जानते ये कि यह नेपोलियन के प्राधान्य के सामने बाड़ 
लगाई जा रही है। नेपोलियन के पक्षपाती प्रतिनिधि भी यह जानते थे, और नेपोलियन 
का भाई ल्यूशियन भी जानता था, किन्तु प्रतिनिषिसभा में इस प्रस्ताव के विरुद्ध 
शब्द उठाना कोई सरल कार्य न था। सब ने खडे होकर संस्था की रक्षा करने की 
प्रतिज्ञा की । इस समाचार को सुनकर, नेपोलियन के माथे पर एक भूकुटी का 
संचार हुआ । 

निस्न समय इधर यह दृश्य हो रहा था, उसी समय उधर वृद्धसभा में नेपोलि 
यन अपनी रक्षा के विषय में वक्तृता दे रहा था | * इस समय रिपिब्लिक एक ज्वाला- 
मुखी पर्वत के मुख पर स्थित है । आप लोगों ने रिपब्लिक को कष्ट में समझा ; में 
आप की सहायता आ उपस्थित हुआ। आप ने मुझे बुछाया, मेंने आज्ञा पालन 
की, ओर अब मुझ पर सेकड़ों दोष लगाये ना रहे हैं। कोई कहता है कि में सीजर 
हूं-कोई कहता है में क्रामवेल हूं । चारों ओर से भय गहरा हो रहा है । प्रति- 
निधियों की सभा भी जोश में हैं, किन्तु डरने की आवश्यकता नहीं। अपने सैनिक- 
सहायकों के रहते, रिपब्लिक की रक्षा का में उत्तरदाता हूं ।! इस के परचात्‌, उस 
ने भरी सभामे स्वतन्त्रता तथा समानता की रक्षा की प्रतिज्ञा की । किसी ने बीच 
में से पूछा, कि क्‍या तुम संस्था की रक्षा न करोंगे ? नेपोलियन ने गजते हुए उत्तर 
दिया कि 'संस्था है ही कुछ नहीं | कोई भी उस का आदर नहीं करता और हर 
एक उप्र का नाम लेता है ” । अन्त में, वृद्धसमा में उस ने कहा कि * यदि 
कोई वक्ता, मेरे प्राणघात के लिये प्रस्ताव करेगा, तो में अपने उन शखधारियों प्ले 
प्राथना करूंगा निन के सिर के फूँदे दरवाजे में दीख रहे हैं । याद रक्‍्खो ! में 
भाग्य और युद्ध के देवताओं को साथ लिये हुए विचरण करता हूं? । इतना कहकर 
नैपोलियन अपने साथी योद्धाओं के सहित पृद्धसभा से बाहिर हुआ । 

बाहिर आंते ही उसे पता लगा कि प्रतिनिष्िसमा में मामला बहुत बिगड़ 
गया है । पेरिस की सेना का आधिपत्य नेपोलियन को प्राप्त हुआ सुनकर सारी प्रति- 


किंकत॑व्यविमूढ़ता । ८५९ 


निधि सभा आगत्रबूला हो गई | नेपोलियन अत्याचारी है! “ वह राजा होना 
चाहता है ? * वह संस्था का द्रोही है ! इत्यादि शब्दों से सारी समा गुजायमान 
होउठी । किसी ने प्रस्ताव कर दिया कि नेपोलियन का वध निश्चित किया जाय । 
चारों ओर से इस प्रस्ताव का समन होनेलगा | ल्यूशियन को तंग किया जाने लगा 
कि वह इस प्रस्ताव को विचारार्थ पेश करे । यह सत्र समाचार नेपोलियन को पहुंचा । 
एक क्षण की देरी भी न करके विद्यु्तता की न्यां३ शीघ्रता से, वह अपने सैनिकों के 
सहित प्रतिनिधिसभा के द्वार पर आया । उसका सेनाध्यक्ष ओगेरियों उसे वहां 
पर मिला । उस ने कहा कि “ तुम ने अपने आप को बड़ी मुश्किल में डाल लिया 
है! * आकोला में में इस से भी अधिक कठिनता में था । घैय्य॑ रखना चाहिये । 
आधे घण्टे में सब ठीक हों जायगा । ! 

नेपोलियन सेना को बाहिर छोड़ कर, सारी शंकाओं को अपनी उपस्थिति से 
दूर करने के लिये, अकेला ही प्रतिनिधिस्रभा के अन्दर घुस्गगया । वह अभी दस कदम 
भी न घुसा होगा कि उस के-चारों ओर से आंधी की न्यांई उठते हुए समासदों के 
शब्द गजने लगे | * घिकार है आततायी को ? ' हवस को मारने का प्रस्ताव पास 
करो ” * अननान जल्दबाज़ लड़के ! तू क्या कर रहा है ” इत्यादि शब्द करते हुए 
प्रतिनिधियों ने नेपोलियन की चारों ओर से बेर लिया । एकने छुरा जेब से निकाल कर 
नेपोलियन पर चलाना चाहा; किम्तु तब तक अपने छोटे सेनापाते ” को भय में 
देख कर कई सैनिक वहां आ पहुंचे थे। उन्हों ने नेपोलियन के छोटे शरीर को उठा 
लिया, और वे उसे दरवाजे के बाहिर ले गये । 

द्वार के बाहिर जाकर, क्षणमर, नेपोलियन सवेथा किंकर्तव्यताविमूहु हुआ रहा। 
जिस नेपोलियन को सहस्नों तोपों के गोले न हरा सक्ते थे, वह इन वकीलों द्वारा 
पराजित हो गया ! भेड़ के बच्चे ने भेड़िये को दबा लिया !! नेपोलियन अपने मय के 
गोरव और महत्त्व को सोच कर, क्षणेक विमूढ़ सा रहा । किन्तु झटपट ही उस्स 
की प्रतिभा का दीपक फिर चमक पड़ा । * सैनिको ! मेरा भाई खतेरे में है। उसे यहां 
सुरातित उठा छाओ ? यह सुनते ही सिपाही भागे, ओर प्रतिनिधियों से घिरे हुए 
ल्पूशियन को, सभा में से सुरक्षित बचा लाये । अपने भाई को सभा के बीच में से 
तिकलवा लेने में, नेपोलियन ने अद्भुत बुद्धिमत्ता से काम लिया । बिना उस के, 
सम्मव है, उस की सेना ही सभा पर शख उठाने से इन्कार करती। ल्यूशियन ने 
आकर और घोड़े पर सवार होकर प्िप्राहियों को कहा " परिपाहियो ! प्रतिनिधि 


८६ नैपोलियन बोनापार्ट । 


सभा को थोड़े से रक्त के प्यार्सों ने बेर लिया है। वह अब स्वतन्त्र नहीं रही । 
प्रतिनिधिसमा के सभाषाति होने की हैसीयत में में तुम्हें आज्ञा देता हूं कि तुम 
समाभवन को खाली कर दो । ! 

नैपोलियन ने चिल्ला कर कहा-“ सैनिको ! क्‍या में तुम पर भरोसा रख 
सक्ता हूं ! | ! 

: नेपोलियन की जय हो ! ” यह शब्द करते हुए सैनिक सभाभवन में घुस 
गये । सैनिकों का सेनापाति मूरा-अदम्य मूरा-था | जहां मूरा का कदम पड़ा, 
वहां किसी का सामना करना असम्भव था । उस का कदम, विजय की पताका थी । 
मूरा ने गन कर सिपाहियों को आज्ञा दी-- 

* आगे बढ़ो ! ओर सेगीनों का वार करो | ! 

सिपाहियों की पंक्ति संगीने झुकाये हुए आगे बढ़ी । प्रतिनिधियों के लिये 
अब कोई चारा न था । कोई बैंच पर से कूदा, कोई खिड़की में से निकल भागा । 
एक मिनट में समाभवन खाली हो गया और साथ ह्वी नेपोलियन के चरित की 
परिवर्तनकारिणी यह घटना समाप्त हुई । 


द्वितीय परिच्छेद । 


अं +5.3८८ ४८८ "7८ 
अथमस शासक्र | 
नेतरजनपाखर्ना4: संयमने; संयम्यन्त शक्तिशालिन; । . दुष्यन्त कविः ॥। 

ब्रूमंयर की क्रान्ति के साथ, फ्रांस की राज्यक्रान्ति के अन्त का प्रारम्भ हुवा। 
यह अन्त का प्रारम्म आवश्यक था। क्रान्ति अनन्त नहीं हो सक्ती थी ओर न ही उस्त का 
अनन्त होना अभीष्ट था। ऋष्ति से पूषे समय की सामाजिक गन्दूगी जल चुकी थी। 
क्रान्ति शुद्ध करने वाठी आग थी, वह सामानिक स्थिति का आवश्यक अंग नहीं 
बन सक्ती थी | यह आवश्यक था कि पुरानी सामाजिक स्थिति के खण्डरात पर 
नया सामाजैक प्रासाद खड़ा किया जाता। इस नये प्रासाद के खड़ा करने की शक्ति 
केवल एक ही मनुप्य में थी, ओर वह मर॒प्य नेपोलियन बोनापार्ट था । इस संस्था 
के मंग करने में, नेपोलियन ने कई स्थानों पर, अपनी सैन्यशक्ति का डरदेकर ही काम 
चलाया-यह ठीक था । किन्तु विना इस के फांस की रक्षा न हो सकती थी । विना 
अराजकता का मंग किये, फ्रांस की सामानिक स्थिति को स्थिर करना काठिन ही 
क्यों अस्म्भव था | नेपोलियन की कई लेखक संस्था का भंग करने वाला आततायी 
कहते हैं | उन के प्राति हमारा उत्तर है कि वस्तुतः उस समय संस्था कोई वस्तु 
ही नथी। डायरेक्टर लोग अपना उल्ह सीधा करने के सिवाय, संस्था का कोई उद्देश्य ही न 
समझते थे । जैसा नेपोलियन ने कहा था, संस्था का नाम सब लेते थे किन्तु उस 
की परवा कोई भी न करता था । इस के आतिरिक्त, संस्था का उद्देश्य समान की 
सेरक्षा करना है, न कि उस का धवंस करना | वह संस्था जो समाज की रक्षा नही 
कर सक्ती, जो अपने आप को आहत कराने की शक्ति नहीं रखती, रहने योग्य 
नहीं, वह पराधवीतल पर से घुल जाने योग्य है। ब्रुमेयर से पहले फ्रांस की संस्था 

ऐसी ही थी, तब उस का जीवित रहना केसे बन सक्ता था ! 
नेपोलियन ने इस परिवत्तेन के करने के लिये इतना यत्न क्यों किया ? यह 
शका बहुत टेढ़ी है। इस शंका का उत्तर देना सहल नहीं है। नेपोलियन को अपना 
राजनैतिक जीवन समाप्त किये शताब्दि के छूममग समय व्यतीत होने लगा है, किन्तु 
आज भी उप्र की घटनायें और उस के कार्य हमारे लिये वैसे ही हैं, नेंसे उत् समय थे। 


८८ नेपोलियन बोनापार्ट । 


नैपोलियन किन उद्देश्यों से प्रेत जाकर सारे कार्यों को करता था ! क्या वह स्वार्थी 
पुरुष था ? या उस के सारे यज्ञ अपने देश का गोरव बढ़ाने के लिये थे! इत्यादि 
प्रश्न हैं, निन का उत्तर पाने के लिये सैकड़ों ऐतिहांसिकों ने सिरपच्ची की हैं- 
किन्तु ये आज तक भी वैसे ही गुप्त प्रश्न बने हुवे हैं , मेसे नेपोलियन के समय में 
थे । नेपोलियन स्वयं एक रहस्य था-उस का इतिहास अब तक रहस्य है।इस लिये, 
उस के कार्यों का उद्देश्य निश्चयपूवक निश्चित नहीं किया जा सक्ता । नेपोलियन ने स्वयं 
सेप्टहेलीना में अपने साथियों के सामने, अपने जीवन के बहुत से रहस्य खोलने का 
यत्र किया था, कम से कम उस के साथी तो कहते हैं कि हमने उस के जीवन 
का रहस्य निकहुवा लिया । किन्तु मेरी समझ में उन का ऐसा समझना बहुत कुछ 
भूल है | नेपोलियन सेप्टहेलीना में भी उतना ही बड़ा रहस्य था जितना बड़ा ट्यूल- 
रीज के प्रासाद में । वह सेप्टहेलीना में जानता था कि उस का एक एक शब्द 
मुद्रित होगा । उसे यह भी निश्चय था , कि उस के साथी उस का रहस्य खोलने 
के लिये ही उस से बाते पूछते हैं। तब आप यह केसे अलुमान कर सक्ते:हैं कि वहां 
पर उस ने सच्ची २ गुप्त म॒द्रा खोल दी थी | अतः, नेपोलियन के चरित की माया 
खोलनी बहुत कठिन है | बाह्य विस्तार नितना इस अछूत चरित का मिल्सक्ता है, उत- 
ना शायद ही किसी ओर का मिल्सके । किन्तु, जब बाह्य खोल को-युद्धों संधि- 
यों और विजयों को- छोड़ कर हम उस के वास्तविक उद्देश्यों पर पहुंचते हैं, 
तब हमें एक बन्द कोठरी मिलती है, जिस के अन्दर शरुसना सवेथा अस्रम्भव प्रतीत 
होता है । 

तथापि, जहां तक इस अद्भत चरित की घटनाओं के देखने से प्रतीत होता 
है, नेपोलियन की इस क्रिया का मुख्य उद्देश्य देश की रक्षा करना ही था। अभी 
तक उस के अन्दर उस स्वार्थ का घोर राज्य न हुवा था, निस ने उस के पिछले जीवन को स्याह 
कर दिया था| अभी तक वह फ्रांस के गोरव को ही अपना मुख्य उद्देश्य समझता था। 
साथ ही वह यह भी जानता था , कि फ्रांत का गौरव उस के गौरव के साथ 
मिला हुवा है| वह अपनी शक्तियों से पूरा २ अभिज्ञ था, अतः उस ने एक 
निबेल तथा खोखले संस्थारूपी वृक्ष के गिरा कर, उस के स्थान में दृढ़ तथा छाया- 
कारी न्यग्रोध वृक्ष के जमाने का प्रयत्न किया । 

डायरेक्टरी वृद्धसमा ओर प्रातिनिधिसभा-सब एक ही दिन के अन्दर सत्तारहित 
होगई । इसी दिन सायंकाल के समय, अपने किये हुवे इस नियमावरद्ध कारय॑ के 


नई संस्था | ८९ 


ऊपर नियम की मुहर लूगवाने के लिये, नेपोलियन ने अपने पक्ष के प्रतिनिधिस्भा के 
सभासदों की एकबैठक की । सभा की बची हुवी दुम ने यह निर्धारित किया कि नपीडियन ने 
आज प्रातः काल जो कुछ किया है, यह देश ओर शासन की भलाई के लिये किया है। 
साथ ही यह भी निश्चय किया गया कि नई संस्था के तय्यार करने के लिये नेपोलियन, 
 सीयेस और ड्यूकस ये तीन विचारक चुने जांय और जब तक नई संस्था तय्यार न हो, 
तब तक सारा शासन इन्हीं के हाथों में दिया जाय । तदनुसार, उसी दिन से 
डायरेक्टरी वृद्धसममा ओर पांचसो की प्रतिनिषिसभा समाप्त हुईं, तीन शासकों 
का ओर वस्तुतः नेपोलियन का राज्य प्रारम्म हुवा । इस शक्ति के प्राप्त होने पर, 
नेपोलियन ने मर्ृष्योचित ही क्यों देवाचित गुणों का परिचय दिया। जो मचुप्य विजयी 
होने पर भी शान्ति ओर ओदाय का साथ नहीं छोड़ता, वही महापुरुष कहाने के 
योग्य है । तैमूरंग ओर चंगेजखां भी विजयी थे किन्तु वे क्रूर, नृशंस्त तथा राक्षस थे। 
किन्तु सीज़र ओर नेपोलियन बनने के लिये इन दुगुणों का त्याग करना पड़ता है । 
विजय के प्राप्त होने पर नेपोलियन ने जो क्षमा दिखाई, उस के बहुत थोड़े दृष्टान्त 
इतिहास में मिलते हैं । रुका का विजय कर के, रामचन्द्र ने जो सक्षमता दिखाई 
थी-उस के साथ नेपोलियन की क्रिया की उपमा दें तो यथार्थ होगी । जो उस के 
विरोधी राजनोतिक थे, उन्हें उ्त ने कुछ भी दण्ड नहीं दिया ; हर एक को क्षमा 
की गई । यहां तक कि जो मनुष्य साक्षात्‌ उस के विरुद्ध शख्त्र पकड़े हुवे गिरिफ्तार 
हुवा, उस का भी अपराध क्षमा किया गया । कारागृहीं में क्रान्ति के समय से जो 
सैकड़ों कैदी बन्द थे, उन्हें सर्वथा मुक्ति दी गई । पादरियों तथा कुलीनों 
पर अत्याचार करने के लिये जो नियम बनाये गये थे, उन्हें उड़ा दिया गया । 

इसी बीच में देश की नई संस्था भी तस्यार होगई । इस संस्था का तस्यार 
करने वाला भी प्रधानतया सिंपिस ही था । यह मनृष्य क्रान्ति के प्रारम्भकों में से 
एक था । उस दिन से अब तक जितनी नई २ पांच चार संस्थायें बनीं, यही उन 
सब का निर्माता था । राननैतिकदलरूपी नई २ आंधियें आई ओर चली गईं । 
किन्तु अपनी राजनोतिक बुद्धिमत्ता से युक्त यह मनुष्य, उन सब के सामने चट्टा- 
नकी तरह डटारहा । उन में से सब दल एक दूसरे से लड़ मरे, किन्तु यह बाल २ 
. बच गया ओर॑ अब इस क्रान्ति की अन्तिम संस्था का बनाने वाला भी यही हुवा । 
इस नई संस्था द्वारा सब से ऊपर एक शासक निश्चित किया गया, जिसे राजा का 
स्थानीय समझना चाहिये । उस के काये में सहायता देने वाले दो उपशासक बनाये 


९० नेपोलियन बोनापार्ट । 


गये । वे उस के कार्य में विन्न न डाल सक्ते थे; केवल पूछने पर सलाह दे प्तक्ते 
थे। सारे फ्रांस के २१ वर्ष से ऊपर की उमर के निवासियों को ५० राख प्राति- 
निधि चुनने का अधिकार दिया गया, वे ६५० ढछाख प्रातिनिधि फिर अपने में से ५० 
सहस्र प्रातिनिधि चुन सक्ते थे, ओर 'फिर उन ५० सहख्त को अपने में से ५ सहख् 
प्रतिनिधि चुनने का अधिकार दिया गया । ये पांच सहस्न विशेष व्यक्ति समझे जाते 
थे | तीनों शासक, इन विशेष व्यक्तियों में से कुछ योग्य पृरुषों को चुन लेते थे 
जिन की सभा का नाम न्यायसभा या [८0प7०9/९ थी । यह न्यायसभा फिर कुछ एक 
योग्य पुरुषों को चुनती थी, जिन की सभा का नाम नियमसमभां [.,८25]4पा८ था । 
यह नियमसभा फिर एक सेनेट का निधोर्ण करती थीं। हर एक राज- 
नियम का प्रस्ताव शासकत्रयी से प्रारम्भ हो कर, पहले न्‍्यायसभा में, फिर नियम 
सभा में ओर फिर सेनेट में जाता था । तीनों सभाओं द्वारा स्वीकृत होने पर, वह 
नियम के रूप में परिवार्तित हो जाता था । यह तो नियमसंस्था थी । राजसम्बन्धी 
काये का समस्त अधिकार शासकत्रयी को ही दिया गया था । उस शासकत्रयी में 
भी प्रथमशासक स्वाधिकार से स्वतन्त्र था। प्रथम शासक नेपोंलियन था, सारे फ्रांस 
का प्रबन्ध उस के ही युवककन्धों पर पड़ा । किन्तु, इस संस्था के लिये अकेला 
नेपोलियन ही उत्तरदाता न था, सियेस भी था । ओर यह वही सियेस था निम् 
ने ऋन्ति के प्रथम एक पुस्तिका लिखी थी, निस में उस ने दिखाया था, कि प्तब 
साधारण का ही राज्याधिकार मुख्य हे अन्य किसी एक व्यक्ति का नहीं। ओर अब 
उसी ने सारा राज्य कार्य्य एक नेपोलियन के हाथ में सौंप दिया। 'काल्स्यचित्रागाति:?। 

इस प्रकार से राज्याधिकार प्राप्त होने पर, नेपोलियन ने अपनी असाधारण व्या- 
पिनी शाक्तियों का परिचय देना शुरू किया ।वह न केवल युद्धकछा में ही प्रवीण 
था, न्याय करने में भी वह असाधारणतया कुशल था । वह केवल अप्लिधारा के 
प्रहार का ज्ञाता ही न था, न्यायदण्ड के धारण में भी वह पूरा २ चतुर था । 
उसकी शासन करने की चतुरता की यदि कोई उपमा दे सक्ते हैं, तो वह उसकी 
युद्धविद्या की निपणता है-इससे अतिरिक्त नहीं। झाम्नन कार्य्य सभालते ही, उस 
ने फ्रेंच समान के विक्ृत और छिल्न भिन्न अज्जों को, सुन ओर दृढ़ बनाने का यत्र 
आरम्म किया । शक्तिस्थापन द्वारा, सम्पत्ति ओर बैमव की उञ्नति के छ़िये उस 
ने चेष्टा शुरू की । उम्त के बुद्धिपृवंक किसे हुंवे राज्य में, शान्तिरपी जरू पे 
सिक्त होकर, लोगों का सुखरूपी कल्पदुम दिनदूनी रातचगुंनी उन्नाते काने 


राम राज्य | ९१ 


लगा । उसका इस समय का राज्य, फ्रांस के लिये एक प्रकार से आदरंराज्य था । 
वह कुलक्रमागत राजाओं के राज्यों की तरह अनुदार तथा संकुचित न था; और न 
ही वह क्रान्ति की शान्तिस्थापक्र सभाओं के राज्य की तरह अत्यन्त बंधनरहित 
होने के कारण अत्याचारी था । नेपोलियन का राज्य मध्यम दर्जे का-शान्त 
और उदार-था । उसने पुराने कुलक्रमागत ठाकुरों के अधिकार को पुनः स्थापित 
नहीं किया, किन्तु साथ ही समानता समानता का शोर नहीं मचाया। उसने बो- 
बोनवंशीय राजाओं की तरह बेहद कर नहीं रूगाये, किन्तु तथापि स्ेसाधारण 
के समस्त राज्याधिकारों के सिद्धान्त की आधोषित नहीं किया । सारांश यह, कि 
उसका इस समय का राज्य क्रान्ति के सत्सिद्धान्त का पाछन करता हुवा कृलक्रमा- 
गत राज्य में होने वाले दोषों का खण्डन करता था । 

उसकी असाधारण प्रतिभा से किये हुवे इस शान्तिराज्य में, देश एक दम 
परिर्तित हो गया । सुख ओर सम्पाति ने पुरानी क्रान्तिकाडीन कठोरता का 
विस्मरण करा दिया। उदारनीति के प्रचलित हो जाने से, वे पादरी ओर ठाकुर लोग, 
जो क्रान्ति के शत्र से भयभीत होकर भाग गये थे, लछोटने लंगे । लोगों ने क्रान्ति- 
कालीन लाल टोपियों ओर सादे कपड़ों को छोड़ कर फूलदार टोपियें और शानदार 
कपड़े पहिनने शुरू किये | बालों पर खूब कंवे फिरने रंगे, ओर चारों ओर नाटक- 
घर खुल गये । नेपोलियन ने भी लोगों की इस विश्रान्त दशा को दृढ़ करने के 
लिये, रानकरीय चमक दमक से अपने आपको पेरना शुरू किया | उसने इसी समय 
अपने एक सचिव से कहा था कि 'में चाहता हूं किये छोग अच्छे शासन के आनन्द 
भोगें, ओर नाटक घरों में आनन्द उड़ावें । किन्तु में यह नहीं चाहता कि ये सा- 
रा दिन राज्य के कार्य्यों की समालोचना किया करें । में इनको राज्य कार्य्यों में 
हाथ डालना मुला दूंगा ।! 

बड़ी राजसी समधन के साथ, नेपोलियन ने फ्रांस के पुराने राजाओं के महलों 
में प्रवेश किया । उन महलों में बेठने से पूवे, उसेने सारे फ्रांस के निवासियों के 
सामने नह राज्य संस्था स्वीकृति के लिये उपास्थित की । सम्माति देंने के लिये ३०, 
१२, ९६९ फ्रांस निवासी उपस्थित थे । उनमें से ३०,११,००७ सम्मतियें इस 
नई संस्था के पक्ष में और १९६२ सम्मातियें इस के विरुद्ध थीं। इस सम्माति लेने 
का फल यह हुवा कि नेपोलियन का आधिपत्य, सारी जाती द्वारा स्वीकार किया गया। 
अब नेपोलियन फ्रांस का वास्ताषिेक शासक बना । उसने पीछे से कहा था के 


९२ नेपोलियन बोनापार्ट | 


'फ्रांसत के राजमुकुट को मैंने धूल में पड़ा हुवा पाया | उसे मैंने उठा लिया और 
सारी जाति ने उसे मेरे सिर पर धर दिया।” इस प्रकार से, शासकत्व के सब अधिकार 
पाकर और देश के अन्द्र शान्ति और समृद्धि का राज्य दृढ़ करके, नेपोलियन ने 
बाह्य शत्रुओं के आक्रमर्णों से भी देश को बचाने का उपाय प्रारम्भ किया । सब से 
प्रथम, उसेने अपने सबसे बड़े शत्रु “इद्धलेण्ड के महाराज” के पास अपनी दस्तख़ती 
चिट्ठी भेजी । उस चिट्ठी में दोनों सम्यदेशों के चिरकालीन वेमनस्थ पर शोक प्रका- 
शित करते हुवे, उसने बड़ बल से अब शान्ति स्थापना के लिये लिखा । इस पवित्र तथा 
उचित चिट्ठी के जवाब देने का कष्ट इंग्लेण्ण के अभिमानी शासक ने न उठाया । उसके 
मुख्य साचेव लाड़े ग्रेन्विल ने बड़े ही चिड़चिड़े शब्दों में, और बड़ी ही अपमानननक 
रीति से, नेपोलियन के पत्र का उत्तर लिखा । उस उत्तर में शान्ति की चाहना की 
जरा सी छाया भी न थी । पत्र का अभिप्राय स्पष्ट था । इंग्लेण्ड का गर्वित शासक 
नैपोलियन को अपने से बहुत छोटा समग्ता था, और इंग्लैण्ड की कैबिनट शान्ति 
करने के लिये तय्यार न थी । 

इंग्लेड के राजा के पास सच्बिपत्र भेनने के साथ ही, प्रथमशासक ने आस्ट्रिया 
के महाराज के पास भी संग्राम बन्द करने के लिये एक पत्र ।लिखा | आस्ट्रिया नेपोलियन 
के शस्त्र की तेज धारा में स्नान कर चुका था, अतः वह शान्ति को स्वीकार करने 
में सहमत हो जाता । किस्तु इंग्लेंड--नपोलियन ओर फ्रांप्त का जन्‍्मवैरी इंग्लैंड- 
आस्ट्रिया में घड़ाघड़ रुपयो की थेैलिये भेन रहा था । रिश्वत का बाजार गर्म था । 
महाभारत में सच कहा है कि “अरथस्य पुरुषों दासो दासरतवर्थों न कस्यचित्‌!ः घन 
के सब दास हैं, किन्तु धन किस्ती का दास नहीं । इस सर्वविजयी धन ने आगामी 
बीस वर्षों तक योरप के बड़े २ राजाओं से प्रातिज्ञाय तुड़वाई, युद्ध करवाये, ओर 
केवल एक देश की इच्छा का दास बनाया । आस्ट्रिया ने नेपोलियन के पत्र के 
उत्तर में लिखा कि विना इंग्लैंड की सम्मति के वह सन्धिपत्ष को स्वीकार नहीं कर 
सक्ता | यह उत्तर पय्याप्त था । 

इस उत्तर के पश्चात्‌, आस्ट्रिया तथा इंग्लैंड का फांत के साथ विरोध स्पष्ट होगया। 
रूस भी इनके साथ मिक् गया । तीनों देशों की सेनाओं ने मिल कर फूांस को 
घेरना शुरू किया । अपने आप को स्वतन्त्रता का वकील कहने वाले इंग्लैंड के बेड़े, 
प्मृद्रों में बूम २ कर फांस के व्यापार तथा जहानों का घंस करने लगे । आस्ट्रिया 
की सेना भी इटछी में से होती हुवी फांत के किनारे तक आ पहुंची । उधर रूस 


युद्ध की तय्यारी | ९३ 


की सेना भी किसी से पीछे न थी । इस समय नेपोलियन ने फिर शान्ति स्थापना 
के कार्य्य में पहल की | उसने आस्ट्रिया ओर इंग्लैंड की गवन्मेंप्य कों लिखा कि 
क्या अच्छा हो यदि दोनों ओर से पुराने केदी छोड दिये जांय । नये युद्ध के 
आरम्भ होने से पूर्व, पुराने केदी छोड देना अच्छा है !। दोनों देशों की गवन्मेंण्ये ने 
एक ही उत्तर दिया, और वह यह था कि वे कैद किये हुवे सिपाहियों का छोड़ना 
सिद्धान्तविरुद्ध समझते हैं । किन्तु नेपोलियन इस से भी असन्तुष्ट नहीं हुवा | उस के पास 
रूस के कई सिपाही केद थे । उसने उन सब को रूसी सेना के वेष तथा रंग 
दंग से समा कर, रूसनरेश के पास भेज दिया । इंग्लैंड ओर आस्ट्रिया की इस नीचता 
तथा फांस की उदारता से मोहित होकर, रूसनरेश ने अपनी सेना को फांस पर 
आक्रमण करने से हटा लिया । फांस के साथ उसने सन्धि कर ली, और इंग्लैंड के 
प्राति युद्ध की त्रोषणा दे दी । 

आस्ट्रिया और इंग्लैंड की सेनाओं से घेरे जाकर, नेपोलियन ने युद्ध करने की 
ही ठानली । वे युद्ध की चमत्कारिणी शक्तिये, जो बरस भर छिपी रही थीं, अब 
फिर अपने पूरे २ बल से उद्भूत हुईं। पहले अपनी सेना के अत्युत्तम डेढ़ 
लाख सैनिकों के साथ, सेनापति मोरियों को उसने होइन नदी के सामने शाज्नु को 
रोकने के लिये भेजा | सये, पचास सहस्र नये सेनिकों के साथ, एल्प्स परत को 
पार करके, आस्ट्रिया की मुख्य सेना को काट डालने का विचार किया | पचास 
सहख सेना के साथ एल्प्ख पवेत को पार करना-यह एक असम्भव बात प्रतीत 
होती था। आस्ट्रियन सेनापति मेलास ने नेपोलियन की इस इच्छा को सुन कर 
हंस दिया ! * जो असम्भव है, उसे नेपोलियन भी नहीं कर सक्ता | ? इतना ही 
कह कर वह चुप हो रहा । इस बात को हर एक जानता था, कि यदि नेपोलियन 
एल्प्स पवत को पार कर के आस्ट्रियन सेना के पीछे जा पंडेगा, तो फिर आस्ट्रिया की 
सेना बड़ी कठिनता में पड़ेगी । पर एल्प्स के पार करने को लोग असम्भव समझते 
थे। किन्तु नेपोलियन असम्भव शब्द के अर्थों से अनाभिज्ञ था । उसने इटली का 
चित्र सामने रख कर, अपने युद्ध का पूरा २ चित खींच लिया । बड़े भारी मान 
चित्र पर, वह भिन्न २ स्थानों पर अपनी और आसः्ट्रिया की प्ेनाओं की वास्तविक 
स्थिति के चिन्ह करता जाता था । अन्त में उसने उसी चित्र पट पर यह भी निश्चय 
कर लिया कि अमृुक दिन अमुक स्थान पर वह आस्ट्रियन सेनापति को जीत छेगा। 
यह सारा का सारा भावी येद्ध चित्र, उसने अपने एक सचिव को समझा दिया | युद्ध 


९४ नेपोलियन बोनापार्ट । 


के चूव ही इस कल्पना को मानप्तिक पलाव समझ ,कर, उंस स्मय तो नैषोलियन का 
सचिव बुरीने हंस दिया, किन्तु जब युद्ध समाप्त हुवा, और उसका वृत्तान्त 
नैषोछियन के पूर्वोक्त वृत्तांत से सवेया मिलता हुवा पाया गया, तब नेपोलियन के 
मन्‍्त्री को उसकी असाधारण प्रतिभा पर विश्वास हुवा । 

७ वी मई ( १८०० ) के दिन, नेपोलियन अपनी सेना को मिलने के लिये 
पोर्सि से प्रस्थित हुवा । वायु की तरह प्रचण्ड वेग से फ्रांस को पार करता हुवा, वह 

एल्प्स की उपत्यका में पड़ी हुवी अपनी सेना में पहुँच गया। सारी सेना को पंक्ति- 

बद्ध खड़ा करके, नेपोडियन ने उसकी देख भाल की ओर फिर एल्प्स के पार करनेके 
लिये-असम्भव बात की सम्भव बनाने के लिये-फांस की वीर सेना ने सोस्साह 
प्रस्थान किया । एल्प्स का माग बड़ा ही दुगम ओर कष्टप्रद था | पंत की सर्दी, 
बरफ की चढ़ाई और तिसपर खाने पीने की न्यूनता-इस से सेना को बड़े कष्ट 
होने की सम्भावना थी । किन्तु; नेपोल्यिन की प्रतिभा ने इन कष्टों को बहुत ही 
ढीला कर दिया । स्थान स्थान पर भोजन तथा शाराबका प्रबन्ध किया गया; पर्वत के 
दोनों ओर दो बंडे २ हस्पताल स्थापित किये गये; ओरभी नित॑न प्रकार के आराम 
हो सक्ते थे उपस्थित किये गये । सारांश यह कि, विना किप्ती असाधारण दुःख के, 
फ्रांसीसी वीरसेना एल्प्स के इस पार से उस पार जा रही। 

एल्प्स पार हुवा सुन कर सारे योरप में एक तरह की कँप कैपी छूट गई । 
जो तब तक असम्मव समझा जाता था, वह सम्भव हो गया । क्या सचमुच नेपो- 
लियन मन्प्यातिरिक्त कोई व्यक्ति था ! ऐसी २ बातें चारों ओर कही जाने लगी । 
आस्ट्रियन सेनापाते मेलास का तो कुछ वृत्तान्त ही न पूछिये, वह तो मार्नो वज्र 
से आहत हुवा | उस ने नेपोलियन की इस एक असाधारण चेष्टा से अपने आपको 
आस्ट्रिया से सबेथा कटा हुवा पाया, क्योंकि उसकी सेना और आस्ट्रिया के बीच में 
नेपोलियन पड़ा हुवा था | ख़तरे के महत्व से घबरा कर, फ्रांस को बेर के लिये 
उद्यत मेलास स्वये घिर गया । चोंबे जी गये थे छब्बे होने को, रह गये दुब्ब जी । 
यही हाल मेलास का हुवा। मेलास ने इस विपदा में फंसकर, यही निश्चय किया 
कि एक बंडे संग्राम में नेपोलियन की सेना को काट कर, अपनी सत्ता तथा विनय 
की स्थिर रकखा जाय। इस विचार से उसने फ्रांस की ओर पाठ की और नेपोलियन के 
ऊपर वह टूट पड़ा । 

जून की चोदहवी तारीख थी । नेपोलियन अपने २० सहस्न सैन्य के साथ 


मेरंजो का युद्ध ९५ 


मेर॑जो के स्थान पर दुग बांधे बैठा हुवा था | मेास ने, ४७ सहस्न की प्रबल 
सेना के साथ उसपर धावा किया । नेपोलियन के लिये यह बड़ी चिन्ता का समय 
था । प्रथम तो शत्रु को आक्रमणकर्त्ता होने का छाम प्राप्त था, फिर नेपोलियन 
का सैन्य भी थोड़ा था । किन्तु उस ने बड़े घेग्थ ओर सावधानी से शत्रु के दुर्गने 
दल का सामना किया | कुछ देर तक फांसीसी सेना चट्टान की तरह डटी 
रही । किन्तु, अन्त को उसके पेर उखड गये । वह पीछे को हटने लगी। नेपोलियन 
का सेनापति डिसे, जो सेनापतिरल्नों में से एक था और जो अभी मिश्र से छोटा 
ही था, अपनी दश सहस्र सेना लिये कुछ दूर पड़ा हुवा था | उस ने मेरंजों के 
मैदान में तोप को गजते हुवे सुना | नेपोलियन ने अपने छोटे सेनापतियों को यह आज्ञा 
दे रक्खी थी, कि जहां तोपका शब्द सुनाई दे वहीं पर अवश्य पहुंचो | तोष की 
गजेना सुनते ही डिसे सेनासहित मेरू्नों के स्थान की ओर को प्रस्थित हुवा । 
किन्तु वह अभी बहुत दूर था, ओर नेपोलियन की सेना, बड़ी संख्या से पद २ 
पर धकेली जा रही थी। नेपोलियन ने इस पश्चाह्मन को भाजड में परिवर्तित 
न होने दिया ओर पीछे हटती हुवी सेना को उसने दृढ़ बनाये रखा। वह केवल डिस्त 
के आगमन की प्रतीक्षा कर रहा था ओर सेना को साथ साथ उत्साहना भी देता 
जाता था । जब कुछ थोड़ा पीछे हट ढेता तब वह अपनी सेना की कहता 'वॉरो ! 
अब हम पय्याप्त पीछे हट ढिये, आओ हम चट्टान की तरह जुट नांय” इस प्रकार 
से स्थिरतया नेपोलियन द्निभर पीछे हटता रहा। आस्ट्रिया की सना का बूढ़ा की सेनापाति 
मेलास दिन रात का थका हुवा था ; थोड़े पर से गिर कर उस ओर मी थकावट हो गई । 
उसने समझा विजय हो गयी । अपने से छोटे एक सेनापति को सेनापत्य का भार 
सौंप कर वह अपने विश्रामस्थान पर चला गया। आस्ट्रियन सेना विजय निश्चित समझ कर 
प्रसन्नता के नाद करने लगी । नेपोलियन के माथे पर भी चिन्ता की दो रेखाये दीख 
पड़ने लगी । 

उसी समय उस्त ने दूर मेदान में धुल को उड़ते हुवे देखा । वह ध्यान देकर उस ओर 
देखने लगा। क्षणभर में वह देखता क्‍या है कि सेनापाति डिसे अपनी सारी सेना के 
आगे घोड़ा सरपट भगाये आरहा है। यह सेनापाति नेपोलियन के वीरतम सेना- 
पतियों में से एक था । इस से नेपोलियन को बड़ी आशार्ये थीं । आंते ही वह 
नेपोलियन के पास आया । नेपोलियन के माथे की रेखायें दूर होगई । उस ने 
अपने तने दस सहस्न आदमियों को लेकर, बड़ा ही घोर आक्रमण किया । वह 


९६ नपोलियन बोनापाटे । 


त्‌फान की तरह, आस्ट्रिया की विजयिनी सेना पर जा पड़ा । उधर से नेपोलियन के 
दूसरे सेनापति केलरमैन ने अपने घुड़सवारों के साथ शत्रु के पाइवपर वार किया । 
सामने से और पारस से दबाया जाकर विजयी आस्ट्रियनसैन्य भाग निकछा । इसी 
आक्रमण में वीर सेनापति डिसे एक गोली के प्रहार से भूशायी हुवा । मरतहुवे उसने कहा 
कि प्रथम शासक से कह दो कि “यदि मरते हुवे मुझे कोई शोक है तो यही है कि 
मैं भविष्य संतान के स्मरण करने योग्य किसी काये को किये विना ही इस लोक 
से प्रस्थित हुवा हू? । 

आस्ट्रियन सेना भाग निकली ; विनय पूरा हो गया । विनय के समय में 
शान्ति ही महापुरुष का धर्म है ।फिर स्मरणीाय मेरज्ञो विनय के पश्चात्‌ नेपोलि- 
यन ने आस्ट्रिया के, महाराज के पास शान्तिस्थापना के लिये पत्र लिखा । इधर से 
नेपोलियन का भय था ओर उधर से इज्जलेंड की केबिनट रिख्वत पर रिखत दे रही थी । 
बेचारा आस्ट्रिया का राजा बीच में ही त्रिशंकुबन रहा था । नेपोलियन सन्धि के 
छिये पत्र लिख कर पोरिस को छोटआया। आस्ट्रिया सन्धि करना न चाहता था, अतः 
वह इधर उधर टालमटोल करने लगा । तब नेपोलियन ने सेनापति मोरियों को 
एक बड़ी सेना के साथ फिर आस्ट्रिया की ओर को प्रस्थित किया। मोरियों विजय 
पर विजय पाता हुवा आस्ट्रिया तक जापहुंचा। होहिन्लिण्डन का युद्ध बहुत प्रसिद्ध 
है। उस युद्ध मं मोरियो ने आस्ट्रियन सेना को बिल्कुल उज़ाड़ कर दिया । 
इस विजय के पश्चात्‌ आस्ट्रिया को बहुत ही भय प्रतीत हुवा। भयभीत होकर, उस ने 
अन्त को नेपोलियन से सन्धि करने के लिये इच्छा प्रकट की। सन्धि शीघ्र ही स्थिर हो 
गई । नैपोलियन के विरोधी भी स्वीकार करते हैं, कि इतने बड़े विजय के पश्चात्‌ 
इतनी उदारसान्धि वही ही करसक्ता था । इस सन्धि द्वारा इटली को स्वतन्त्र 
किया गया और फांस और आस्ट्रिया की हद निश्चित की गईं । 

थोड़ी देर के लिये इंग्लैण्ड के रुपये का असर दूर हुवा, और योरप में शान्ति 
का दृश्य दिखाई देने लगा । 


किक. 
ततोय परिच्छेद । 
2 पिन 2 
आजन्सशासक्र । 
प,्रणभन्त्यनपायमुत्यितं प्रतिपच्चन्द्रमिव प्रजा नृूपम्‌ । ( भारवि; ) 

फांस ओर आस्ट्रिया में सन्धि हो गईं । कई वर्षों का आपस का घातक 
संग्राम शान्त हो गया । जिम्त दिन यह सन्धि हुईं, वह दिन बड़ाही शुभ था 
उस दिन देशोन्नाति के सच्चे अभिलाषुर्कों के चित्तों में पनीमूतहष॑ उदित हुवा । उस 
हप॑ की और भी अधिक करने के लिये, नेपोलियन ने अमेरिका की संयुक्त रियासतों 
की गवर्न्मेन्ट के साथ भी सन्धि करली । पोरिस में दोनों देशों के प्रतिनिधियों ने मिल 
कर, दोनों देशों को प्रेम सूत्र में बांध दिया । इस प्रकार नेपोलियन ने सब देशों के 
साथ सन्धि करढी | केवल एक देश रहगया, जिसने निश्चय किया हुवा था, कि वह 
कभी भी नेपोलियन के साथ सन्धि न करेगा। वह देश इंग्लेण्ड था । इंग्लेण्ड चिरकाल से 
स्वृतन्त्रतांदेवी की छत्रच्छाया में विश्राम करता था । उस की खतन्‍त्रता की रक्षा 
का मुख्य कारण यह था-ओर अब भी हे-कि वह चारों ओर से समुद्रद्वारा 
राक्षेत है | समुद्ररूपी परिखा आक्रमण से उस की पालना करती है । समुद्र पर 
इंग्लेग्ड के पो्तों के साम्हने किसी शाक्ति की सुनवाई नहीं, उस का बेड़ा सरे देशों के 
बेड़ों से अधिक प्रबल है । जब तक उस के हाथ में अपने अदम्य तथा शीघ्रसन्नि- 
हित बेड़े का मन्त्र विध्मान है, तब तक किसी भी शत्रु का प्रहार उसे निबंल 
तथा प्रतन्त्र नहीं कर सक्ता | 


इंग्लेण्ड की कैबिनट इस बात से खूब परिचित थी, नेपोलियन भी इस ऐ 
अनमिज्ञ न था । कुछ नेप्तर्गिक जातीय प्रतिद्वन्द्रिता से, ओर कुछ अपनी अनन्त तथा 
उच्च महत्वाकांक्षा से प्रेरे जाकर, नेपोलियन ने, पहले दिन से ही इंग्लेण्ड की नीचा 
दिखाने का प्रयत्न किया था । मिश्र पर आक्रमण इसी निश्चय का प्रथम अग था | 
नैपोल्यिन मिश्र द्वारा भारत पर आक्रमण कर के, रंग्छेण्ड देश की कान्तिराहित 
भूखण्ड बना देना चाहता था। इंग्लेण्ड देश भी शयनशीर या .बुद्धिहीन न था । 
वह भी पहले से ही ताड़ गया था कि नेपोलियन के सूक्ष्मशरीर में उप्त के आविषत्य 
का एक महान शात्रु विद्यमान है | जब तक नेपोडियन रहे, तब तक उमका इच्ञ- 


हि 


९८ नैपोलियन बोनापाटे । 


लेण्ड के साथ युद्ध करते रहना आवश्यक था । दोनों दुल ऐसा करने के लिये 
बाधित थे-वे इस से अतिरिक्त कुछ करही न सक्ते थे । 

प्रथम विचार से इन बीस वर्षों के युद्ध का सारा भार नेपोलियन पर आ पड़ता 
है, क्‍योंकि मिश्र पर आक्रमण करके उसी ने पहल की थी। किन्तु यदि हम 
यहीं तक ठहर जाएं और इसके भी पूर्व काल में न ॒पहुंचें तो हम नेपोलियन के 
साथ अन्याय कर रहे होंगे । फांस की राज्यक्रान्ति के समय इंग्लैंड ने फांस पर 
आक्रमण करने में पहल की थी। उस्त समय नेपोलियन नहीं था,और नहीं कोई अन्य विनिता 
सेनापाते था। उस्त समय फांस ने किप्ती अन्य देश पर आक्रमण नहीं किया था; 
ओर देशों ने ही उस्त पर आक्रमण किया था । यदि नेपोलियन के युद्धों को उन 
आक्रमण से जोड़ दे, तो प्रतीत होगा कि इंग्लैंड के साथ उस का युद्ध कोई व्यक्तिगत 
युद्ध न था, किन्तु राष्ट्रीय युद्ध का ही उत्तरभाग था । 

इस प्रकार से, इस युद्ध में पहल इंग्लेंड की प्रतीत होती है। किन्तु इंग्लैंड को तथा 
उसके अन्य साथियों को भी सवेथा दूषित नहीं करना चाहिये। उनका कथन था कि फांस की 
राज्यक्रांति से उनकी सामानिकद्शाओं में अशान्ति फेलने का भय हे । इंग्लैंड को इस 
बात से विशेष डर था; अतः वह क्रान्ति के छोड देने के लिये फांप को बाधित करना 
चाहता था । इसमें बहुत बड़ा सन्देह है कि उसके इन यत्षों ने क्रांति को दबाया 
या बढ़ाया ? मेरी सम्मति में विदेशीय आक्रमणों ने ही ऋ्रोति को बढ़ाया; 
और उन्होंने ही उसे भीषण बनाया । क्रांति का इतिहास लिखते हुवे हम बता 
आये हैं कि जब कभी भी क्रांति ने घोर अत्याचार किये, विदेशीय दबाव से घबरो 
कर ही किये। अतः इंग्लेंड ने तथा उस के साथियों ने, फांस की क्रांति से 
लड़ कर, अपना या फांत का भल्ता किया-ऐसा कहना ठीक नहीं | तथापि, यह एक 
बात फांस की कांति के विरोधियों के दोष को कम अवश्य करंदेती है। वे क्रांति 
के नियम से इतने भयभीत होगये थे,-वे इस रोग से इतने डर गये थे-कि वे किकर्त- 
व्यताविमूढ हो गये । किंकतव्यताविमूढ़ होकर, उन्होंने बिना सोचे विचारे ही 
शस्त्रप्रहार कर दिया । डर या क्रोध स मनुष्य अंधा हो नाता हैं; यही अवस्था 
इन देशों की हुई । 

नेपीलियन के युद्ध इन्हीं पूवकाल के जातीय युद्धों के उत्तर माग थे | पहले 
दो युद्धों मं वह सर्वया आत्मरक्षा के लिये छडठा। टउढ़न में और फिर इटकी में 
उसने फरांप्त देश की सीमा के रक्षणाय युद्ध किया । उसका तौ्तिरा युद्ध मिश्र में हुवा। 


कोन दोषी था ! ९९ 


वहां पर वह आत्मरक्षार्थ नहीं छड़ा, किन्तु आक्रमणकरत्ता था, इतने अश में वह 
दृषणीय है | उस को क्या अधिकार था कि वह विना कारण ईनिप्ट पर आक्रमण 
करे ? साथ ही कहा जा सक्ता है कि उसे मिश्रद्वारा भारत पर आक्रमण 
करने का भी अधिकार न था । किन्तु हम यह भी कह सक्त हैं कि इंग्लैंड को 
भी टउलन पर सेना उतारने का अधिकार न था, और आसिट्या को इटली द्वारा 
फांस की भूमि पर चढ़ाई करने के लिये भी कारण न था | दोनों ओर से अनधिकार 
चर्चा हो रही थी; नो बलवान था वह जीत जाता था | असल में बात यह है 
कि इन युद्धा में कोई भी पक्ष किसी सत्यसिद्धान्त के लिये न छड़ रहाथा । 
क्या इंग्लैंड ओर कया नेपोलियन-दोनों एक दूसरे की शक्ति की वृद्धि से इंप्यो 
रखते थे-कोई भी यह न चाहता था कि दूसरा मरे से बढ जाय | यदि दोषी थे 
तो दोनों-यदि्‌ आत्मरक्षा के आधार पर निर्दोष थे तो दाना । दोनों एक दूसरे 
से जल हुवे थे, जिन भी साधनों से वे सक्ते थे, एक दूसरे को नीचा दिखा देते थे । 
नेपोलियन के पास अपनी स्थलूसना का शस्त्र था | उम्के द्वारा कमी वह सूरे 
इड्लेंड-रहित भूमिष्ठ योरप को काबू करके इंग्लेंड का व्यापार बंद करना चाहता 
था ; कभी वह एक दम नहाजों द्वारा इड्लेंड में पहुंच कर उसे दबाना चाहता 
था; ओर कभी द्वीपों पर राज्य जमा कर अपना सामुद्रेक आधिपत्य जमाना 
चाहता था। इंग्लैंड के हाथ में अदम्य सामुद्रिक शक्ति थी, ओर रिश्वत दने के लिये 
घनथा । वह उनके द्वारा फांस की सामुद्रिक शक्ति को छिन्न मिन्न करता तथा योरप 
के अन्य नरेशों को उस से लड़वाता था । इन दोनों ओर के शास्त्रों में से कौनसा 
अधिक आदरणीय तथा कम नीच था ? इसका निश्चय हम पाठकों पर ही छोड़ते हैं! 
किन्तु इतना कह देना चाहते हैं कि दोनों पक्षों में से किसी एक को दृषित करना 
बुरा है। नेपोलियन अपनी महत्त्वाकांक्षा को अपने से दूर न कर सत्ता था और 
इंलेंड भी अपने बड़प्पन की अमिलाषा का त्याग न कर सक्ता था। बींस बरस तक 
नेपोलियन का हाथ ऊँचा रहा, क्योंकि उत्तकी अप्ताधारण शक्तिय स्थिर रहीं; उम्र 
के पीछे वह हार गया, क्योंकि देधर ऐसे एक मनुप्य को संसार में नहीं रखना 
चाहता, निसर॒ की महत्त्वाकांक्षा से सारे नरेशों को मयमीत रहना पड़े; ओर साथ ही 
क्योंकि उस समय इंग्लैंड द्वारा नेपोलियन के विरुद्ध एकत्र की हुई शक्ति, नेपोलियन 
की असाधारण शक्तियां से भी अधिक हो गई थी। नेपोडियन का इन संग्रामों तथा 
अशान्तियों में इतना ही विशेष हिस्सा था कि वह असाधारण श्वक्तिसम्पन्न था । 


१०० नैपोलियन बोनापाटे । 


शेष रही विजय की इच्छा-उसमें अन्य कोई देश उप्तसे कम नहीं है। उसने !िश्र को 
: जीतना चाहा, क्‍या उसके लिये वह दोषी था ! यदि वह था तो क्या अब मिश्र 
स्वतन्त्र है ? वह सावेभोम सामाज्य की चाहना करता था, कया उप्तके लिये वह 
दोषी था ? यदि वह था तो कया इस समय ऐसे देश नहीं हैं-ओर क्या उस समय 
ऐसे देश न ये-नो अपने भर सक कमी मी अपना राज्य फेढाने में कप्तर नहीं 
छोड़ते ? और वे देश भी ऐसे नो इस काय्ये के लिये उससमय नेपोलियन को दूषित 
करते थे । जमेनी पर ही दृष्टि डालिये-क्या वह किप्ती से कम हे? शायद नेपोलियन इस 
काय्य के करने में बहुत शीघ्रता करने का दोषी था । किन्तु वस्तुतः, वह पश्चिम की 
अशान्तता तथा प्रहारकता का ही आदश था; इस सावंत्रिक गुण या दोष के लिये 
एकाकी उस्त को गुणी या दोषा न ठहराना चाहिये । अस्तु । 
जिप्त विरोधमाव का ऊपर वणन हुवां है, वह इस समय भी खब 
जोरों पर था | फास ओर सब के साथ सन्धि कर चुका था, एक इंग्लेण्ड ही शेष था। 
फांस के वे भाग हुवे कुरीन पुरुष भी, नो पुराने बोबॉन राजाओं के पुनरागमन 
की प्रतीक्षा कर रहे थे, इंग्लैंड में डरे डाले पड़े हुवे थे। उन के कई भाई बन्द 
फांस में मी थे । वे चुप चाप न थे, कोई न कोई शरारत करतें ही रहते थे । 
विशेषतया इस समय, नेपोलियन के मारने के लिये वे यत्नवान थे । 
उप्त से पहले क्रान्ति एक व्यक्ति पर आश्रित न होती थी, उन का आश्रय 
एक दर या एक सभा होती थीं ; अतः उन्हें एक ही चपेड़ में मार गिराना कठिन 
था । किन्तु अब राज्य का तथा क्रान्ति का स्तम्भ केवल एक नेपोलियन था । 
राजपक्षपाती समझते थ कि उस एक के गिरते ही अब पुराने राजाओं का आजाना 
कठिन नहीं है। अत; नेपोलियन के प्राणघात के लिये वे ताक में छंगे रहते थे । इस 
समय भी उन्होंने एक ऐसी ही चेष्टा की । 
एक दिन नेपालियन गाड़ी में बेठ कर एक नाटक गृह की ओर को जा 
रहा था | उप्त के आने का समय पहले से ही ताड़ कर, घातकों ने उसी रास्ते क 
एक ओर एक गाड़ी खड़ी कर रक्खी, निस में बारूद भरा हुवा था । गाड़ी के 
चढाने के लिये एक १५८ वर्ष की जवान छड़की को नियत किया । जब नेपोलियन 
की गाड़ी उप्त के पास पहुंची, घातक ने उड़ाने के लिये बारूद में आग दी । आग ढगने 
में एक क्षण भर की देरी हो गई | उतनी देर में नेपोलियन का भाग्य और गाड़ी 
उसे आंगे खींचकर ले गये। कई कहते हैं कि नेपोकियन के कोचवान ने उस दिन शराब 


धर्म की स्थापना । १०१ 
की असाधारण राशि पेट में डाछ छी थी, इस लिये उप्र के घोड़े सरपट से भी 


कुछ अधिक तेज भाग रहे थे। वे शीघ्र ही, उस्त बारूद की गाड़ी से आगे 
निकल गये । बारूद फट पड़ा | आस पास के कह घर गिर गये, सारा पेरिस 
नगर जड़ से हिल गया , किन्तु नेपोलियन को कोई हानि न पहुँची । उस का 
मुख पृवंवत्‌ ही शान्त तथा गम्भार रहा | सारे परिस के लोगों ने पहले समझा कि 
नेपोलियन का चरित समाप्त हो गया, किन्तु जब उन्होंने नाटकयृह में उसे उन्हीं 
छोटे २ हृढ़ कदमों से चलते हुवे देखा, तब तो उन के आल्हाद की सीमा न रही। 
उन को नेपोलियन की अदम्यता पर ओर भी विश्वास हो गया, और वे उस से 
ओर भी अधिक प्यार करने छंग नेपोलियन ने पीछे से इस पाप कम के करने वाले 
दोषियों का पता छगाया । दो रानपक्षपातियों को फाप्ती दी गई । कुछ एक 
क्रान्ति के पक्षपातियों पर भी सन्देह हुवा, उन्हें देश-निकाला दिया गया । 

इस उपय्युक्त घटना से और कोई छाम हुवा यान हुवा, किन्तु इतना अवश्य 
हुवा कि नेपोलियन पहले की अपेक्षा अधिक सावधान हो गया। उस्त ने इन सब शरारतों 
के मूल में घुसने का यत्न किया | विचार करने पर उसे ज्ञात हुवा कि ये सब 
शरारतें, ये सब राननतिक पाप चेष्टाय, दूर नहीं हो सक्तीं नब तक कि निवासियों 
का कोई स्थिर धर्म न हो । देशनिवासियों का ओर राज्यशासन का, धमम के साथ 
सम्बन्ध करना वह आवश्यक समझता था । संस्तार में सेक्रड़ों सवेथा गुण- 
रहित रान-वंश केवल इस लिये शासन करते रह हैं कि वे प्रभा की दृष्टि 
में ईइवर के प्रतिनिधि और पघर्म के रक्षक थे । धर्म के विना राज्य ऐसा ही है 
जैसा तने के विना वुत्त । विना धार्मिकप्तम्बन्ध के, कोई भी शासन जीवित नहीं 
रह सक्ता । नेपोहियन ने भी अपने शासन को धमंरूपी स्तम्भ पर स्थिर करने का 
निशचय किया । एक बड़ा भारी उत्सव किया गया | क्रिश्वियन धमे के गुरु पोष 
की अनुमति से, उप्त उत्सव में आधोषित किया गया कि फांस देश की सरकार का 
राज-धर्म आज से रोमन कैथोलिक क्रिश्चियन धर्म होगा। क्रान्ति के भावों से भरी हुई 
नैषोल्यिन की सेना ने इस आघधोषणा को बहुत नाक मौं चढ़ा कर सुना; किन्तु नेपोलियन 
इस घोषणा के राजनोतिक महत्त्व को जानता था । वह वस्तुतः क्रिश्चियन था-यह 
कहना बहुत सत्य नहीं । वह प्रायः कहा करता था कि मेरी सहानुभूति क्रिश्चियन धमे 
की अपेक्षा मुहम्मदी धर्म के साथ अधिक है । मिश्र में यह स्पष्ट हो गया था कि 
धमें को वह केवल राननोतिक शस्त्र समझता है, इस के सिवाय ओर कुछ नहीं । 


१०२ नेपोलियन बोनापार्ट । 


धमेस्थापना के कार्य ने नेपोलियन के योरपस्थ शत्रुओं की संख्या बहुत कम कर 
दी | जो लोग उसे क्रान्ति का प्रतिनिधि समझ कर, उस से द्वेष रखते थे, उन्होंने 
अपनी प्रम्मति को बदल लिया । इस प्रकार अवशिष्ट शत्रुओं को मित्र बनाकर, 
उप्त ने अपने एकमात्र विरोधी इडटैंड से भी सन्धि करने का विचार किया। 
कई लोगों की सम्मति है, कि नेपोलियन स्वमाव से-ही युद्धम्रेमी था । यह 
उन छोगों का भूम है। वह स्वमाव से युद्धप्रमी न था | हां, वह आत्ममहस्तवाकाक्षा 
का शरीरधारी रूप था। वह स्वयं बड़ा होना चाहता था और अपने महत्त्व के 
साथ फांस के महत्त्व को सवथा बेचा हुवा समझता था। उस महत्त्वाकांक्षा के पूरा 
करने के लिये, संसार में सब से बड़ा बनने के हिये, उप्ते जो भी साधन उपयुक्त 
प्रतीत होते थे वह उन्हें काम म॑ं छाता था । नब वह समझता था कि उप्र के तथा 
देश के गोरव के लिये शान्ति की स्थापना आवश्यक है, तब वह शान्ति के लिये 
यत्न करता था ! ओर जब वह युद्ध के विना इस महत्त को कम होगा समझता 
था, तब उस से भी न झिझकता था ।वह निम्गेतः क्रूर या युद्धप्रेमी न था । आहतों 
ओर मरे हुवों को देख कर उसे शोक होता था, अन्यों के दुःख से वह दु।खी 
मी होता था | वह स्वयं युद्ध न चाहता था , किन्तु, जब अन्य कोई उपाय अपने 
तथा देश के गोरव की रक्षा का उस्ते न सूझता था, तब उप्त की सेंही प्रकृति प्रादुर्भत 
हो जाती थी। शान्ति ओर युद्ध की कलाओं में वह समानतया प्रवीण था । जहां 
सैं ही प्रकृति का प्रादुभाव हुवा, वहां फिर युद्ध के वे चमत्कार दिखाई दते थे, मिन की 
उपमा के लिये आप सारे इतिहास को खोनिये-तों मी आपपाने में क्ृतक्ृ्य न होंगे । 

इंग्लण्ड के साथ सन्धि करके, नेपोलियन अपने देश के व्यापार की रक्षा करना 
चाहता था। सारे समुद्र इंग्लेण्ड के जहानों से अच्छादित थे , अतः फांप का सामुद्रिक 
व्यापार मर रहा था । नेपोंहियन ने मित्रभाव से शान्तिस्थापना के लिये यत्न 
किया, किन्तु उसे उप्त का टकेसा नवाब मिला । तब दूसरा उपाय उसके पाश्न युद्ध 
का था। किन्तु इंग्लेण्ड के साथ सामुद्रिक युद्ध करना नेपोलियन के हिये 
काठेन ही क्‍या, सर्वथा अप्तम्म था । तब नेपोछियन ने दूसरे मागे 
का अवलम्बन किया । उप्त ने इड्जलेण्ड के पास वाले फांस के किनारे पर कई दुर्ग 
बनाये | व दुगे इस प्रकार से बनाये गये थे कि उनद्वारा दूर २ तक समुद्र वश में आ 
सके और उतने स्थान में शत्रु का कोई मी पोत न घरुत्त सके । तब उस ने उस तट पर 
जहाजों फा एक बेड़ा तस्यार करना शुरू किया । बेड़ा तय्यार करने के साथ ही, 


इंग्लेण्ड से सान्धि | १०३ 


उस ने अपने सरकारी अख़बार में कई लेख लिखे, निन में दिखाया कि यदि 
इग्लेण्ड अब भी फांस के साथ सन्धि न करेगा तो में उसे एक वार मजा चखा 
दूगा | ब्रिटिश बड़े के जरा अस्तावधान होने पर यदि में अपना बेड़ा लेकर शक 
हैण्ड के तट पर पहुचगया, तो फिर लन्दन की कैबिनट की खेर नहीं । पहले तो इंग्लिश 
सरकार ने इसे केवल फोकी धम्रकी समझा । उन्हेंने अपने नो-सेनापति नेल्सन 
को फ्रांस के बड़े के घ्वेस के लिये भेना । | गे ओर अभिमान पें चूर, नाईक के 
विनेता ने दो बंड़ जबदंस्त आक्रमण फ्रेंच बेड़े पर किये, किन्तु उस अपनी हानि 
कर के निराश लोटना पड़ा। तब तो हन्दन की केबिनट के दिल में सच मच भय का 
संचार हो गया । नो काये सान्‍्वना से नहीं सका था, वह धमकी से हुवा | 
जो कार्य सीधी बात से न हो स्का था, वह छात से हुआ | ब्रिटिश सरकार ने सन्धिका 
प्रस्ताव किया, नेपोलियन ने उस झट स्वीकार कर लिया | फांस ओर इंग्लेण्ड से 
समान दूरी पर स्थित आमियां (3४४८॥७) स्थान पर दोनों ओर के रानदूत इकट्ठे हुवे। 
उन्होंन सन्धि की जा शर्तें नियत कीं, उन द्वारा नेपोलियन को मिश्रदेश छोड़ना पड़ा। 
इंग्लेण्ड ने माल्टा पर से अपना अधिकार उठा लिया । इटली के प्रजातन्त्र राज्यों 
की स्वार्धीनता स्वीकार की गईं, ओर साथ ही कुछ निरिचत सामुद्रिक उपनिवेश्ञों 
की छोड़ कर, ओरों पर से इंग्लण्ड का प्राधान्य बन्द किया गया । इन शर्तों पर 
सन्धि स्वीकृत हुवी । 

इंग्लेण्ड के साथ सन्धि होनान पर, नेपोलियन की कीर्ति आगे से दुगनी 
हो गई । पहले वह केवल युद्धवीर ही प्रसिद्ध था, अब वह सन्धिवीर भी प्रसिद्ध 
हो गया | इस सन्धि को सभी ढछागों ने कई सांग्रामिक विजयों से बढ़ कर विनय समझा । 
नेपालियन सब देशों में 'शान्ति का देव! के नाम से प्रसिद्ध हो गया । इस तरह से 
बाहिर शान्ति ओर विनय-दोनों की ध्वमा को साथ ही रूहरा कर नेपालियन फांस को 
दृढ़ करन के लिये उद्यत हुवा | नब तक बाह्य युद्धों से निश्चिन्तता प्राप्त न हो- 
तब तक आमभ्यन्तर उन्नति अस्म्मव रहती है | नेपोलियन ने अब बाह्य शान्ति स्था- 
पित करछी, अतः आ'भ्यन्तर उन्नति उसके लिय सम्मव हो गई । सब से प्रथम 
काय्ये नो आम्यन्तर उन्नति के लिये उस्त ने किया, शिक्षा का सुधार या शिक्षा 
को नये ढांचे पर ढालना था | उसने कई नये विद्यालय स्थापित किये, और उनकी 
झठविधि भी नई बनाई । उस पाठविधि में दशन तथा इतिहास की न्यूनता 
करके, उनके स्थान पर साहित्य तथा शख्रविद्या की अधिकता की गई । शखस्र- 


१०४ नैपोलियन बोनापार्ट | 


विद्या की शिक्षा अधिक करने का उद्देश्य स्पष्ट है । नेपोलियन देश की रक्षार्थ 
अच्छे योद्धाओं का तय्यार करना आवश्यक समझता था । किन्तु दूसरे परिवतेन का 
अभिप्राय समझना कठिन है । साहित्य की शिक्षा को प्राधान्य क्यों दिया गया ! 
इसका उत्तर सहल नहीं । इसी प्रकार दशनशासत्र का पाठविधि से कम कर देना भी 
उप्त के अभिप्रायों के अनुकूल था, क्योंकि वह जानता था कि शुद्ध दाशेनिक 
विचार ही क्रान्ति नेप्ती घोर आपत्तियों के हेतु होते हैं । किन्तु इतिहास को, जो 
शान्ति तथा स्थिरता का गुरु है, उस्त पाठविधि में से उप्तने क्‍यों उड़ा दिया ! यह 
प्रश्न भी बहुत कठिन है | 

अपने राज्य की स्थिरता के लिये नेपोडियन ने एक और भी उपाय किया । 
किसी भी एकव्यक्तिप्रधान शासन का स्थिर रहना दुः्साध्य होता है, जब तक 
वह योद्धाओं की एक श्रेणि के आश्रित न हो । पुरान राज्यों मं, जहां चिरकाल से 
राजर्काय सत्ता की नींव दृढ़ होती चली आइ हो, कुलीनों की एक श्रणि होती हे, नो 
अपनी रक्षा के लिय राजा का मुख देखती है, ओर अत एवं राजा को भी विषत्ति 
में सदा सहायता देती है। क्रान्ति की आंधी ने इस्त श्रीण का चिन्ह तक फांध में न 
छोड़ा था। नेपोलियन ने फिर से इस अ्रणि को जीवित करन के लिये एक आदर का 
चिन्ह [,८220 ० 07०परा, ) निश्चि किया जो बड़े २ योद्धा 
आओ, चित्रकला कें विद्वानों तथा ज्ञानियों को दिया जाता था | निन स्तम्मों के 
विना कोड राज्यप्रासाद खड़ा नहीं हो सक्ता, उनकी रचना करके नेपोलियन फांस 
के राननियमों के संशोधन में प्रवृत्त हुवा । उप्तन कई एक बड़े ही प्रशस्त राज- 
नियमज्ञों को एकत्र करके, एक स्ठृति बनने के लिये आदेश किया । नेपोछियन 
ने अपने जीवन में जितने मी भावात्मक कार्य किये हैं, उन सब में से अधिक स्थिर 
काय्य इस स्वति का तय्यार कराना था।कहते हैं कि यह नेपोडियन-हम्ृति ८ 0००१७ 
०००८०) ) अपनी तरह की स्शूतियों मं स एक है । प्रसिद्ध विद्वान्‌ छाई रोज़- 
बरी की सम्मति है कि अब तक फ्रांत के राजनियमों पर इस नेपोलियनस्मृति 
का ठप्पा लगा हुवा है। कई इेष्योडु तथा दिकनले ऐतिहासिक नेपोलियन के हाथ 
से इस स्मृति के बनाने का पृण्य छीनना चाहते हैं । वे कहते हैं कि यह स्ठ॒ति 
पहले से ही बन रही थी, नेपोडियन केवछ उसका पूरा करने वार ही हुवा 
है। किन्तु ऐतिहासिकलोनों ने सिद्ध कर दिया है कि नेपोलियन की यह स्थृति 
सवेधा निराछी थी, पहले की किसी भी नियमपृस्तक का सेशोधनरूप न. थी । 


साम्राज्य प्राप्ति । १०५ 


इन सब लोकहितकारी कार्यों ने नेपोलियन के कीर्तिस्तम्म को बहुत ही 
ऊँचा कर दिया । ऐसे शान्तिस्थापक ओर सुख देने वाले शासक के साथ, फांपत की 
प्रभा अपने पिता की तरह प्यार करने छगी । सारे फांसनिवासी अनुभव करने 
लगे कि नेपोलियन उनकी जाति का गठ़े में से निक्रालने वाला, तथा उन्हें गनपृष्ठ 
पर चढ़ाने वाह हुवा है । प्रजा के प्रतिनिधियों की सभा में यह प्रश्न होने छगा 
कि प्रथमशासक के इन सब उपकारों का क्‍या प्रतिफल दिया माय ? हर एक फांस 
निवासी यह अनुभव करता था कि उस अवश्य किसी तरह नेपोलियन के प्रति 
क्ृतज्ञता प्रकाशित करनी चाहिये , किन्तु यह किसी के भी समझ में न आता था, 
कि वह क्ृतज्ञता किप्त रूप में हो । यह विषय न्यायप्तमा में विचाराथ उपस्थित 
हुवा | कुछ भी अन्तिम निश्चय न करके, उप्तन वह विषय सेनेट में भेन दिया । 
पेनेट के कई समासद्‌ प्रतिनिधिरूप स नेपोलियन के पास उपस्थित हुवे, ओर उन्हों ने उस 
से निवेदन किया कि 'सारी फेंचनाति आपकी क्ृतज्ञ है ओर आपको उस कृतज्ञता 
का कुछ प्रतिफल देना चाहती है। आप नो कुछ चाहेंगे, वही आप का मिलेगा ॥! 

नेपोलियन ने सेनेट के इस प्रस्ताव का मिन दाब्दों में उत्तर दिया, वे स्मरणीय 
हैं| उसने कहा कि 'में आप छोगों के प्रेमोपहार से अधिक और किस्ती भी इनाम 
की इच्छा नहीं रखता | में अपने देश की सेवा को ही अपन जीवन का उद्देश्य 
समझता हूं | यदि आप छोगों की सेवाम में मर मी जाऊं तो में अपने आपको 
धन्य समझूगा ।' 

इस उत्तर के पहुंचने पर फिर सेनट में विचार प्रारम्भ हुवा । बहुत विचार के 
अनन्तर, सेनेट ने यही निश्चय किया कि नेपोलियन को जन्म भर के लिये देश का 
प्रथम शासक निश्चित किया नाय | अभी तक वह केवल दस वष के लिये ही प्रथम शासक 
था, अब उसे जन्‍म भर के लिये यह अधिकार दिया गया | जब नेपोलियन को 
सेनेट का यह प्रस्ताव भेजा गया, तब उसने उन्हें जो उत्तर भेजा वह भी बहुत 
स्मरणीय है । उप्तका उत्तर यह था-'आप होगों के इस प्रेम का चित्र सदा मेरे 
दिल पर खिंचा रहेगा । मेरी सेवाओं से आप प्रस्नन्न हुवे हैं, इसी में मुझे सन्तोष है, 
किन्तु आप मुझ से कुछ ओर भी सेवा कराना चाहते हैं। में उत्त के करने के 
लिये सेथा तय्यार ह-किन्तु मुझ आपकी सम्मति के अतिरिक्त सवबे साधारण की 
सम्मति भी अभीष्ट है । यदि सर्वेत्ाधारण की सम्मति भी वहीं हो जो आप सब 
की है तो में अपना नीषन देश के लिये दे देंने में अपना अहोभाग्य समझूगा ।! 


१०६ नेपोलियन बोनापार्ट | 


नैपोलियन की इच्छा के अनुसार, यह प्रस्ताव फांत के सारे निवासियों के 
सामने उपस्थित किया गया | फांस के ३५,६८,८८५ निवासियों ने यह सम्मति 
दी कि नेपोलियन को नीवन भर के लिये शासक बनाया जाय, केवल ८ सहस्न 
की सम्मति इस प्रस्ताव के विरुद्ध थी | सारे देश की बहु सम्मति से नेपोलियन 
जीवन मर के लिये फ्रांप का शासक बनाया गया, किन्तु तब मी कई ऐतिहासिक 
हमें बताते हैं कि वह अपनी धक्का मुश्ती से देश का राजा बना। यदि शान्तिस्थापक 
राज्य का नाम ही धक्का मुश्ती है, तो नेपोलियन अवश्य धक्का मुइ्ती से शासक बना 
था; यदि सारे देश की बहु सम्मति ही धक्का मुश्ती है, तब भी नेपोलियन धक्का 
मुइ्ती से ही शासक बना था; किन्तु यदि धक्का मुइती आततायिपने का नाम है, तो 
नेपोलियन के शासक बनने के विषय में उस शब्द का प्रयोग करना सत्य का अप- 
लाप तथा शब्द का दुरुपयोग करना है । 

क्या सचमृच नेपोलियन धक्का मुइ्ती से शासक बना ? इस प्रश्न का उत्तर हम 
अपने पाठकों की सम्माते पर ही छोड़े दते हैं । 


चतुथ परिच्छेद । 


साम्राज्य रूब्धि । 
प्राकाइय स्रमुणोदयेन गुणिन; संयान्ति कि; जन्मना । 

राजनीति का सब से कठिन पारिच्छेद सन्धिपरिच्छेद है। अन्य देश के 
साथ सन्धि करना ही राननेतिक बुद्धिमत्ता की सच्ची कप्तोटी है | सेना तय्यार करके 
शत्रु पर यथावप्तर आक्रमण करना भी सहल कार्य्य नहीं, तथापि वह सान्धि के दुःसाध्य 
कार्य्य से बहुत सहल है । युद्ध में हम सेनाओं से साहाय्य ले सक्ते हैं, किन्तु जब एक 
कमरे में हम अपने शत्रु के प्रतिनिधियों के साथ सन्धि की शर्तें बना रहे हों, तब सिवाय 
हमारे अपने मग़ज़ के ओर कोई सहायक नहीं हो प्क्ता । युद्धनिषरण मनुष्य 
निप्त प्रकार की स्ताह॒प्िक चष्टाओं का अभ्यासी हा जाता है, राजनीतिज्ञ पुरुष 
बेधा साहसिक चेष्टाय नहीं कर सकता । यदि वह ऐसी साहसिक चष्टाये करे, यदि 
वह अपन आप को थोड़ी सी भी जोखम में डालदे, तो फिर वहां से बचना कठिन हो 
जाता हे | वह साम्धि नो एक वार पत्र पर आ गईं, वे अक्षर नो एक वार कागज पर 
लिख गये, फिर मिटाये नहीं जा सक्ते। संसार में युद्ध ओर सन्धि में समान योग्यता 
रखने वाला पुरुष दुढूभ है, क्योंकि इन दोनों कार्यों के पूण करने के लिये मिन्न २ 
प्रकार की योग्यतायें आवश्यक होती हैं, किन्तु नेपालियन बोनापार्ट इन दानों कछाओं 
में निषरण था । इसीलिये वह महापुरुष था | केवल योद्धा युद्धों को जीत सक्ता 
है, किन्तु छोगों क मनों को वह नहीं जीत सक्ता | नेपोलियन केवल योद्धा 
न था, वह योद्धा के साथ कुछ और भी था | वह सन्धि करने में, और राज- 
नीति के नीच ऊंच देखन में भी पिद्धहस्त था | आमियां की सन्धि इस में ज्वलन्त 
प्रमाण थी । 

आमियां की सन्धि नपोहियन और इंग्रैण्ड के बीच में हुई थी। इंगूलेण्ड 
अपनी नीतिमत्ता के सामने हिमाल्यपवंत की चोटी को भी वामन खझुयारू करता 
था | नेपोछियन ने नीति में इंगूलेण्ण को भी नीत लिया। जब आमियां की 
सन्धि हो रही थी, तब इज्जालिश कैबिनट न जानती थी कि वह अपने आप को कैसे 
दुर्भोक पाश में बांध रही है । तब उप्त ने समझा कि चलो हमारे हाथ से माल्टा 
द्वीप गया, तो नेपोलियन को मिश्र देश छोड़ना पहा, मामढा बराबर हो गया । 





१०८ नेपोलियन बोनापार्ट । 


उस समय उसने यह न सोचा कि मिश्र के निकल जाने से नेपोलियन की 
मुद्ठी जरा भी ढीली नहीं हुई, किन्तु माल्टा के खो जाने से इड्लेण्ड के गोरब की 
कुम्मी ही नष्ट हो गई । इच्डल्ेण्ड का राजनेतिक महत्व सामृद्रिक बढ के कारण 
ही है। मेडिटेरानियन समुद्र म॑ से इज्ञकेण्ड के नहानों का आधिपत्य उठा दीनिये 
ओर आप उसे 'यावच्चर्म चदारुचः के सिवाय कुछ न पायंग । माल्‍्टा मैडिट्रेनियन 
की राजधानी है | उस के निकल जाने पर इड्रलेण्ड समुद्रों का नाद्रिशाह नहीं 
रह सक्ता था । सन्धि करते हुवे इद्नल्िशिकेबिनद को यह बात नहीं सुझी, नेपो- 
लियन को सूझ गई । सन्धि हो गई ! जब ब्रिटिश सरकार माल्‍्टा स अपनी सेनाओ 
को उठाने के लिये बाधित हो गई, तब उसे यह सूझा कि वह दिन दहाड़े लूट छी गई । 
इधर इसे यह चिन्ता छगी, उधर नेपोलियन इटछी की रिपब्लिक का भी समापाते 
बन गया, ओर हालेण्ड में भी उस ने अपनी सेना भेन रक्खी थी । नेपोलियन के ये 
कार्य्य संसार की शान्ति के भेग के लिये पय्याप्त थे, और इड्डलेण्ड को नेपोलियन के 
प्रति सचेत करने के लिये भी पर्याप्त थ, किन्तु इड्रलेण्ड से सन्धि तुड़वाने के लिये 
पय्याप्त न थे | यदि राननोतिक सन्धियें तोड़ने की प्रथा चल ज्ञाय, तो प्रथिवी तल 
पर कभी भी तलवारों के बनने का शब्द बन्द न हो। नेपोलियन नो कुछ कर 
रहा था, वह सन्धि के बाहिर था | सन्धिद्वारा उश्न पर कोई दोष न दिया जा सकता 
था। मिश्र से अपनी सेना बुछा लने के लिये उस्ते तान मास की मृहरूत दी गई थी, 
उसने दो मास में ही झोनिप्ट खाली कर दिया; किन्तु इड्ललेण्ड से माल्या 
नहीं छूटा । पहले सन्धि करने की मूखता उस्त समय की ब्रिटिश सरकार ने करी, 
तब फिर उसे पालन करने में वह हिचकिचाने छूगी । क्या सन्धिकला में नेपोलियन 
इञ्जल्ेण्ड की केबिनट को नहीं जीत गया ! 

जब लन्‍्दन की केबिनट ने माल्टा छोड़ने में आनाकानी शुरूकी, तब नेपोलियन 
घबराया | सब से प्रथम, उसे यह पता था कि भब तक मडिटरेनियन पर अंग्रेजी 
सिक्का चलता है, तब तक वह अपनी शक्ति को महत्वाकांशा के अचुकूछ नहीं 
बढ़ा सक्ता । दूपरे उसे यह भी ध्यान था कि यदि पहलके कीगई सन्‍्धी के 
अनुसार वह इज्जलेंड से माल्टा को खाढ़ी न करायेगा तो सारे देश उस्॒ की अशक्तता 
से छामर उठायेंगे | इन दोनों बातें पर विचार करके, उसने माल्टा ख़ा़ी करने के 
लिये तकाजे पर तकाज़ा शुरू किया ।इंग्लेण्ड केपास कोई सीधा उत्त न था । 
उपयुक्त उत्तर न मिलने से मनृष्य निप्तगत; चिड़ चिट्ठा हो माता है।।ब्नीटिश केबिनट 


फिर यरुद्धबोषणा । द १०९ 


मी इस समय आपे से बाहिर होगई । इंग्लेण्ड के पत्रों में नेपोलियन के आचारों पर 
झूठे ओर गन्दे आल्षेप किये जाने लंगे । इंग्लेण्ड के पेम्फ्लट लिखने वालों ने उसे 
दुराचारी अस्याचारी ओर मिथ्याचारी लिखा । नेपोलियन ने ब्रिटिश सरकार के पास 
शिकायत की तो जवाब मिला के इल्ूढैंड में पत्रों को पूरी स्वतन्त्रता है अतः वह 
ऐसे आल्षिपों को नहीं रोक सकती । यद्यपि यह सब लोगों को ज्ञात है कि जब 
- ब्रिटिझ्न सरकार उचित समझती है तब इड्जेंड में भी वाक्य तथा केख की स्वाधीनता 
के छीनने को बुरा नहीं समझती । ओर न ही यह बुरा है । सरकार समान की 
रक्षार्थ है, यदि वाक्य तथा लेख से सामानिक स्थिति खतरे में हो तो उनके मुंह पर 
भी लगाम लगा देना बुरा नहीं । किन्तु,शायद्‌ ब्रिटिश मरकार ने नेपोलियन के ऊपर 
झूंठ तथा गन्दे दोष लगाने को बुरा नहीं समझा था। 

इन अधिक्षेपों से नेपोलियन भी आप से बाहिर हो गया। उप्तने इन आक्षिपों के 
उत्तर अपने हाथ से लिख कर, अपने रानकीय पत्र मोनीटर में प्रकाशित किये। उन 
उत्तरों में उम्त ने आक्षेप कताओं के साथ ही ब्रिटिश सरकार को भी आड़े हाथों 
लिया । आखिर फ्रांस में रहने वाले ब्रिटिश सरकार के राजदूत ने नेपोलियन से 
आकर कहा कि वह यदि हालेण्ड को खाढ़ी करदे तो इड्डढेंड माल्टा को 
खाली कर देगा । साथ ही उसने यह भी कहा कि यदि यह शते सात दिनों के 
अन्दर स्वीकृत नहों तो वह पेरिस छोड जायगा | यह सर्वथा स्पष्ट है कि 
इड्लेड को ऐसी शत उपस्थित करने का कोई अधिकार नथा ओर ना हीं 
नेषोकियन इस के मानने के लिये बाधित था | इस का मतह॒ब यही था कि 
इज्जलेंड लड़ाई पर तुला हुवा है, चाहे कुछ हो वह युद्ध करके छोड़ेगा । नेपोलियन ने 
भी खम ठोक कर कहा कि 'इ्डलेंड हम से अवश्य युद्ध करना चाहता है। तब हम 
उसे युद्ध देंगे ओर आमृत्युयुद्ध देंगे!। शायद नेपोडियन का अभिप्राय इच्डूढेंड की 
मृत्यु से था, किन्तु देवको इसका उल्टा अभिप्रेत था । सातवें दिन इड्डकैंड का 
राजदूत पेरिस्त छोड़ कर चला गया। उस्री दिन नेपोलियन ने भी अपनी प्रजा के 
सामने युद्ध की घोषणा देदी । 

क्या इस युद्ध के करने में इडडलैंड दोषी था? आत्मरक्षा ओर योरप की शान्ति- 
रक्षा के लिय यह आवश्यक था कि नेपोलियन के साथ युद्ध किया जाता, इतने अंश 
में इडहेंड का कार्य्य दृूषणीय नहीं । पहुछे एक सन्धि पर स्वीकृति के हस्ताक्षर कर 
के, पीछे से उस्त का आदर न करने में निःसन्देह इड्जलेंड दूषित था। इस युद्ध के प्रारम्भ 


११० नैपोलियन बोनापार्ट । 
का वास्तविक उत्तरदातृत्व किस पर है ? निःसन्देह इस के उत्तरदातृत्व को दोनों पक्षों 
पर बांट देना चाहिये । नेपोलियन इस प्‌थिवी के शासकों से इतना अधिक शक्ति 
शाही था आर वह अपनी शक्तिशालिता का इतनी बहुतायत से प्रकाशित करता 
रहता था कि अन्यदेशों के शासकों के मना में भय उलज्ञ होना स्वाभाविक था | 
इस कारण का भुछाना नहीं चाहिये। हां, इस युद्ध का सीधा उत्तरदातृत्व इंग्लैंड पर ही था। 
इद्धरसोल, येयपै, ओर सरवाल्टर रक्राट आदि इंग्लिश इतिहासज्ञ भी यह स्वीकार करते 
हैं। इप्त शान्तिमंग का उत्तरदातृत्व इंग्हैंड पर है, फ्रांस पर नहीं | विलियम हेजिहिट 
यह दिखाते हुंवे कि इस युद्धारम्म का उत्तरदातृत्व इज्जलैंड पर था, कहता है कि 'माल्टा, 
केवल एक पाप युक्त ( (४४४4 ) बहाना था। कहा जाता था कि फांस का बढ़ता 
हुआ प्रभाव हमारी एशिया की हुकूमत पर छाया डाछ रहा है | किन्तु क्या उन्हीं 
दिनों में हम भारतवर्ष में अपने आधिपत्य का नहीं बढ़ा रहे थ ? यदि कहीं सान्धिका 
मैंग करने वाले हम न होते, ओर झ्रांम होता तो क्या केवल इतने बहाने को हम 
पय्याप्त समझते ? किन्तु असझ मं बात यह हं कि हप अपने आप को सदा उन नियर्मो 
से उपर समझते हैं, निन्‍्हें हम दूसरों पर सदा छूमाते रहते हैं! । अज्ञरेत्न इति- 
हामज्ञ सर्‌ आच्िबाल्ड एलिप्तन की भी सम्मति का यही सारांश है । 

इस बुद्धारम्म से पूव ही इंग्हैण्णट ने एक्र ओर भी अद्भुत कार्य्य किया । 
ब्रिटिश सरकार ने अपने ध्षामुद्रिक बेड़े को पहले से ही आज्ञा दे रक्‍्खी थी, कि 
वह मोका पतिही समुद्र में मितने फांसीसी छोटे मोटे नहाज मिरें उन सब को अपने 
काबू कर के । अमी युद्ध की घोषणा न हुई थी, कि अंग्रेजी बड़े ने फांस के व्या- 
पारियों के दो सो बेड़े पकड़ लिये | कहते हैं कि उन में करोड़ो रुपयों का माल 
था, वह भी छूट छिया गया । पहले सन्धि करने मे मूखेंता दिखा कर, उस का 
क्राध उस समय की केबिनट ने अब निकाला। नेपोलियन ने इस घार जबर्दस्ती के काय्ये का 
उत्तर, वैसी ही निदेयता से दिया | उस समय फांस में १८ और ६० बरस 
के बीच की आयु के नितने अंग्रेन विद्यमान थे, केद कर लिये गये । यह इस युद्ध 
का प्रथम परिणाम था | 

इन घटनाओं को बारंवार आंखों के सामने आता हुवा देख कर, एक मलुष्य 
का चित्त स्वभावत: घबरा कर पूछने छूगता है कि क्‍या यह सारी शासंनंकला, यह 
सारा राज्ययन्त्र, यह पढीस सेना ओर न्यायारुूयं, ये तोष बंदूक और जहांज, 
ये सारे रानकीयसांधन, इन्हों अत्याचारों कें लिये, बेचारें व्यापारियों कौ छूने और 


शासकों से प्राथना । १११ 


निरपराध यृहस्थों को काराबद्ध करने के हिये हैं ! क्‍या ये प्तब वस्तुएं घोर 
कम्मों के अनुष्ठान के ढिये ही हैं ? यादे यह सच है, यदि इतिहास इसके विरुद्ध 
साक्षी नहीं देता तो दूर से नमस्कार है इस राज्यसंस्था को | तुम इस राज्यसंस्था 
को दूर से नमस्कार न करो, वह तुम से नमस्कार करा कर ही छोडेगी । जो वस्तु 
जाति के हित के लिय नहीं है, जो संरथा यमदण्ड की प्रतिनिधिरूप हे-वह 
अवश्यमेव नष्ट होगी , वह रह नहीं सक्ती । ऐ एथ्वीतल के साम्राज्य कतोओ ! 
यह मत समझो कि तुम इस अत्याचार से भरी हुवी धोर निद्रा में सोये रहोगे ? वह 
देखो ! तुम्हारी राज्यसंस्था, तुम्हारी पीस ओर सना की सत्ता को एथ्वी तल पर से 
बहा देने के लिये, बढ़ा कठोर तूफान आ रहा है । वह देखो ! अराजकतावाद ओर 
निषधवाद का राक्षस, दांत खोले ओर रुधिरभरी जिव्हा निकाले हमारे ऊपर आक्रमण 
करने के लिये कूद रहा है । वह राक्षत-वह तृफान-सौम्य नहीं, वह भी घोर है 
अत्याचारी है, भयानक है। यदि तुम अपनी चमकती हुवी तलवार की घारा से निरप- 
राधों की गदनें घड से जुदा कर मक्ते हो, तो उप्त राक्षत की कटार भी कमजार 
नहीं हे। यदि तुम निरपराध ग्रृहाश्थियों को कारायृह में डाछ कर परिवारसुख से 
जुदा कर पत्ते हो, तो वह राक्षस भी राजकुलांकुरों के शरीर को खाक में मिला 
कर तुम्हारे रानकुछों को रुण्ड मुण्ड कर पत्ता है। हम साधारण छोग उन दोनों 
से डरते हैं । हमे कारागार भी पसन्द नहीं, हमे अरामकता भी पसन्द नहीं । तब, 
क्या तुम अपने रास्तों को, अपनी चेष्टाओं को, नहीं बदल सक्ते; ताकि उत्त राक्षम्त 
का उठने का अवसर ही न मिले ? तुम्हारा एक * घोर कम्मे उम्त राक्षस को 
दो २ हाथ ऊंचा कर रहा है | क्‍या तुम हम दीनों की आवाजें छुनोगे ? उत्तर 
मिलता है कि सुन रहे हैं , किन्तु प्रिय भाइयो ! अभी तुम्हारी सनने की गति 
बहुत धीमी है । ज़रा जरुदी करो, क्योंकि राक्षस, द्वोपदी के चीर की तरह निरन्तर 
बढ़ता चढ़ा जा रहा है । 

दोनों पक्षों ने एक२ घाव कर दिया । सामुद्विक नेपोलियन चारों ओर अपनी चमक 
दिखाने छूगा, क्योंकि इंग्लैंड का बेड़ा निःसन्देह सामुद्रिकनेपोलियन था । नेपो 
ड़ियन ने भी इंग्लैंड प्र आक्रमण करने की तय्यारी शुरू की । बूलोन्य बन्दरगाह 
पर चारों ओर से अपने जहाज़ों को इकट्ठा करके, एक जबदेस्त बेड़ा बनाने का उम्र 
ने उपकृम किया । दिन रात काय्ये चढने, छगा; रात और द्विन शिल्पशाढाओं। में नये 
'पोत तथा अख्र शस्त्र तय्यार होने लगे; सिपाहियों को सामुद्रिक ग्रुद्ध का अम्यात्त 


११२ नेपोलियन बोनापाटे | 


कराया जाने लगा । इंग्लैंड पर आक्रमण की इन तय्यारियों को देख कर, कई छोग 
कहते थे, |कि यह कैवठ गीदड़ मभकी है; काई भी बेडा इंग्लैंड के सामुद्रिक बढ़ 
का तिरस्कार करके समुद्र को पार नहीं कर सक्ता। अन्य लोग चिल्लाते थे कि नेप्नोलियन 
सब कुछ कर सक्ता है, उच्तके लिये अस्म्मष कुछ नहीं | हन्दन की केबिनट इन 
पिछले विचार वाले मनुष्यों में से ही थी । वह भी समझती थी कि शायद नेपों- 
'हियन किसी समय चुपचाप अपने बेड़े को इंग्केंड के किनारे पर छगा देगा। इस 
हिये, सार देश में नई २ सेनायें तय्यार होने ढूगीं; सब निवासियों को व्यूह- 
रचना तथा शख्र चलान का अभ्यास कराया जाने छूगा | जब इस प्रकार से, इंग्केंड 
और फ्रांस के अतिरिक्त ओर सारे योरप का ध्यान मी इस युद्ध की अद्भुत तय्या- 
रियों पर छुगा हुवा था, तब एक ऐसी ओर विचित्र घटना हो गई, निप्तने उस 
ध्यानावस्थित जनसमूह को क्रमशः अचम्भे में, उत्सुकता में, और भीत दशा में डाल 
दिया । सारा योरप यह सुन रहा था कि नेपोलियन इंग्लैंड के ऊपर आक्रमण 
करने की तस्यारियं कर रहा है, जब उसने एक दम सुनाकि नेपोलियन ने 
बारबेन वेश के फांस की सीमा के बाहिर बैठे हुवे एक राजप्त्र को पकड़वा कर 
गोर्ली से मरवा दिया । सारा यारप इस समाचार को सुन कर एक दम कॉप गया। 
फैन्तु नैपोलियन न यह बध क्‍यों किया ? और कया सचमुच इस बघ का उत्तरदाता 
नेपोलियन ही था ! 

जब नेपोलियन बूलोन्य में सनन्‍्यसल्नाह के कार्य्य में दत्तचित्त था, तब उसने 
सुना कि कोई कैदी पकड़ा गया है, और उसने इजहार देते हुवे यह कहा है कि 
मैं उस गुप्तमण्डडी का एक कार्य्यकर्ता हूं नो प्रथमशासक के मार डालने के लिये 
बनाई गई है! । थोड़े ही दिनों में एक अंग्रेजसेनापाति का पत्र पकड़ा गया, भिम्त में 
लिखा था कि फांस में बोनापाट को पशुमार मारने के लिये जो यत्र हो रहा है, 
उप्तके कृतकाय्य होन की आशा है। गुप्तरहस्य के प्रकट करने वाढी इन दो 
घटनाओं को सुन कर नेपोलियन चोकन्ना हुवा, उसके कान खड़े हुवे । उसने अपने 
पुलिस कमचारियाों को बुछाकर इस मन्त्रणा का रहस्योऊेद्‌ करने के लिये कहा । 
पुललीस ने अपना काय्य प्रारम्भ किया । धीरे २ गुप्तेमण्डडी के आदमी पकड़े 
जाने लगे । इन पकड़े हुवे आदमियों से इजहार ढिये गये, तो पता ढुगा कि इस 
रहस्य के अन्दर नेपो्ैयन के दो सेनापति मिल्े हुवे हैं और एक कोई बोबोन बंश 
का राजकुमार भी फांस की सीमा के पास ही रहता है और इस गुप्तमण्डक्ी 


गुप्तमन्त्रणा । ११३ 


की सभाओं में अध्यक्षता का कार्य्य करता है। तब नेपोलियन को इन तीनों व्य- 
क्तियों की खोज हुईं । मण्डली में मिले हुवे कुमन्त्रणकर्त्ता दोनों सेनापतियों का पता 
लग गया | एक तो होहिन्लिण्डन का विनेता नेपोलियन का प्रराना सेनापति सोरियों 
था ! वह नैपोलियन की उन्नति देख कर बहुत ही खिन गया था, और इेष्यो 
रूपी राक्षमी ने उन दोनें सेनापतियों केबीच दीवार बांध दी था । म्ोरियो को पकड़ 
कर दो वर्ष के लिये दे ग़निकाहा दिया गया | वह अमेरिका जाकर निवास करने 
छगा | दूसरा कुमन्त्रणकत्तों सेनापति पिचाग्रथू भी पेरिस में छुपा हुवा पकड़ा गया । 
नेपोलियन, नो क्षमा करने में मी उतना ही उदार था जितना दृण्ड देने में क्र 
था, उसे क्षमा कर देने के लिये तय्यार था; किन्तु अन्य अपराधियों को मृत्युद॒ण्ड 
मिलता देख कर वह अपने जीवन से निराश होगया, और काराग्ृह में फांसी 
लगा कर स्वयं ही मर गया | एक ओर शैतान कैडोडल भी पकड़ा गया ओर गोरी 
से मार दिया गया । 

अब नेपोलियन का एक ही चिन्ता शेष रही। बोत्रोन वेश के उप्त राजपुत्र का कुछ 
पता न छगा, जो इन विचारों में मुखिया था | जब नेपोलियन ने बोबॉन वंश के सब 
रानपरत्रों के निवासस्थानों का पता छगमाया, तब उसे पता छगा कि फ्रांस देश की 
सीमा के पास ही एक दुर्ग में, बघूक ओन्‍्गियां (2०/४ 0 ' शाह्ट/ंथा) नाम का 
बोबोन वंश का राजकुमार पड़ा हुवा है। सुना जाता था कि वह वहां एक राजकुमारी 
के प्रेम के कारण पड़ा हुवा था, ओर कई २ दिन तक वेष बदछ कर अपने निवास 
स्थान से तिरोहित रहता था । इस से नेपोलियन ने यह सारांश निकाला कि सम्भ- 
वतः यही राजकुमार गुप्तरीति से कुमन्त्रणा करने वालों का साथ देता होगा, क्‍यों 
कि सिवाय उस के ओर कोई रानवंशीय कुमार फांस की सीमा के पास्त न था । 
नेपोलियन ने कई छोगों के सामने कहा था कि 'यदि कोई भी बोबॉनवैशीय राज- 
पुत्र भरे विरुद्ध शस्त्र उठाये हुवे भरे काबू आनायगा, तो में उसे उचित दृण्ड दूगा | 
मैं उसे शीघ्र ही सिखा देगा कि मैं कुत्ते की मौत मारा माने वाह नहीं हू । मेरे 
रुधिर की भी वही कामत है, नो उस केरुधिर की है!।ओर नेपोढियन का यह कहना 
था भी ठीक । बोबॉनराजाओं को नेपोलियन का धन्यवाद करना चाहिय था, 
न कि उप्त से शत्रुता । उस से पूवे ही क्रान्ति ने उन के वंश को पदेच्युत कर के 
उन के पक्षपातियों का सर्ववध कर दिया था । नेपोडियन उन के कूछ का सिंहासन 
पर से उतारने वाढा न था, वह तो उठा उन के पक्षपातियों का आश्रयदाता 

छ 


११५ नेपोलियन बोनापार्ट | 


था । तब उप्त का यह अजुभव करना ठीफ ही था कि बोबोन रामाओं तथा 
उन के पक्षपातियों को उस्त के प्रति कंतन्नता करने का अधिकार नहीं। जब वह निर- 
न्तर उन लोगों की कृशन्नता करता हुवा देखता था, उप्त का क्राध और भी बढ़ माता 
था । अब उसे एक बोबोंनवंशीय पर सन्देह् हुवा, वह राजकुमार उस के काबू 
भी आसक्ता था । नेपोलियन ने उचित क्ृतज्ञता सिखाने, तथा कृतन्नता का बदला लेने 
का पक्का निश्चय कर लिया । उस ने अपनी सेना भेजकर ड्यूक को पकड़वा मंगाया । 
वह ब्यूक आचब बेडन के राज्य में पकड़ा गया था, अत; नेपोलियन ने उस से इस 
स्थानाक्रमण के लिये क्षमा मांग भेमी | ड्यूक आव बेडन ने संतोषपूर्वक नेपोलियन के 
काये को क्षमा कर दिया | 

राजपृत्र के दोषों की परीक्षा के लिये एक न्यायस्मा नियत की गई । न्‍्यायसभा 
के सामने राजपृत्र ने नेपोलियन के मारने की इच्छा को स्वीकार किया, तथा 
अभिमानपूर्वकं कहा कि यद्यपि वह नेपोलियन की अप्ताघारणशक्तियों का आदर 
करता है, तथापि उस्त का कुलक्रमागत शत्रु है। गुप्तमन्त्रणा में योग देने से उस 
ने इन्कार कर दिया । न्यायालय ने परीक्षा के पीछे निशइ्वय किया कि राजकुमार 
बस्तुतः फांस का द्वोही है, अतःउसे मृत्युदण्ड दिया नाय । किन्तु उन का ऐसा निश्चय 
करना नेपोलियन की इच्छा के प्रतिकूल था | उस से एक दिन पहले नपोडियन ने 
अपने बड़े भाई नोजफ से बात करते हुवे कहा था कि में बोबोन वंश के राजाओं 
-को अब दिखाऊंगा कि में उन की क्तप्नता पर मी क्षमा कर सक्ता है । इस से 
प्रतीत होता है कि उस का अमिप्राय उस राजपृन्र को मारने कान था, किन्तु 
उसका दोष सिद्ध कर के क्षमा करने का था। उस ने यह मी विचार प्रकट किया था कि 
वह रजपुत्र को क्षमा करके अपने शरीररक्षकों में कोई उच्चस्थान दे देगा, किन्तु 
हुवा वह जो नेपोलियन न चाहता था | राजपृश्र को न्यायालय के सुपुर्दे करके वह 
रात के समय सो गया। दिन भर का थका मांदा था, इस लिये सोते हुवे उस ने 
द्वारगाल को कह दिया कि बिना किसी आवश्यक काये के उसे न जगाया जाय । 
जब राजपूत्र दोषी सिद्ध हो गया, ओर उसे सृत्युदण्ड सुना दियागया,तब उस ने नेपो- 
लियन के नाम एक चिट्ठी लिख कर भेजी | निःसन्देह यह आवश्यक काये था। चिट्ठी छाने 
बाल मनृष्य को चाहिये था कि वह प्रथप्शासक के द्वारपाह को कह देता कि 
चिट्टी बहुत आवश्यक है, किन्तु उ्त ने चिट्ठी हा कर नेपोडियन की मेज पर 
रखंदी । नेपोकियन सोता रहा था । उधर राजपृत्र को मृत्युदण्ड की आज्ञा मिलने के 


डच्चूक का व । ११५ 


परचात्‌ थोड़ी देर में ही एक अधरे स्थान में छे जा कर गोली से मार दिया 
गया। कहते हैं कि राजपृत्र बड़ी वीरता से मरा। हम उस राजपृत्र की मृत्यु पर 
शोक प्रकाशित कर सक्ते हैं, उस पर दया कर सक्ते हैं, अन्याय करने वालों पर घृणा 
प्रकाशित कर सक्ते हैं, किन्तु हम इस अन्याय के लिये नेपोलियन को दोषी नहीं 
कह संक्ते; क्योंकि उस के सोये हुंवे ही यह काये कर दिया गया था। 

प्रातः काल यह समाचार योरप भर भें घूम गया | इस समाचार से चारों 
ओर भयझ्ूर सन्नाटा छा गया; सारे देश नेपोंठियन को रुघिर का प्यासता बाघ 
समझेन लगे | पोरिस मी इस समाचार को सुनकर स्तब्ध हो गया । सब ने यही 
समझा कि अब नेपोढियन अपनी करनी कर चुका; अब उस का पाप का प्यारा 
भर गया, अब शीघ्र ही उप्त का अन्त होगा । नेपोलियन के भाई ल्यूशियन ने जब 
यह समाचार सुना तो वह घर को भागा २ गया ओर अपनी पत्नी को प्रकार कर 
कहने लगा कि “अलेगूजेण्ड्राइन ! चलो हम भाग चढें | उसने अब ख़न का खाद 
ले लिया है।' योरप, जो पहले ही उप्तके श््रों के प्रहार से बिधा पड़ा था, एक 
शब्द हो कर चिल्ला उठा कि यह रुघिर का प्यासा कप्ता३ है, इस का वध करना 
चाहिये ।” नैपोलियन ने भी वीरता का आश्रय किया । उसने अपने नोकरों पर 
सारा दोष डालने का यत्न नहीं किया, प्रत्युत इस काय्य॑ के समर्थन में अपनी : 
प्रबह ढेखनी उठाई । उसने सब आ्षेपों का उत्तर देते हुवे दिखाया कि राज्यरक्षा 
के ढियि यह आवश्यक था कि एक देशद्रोही का बध किया नाता, चाहे वह कोई 
ही क्यों ने होता । 

जहां सारा योरप इस क्रिया से नेपोलियन से मयमीत हो गया, वहां फांस के 
विचारकों के मन में एक और शाह्डा का अम्युदय हुवा । उन्होंने विचारना 
प्रारम्भ किया कि इन सब कुमन्त्रणाओं के मूल काटने का क्या उपाय है !* जो 
राजवंश स्थिर हो नाते हैं, उन के काट डालने का कोहे यत्न नहीं करता । 
नैपोछियन की स्थिति अमी बहुत अस्थिर थी | अभी वह कुमन्त्रणाओं से घिरा 
हुवा रह सक्ता था | यह सब कुछ विचार कर, फरांस की नियामकसभा ने यही 
निश्चय किया कि यदि नेपोलियन को सम्राट की पद्‌दी देकर, फांस के राज-सिंहा- 
सन को फिर से कुुक्रमागत कर दिया नाय, तमी राज्य की पूरी रक्षित .दशा हो 
सक्ती है-अन्यथा नहीं । यही निश्चय करके, उन्होंने, अपना विचार नेपोलियन के 
सामने प्रकट किया । उस्त ने भी प्रतिनिधियों की इच्छा के सामने सिर झुकाते हुवे 


११६ नेपोलियन बोनापार्ट 


अपने सम्राट्‌ बनने के प्रस्ताव पर छोकमत पूछने का विचार प्रकाशित किया । तद- 
नुस्तार, यह प्रस्ताव सारी फूचनाति के सामने उपस्थित हुवा | की सम्मति 
सम्राट बनाने के पक्ष में थी और < की सम्मति उसके विरुद्ध । बहुसम्माति से 
नेपोलियन फांस का सम्राटू बना | सम्राट्‌ बनने का उत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया 
गया । रोम का पाप नेपोलियन के सिर पर स्वयं ताज रखने के लिये फांस में 
आया । पोप ने आन तक ओर किप्ती नर्वान रामा के लिये रोम को न छोड़ा था, 
यह आदर एक नेपोलियन को ही प्राप्त हुवा । सम्मवतः फांस में धर्मस्थापना 
का ही यह परिणाम था | पोष ने राज्यामिषक किया | जब वह राजमुकुट को नेपो- 
लियन के सिर पर रखने लगा, तब उस ने उसे पोष के हाथ से ले लिया, और स्वयं 
ही अपने सिर पर धर लिया । बड़ी धूमधाम से यह राज्यामिषकात्सव मनाया गया 
थो। प्रशिया के राजा तथा आस्ट्रिया के समाट्‌ ने मी नेपोलियन को फांस का 
समाट स्वीकार किया । इटछी की रिपाब्लिक ने, निस्तका नेपोलियन प्रधान था, उसे 
अपने देश का राजा नियत किया । इस प्रकार फांस में क्रान्ति के शोधक कार्य 
के पश्चात्‌, रचना का काये भी जितना हांना था, हा गया । 


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९. यह १८०४ इस्त्री की दूसरी दिसम्बर का दिन था । 


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चतुर्थ-भाग । 


दिग्विजय-यात्रा 


कल 3 न जल मन + अन्ना. अथकनकननन-अनकाक-कागनणयण लिए पियण  पैनिवशलपन नमक न बन. 3५ ली, की >लणममनक अऑधनापनए पतन. के अयजमापक पम बाण. िशिय कणडडफण:::3+नन ++55 





प्रथम परिच्छेद 
ऊल्म और ओस्टलिद्स 
साइसे श्रीनिंवसति । व्यास: । 

इस प्मय नेपोलियन मलुष्य द्वारा प्राप्य स्थानों में से बहुत उच्चस्थान को प्राप्त 
हो चुका था। शायद कोई और सांसारिक पद उस से बड़ा नहीं हो सकता था। 
वह एक जाति का प्रधान और देश का सम्राट था; सारा योरप उस के छोहे 
को स्वीकार करता था; समग्र फ्रेंचनाति उसे अपना विश्वा्सी तथा विजयी सेनानी 
समझती हुवी उस पर सब कुछ वारने के लिये उद्यत थी; अभिमानी रुस का 
राजा उप्र की प्रतिमा और शक्ति पर मोहित था; और प्रशिया की महाराणी अपने 
लड़कों को नैपोलियन के आचरणों का अनुशीढन करने और उस्त के चरणचिन्हों 
पर चलने का उपदेश देती थी । आत्मरक्षा के आनन्द में मग्न होने वाला इड्डढटैंड 
भी नेपोलियन के नाम से कांप रहा था, और दिन रात उप्त के अस्ह्म आक्रमण के 
रोकने में लगा हुवा था| आस्टिया, जो पुराने रानबंशों के गव का नमूना था, नेपोलियन 
के उदय को नमाये हुवे सिर से सह रहा था । हाढेंड, इटली आदि छोटे २ देश उप्त 
के बूट के नीचे पड़े हुवे थे। तब फिर नेपोलियन की अत्यन्त आश्वर्यित चश्लुओं से निहार- 
न योग्य दशा थी, यह कहने में हमें संकोच क्‍यों करना चाहिये ! 

किन्तु इस आदर और भय के नीचे २ ऊपर की कृत्रिम झाग से छुपा हुवा 
एक ओर मी भाव था । अपने से बड़े के लिये, और अत्यधिक शक्तिशाली 
के लिये, हम आदर का भाव कर प्तकते हैं ; किन्तु यदि वह अत्यन्त बड़ा हमारी 
सत्ता का ही नष्ट करने की धमकी दे रहा हो, यदि वह हमारी शाक्ति को सर्वषा 
अभाव रूप कर देने की ओर झुकता हुवा दिखाई दे, तो हमारा आदरमाव ईर्ष्या के 
रूप में पारिणत हो जाता है । हम उप्त का कुछ बिगाड़ नहीं सकते, किन्तु बिगाढ़ना 
चाहते हैं । इस विरुद्ध पर्मद्यय के संघर्ष से, इस इच्छा और अशक्ति के संघर्ष से, 
एक विीनताप उलन होता हे जिसे हम ईंप्या के नाम से पुकास्ते हैं । वही 
इृष्योग्नि योरप के सारे राजाओं के दिल्लों में सुलुग रंही थी | हर एक राजा अनुभव 
कर रहा था कि यह छोटासा अद्भुत मनुष्य, यह कठोर सिर काका कोमल मनुष्य, 
नहीं रहना चाहिये, इस का रहना योरप की स्थिरता तथा शान्ति के ।हिये मयप्रद 









१२० नेपोडियन बोनापार्ट | 


है । नेपोलियन रानवंश में उत्पन्न न हुवा था । उस ने साधारण कुल में उत्पन्न 
हो कर अपने मुनबल ओर मस्तकबल से फ्रांस के गिरे हुवे राजमुकुट को उठा 
कर अपने पमिर पर रक्खा था। ये चिन्ह रानवेशीय राजाओं के लिये शुम न थे। उन के 
सिंहासनों की स्थिरता इस प्रकार बड़े सन्देह में पढ़ रह्दी थी। नेपोलियन यद्यफ्क्रान्ति 
का अन्त करने वाला था, तथापि वह एक तरह से क्रान्ति का प्रतिनिधि भी था। क्रांन्ति 
मोरूसी जायदाद की तरह मोरूसी गुणको स्वीकार न करती थी । पिता के राज्य- 
काय्ये में योग्य होने से प्रत्र का वैसा होना वह भावश्यक न समझती थी । उप्त की 
सम्मति में, जो निस्र योग्य हो वह उस स्थान को पा सकता था । नेपोलियन इसी 
का उदाहरण था। कोर्सिका के एक साधारण वकील का पृत्र होते हुवे, शनेः २ 
अपने गुणों के प्रभाव से मुकुटधारी सम्राद हो जाना क्रान्ति के पिद्धान्त की व्याख्या 
करना था। यह व्याख्या वेशीयरानाओं को पसन्द न था। उन को यह अपने झुत्यु 
की अग्रेस्तरी दूती प्रतीत होती थी । 

इन दो कारणों से योरप के समस्त स्थलीय राजा नेपोलियन के लिये अन्दर 
ही अन्दर दांत पीसंत थे ओर अपनी कोठियों में बस कर तलबारें तेज कर रहे थे। 
किन्तु समुद्र के असहिष्णु राना इज्जढैंड की अवस्था इन सब से कुछ भिन्न थी । 
क्रान्ति की व्याख्या सवह भी वेसा ही घबराता था, मैंते ओर वंशीय राजा घबराते थे, 
किन्तु उसे नेपोलियन के शर्त्रों से सीधा भय न था । वह जानता था कि 
नेपालियन सैकड़ों यत्न करे, उस के लिये रन्दन॒तक पहुंचना असम्मव है । हां 
उसे एक ओर मय अवश्य था। एक उच्च राजनीतिक्ञ योद्धा के कथनानुसार अंग्रेजों की नाति 
बनियों की नाति है। बनियों के लिये सारा संसार नष्ट हो जाय, किन्तु उनकी बांसुली खाली 
न हो । नेपोलियन का स्थछीय योरप पर आधिराज्य, इंग्लैंड के व्यापार का सत्या- 
नाश कर रहा था | यह उस सह्य न था। इन दो कारणों छे इंग्लैंड ओर नेपोलियन में प्रणान्त 
विरोध था । दोनों शक्तियें यदि एक दूसरे के साथ साधा युद्ध कर सकतीं, तो इस 
दुःखान्त नाटक का अन्तिम पर्दा शीघ्र ही गिर जाता । किन्तु ऐसी था नहीं | 
इंग्लैंड स्थल पर नेपोलियन के सामने वैसा ही तुच्छ था. मेसा नेपोलियन समुद्र में 
इंग्लैंड के सामने। न इंग्लैंड अपनी सेनाओं से फांत पर धावा कर सक्ता था और 
ना ही नेपोलियन अपनी वृहती सेनाओं के श्र इंग्लैंड में चमका सक्ता था | तब 
युद्ध का दीर्घीकरण आवश्यक था । इंग्लेण्ड का यत्न नेपोलियन के लिये स्थलीय 
क्न्नु तथ्यार करने में था, ओर नेपोलियन का यत्न इंग्लैंड को सामुद्रिक कारागार 


नेपोलियन ओर इंग्लैंड १२१ 
में बन्द करके उस के व्यापार और वाणिज्य को ध्वस्त कर देने का था | यह टेढ़ा : 
युद्ध वैसे तो नेपोलियन के उदय के साथ ही प्रारम्म हो गया था, किन्तु इस समय से 
उसने विशेष तीत्रता धारण की । यह इंग्लैंड ओर नेपोलियन का इ्वन्द्द आगामी दस 
बरसे तक निरन्तर चछा ओर अब उस की उत्तरपीठिका का प्रारम्भ होता है। 

नेपोलियन बूलोन्य की बन्द्रगाह में इंग्लेण्ड पर सामुद्रिक चढ़ाई करने की 
तय्यारियों में छगा हुआ था | वह उस कार्य में इतना मग्न दीखता था कि इंग्ले- 
ण्ड ने एक नई गुप्तमन्त्रणा करने का विचार किया | उसपर ने रिख्बते देने के लिये 
अपनी थेली खोलनी शुरू की । रूस ओर आस्ट्रिया के महारानों के पास इंग्लेण्ड 
के राजदूत भागे २ गये, उन्हों ने जाकर उन के सामने चांदी ओर सोने के ढेर 
लगा दिये | उनढेरों को देख कर महारानों की निह्ाएँ छालायित हो गईद। आस्टिया के 
राजा ने पुरानी सन्धि की सब शर्तों को भूल कर, नेपोलियन पर आक्रमण करने 
का वचन [दिया | रूस का अमिमानी युवक्र महाराज भी शाघ्र ही काबू आगया। 
यह कार्य्य सवया गुप्त रीति से हुआ । नेपोलियन इन सब काय्येवाहियों से सर्वथा 
अज्ञ प्रतीत होता था | चुपक ही चुपके स्वीडन भी रूस ओर आस्टिया के साथ 
मिल गया । चारों शक्तियों न मिल कर नेपाडियन पर आकस्मिक धथावा करके, 
ओर उसे एक दम चुंगल में दबा कर प्राणरहित कर देने का विचार किया। आकस्मिक 
धावा करने के लिये ही, किसी देश ने युद्ध की घोषणा तक न की ; सब देशों के 
प्रतिनिधि विधवास दिलाने के लिये पोरेस में ही बने रहे । मिलित शज्नुओं का गुप्त 
धावा शुरू हुआ । 

सब से प्रथम ८० सहखस्न आस्ट्यन सेना, सेनापति सैक के नीचे, फांप्त की 
सीमा की ओर को चल पड़ी । रूस का महारान एलेग्जेण्डर, १,१६,०००, सेना 
के साथ, आस्ट्यन सना की सहायताथे अपनी राजधानी से प्रस्थित हुआ | इधर 
वीर इंग्लेण्ड ने भी चोरी चोरी तीस सहस्न की एक सेना फांस की सीमा पर उतार 
दी. | इस प्रकार एक बड़ी जबदंस्त सेना ने नेपोलियन को थेरना शुरू किया, किन्तु 
वह अभी बूलोन्य के ऊंचे फशों की ही सैर कर रहा था । उसे अचल देखकर हर एक जानने 
वाले ने समझा कि अब के अज्ञानी नेपोलियन अवश्य पीसा मायगा | आस्टिया की सेना 
निरन्तर बढती चली आईं। उस न बैवेरिया में आकर वहां के राजा को नीत 
लिया ओर अपना साथ देंने के लिये बाधित किया । थोड़े ही दिनों में आस्ट्रियन 
सेना ने अपने उपनिवेश ऊल्म ओर स्थूनिक में गाड़ दिये | अब वह फांस के 


१२२ नेपोछियन ओनापा्ट । 
स्वेथा पास पहुंच गई । सेनापति मैक अपनी अप्ताधारण कृतकृत्यता के लिये हष॑ से 
फूला न समाता था | वह समझता था कि नेपोलियन अब तक मी सेनासहित उस. 
का सामना करने नहीं आया, तब वह अकस्मात्‌ पेरिस को ना पेरेगा, इस में सन्देह 
ही क्‍या है! 

किन्तु उस के आश्चय्ये ओर नेराइय की सीमा न रही, जब एक दिन अक- 
स्मात्‌ उप्त ने अपने पीछे से फरांसीसी सेना को आते हुए सुना। उप्त ने एक दम 
सुना कि न केवल नेपोलियन पोरैस से उप्त के आक्रमण का प्रतित्रन्ध करने के लिये 
ही चल पह़ा है, किन्तु वह होईन ओर डेन्युब नदियों को पार करके आ/स्ट्रियन 
सेना के पीछे से उन पर आक्रमण करने के लिये मी उद्यत हुआ है । सेनापति मेक 
अपने ओर आएटिया के बीच में नेपोलियन की सेना को पाकर बिलकुछ किड्लतव्यता- 
विमूढ़ हो गया | उस की सेना निराश होकर चारों ओर भागी, किन्तु नेपोलियन 
ने अपनी सेना का ऐसा घेरा डाल लिया था कि सेना का कोई भी भाग उप्त चक्कर 
में से निकल न सक्ता था। अन्त को ओर कोई आश्रय न पाकर आर्ट्रियन सेना- 
पति ने अपने मृतावशिष्ट तीस चालीस सहस्न सैनिकों सहित शखस्त्र रख देने का निश्चय 
किया | उस्त समय संसार के इतिहास में एक विचित्र दृश्य उपस्थित हुआ। आ- 
स्ट्रियन सेना फुँचसेना के सामने एक भी कदम खड़ी न हुईं ओर उस के सामने 
अपने आप को गिरा दिया । नेपोलियन अपनी सेनासहित एक ऊँचे स्थान पर खट्टा 
हो गया और आरिट्या की शखराहित चालीस सहस््र सेना उप्त के प्तामने से प्रणाम 
करती हुई निकछ गई । यह नेपोडियन की प्रतिभा का विनय था। ऐसे विनयों के 
दृष्टान्त पाने के लिये यदि इतिहास को खोजें, तो निराश होना पड़ता है। 

सेनापति मेक, इस प्रकार फांप्षीस्ती सेना से एक दम घिर माने पर आशचर्यित 
हो रहा था। किन्तु आश्चर्यित होने की कोई बात न थी | ज्ब आस्टरया और 
रूस समझ रहे थे कि वे सवेया अन्धेरे में अपनी सेनाओं को आगे बढ़ाये लिये ना 
रहे हैं, तब नेपोछियन एक छोटीपी प्रतिभारूपी छाछटेन हिये उन के पीछे २ घूम 
रहा था, ओर उन की सब क्रियाओं को देख रहा था | जब उप्त ने सुना के 
फांत की सीमा की ओर आस्ट्रिया का सैन्य बढ़ रहा है, तमी उस्त ने अपनी 
वृहती सेना को तय्यार कर द्िय। था । नेप्रोड़ियन की विद्युत्समान गति प्रसिद्ध थी। 
बिलकुल चुप चाप उस ने सारी सेना को उचित आज्ञा देकर ऐसे चलाया कि वह 
आस्ट्रियन सेना के बहुत दूर से ही नदियों को पार करके उस के पीछे जा मिली। 


ओस्टार्डेट्स की भूमि १२३ 


इस प्रकार आसिट्रियन सेना जरासी चतुरता से सर्ववा अशक्त कर दी गई। नेपोलियन 
करे विजय ने सारे योरप को आश्चयये के समुद्र में डाल दिया, और फ्रेंचसेना के 
दिल में यह विधास बिठा दिया कि नेपोलियन अदम्य है, इस के साथ रहते हुए 
उन्हें कमी मय नहीं | 
इस अद्भुत आक्रमण के साथ, नेपोलियन की उस विजनययात्रा का प्रारम्भ 
हुआ जो निरन्तर आठ वर्ष तक सारे योरप के भूतल को हिलाती रही । आठ वे 
तक निरन्तर नेपोलियन अपनी वृहती सेना के साथ विनय पर विनय मारता हुआ 
सारे सेप्तार को चकित करता रहा | इस विजय में छाखों मनुष्यों का वध हुआ, 
किन्तु उप्त वध का सारा उत्तरदातृत्व विनेता पर नहीं है । अंग्रेजी रुपये पर भी उस 
का बड़ा भारी उत्तरदातृत्व हे । 
ऊल्म के परानय के पीछे, शेष आसिट्यन सेना ने पीछे को भागना शुरू किया । 
नेपोलियन भी दुत गति से उन के पीछे हो लिय्रा । सारी फुंचसेना महीनों की 
यात्रा से थकी हुईं थी, किन्तु नेपोलियन विश्राम करना न जानता था । उम्र के 
शरीर ओर पर अनथक थे । अपनी सना को बड़े ही तात्र वेग से उस ने आग की 
ओर धकेलना शुरू किया | जब तक वह आर्टरया की रानघानी बीना तक न पहुंच 
जाय तब तक उसे चैन न थी । नित्य प्रातःकार यही आज्ञा सारी सेना के कानों 
में गूजती थी-“'सीघे वीना तक पहुँचो” । जिम्त वग से फांसीसी सेना वीना की 
ओर बढ़ रही थी, उप्ते देख कर आसिट्रया के महाराज का भी साहस टूट गया । 
१७ अक्टूबर (१८०५९ ) के दिन नेपोलियन विना किसी विश्राम के 
बयालीस मील तक घोड़े की पीठ पर रहा।.फ्रांसिस अपनी राजधानी को छोड कर 
|ग गया । १३ नवम्बर के दिन नेपोलियन वीना में जा पहुंचा । अमी उस् 
का शत्रु ओर भी आगे था। एक लाख सेना लिये रूसनरेश अलेग्जेण्डर आंधी की 
तरह उमड़ता हुआ चला आ रहा था | महारान फांसिस मी उस्ती के साथ जा 
मिला । नेपोलियन की सेना को फिर वही आज्ञा मिली कि “ आगे बढ़े चलो ” । 
आखिर दिसम्बर की प्रथम ताराख को, ओस्टर्लिंट्स ग्राम के घेरने वाल पर्वतों 
पर दोनों विरोधी सैन्य एक दूसरे की दृष्टि में आये । जब सेनाओं ने एक दूसरे की 
ओर देखा, तो एक दम उन के मुखों से वीरनाद की ध्वनि निकल पड़ी | किन्तु 
नेपोलियन की दशा शोचनीय थी | शत्रु का सैन्य एकछाख था, फांसीसी सेना 
सत्तर हजार थी । विरोधी की सेना को उत्साह दने वाले दो महाराज थे, इंघर 


११४ नेपोलियन बोनापार्ट । 


केवल एक ही छोटे से देह वाला उत्साहदाता था। किन्तु नेपोह्ठियन धबराना 
न जानता था । उस ने बड़ी सावधानी से उस स्थान की देख भाल की । स्थान की 
देख भाल करके, उस ने शत्रु की चेष्टाओं पर दृष्टि डाली। उप्र ने देखा कि शत्रु 
अपनी सारी सेना को नेपोलियन की दांये पार्थ की ओर को थमा रहा है। शत्रु 
का अमिप्राय ऐसा करने से यह था, कि वह सारी सेना को फेला कर फ्रेंच सेना के 
दाहिने पक्ष पर घावा करे | दाहिने पक्ष के तितर बितर होजाने पर सारी सैन्य में 
गड़बड़ पड़ जायगी और बहुत ही शीघ्र विनय उसके हाथ में आजायगी । नेपोलियन 
यह सब कुछ ताड़ गया | इस चाछ के देखे ही वह चिल्ला उठा कि “यदि शत्रु 
इसी गति से प्रभात तक चछता रहा तो कह सूर्य डूबने से प्रथम उप्त की सारी सेना 
मेरे वश में होगी'। सेना को द्निभर स्थान २ पर ठहरातेठहराते उस दिन की 
ठेडी रात का आरम्म होगया | सारी सना विश्राम के लिये अपने अपने डरो में 
टिक गड्ढे । निरीक्षण के लिये महाराम नेपोछियन घोड़े पर सवार होकर उपानिवेश 
के बीचमें से गुजरने छगा | एक सिपाही न उस घेरे में से नेपोलियन को नाते देखा तो 
झट से थोड़ा सा घास उठाकर और उसे बंदूक के सिरे पर बांध कर एक मशालू 
बनाछी, ओर उसे जछाकर महाराज का रास्ता प्रकाशित करदिया | एक सिपाही 
की देखादेखी सब सिपाहियों ने अपने २ तम्बुओं से निकलकर, क्त्रिम मशालें बना २ 
कर रास्ता दिखाना शुरू किया ! सारा उपनिवेश एक दम प्रदीप्त होगया। तब 
सब को ध्यान आया कि वही रात नेपोलियन की साम्राज्यप्राप्ति की रात थी। 
सारे उपनिवेश में एकदम कोछाहछरू मच गया | चारों ओर में यही शब्द सुनाई 
दने छगा, “ महाराज नेपोलियन चिरजीवी हों” 

रात का अधेरा धीरे २ धुधल प्रकाश के रूप में परिणत हाने ढृगा-प्रभात 
निकट आने ढूगा | उषशकाल से पूव ही नेपोलियन अपने घोड़े पर सवार होगय, । 
उप्ते अमी यह संदेह था कि कहीं शत्रु अपनी पहले दिन वाढी चाह बदल न ले । 
अतः उसी चाल को प्रोत्साहन देने के लिये उस्तन अपने दाययें पाइंवे को पीछे हटाना 
प्रारम्भ किया | दाहिने पाइबे को पीछे हटाकर उसने सारी सेना को एक ही स्थान 
में इकट्ठा करलिया । शत्रु ने समझा कि नेपोलियन डरगया। उसने ओर भी 
वेग से दाहिनो ओर फैलना शुरू किया । नेपोलियन ने इस. समय एक नई ही 
चतुरता सोची थी। शत्रु को दाहिनी ओर फेलान से उप्तका उद्देश्य यह था कि किसी 
प्रकार शत्रु का सैन्य छीदा २ हो जाय । तब दाहिने पाश्व में युद्ध को मारी रखने 


ओस्टलिंटूस का विजय १२५ 


के लिये थोड़ी सी सेना को छोड़ कर, अपने सारे प्रबल बढ के साथ शन्रुपैन्य के 
एन मध्य में कठार चोट की जाय | मध्य के खोखला होनाने पर, दोनों पक्षों 
की फाड़ कर जुदा २ काट देना कोई काठन काम न था | इस विचार के अनुकूल 
सारी सेना का प्रबन्ध करके, वह अपने सेनानियों सहित खड़ा हुआ शत्रु के 
वार की प्रतीक्षा करने छगा । प्रातःकाल सुय्ये अस्ताधारण दीप्ति के साथ उदित 
हुआ | आकाश एसा सप्ताफ्‌ हुआ कि सूर्य्य का दृश्य सब द्रष्टाओं के दिल में 
गड़ गया । पीछे वर्षों तक नेपोलियन ओस्टर्रिट्स के सूर्य्य का स्मरण किया करता था । 
उप्ती उज्ज्वल सूर्य की दीप्ति में, शत्रु ने फ्रंचसेना के दाहिने पश्च पर गोले 
बरसाने शुरू किय । चलो, समय आगया,” नेपोलियन की इतनी आज्ञा पाते ही 
हेनस, साल्ट, मूरा आदि सेनापतियों ने अपने धोड़ों को एड़ी ढगाई और संग्राम शुरू 
हुआ । नेपोलियन ने नेसा सोचा था वैसा ही हुआ । देखते ही देखते निर्मल हुवा 
हुवा शत्रु का मध्य सर्वथा काट डाढा गया। मध्य को काटकर नेपोलियन ने शत्रु 
के दाहिने हिस्से पर धावा दिया | वह भी देखते ही देखते भूमितलू- 
शायी हुआ । रुसी घुड़सवारों ने एक बड़ा प्रब्ल आक्रमण करके विजय की लहर 
को पल्टना चाहा, किन्तु माहौल रैप की घुड़सवार सेना के सामने उस की एक न 
चली | तब चारों ओर से भयभीत होकर शत्रु की सेना मागी ओर एक जमी हुई 
नदी को पार करने लगी । मार पड़ते ही जमी हुई हिम काच की तरह फट गई और 
सारी सेना उसप्त के गर्भ में विर्त्नन होगई | विनय बड़ा ही भारी हुआ । शत्रु के 
२५०० ०सैनिक मारे गए ओर २५० ० ० ही केदी पकड़े गए । रूपी राजा की सैरक्षक सेना 
का मुख्य झण्डा भी पकड़ा गया । रूस नरेश अलेग्जंण्ड ओर आसिट्यन नरेश फ्रांसिस 
पास की एक पहाड़ी पर खड़े हुए अपनी सारी सेनारूपी हिम को नेपोलियन के 
तेमरूपी सु के सामने पिघलता हुवा देख रहे थे । इस प्रकार सेनाक्षय होने पर 
दोनों नरेश छोटी सी सेना लेकर उलट पांव भाग पढ़े । ओस्टर्लिंट्स का विजय नेपो- 
लियन के प्रदीप्ततम ओर भ्रस्िद्धतम विनयों में से एक है। क्‍या सेन्यसंस्थान की 
'चतुरता की दृष्टि से ओर कया युद्धयात्रा की तीत्रता की दृष्टि से, यह युद्ध न केवल 
नेपोलियन के ही युद्धों में से प्रधान था, किन्तु सारे भूमेडल का इतिहास मी इस की उपमा 
के लिये मिखारी है। रूस का नरेश इस युद्ध में हार कर, अपना सा सुंह लिये हुए 
. अपनी रानधानी को लोट पड़ा । आस्टिया के महाराज ने सन्धि करने का प्रस्ताव 
किया । सन्धि द्वारा युद्ध का सारा व्यय आए्दिया को देना पड़ा | इसके अतिरिक्त 


१२६ नेपोकियन बोनाभार्ट । 

अन्य छोटे २ राजाओं के स्थानों में भी नेपोलियन ने कुछ उलट फेर किया । 
किसी को कुछ जमीन देदी भोर किसी से कुछ छीन किया । सारांश यह कि 
इस विजय से नेपोलियन का प्रमाव आगे से बहुत बढ़गया, उ्त के नाम 
की भीति आगे से चोगुनी होगई, और उस की विनयदुन्दुमि चारों ओर जोर 
शोर से बनने छगी । 


द्विसीय परिच्छेद । 
टिल्सिट की सन्चि । 


रिपुतिमिरमुदस्योदीयमानं दिनादों दिनक्ृतमिवलष्टपीस्त्वां समस्येतु भूयः । भारविः । 


ऊल्म ओर ओस्टर्लिट्स के विजयों से आस्टरिया की सारी शक्ति नेपोलियन के 
चरणों पर आ पड़ी | रूस, हताश ओर पराजित हो कर, अपने घर को लोट 
गया । इंग्लैण्ड अपने साथियों से त्यक्त हुवा हुवा, स्थलीय साहस का त्याग करके 
सामुद्विक लूट मार में फिर से नियुक्त हुवा । नेपोलियन की शक्ति इस प्रकार अबा- 
घित हो गई । अबाधित हो कर, उप्त ने नीवितमनुष्यों का शतरब्न खेलना शुरू 
किया । देशों के रानाओं और शासनों का मंग, तथा निर्णय, उस के लिये एक 
स्वाभावेक धम्मे था, नो विजयी होने पर प्रकाशित होता था । जब वह अपने 
शत्रुओं को परानित कर देता, तब देशों का बण्टन और मनुष्यों का विभानन 
प्रारम्म करता । उप्त के शत्रु, नेपोलियन की इस क्रिया को बहुत ही अत्याचार-युक्त 
बताते हैं । निःसदेन्ह वह अत्याचार-युक्त थी । किन्तु, उस्त के शत्रुओं को उपा- 
लम्म देने के लिये स्थान न था। उस के शत्रु मी इस अत्याचारी काय्ये में उस से पीछे न 
थे। योरप का ऐसा कोई देश नहीं, भो समय पा कर अपने से निबेल देश को अपने 
काबू में करने से पहले आगा पीछा करें । निबेल जातियों को योरप अपना मोशन 
समझता था, समझता रहा है और अब भी समझता है । जिस समय, विजयी नेपो- 
लियन हलिण्ड, मेनोवा ओर मिलान में अपने घर के आदमियों को राजा बना रहा 
था; ओर उप्तके शत्रु उस्ते अत्याचारी की उपाधि प्रदान कर रहे ये, उसी समय 
प्रशिया, रू ओर आस्ट्रिया मिल कर पोलैण्ड का उपभोग कर रहे थे । तथापि 
नेपोलियन को अत्याचारी कहा नाता था, ओर अंग्रेजी, रूसी ओर आएस्ट्रियन 
महाराज बढ़े ही दयाहु ओर न्यायाप्रैय कहाते थे | हम पूछते हैं कि भिस्त पाप को 
समी कर रहे थे, उसे करने के कारण क्‍या नेपोलियन विशेषतया अपराधी हो सक्ता 
था ? और क्या उसी पाप के करने वाले अन्य देश नेपाडियन पर आक्रमण कर सक्ते 
थे ! अस्तु । नेपोलियन ने विजयी हो कर अपनी स्थिति को दृढ़ करने का विचार 








१२८ नेपोलियन बोनापाट | 


किया । अपने और शेष स्थलछतौीय योरप के मध्य में उप्त ने अपने अधीन सहायको का 
एक जत्था तय्यार करने का विचार किया । इटली का वह राजा हो ही चुका था; 
जैनोबा को उस ने अपने ही राज्य में मिल्रा लिया; हालैण्ड में उस का माई ल्यूईबेन पार्ट 
राजा हुवा; नेपल्स का बोर्बोनवर्शीय राजा सिंहासनच्युत किया गया ओर नपोलि- 
यन का भाई जोजफ उप्त के स्थान में शासक बना; पीडमौोणए्ट को भी इटछी के अन्दर 
ही प्रविष्ट कर लिया गया । इस प्रकार से राज्य को विस्ती्ण करके, इटढछी के शेष 
छोट२ प्रान्तों को मिछा कर, उन की एक संयुक्त संस्था बनाई गई, जिस का प्रधान 
नैपोलियन हुवा । इस संयुक्तसतथा का नाम हाईन का संयुक्त राज्य था । 

इस प्रकार नेपोलियन ने एक ही धावे में अपने राज्य की साँमा को बहुत बढ़ा 
लिया । बढ़ा तो लिया, किन्तु इस में सन्देह है कि उसकी वृद्धि व|स्तविक थी । क्या 
वह ऐसी थी नेसी एक शरीर की होती है? या केवल दृश्यमान ही थी, और आर्न्तरिक 
न थी ? जहां तक इतिहास साक्षी देता है, यही प्रतीत होता हे कि यह उन्नति वास्त- 
विक न थी। यह उन्नति ऐसी थी नप्ती एक पत्थर पर मिट्टी को लेप देने से उम्तकी वृद्धि हो 
जाती है । उस पर थोड़ा भी पानी डाछो ओर वह अवश्य ही उतर जायगी । ऐसी वृद्धि 
और ऐसा विस्तार, अधिक देर तक स्थिर नहीं रह सक्ते । नेपोलियन ने इस वृद्धि 
को स्थिर समझ लिया, यही उसकी बड़ी भारी भूल थी | निन देशों के राजा 
उसने अपन माइयों को बनाया था, उनसे स्वशक्तिवृद्धि की आशा रखना उस्त के 
हिये असम्भम की आशा रखना था। उसके भाइयों की अशक्तता इतनी ही 
वृहती थी, नितनी उप्तकी शक्तता । अन्य देशों के नो भाग उसने अपने राज्य में 
मिला लिये थे; उनसे भी स्थिरता की सम्भावना केवल म्गतृष्णिका थी | अन्य 
देशीय और अन्यजाताय प्रांतों को फांध का अग बना हेना वैसा ही अप्म्भव 
था, जैसा कप्ड़े को अंगीभूत कर लेना हमारे शरीर के लिये अस्म्मव है । 

अतः इस बात में इतिहाप्त साक्षी है कि नेपालियन के सामाज्य की वृद्धि 
अस्थिर थी, अवास्तविक थी | उसकी अस्थिरता ओर भी स्थिर हो जाती है, जब हम 
देखते हैं कि वह इतने थोड़े समय में की गई । इसी कारण, योरप के सारे देशों के 
मन में, नेपोलियन के लिये ईष्यां का भाव फिर से उत्पन्न हो गया । ईष्यो के 
अतिरिक्त उन्हें अपने प्राणों का मी भय था । यर्याष॒वे जानते थे कि नेपोलियन 
अकैलछा उन के मिले हुवे जत्थे से प्रबल है , तथापि आत्मरक्षा भी कोई वस्तु होती 
है। आस्टिया, प्रशिया आदि को आत्मरक्षा का इतना भय लगा हुवा था कि वे वारंबार 


. जेना का युद्ध | १२९ 


प्रानित होने को, अन्त में स्वेधा नष्ट होने से अच्छा समझंते थे । कुछ नेपोलियन 
की हन नई स्थानप्राप्तियों से डर कर, कुछ लन्दन की केबिनट के टर्कों का छोम 
पाकर और कुछ रूस के अपमानैत किंतु गर्वित जार की सहायता से उत्साहित 
होकर, प्रशिया का राजा अपनी सेनासहित फ्रांस पर धावा करने के लिये उच्चत 
हुवा | उस्त की महाराणी तथा पुत्र उप्त के सुछुगते नोश पर फूंक छंगाने वाले थे । 
इंग्लेंड ने मी अपनी सेनाये किनारे पर उतारनी शुरू कर दीं; स्वीडन के राजा ने 
अपने साहाय्य की प्रतिज्ञा की; ओर रूस का जार अपने दो छाख जंगली राक्षसों 
के साथ पोछेंण्ड की भूमि को कंपाता हुवा प्रशिया की सहायताथे प्रस्थित हुवा । 

इस प्रकार, पूष. और उत्तर दिशाओं से उठती हुईं आंधियों से, फांध्त देश 
आने की आन में घिर गया । फ्रांत की पोतशक्ति पहले ही ध्वस्त हो चुकी थी । 
जिस दिन नेपोलियन ने ऊछ्म में आस्टरियन सेना के शस्त्र रखवाये, उस के दूसरे 
ही दिन उस के बड़े का छाड नेल्सिन ने देफलार भें ध्वेत्त कर दिया। इस वार, 
नैषोडियन का बड़ा केवल फांध्त के नहाज़ों से ही बना हुवा न था, स्पेन के जहाज 
मी उस में सम्मिलित थे। द्रेफूहगर पर नेपाकियन की सामुद्रिक शक्ति को बड़ा 
ही सख्त पक्का पहुँचा | इस पक्क को प्राणांत करने वाला धक्का कहें तो अचु॒पयुक्त 
न होगा। अतः, अब नेपोलियन केवल स्थल का स्वामी था। उस की स्थलीय सेना अब 
अदम्य थी । उसी अदम्य स्पछोय सेना को साथ छेकर नेपोलियन इन उठती हुई 
भयानक घटाओं का विदारण करने के लिये आंधी की तरह उठा, और उन बादलों 
की ओर को चछा । एक अंधा भी कह सक्ता है कि यदि केवल एक इसो घटना 
पर दृष्टि रखी जाय, तो इस युद्ध, का-इस मेघवायु संग्राम का-उत्तरदातृत्व नेपो- 
लियन पर न था-किंतु प्रशिया रूस ओर रंग्ढैंड पर था | अस्तु | 

२४ सेप्तम्बर (१८०६) की रात के समय नेपोलियन पोरिस से रवाना हुवा । 
उप्त की सेना, उप्त से कुछ आंगे गई हुईं थी । थोड़े ही दिनों में नेपोलियन उसके 
साथ जा मिला | उस के पहुंचते ही सारी सेना में उत्साह की विद्युत्‌ संचार करने 
लगी। सिपाही अपनी द्ञाक्तियों का अतिक्रमण करके यात्रा करन ढछगे। यात्रा इतनी 
तैनी से करी गई, ओर यात्रा का रास्ता ऐसी चतुरता से निश्चित किया गया, कि 
थोड़े ही दिनों में नेपोलियन प्राशिया के राजा की सारी सेना के पीछे सेक्सनी देश के 
गे में जा डटा। उस स्थान से वह प्रशियन सेना का पीछे छोटना रोक सक्ता था । 


जब उप्त के ओर फांस के बीच में प्रशिया का राजा सैन्यसहित आ गया, तब उत्े 
९ 


१६३६० नेपोहियन बोनापार्ट । 


पता लगा कि वज्न उप्तकी पीठ पर गे रहा है. । अन्य कोई उपाय न देखकर, 
उप्त ने वहीं पर नेपोलियन का सामना करने का विचार किया । 

नेपोलियन युद्ध प्रारम्म हो जाने पर रुद्र देवता का रूप घारण कर लेता था, 
किन्तु उस्च के पहले वह सदा यह यत्न करता था कि किस्ती प्रकार प्रेम से 
या भय से उप्तका शत्रु उस्त स॑ सन्धि करने के लिये तय्यार हो जाय । 
इस समय भी शत्रु की संशयित दशा को देखकर नेपोलियन ने एक पत्र प्रशिया के 
राजा के पास भेना। उस पत्र में प्रशिया के राना का उप्तन पहले उस भयानक अवस्था 
की सूचना दी, जिसमें वह पड चुका था। उसने उत्ते छिख। कि अब तुम्हारा 
बचना असम्भवता की कोटि में आ चुका है, इप्त लिये लड़ने से सिवाय प्राणिक्षय 
के और कोई लाभ नहीं हो सक्ता । अतः नेपोलियन ने सलाह दी कि वह अब 
भी यदि शस्त्र रख दे तो संग्राम बन्द हो स्क्ता है। किन्तु नेपोलियन को इस पत्र 
का उत्तर नहीं मिला । कई कहंते हैं कि वह पत्र प्रशिया के राजा को मिला हो 
तब, नब हत्थापाई शुरू हो चुकी हैं; ओर अन्यों की सम्मति है कि रानी के दबाव से 
राजा ने इस्त पत्र में दी हुई सलाह को स्वीकार न किया । खर, कुछ ही हो, 
नेपोलियन के पत्र का उत्तर उसे नहीं मिला, यह निःसन्देह है । नेपोलियन अपनी 
सेनाओं से प्रशिया के सुशिक्षित सैन्य को घरता गया । प्रशिया की सना भी कोई 
ऐसी वेसी सेना न थी । उस सेना के तय्यार करने वाढ्य वीर योद्धा, अल्फेड 
दिग्नेटया। यह राजा बड़ा भारी विनयी योद्धा था। इसी के शिक्षित किये हुवे सिपाही, 
प्रशिया की सेना में विद्यमान थे | वे सिपाही भी किसी दिन योरप के एक बड़े 
भाग को अपने शल््र के प्रहार के नीचे झुका चुके थे | सिवाय नेपोलियन की गर्म 
चपेड़ के, वे कैसे अपना मुंह युद्ध से मोड़ सक्ते थे 

जना और ओरस्टेट के खेतों में दोनों वीर सेनाओं की मृद्द मेड हुवी । 
प्रशिया की सना वहां जबदंस्त दुगे बांधे हुवे पहले से पड़ी थी । जेना पर नेपोलियन 
ने स्वयं अपनी सेना के एक विभाग के साथ आक्रमण किया । औरस्टेट पर, जहां 
प्रशिया का राजा अपनी सेना के साथ सगवे विराजमान था, सेनापति डीबू 
( 7)9४००७७६ ) ने उप्ती समय आक्रमण किया । प्रात काल से युद्ध का प्रारम्भ 
हुवा । दोनों ओर के वीर योद्धाओं ने प्राणों की आशा छोड़ कर संग्राम किया । 
छुड़सवारी! की सेनाओं के भी अच्छे धांवे हुवे । दोपहर के बारह बन गये, और 
संग्राम उसी घोरता के साथ होता रहा । कमी फांसीसी सेना प्रशियन सेना: को 


जना का विनय । १६१ 


धकेल कर पीछे मगा देती, ओर कमी प्रशियन घुड़सवार असह्ा आक्रमण करके 
फ्रेंचचना को कुछ कदम पीछे कर देते । शान्त ओर विचारपूण नेपोलियन अपने 
थोड़े की पीठ पर बेठा हुवा, इस मल॒ष्यकदन को देखता रहा | दोपहर के समय 
उसने देखा कि धलुष अब पूरा तन गया है; दोनों सेनाये खूब थक्र गई हैं और 
तुछी हुई हैं; उस्त समय नेपोलियन ने उप्त युद्धकछा का प्रयोग किया, निस से बड़े 
युद्ध प्रायः नीते नाते हैं । तने हुवे धनुष में, निस्त॒ तरफ जोर डाछिये वही 
टूट जायगा । इसी प्रकार, जब नेपोलियन देखता कि युद्ध ख़त्र तनगया है, तब उम्र 
रक्षित सेना को धावा करने की आज्ञा देता, जिस वह पहले युद्ध से पथक्‌ रखता 
था । नेपोलियन का विनय, रक्षित सेना का विनय हुवा करता था । अब भी 
उस ने सेनापीत खूरा की रहित घुड़सवार सेना की ओर आंख मोड़ी । मूरा 
लम्बे चोड़े कद का नवान योद्धा था । लम्बी फरददार टोपी पहन कर नब वह अपनी 
सेना के सामने घोड़े के एड्री छगाता था, तो कहते हैं कि उप्तकी सेना में राक्षस्री 
माया का संचार हो जाता था | वह यदि चाहता तो उप्त समय उन्हें यम की 
सेना के स्ताथ संग्राम करने के लिये भी छे जा सक्ता था | उप्त वीर भयानक मूरा 
को, अपनी ब्रड़सवार सेना के साथ प्रहार करने की अब आज्ञा मिली । बस इतना 
पर्याप्त था । नेसे एक लोहमुष्टि के छगने पर काच का पात्र चूर २ हो जाता 
है, उसी प्रकार मूरा की वजूमय पेना के प्रद्वार से प्रशियन फोन के ठुकड़े २ हो 
गये । वह जान बचाकर भागी । किन्तु नेपोलियन के सामने भागना भी सहल न 
था । सेनापति सौल्ड और सेनापाते नेको, युद्ध प्रारम्म होने से पूवही उसने प्रशि- 
यन सेना का मार्ग रोकने के लिये भेन दिया था । ज्यों ही प्रशियन सेना 
भागी, त्यों ही उन दोनों सेनापातैयों की सेनाओं ने उन का सामना किया । वृद्चिचक- 
मिया पढामान आशीविषमुखे निपतितः” बिच्छू के डर से भागती हुवी बह सेना 
सांप के मुख में जापड़ी । दो तोपख़ानों के बीच में पड़ कर वह मुनगई। 
उधर ओरस्टेट में सेनापति डीवू ने भी विनय पाया | सारी की सारी प्रशियन 
सेना देखते ही देखते खाक में मिल गईं | प्रशिया का राना, किप्ती प्रकार अपनी 
जान क्वाकर भाग निकला ओर पीछे से आती हुवा रूसी सेना की शरण में आगया। 
ओरश्टेट के विनय के उपछक्ष में, सेनापति ढीबू को, नैपोलियन ने ड्यूकआव औरस्टेट 
बना दिया । 

प्रशियन शन्रुका क्षय करके, अब नेपोलियन उमड़ते हुंवे रूसी बादल को 


' शहर नेपोलियन बोनापार्ट | 


कील मिन्न करने के लिये आगे को प्रस्थित हुवा । रूसी सेना के साथ सुद्द 
मेड होने से पूषे ही, उसे एक ऐसा कार्य करना पड़ा, जो यद्यपि सैमिकयुद्ध का अंग 
नहीं कहा सक्ता, तथापि वह उप्ती की एक पीठिका थी । इस तकरार के 
प्रारम्भ होने से पूष ही, इंग्लेण्ड ने समुद्गस्थित सब फांस के निवासियों को कैद कर 
लिया था, ओर उन की सम्पत्तिय, छीन ली थीं | तब से निरन्तर इंग्लेण्ड इसी नीति 
के अनुसार काय कर रहा था । फांस के साथ वह किसी भी अन्य देश के नहाज 
को व्यापार न करने देता था। इस से फ्रांस का सामुद्रिकव्यापार सर्वया नष्ट हो रहा 
था । यदि समुद्रम कोई फ्रांधनिवासी पाया जाता, तो ब्रिटिश बेड़ा अवश्य उसे केंद 
कर लेता । नेपोलियन इस से बहुत तेग आगया | वह जहाजी शक्ति का स्वामी 
न था, अतः उस के लिये सीधा ब्रिटिश बेड़े पर धावा करना अप्तम्मव था । इस 
लिये, उस ने इंग्लेण्ड का व्यापार तोड़न की टेढ़ी रीति निकाली | बर्लिन और 
सिलान से नो शासनपत्र उस ने प्रचारित किये, उन द्वारा सारे स्थल पर इंग्लेण्ड 
के जहानों का आना बन्द्‌ कर दिया गया | स्थल पर, नहां २ फुेंचशक्ति विद्यमान 
थी, जो कोई अग्रेन पायागया, उप्त की सम्पत्ति छीन छी गई, और उसे केद 
किया गया । इस शासनपत्र के प्रचार ने, इंग्लेण्ड के स्थलीयव्यापार को उतने दिनों के 
लिये बहुत भारी धक्का पहुंचाया | मीठा तथा कई अन्य चीनें, नो पहले इंग्लैण्ड 
से प्राप्त होती थीं, वे अब स्थल पर ही, विशेषतया फुचसामराज्य में ही बनने 
लर्गी | यह स्वयं ही अनुमान हो सक्ता हे कि इस शासनपत्र पर ।्रिटिश पार्लियामेण्ट 
खूब झीकी होगी । किन्तु यह निःसन्देह है कि इस काये के करने में पहल नेपोलियन 
ने न की थी। उस ने केवल उत्तर दिया था। उच्च आचारधमे की दृष्टि से चाहे 
चपड़ के बदले चपेड़ लगाने को बुरा कहें, किन्तु तब भी इस में सन्देह नहीं कि 
नैपोलियन ओर राजाओं की अपेक्षा अधिक क्र या कुटिलनीति का वर्ताव न 
करता था । 

बलिन से नेपोलियन रूस के राक्षसयूथ के साथ इन्द्ययुद्ध करन के लिये 
आगे की ओर बढ़ा । सदियों की घोर ऋतु उपस्थित हुईं । दिसम्बर का महीना 
था, सर्दी काटने वाढी थी | सर्दी के अतिरिक्त चारों ओर बिखरे हुवे शत्रु के कुछ 
सैन्य भी थे, नो समय २ पर सेना पर छापे मारते रहते थे | ये सब काठनाइये थीं, 
किन्तु, इन सब को झेलता हुवा फेँच सेन/समुद्र आनैवाय्ये गाति से आगे बढ़ता ही 
गया । १९०७ के जनवरी मास में सारी फुंचसेना विरुच्युला नदी के किनारे 


विदच्युछा पर स्थिति | १३३ 


पर पहुँच गई । वहीं पर सर्दियं बिताने का नेपोलियन ने निश्चय किया | सारी 
सेना के डरे वहां जमा दिये गये। सेना का उपनिवेश ऐसा लगाया गया कि, 
सारा हृइय नगराकार हो गया था | गाछयें, बाजार और चौक-सभी कुछ उस सैनिक 
उपनिवेश में बना दिया गया। सिपाहियों को इस कलाश्रेमनगर में भी निष्क्रिय न बेठने 
दिया जाता था । व्यूहरचना, खलकूद ओर नकछी युद्धों द्वारा उन की फूर्ती को 
स्थिर रकखा जाता था । 

नेपोलियन इसी तरह सारी शीत ऋतु गुजारना चाहता था | वह इस समय 
फांत की हद से सेकड़ों मील दूरी पर बेठा हुआ था, किन्तु उस की मानसिक 
शक्तियों का अनुमान इसी से छग सक्ता है कि वह वहीं बेठा २ सारे फचसाम्राज्य 
का प्रबन्य करता था | इसी यात्रा में उस्त ने कई महलों, कई सड़कों, कई विद्या- 
ल्यों ओर कई स्मारकों के नकशे खींच २ कर फांस में भेजे | इस आशइचर्य्यमय 
मनुष्य के सिर में यह विशेषता थी, कि वह जब, निप्त विषय पर विचार करना 
चाहता था, कर सक्ता था | वह कहा करता था कि 'मेरे प्र में हर एक विषय 
का एक डब्बा बना हुआ है | जब मुझे किप्ती एक विषय पर विचार करना होता है, 
तब में ओर सब इडब्बों के मुंह बन्द कर देता हूं ओर केवक उसी विषय के डब्ब 
को खुला रखता हूं ।' उत्त की अवधारणा शक्ति सच मुच विलक्षण थी | कभी २ 
वह संग्रामभूमि में ऐन श्त्रु की तोपों के सामने बेठ कर, फांध्त की उन्नति के लिये 
नई २ स्क्रीमें तय्यार किया करता था । किन्तु, । 

4 चिन्तयत्यन्थथा जीवो इषपूरितमानसः” । 
£ विषिस्त्वेष महानेरी कुरुते काय्यमन्यथा? ॥ 

इसी छोकोक्ति के अनुप्तार, नेपोलियन को भी शीतऋतु आराम से गुजारनी 
न मिली | रूश्त का सम्राट उस के प्र पर आ डटा। दिनरात रूप्त के सिपाहियों 
ने, चारों ओर से, फांसीसी सेना पर छापे मारने शुरू किये | भावी बड़े संग्राम को 
समीप ही आया देख कर, नेपोलियन ने अपनी सेना के डरे उठा लिये । तत्क्षण 
सेना को आगे बढ़ने की आज्ञा दी गई । उस घोर काटने वाली हिम में, सारी सेना 
का प्रयाण प्रारम्म' हुआ । विचारमग्न और चिन्ताशील नपोलियन अपने घोड़े पर 
चढ़ा हुआ, अपनी सेना को प्रोत्साहित और उत्तेनित करने छगा । नित्यप्रति छोटे २ 
युद्ध प्रारम्म हुंवे | किन्तु, इन छोटे २ युद्धों में निरन्तर विनय पाती हुई फूँच सेना 
आगे बढ़ती गई। 


११४ नेपोलियन बोनापार्ट । 


आइल्यू के मैदान में, दोनों वृहती सेनाओं का सामना हुआ | रूप्त कौ 
शक्ति दो छाख तक पहुंची हुईं थी । नेपोडियन के पास तकरीबन एक लाख के 
फोन थी | जहां युद्ध हुवा, वह स्थानऐस्ता था कि वहां ग्ुद्धसम्बन्धिनी कहा विशेष 
कार्य्य न दे सक्ती थी। दोनों सेनायें, सपाट मैदान में, एक दूसरे के सन्मुख तनी 
हुईं थीं। युद्ध शुरू हुवा | दोनों ओर से तोषों ने अम्निवर्षो प्रारम्भ की । सिपाही 
भुनने लगे । ऊंचे या नीचे स्थान का अब प्रइन नहीं था। जिसने नितने गोछे 
चलाये,उसने उतने ही शन्नुओं को भूतलशायी किया। दोनों ओर बीभत्स कदन हुवा। 
सारी भूमि छाल ही ढाल हो गई । नेपोलियन अपनी सेना को प्रोत्साहित करने के 
लिये चारों ओर घूमने रूगा। कहते हैं कि कभी कमी तो इस युद्ध में वह लड़ने वाली 
सब से पहली पंक्ति में चला जाता था | तब और सेनापति उस से पीछे आने की 
प्राथना करते थे। सब जानते थे कि फांस की सीमा से सैकड़ों कोस दूर हमारे प्राण 
इसी एक छोटे से देह पर आश्रित हैं। यह सुत्र कटा ओर सारी संस्था यहीं चक- 
नाचूर हो जायगी । ग्युझ्ध के मध्य में, नेपोलियन, थोड़े से अचुचरों के साथ, एक 
ऊंची जमीन पर खड़ा था । रूस के कुछ घुड़सवारों ने, उत्ते असहाय देख कर, घेरने 
के लिये उधर को धोड़ों की छगामें फेरी। नेपोलियन की शरीररक्षक सेना का अध्यक्ष 
सेनापति डोरसिन शत्रु की इस गति को देख रहा था । सेनापति डोरसिन 
एक हुम्बा चौड़ा और सुन्दर नवान था । उस ने अपनी वीरसेना को नेपोलियन 
के चारों ओर घेरा डाल कर खड़ा कर दिया ; स्वयं, सामिमान और वीरोचित आंखों 
से शत्रु की ओर देखता रहा । रूसी सेना पास पहुंची | पास पहुंच कर, उप्त को 
नेपोहियन के शिक्षित तथा अनुभवी शरीररक्षकों के ऊंचे फून्देदार मुकुट दिखाई 
पड़े । अपने आयास से निराश होकर रूसी सेना उलटे पांव छोटगई। नेपोलियन ने 
सेनापति डोरसिन की ओर देख कर मुस्करा दिया । 

इस घोर युद्ध भें, एक वार, फ्रेंच सेना बड़ी शोचनीय अवस्था में पड़ गई । 
सेनापति औगीरियों अपनी सेना के साथ शत्रु के मध्य में प्रहार करने के लिये 
प्रस्थित हुआ । उसी समय, आंधी, पानी और बर्फ का एक तूफान सामने से सेना 
पर आ पड़ा । चारों ओर दीखना बन्द हो गयां । किन्तु वीर सेनापाति के पीछे २ 
वह सेना निरन्तर शत्रु की सेना की ओर चलती गई । न उस ने शत्रु को देब्वा, 
ओर न शशज्रुने उसे देखा । थोड़ी देर में तूफान बन्द होगया | तब फ्रेंचसेना ने 
आश्चय्ये और भय के साथ देखा कि वह बिना माने बूपे शत्रु की सारी सेना के ऐन 


आइल्यू का युद्ध । १३२९ 


बीच में आ पड़ी है। चारों ओर से उस पर आग बरसने छगी । उस वीरसेना 
ने भी, बड़े बैय्ये से उस का सामना किया; किन्तु अकस्मात्‌ सेनापति ओगीरियो 
आहत हो गया । सेनापतिहीन सेना शन्रुदछ में से निकल तो आईं, किन्तु उन 
की इस विपदा से फ्रेंचसेना की शक्ति कुछ कम होती हुई प्रतीत देने छगी । इस 
निबेलता को देखते ही, रूसी घुड़सवारों ने, एक दुनिवार आक्रमण करके उस्त के 
कदम उखाइने का विचार किया | उप्त समय नेपोलियन को वीर स्ूरा का 
स्मरण आया | सेनापति मूरा ओर बैस्सीयसे को, उप्त ने, अपने घुड़सवारों के साथ 
. विनय का मुख बदलने की आज्ञा दी | इतिहास, सवार सेना के उस्त आक्रमण का, 
आजतक स्मरण करता हे। उस्र आक्रमण से, सारी रूसी सेना में,दो वार बढ़े २ छेद 
हो गये । किन्तु, सायकाल के समय फिर रूप्ती सेना एक दृढ़ चट्टान की न्याई बुद्ध 
के लिये खडी दिखाई दी । 

निस गांव के पास युद्ध होरहा था, उस में एक गिर्ना था । वह गिर्ना ऐसी 
जगह पर था, के उप्त का जीतना आवश्यक था / युद्ध के बीच में नेपोलियन ने 
सुना कि शत्रु की सेना ने उसे छीन लिया है । घोड़ को सरपट दौडाता हुआ 
नेपोलियन वहां पहुंचा ओर ऊंची आवाज़ से चिल्ला कर उस ने अपने सिपाहियों को 
कहा ऐं वौरो [ क्‍या मुट्ठी भर शन्नुसना तुम से एक स्थान छीन सक्ती हे ? वह 
गि्नों अवश्य नीता जाना चाहिये । चाहे कुछ हो, वह जीता जायगा । ” अपने 
सम्राट्‌ के दशन से प्रोत्साहित हुई हुई सेना, एक दम चिल्ला उठी,-प्तप्नाट्‌ चिर- 
ज्ीवी रहो | ” और यही चिह्लाती हुईं उस्त गिरने की ओर को मागी । भागते 
हुए सिपाहियों में नेपोलियन ने एक बूढ़े सिपाही को देखा, निप्त का मुंह बारूद से 
काला हो गया था; एक बाहु गोली के छूगने से कन्पे पर से उतर गईं थी; और 
उस का सारा शरीर लट्टू छहान हो रहा था । नेपोलियन को उसप्त पर दया आई; 
उसने चिछा कर कहा कि * वीर पुरुष ! उहर जाओ। पहले अपनी चोटों का इलाज 
करालो, फिर लड़ाई में जाना ! । 

सिपाही ने पीछे मुड कर देखा ओर इतना कह कर कि ' नब गिनो जीता 
जायगा, में तब अपनी चोटों का इलान कराऊंगा ? वह विना छुछ सुने, नोश से 
मागती हुई सेना में मि् गया | नेपोलियन की आंखों में, इस इश्य को देख कर, 
आंसू भर आये । उस के शत्रु कहते हैं कि नेपीकियन क्र था । निःसन्देह ये 
चिन्ह क्रूरता के नहीं थे | वह गिजो ले लिया गया । 


१३६ नेपोलियन बोनापार्ट । 


लहाई होते २ रात पड़ गई | दोनों ओर की तोषों ने अपने मुख बन्द किये। 
दिनभर के बुद्ध में रूस की सेना का आधा भाग नष्ट हो गया था। फ्रेंचसेना की 
भी कुछ कम हानि नहीं हुईं थी। कहते हैं कि मेसा ननक्षय इस युद्ध में हुआ, ऐसा 
शायद ही कहीं हुआ हो। तकरीबन ९० सहस्त्र मनुष्य मारे गये । क्या इन घोर दृश्यों 
को देख कर भी किप्ती का दिल साक्षी देगा कि युद्ध ओर करान्तियें मनुष्यनाति 
के लाभ ओर सुख के ढिये हैं ! 


रातभर युद्ध बन्द रहा । फ्रांसासी सेना युद्धक्षेत्र में ही साई, किन्तु रूसी 
सेनापति घबरा गया | वह रात ही रात में युद्धक्षेत्र को छोड़ कर पीछे छोट गया । 
आठ दिन तक नेपोलियन आइल्यू में ही रहा | जिनने आहत सिपाही थे, उन का 
इलाज करने में ही उप्त के ये दिन बीते । वह प्रायः गिरे हुए सिपाहियों के 
आधातों पर स्वयं पट्टी बांधता, ओर उन्हें सान्त्वना देता था । वे भी प्रायः मरते 
हुए, नेपोलियन के दशन करके अपने आपको धन्य मानते हुए प्राण देते थे। सब 
मत सिपाहियों के बालबच्चों तथा परिवारों की रक्षा का भार राज्य पर ही पढ़ता 
था, अतः मेरे हुए सिपाहियों को प्रायः घर की तरफ से सन्‍्तोष रहता था । 


अपनी सेना के व्याहत पुरुषों की रक्षा तथा सेवाटहछहू का ठीक २ प्रबन्ध 
करके, उप्त ने आगे को प्रयाण प्रारम्म किया । यहींसे उसने रूस के जार को 
एक चिट्ठी लिखी, निप्त में लड़ाई बन्द करने का प्रस्ताव किया गया । उसने 
उसे खूब समझा दिया कि मबतक वह अपनी सेना के साथ है, कोई उसे जीत 
नहीं सक्ता । तब केवल जनक्षय करने से क्या लाभ हे ? किन्तु इस सल्य सुझाने 
को अलेगजेण्डर नया तो धमकी समझा, या डरपोकपने की बात समझा । इस 
लिये इसपर कोई ध्यान न दिया। फ्रेंचसना आगे बढ़ती गई। फ्रीडलेंड में दोनों सेनाओं 
का अन्तिम युद्ध हुआ । इस युद्ध में सेनापति ने ने बड़ी ही वीरता का कार्य 
किया । फरीडलेण्ड ग्राम के विनय के समय नो धावा उपस्त ने किया, उससे ही 
उसे “वीरों में वौरतम ” की उपाधि प्राप्त हुईं । सारी रुप्ती सेना, ग्राम के पिछली तरफ 
बहन वाढी नदी में धक्रेल दी गई । रूम्त के जार की गरवषित सेना इस युद्ध 
में ध्वस्त हो गई । यह नेपोलियन के सम्पूणेविजयों में से एक विनय था । 


.. फूडलेण्ड के युद्ध ने अभिमानी जार की गदेन झुका दी । जिस्त जार ने, कुछ 
दिन पहले, नेपोलियन के शान्ति विषयक प्रस्ताव पर ज़रा भी ध्यान न दिया था, 


टिक्छिट में दोनों सन्नाद्‌ । १३७ 


उप्त ने अब स्वयं ही झान्ति के लिये प्राथेना की । नेपोकियन ने वह प्राथेना स्वी- 
कार कर ही | रूत्त की सीमा पर नीमन नाम की एक नदी है , वहां तक पहुंच 
कर नेपोलियन ने अपनी विनेत्री सेना को विश्राम दिया । उप्त नदी के बांये किनारे 
पर टिल्सिट नाम का एक गांव हे । नेपोलियन ने उसी में अपने डेरे डालि। दोनों 
सम्राट म॑ं सन्धि की बात पक्की हो गईं | नदी के ऐन मध्य में एक नोका तय्यार 
की गई ओर नियतसमय पर दोनों पतम्राट्‌ उस नोका में मिले | वह नोका न रूस के 
साम्राज्य में थी, ओर न नेपोलियन के विजित स्थानों में ; अतः दोनों सम्राट खुले 
तोर से मिल । अलेग्जेण्डर ने नेपोलियन से मिलते ही कहा कि : में इंग्लेष्ड का 
उतना ही बड़ा शत्रु हूं, नितने बड़े तुम हा । 

नेपोलियन ने कहा कि 'तब तो फिर हमारी सन्धि हुई हुवाई हे ४ 

बस दोनों प्म्नाटों में सन्धि हो गईं। एक दूसरे का सदा साथ देने की दोनों ओर 
से प्रतिज्ञा हुईं | जब दोनों प्रम्नाट्‌ एक दूसरे सेमिल गये, तब उन्हों ने अपनी दशा 
पर विचार किया । उन्हों ने देखा, कि उन की मिली हुई शक्तियों के सामने कोई 
भी शक्ति ठहर नहीं सक्ती | यह सोच कर उन्हों ने बड़ी ही कल्पनायुक्त भावनायें 
करनी शुरू कीं। अलेग्जेण्डर भी नेपोलियन के पास ही टिल्सिद गांव में आगया । 
वहां दोनों सम्राद्‌ दिन भर साथ ही रहते ओर साथ ही भोननादि करते थे । वि- 
श्राम के समय सारे योरप का नक॒शा खोल कर सामने रख लेते, ओर फिर दूरगाभिनी 
कल्पनायें किया करते थे | नेपोलियन ने अपने लिये पाश्चिमीय योरप मे विजय के 
लिये खुल मांगी, ओर रूप्त के जार को पूर्वीय भाग में छुट्टी दे दी । सारे योरप 
को, इन दो नरेशों ने, आपस में बांटने का विचार कर लिया | नेपोलियन इतने बढ़े 
साथी को पाकर प्रसन्न हुआ ओर जार तो अपने आप को धन्य ही समझने छगा । 
वह अभी युवा था ; नेपोलियन में उप्त की बड़ी मक्ति थी । वह उसे संस्तार का 
एक बहुत बढ़ा मनुष्य समझता था । युद्ध में वह प्रायः कहा करता था कि हम 
नेपोलियन के सामने युद्ध में ऐसे हैं नेसे एक राक्षतत के सामने वामन हों / इतने 
बड़े मनुष्य के साथ अपने आप को सन्धि में गठा हुआ देख कर, वह अपने अन्दर २ 
बड़ा गर्वित होता था । 

दोनों सम्नाटू, मिल कर, टिल्सिट में बहुत दिनों तक रहे । जो सन्धि की 
ग़हे, उप्र द्वारा प्रशिया के परानित राजा को उप्त का आधा राज्य सौंपा गया । रेष 
देशों के विजयों को, दोनों सम्रा्ों ने स्वीकार किया। बहुत दिनतक, येरप के भाग्यों 


१३१८ नैषोल्यिन बोनापार्ट | 


पर विचार करने के अनन्तर, दोनों मिन्र-सम्राट्‌ , श्यक्‌ हुवे । एक सालभर बाहिर 
युद्धों में रह कर, विनयी नेपोलियन, जुदाई की २७ वीं तारीख़ के दिन, पेरिस में 
प्रविष्ट हुवा | ढ 


तलीय परिच्छेद । 
साम्राउ्यविस्तार ओर आनन्‍्तरिकविस्फोट । 


अणुरप्युपहन्ति विग्मह: प्रभमन्‍्त:प्रकृतिप्रकोपज:। भारति: । 

एक मनुष्य की लौकिक शक्ति जहां तक विस्तृत हो सक्ती है, नेपोलियन की 
शक्ति इस समय वहां तक विस्तृत हो चुकी थी । नि्॑त महत्वयुक्त स्थान के पाने 
की कोई सांध्ारिक मनुष्य अभिलाषा कर सक्ता है, वह स्थान इस समय नेपोलियन 
की मिल चुका था । वह फांस का अनियन्त्रित राना था; इटली का राममुकट भी 
उप्ती के शिर पर शाभायमान हो रहा था; हालेण्ड, मिलान आदि स्थानों भें उस के 
भाई उसी के लिये राज्य कर रहे थे; हाइन का मंयुक्तराज्य, सैकूसनी और वुहन्‌ 
बगे आदि छोटे देश उप्त की आज्ञा का पालन करने में अपना अहोभाग्य समझते थे; 
बिस्तीर्ण तथा शक्तिशाली रूस का ज्ञार नेपोलियन की मित्रता क कारण अपने 
आप को धन्य समझ रहा था; प्रशिया और आस्ट्रिया, परानय पर परानय खाकर, 
गदेन उठाने में सवंथा अशक्त हो गये थे | यह एक मनुष्य के लिये कितना उच्च पद 
है? हमार साधारणतः संकुचित मन इस गोरवयुक्त स्थान के महत्त्व को समझने में 
अक्षक्त हैं । 

इतना बड़ा साम्राज्य और इतनी भयानक शक्ति नेपोलियन ने अपनी दो भुजाओं 
के बल से ही प्राप्त किये थे । संसार में और कोई उसका सहायक न था| वह सरकारी 
राजबराने का अछूर न था; और न ही उसे और कोई पार्मिक या वेंशीय लाभ प्राप्त 
था | वह एक निर्घन अज्ञात वकील का लड़का था। अपने एक सिर, ओर दो बाहुओं 
को लेकर कह संसाररूपी युद्धक्षेत्र में प्रविष्ट हुआ । इन्हीं तीन वस्तुओं के सहारे 
उसने वे असाधारण काम कर दिखाये, निन से सारे भूतल पर केपकेगा छा गई । 
ऐसा कोई आदर नहीं था जो उसे प्राप्त न हुआ हो; ऐसा कोई विनय नहीं था नो 
उस्त के सामने हाथ जोड़कर न खड़ा होगया हो; ऐसी कोई महत्वाकांक्षा नहीं थी 
भित्ते वह न पा सका हो । जहां उस की महत्त्वाकांका की उंगली उठी, वहीं पर 
सारे पर झुक गये और सिवाय नेपोलियन की विमयपताका के और कुछ दिखाई 
न देने लगा । वह अप्रतिवाय्य महत्त्वाकांक्षा नेपोछियन को रास्ता दिखाती २ यहां 
तक खींच छाई ; उस ने उसे 'साज्ाटों का भी साम्राट! बना दिया । 


२१४० नैपोलियन नोनापार्ट | 


उप्त महत्वाकांक्षा ने उससे आशचय्थेजनक कार्य कराये। ज्यों २ नेपोलियन उच्च- 
पद को प्राप्त होता गया, त्यों हे उध की महत्ताकांक्षा भी बढ़ती गई | जब वह 
पहले पहल इटछी का सेनाषति बना था, तब उप की एक बड़े विनेश। बनने की 
इच्छा से बढ़ कर कोई ओर इच्छा न थी । नब वह मिश्र से छोटा, तब उप्त की 
महत्त्वाकांक्षा केवल प्रथमशासक बनने तक ही उंगढी उठाती थी | मेरंनो के विनय 
ने उप्त समाद्‌ बनने के लिये तय्यार कर दिया । ओस्टर्िंटूस और फरीड- 
कैण्ड के विजयों ने उस्त की महत्त्वाकांक्षा को ओर भी ऊपर चढ़ा दिया। अब 
उस की महत्त्वाकांक्षा, अपनी उंगली उठा कर सारे परिचमीय योरप के सामाज्य 
का दृश्य उस्ते दिखा रही थी । पद्चिचमीय योरप के पम्राटों को सिहातन च्युत 
करके, स्वयं या अपने कृतकरानाओं द्वारा उन के ज्ञाप्तन का विचार इस समय 
नेपोलियन के मन में अठखेलियें ले रहा था । नेपोलियन के पक्ष से कहा ना सक्ता 
है, कि हालेण्ड, मिलान आदिका राज्य उत्ते छीनना पड़ा-ऐस्ता करन के लिये 
वह बाधित हो गया । इन देशों के राना उस्त के शात्र थे, अतः उस का अधिकार 
था ओर उस्त के इस अधिकार को आत्मरक्षा का भाव आवश्यकता में परिणत कर 
देता था, कि वह उन के राजाओं को पदच्युत कर के अपने भाई बन्धुओं को उनके 
स्थान पर स्थित करे | किन्तु यह बहाना नड्डाहीन बहाना है, यह किप्ती तरह 
भी खट्टा नहीं रह सक्ता । मनुष्यनाति का हित क्रिप्ती मनुष्य का या क्िप्ती 
देश को यह आज्ञा नहीं देता कि वह अन्य देशों या राष्ट्रों पर अपना स्वत्व जमाता 
रहे । मनुष्य को यह अधिकार किपतन दिया है कि वह उन सब लोगों का घ्वेप्त करदे, 
जा उस्त के साथ सहमत न हों | यदि ऐस्ता अधिकार सब मनुष्यों को प्राप्त हो 
जाय, तो एक दिन मर भी किसी का इस भूतकू पर शान्ति के उपभोग करने का 
अकस्तर प्राप्त न हो | नेपोलियन के पक्ष में दूधरी युक्ति यह दी जा सक्तो है कि 
अन्य सारे ही देश अपनी विनयपताका के विस्तार का यत्र कर रहे थे, तब उस ही 
बेचारे का कया दोष था ? इस युक्ति के उत्तर में हम इतना ही कहेंगे कि अन्य सारे 
देश भा मनुष्यजाति के प्राति अपराध कर रहे थे ओर आज तक कर रहे हैं, अतः 
समयापेक्षक दृष्टि से नेपोलियन- को हम दोषी नहीं ठहराते | हम उसको कवल निरपेक्ष 
आचारदृष्टि से दूषित ठहराते हैं | कया हम कमी भी समयापेक्ष हष्टि से उसे दूषित 
ठहरा सक्ते हैं, नब हम रूस और आस्टिया के उस समय के इतिहासों सर परिचित 
हैं ! क्‍या टर्की ओर पोडैण्ड के इतिहासें को हम भूले हुवे हैं नो हम नेपोलियन 


बढ़ी हुईं महत्त्वाकांक्षा । (४१ 
पर दोष ढगाये ? इस दृष्टि से नैपोलियन ने कोई अपराध नहीं किया । कह उ्त 
मंप्तार में आया, नहां हर एक शक्तिशाली देश, निबेलों को अपना शिकार बना रहा 
था | सब सभ्य कहने वाले देशों को जिस परे में लगे हुवे उस ने पाया, उसी 
का स्वयं भी आश्रयण किया । शायद उसने आवश्यकता से अधिक शीघ्रता इस 
काय्ये में दिखाई; शायद्‌ उस ने जड़ को मजबूत किये विना ही प्रासाद खड़ा करने 
का यत्न किया; और शायद उस ने एक मनुष्य की शक्ति से बहुत बढ़ कर कार्य्य 
करन का निश्चय किया | शायद उसने ये सब भूलें कीं आर इन भूलों का फल उसे अन्त में 
मिल भी गया | किन्तु क्या समयापक्षया हम उप्त के विनयप्रस्नंगको दोषी ठहरा 
सक्ते हैं! ओर क्‍या उप्त के विरोधी अन्य देश उस्त समय उस्त की महत्त्वाकांक्षा 
को या उम्त की क्रूरता को दाषी ठहरा सक्ते थे ? विना किसी सम्देह के हम उत्तर 
देंगे कि नहीं! | 

इसी साव॑त्रिक महत्त्वाकांक्षा से वह भी प्रेरित था । उसके शरीर तथा मन में 
महत्त्ताकांता के अनुरूप शक्तिय थीं । अतणव, उस्त की महत्त्वाकांक्षा के सामने 
कोई भी प्रतिबंध नहीं आया । किन्तु ज्यों २ वह सांसारिक महत्त्व को पाता गया, 
त्यों २ उत्त की महत्त्वाकांक्षा शीतऋतु की रात्रि की न्याई बढ़ती चल्ली गई। उस 
ने नत्र प्तामाज्य प्राप्त कर लिया, तब उसे एक महासामाज्य स्थापित करने की आभि- 
लाषा हुईं | उस की शाक्तियें बहुत बड़ी थीं, किन्तु वे अनन्त न थीं | संसार में 
मनुष्यप्म्बन्धी काई वस्तु अनन्त नहीं हो सक्ती, तब उस की शक्तिय और उस के 
साधन अनन्त कैस हो पक्ते थे ? जहां तक नेपोलियन के जीवन का हम अनुशीलून 
कर चुके हैं, वहां तक उस्त की महत्त्वाकांक्षा उ्त की शक्तियों ओर साधनों सेन 
बढ़ी थी । किन्तु अब आंगे वह अपने जीवन के नये भाग को शुरू करता 
है। नीवन के इस नये भाग में, महत्त्वाकांक्षा, उस की शक्तियों और साधनों से 
आगे बढ़ जाती है । वह सारे पाश्चिमीय योरप का शासन करना चाहता है, किन्तु 
अपनी सेना की परिमितता ओर परकीय राष्ट्री की राष्ट्रीयता के भावों का ज॒रा मी विचार 
नहीं करता १ अब तक नेपोलियन का निबाध उठता हुवा चारेत था, किन्तु अब 
आगे उप्तका डगमगाता हुवा चरित है। उस की महत्त्वाकांक्षा,अब शक्तियों की परिधि 
से बाहिर निकल गई है | उस ने नेपोलियन की शाक्ति के तुल़े हुवे भार को 
हिला दिया है और वह एक दम डांवाडोल हो गया है । नेपोलियन ! यदि अब 
भी अपनी बेलगाम महत्त्वाकांशा को रोक सक्ते हो तो रोको ? यदि अब भी 


१४२ नेपोलियन बोनापार्ट । 


डांबाढोल होते हुवे महत्त्व को स्थिर रत सक्ते हो तो रक्‍खो ? नहीं तो न नाने 
यह निरकुशा मत्तहस्तिनी तुम्हें किस्त गंढ़े में डार देगी ! किस हिमानीमयझूर देश में 
हे जा गिरायगी ? या किस सूख ओर चुटीछे निमेक्षिक द्वीप में पहुंचा देगी ! 
किन्तु, यहां यह भी ध्यान रखना चाहिये कि नेपोढ़ियन कभी भी पहल न 
करता था, बिना झात्रु के प्रथमप्रहार के वह कमी अपना शस्त्र न चलाता था; 
अब भी उप्तको उत्तेजित करने के लिये किप्ती छेड़ छाइ की आवश्यकता थी । 
इस कार्य के लिये, नेपोलियन के विनयों का असहिष्णु इंग्लेण्ड अग्रेस्र हुआ । 
विना किसी भी युद्ध या विद्वेष के प्रारम्म हुए, इंग्लेण्ड का एक जहाजी बेड़ा, डेन- 
मार्क के किनारे के पास आ पहुंचा। उप्त बेड का अध्यक्ष सर अथेर बवेल्जली 
था, जो अभी भारतवर्ष में अपन जाहर दिखाकर आया था। उसपर ने आतेही डेन- 
मार्क के राजा के पास्त कहला भेना कि ' इंग्लेण्ड की सरकार चाहती है कि डेन- 
मार्क का बेड़ा उस के सुधु्दं कर दिया जाय | उसे डर है कि कहीं फ्रेंचसरकार 
उसे पहले काबू न कर ले । जत्र फ्रां्त ओर इंग्लैण्ड में युद्धः समाप्त हो जायगा, 
तब यह बेड़ा फिर छोटा दिया जायगा ! । डनमार्क के राना ने इस प्रकार की 
अनधिकार चर्चा का स््रीकार करना अपने ढिये अपमानभमनक समझा और अपना 
बेढा देने से निषेध कर दिया | तब, ब्रिटिश बेढ़े ने एक बड़ा ही अग्रशस्य कार्य्य 
किया । समुद्र के किनारे पर ही कोपनहेगन नाम का शहर था, उस पर धड़ाघड़ 
गोले बरसाने शुरू किये | यह कहने की जरूरत नहीं कि डेनमार्क का बेड़ा ब्रिटिश 
बढ़े का सामना न कर सका । कोपनहेगन में दों सहस्न से अधिक निरपराधी प्राणी 
मारे गये । जिन नहाज़ों ने कुछ सामना किया, उन पर भी गोले बरसाये गये। 
और यह दण्ड डेनमाकंनिवाप्तियों को किप्त अपराध के हिये दिया गया था ! 
केवछ इस लिये कि उन्हों ने एक अनधिकारचर्चा का प्रतिषेष किया था । किन्तु, 
लन्दून की केबिनट ने इस अनधिकारचर्चा के लिये यह बहाना पेश किया कि 
इंग्लेण्ण की आत्मरक्षा के लिये यह काय्ये आवश्यक था । ठीक इसी बहाने को 
लेकर, नेपोलियन ने इस से भी बढ़ कर अनपिकारचचों का कार्य प्रारम्म किया | 
पुलेगाल का राज्य बहुत ही छोटी जगह में है । किसी दिन पुर्तगाल भी 
विनयों और समारोहों में बहुत बढ़ा हुआ था, किन्तु इस समय वह बहुत हीन 
अवस्था में पड़ा हुआ था । नेपोलियन ने वहां के राजा से पूछ भेना कि “पृर्तगाल 
फ्रांस की ओर है या इंग्लैण्ड की ओर : ? पृतैगाढ के राना ने कुछ उत्तर नदिया। 


पुृतेगाल का बिनय । १४६ 


नेपोलियन ने कई सहल सेना सहित सेनापति जनों को प्रतेगाल के मीतने के लिये 
भेत्रा | वहां का अशक्तरामा उत्त सेना का सामना न कर सक्ता था । अपनी 
सारी सम्पत्ति को इकट्ठा करके, ओर परिवार को साथ लेकर वह जहाज पर सवार 
हुआ और पुर्तगाल को फ्रांसीसी सेना केहाय में छोड़ कर ब्राजील में चला गया | 
वहां भी उस्त का ही राज्य था, उसने लड़ कर मरने की अंपक्षा * अधे त्यनति 
पण्डित: ” वाढा मामला ही ठीक समझा । प्रुतेगाल का स्वामी नेपोलियन हो गया । 

पुतंगाल के पीछे स्पन की बारी आई । स्पेन में इस समय बोर्नोन वेश का 
चतुथ चालेस राज्य करता था । बो्बेन वंश नेपोडियन का नन्मशत्रु था | इस 
लिये, स्वभावत: स्पेन भी उस का विरोधी था | कई वार उध्त ने विरोध के चिन्ह 
दिखाये भी थे । इंग्लेण्ड से प्थक सन्धियें मी वह कर चुका था | किन्तु डर से कभी 
प्रत्यक्ष विरोध पर वह न उतरता था । जब कमी नेपोलियन किस्ती बड़े युद्ध में 
जाता, तब स्पेन भी अपनी सेनाये सन्नद्ध कर ठेता | उप्त की यह इच्छा रहती थी 
कि यादि नेपोलियन हार जाय तो उस पर सीधा आक्रपण किया जाय; और यदि 
वह जीत जाय तो सत्नह्ढसेना उधश्त की सहायताथ भेनी जाय । इसी प्रकार बीचा 
बीच रह कर स्पेन का राजा अपना काय्ये चला रहा था | फुीडलेण्ड वा शी विनय- 
यात्रा में, नेपोलियन ने सुना था कि स्पेन ने इंग्लेग्ड के साथ सन्धि कर ली है। 
जब नेपोलियन ने यह सुना, तब वह नींदू में था | वह उठा, स्पेन की इस सन्धि 
के विषय के कागज को पढ़ा ओर इतना कह कर सो गया कि “ सेन के राजाओं 
के स्थान में मुझ अपने वेश का कोइ राजा बनाना पड़ेंगा | ! 

उस कथन के पूरा करन का अब समय आया। इस समय सेन का राजा 
चतुर्थ चालेस था । यह राजा बड़ा ही नित्रेह तथा व्यसनी पुरुष था । सारा दिन 
शिकार खेलना या रोटी खाना-ये दो ही काय्ये थे निन्‍्हें वह प्रसन्नता से करता 
था| उप्त की रानी ल्थृशामेरिया पहले दर्जे की बेशमे ओर निन्दिताचारों वाली ख्र 
थी । असली राज्य इस रानी के एक बल्लम के हाथ में था, नि्॑त का नाम गौडोय 
था । वस्तुतः राज्य का भार इन्हीं दानों के हाथों में था । राजा भी इन के हाथों में 
राज्य सौंप कर स्वये आनन्द उड़ाता था | ऐसी अवस्था में, सेन के सर्वप्ताधारण 
निवासियों को अपने देश के राज्य की इस दुरवस्था पर शोक आना स्वाभाविक था | 
उन्हों ने रानी के बल्ढभ को एक रोज ख़ब ही मारा पीटा तथा केद कर दिया, ओर 
चतुर्थ बाढंस को तंग करके उप्त के बड़े पत्र फड़िनण्ड को राजा बनवा दिया | 


१४४ नेपोलियन बोनापार्ट । 


लोगों के अत्याचारों से डर कर ऐशप्सन्द निषेल चालेस ने सकयं ही अपना राज्य 
अपने पृत्र के नाम लिख दिया | डर से उस्त ने यह कर दिया; किन्तु अन्त को 
उस के हृदय में बहुत शोक हुआ । पश्चात्ताप में पड़ कर, उस ने नेपोलियन को 
एक चिड्ढी भेजी । उस चिट्ठी में उतत ने लिखा कि “ दबाकर मुझ से राज्य का 
त्याग कराया गया है, अतः मैं अभी अपने आप को राज्य का वास्तविक अधिकारी 
समझता हूं । में इतने दिनों तक फ्रांस का साथी रहा हूं, अतः नेपोलियन नैसे 
महान्‌ तथा उदार पुरुष से मुझे आशा रखनी चाहिये कि वह इन कड़े सम्थों में 
प्रेरा पृष्ठपोषण करेगा | ! 

बोबोन नेपोलियन के सहन्वेरी थे और नेपोलियन उन का सहनवैरी था! 
इस लिये, निसगेत: नेपालियन अपने इतना पास बोबोन वंश के राना को रहने न 
देना चाहता था । उप स्वाभाविक इच्छा में सहायता देने के लिये चालेपत का यह 
पत्र उम्त के हाथ में पड़ा । बस, उसी क्षण उस ने अन्तिम निर्चय कर हिया । 
उस ने हालेण्ड के राजा अपने छोटे भाई ल्यूहे को लिखा कि “ यदि तम स्पेन के 
रानसिंहासन पर बैठना चाहो तो आ जाओ ।? ल्‍्यूई ने इस कार्य्य में अपनी अशक्ति 
प्रकट की | तब नेपोलियन ने अपने बड़े भाई जोजफ को इसी विषय का पत्र लिखा। 
उस ने मिलान की शासकता की अपेक्षा स्‍्पन की अधीशता को अच्छा समझ कर 
स्वीकार कर लिया । यह निश्चय करके नेपालियन स्पेन की ह॒द पर, बायोन नाम- 
क नगर में पहुंच गया | वहां पर उप्त ने सेन के आसनच्युत राजा चालुस 
को, उस की रानी को ओर वर्तमान राज्ञा फर्डिनण्ड को बुलाया । उस ने उन तीनों 
को अच्छी प्रकार से समझा दिया कि अब वस्तुतः राज्याधिकार उन में से किप्ी 
का भी नहीं है। चारलेस तो स्वयं ही अपनी सिंहासनच्युति की घोषणा कर 
चुका था । शेष था फर्डिनण्ड, सो उस की माता ने कह दिया था कि वह चार्लस 
का पत्र नहीं है, किन्तु गौडोय का पूत्र है । इस हलिये उप्त का मी राज्याधि' 
कार न था । तब नेपोलियन उन के स्थान पर कोई नया राना चुनन के छिये 
ख्तन्त्र था । उन तीनों को तथा चारेप्त के ओर दो पुत्रों को गुजारे के छिये 
थोड़े २ स्थान देकर उस ने बिदा किया, ओर साथ ही स्पेन में आधोषणा करा 
दी कि * आज से सेन का राजा जोजफ्‌ होंगा ! | 

नेपोलियन का यह काय्ये आचारशाखत्र के दृढ़ नियमों के अनुकूल नहीं था, 
यह सर्वथा सिद्ध है | किप्ती अन्य मनुष्य या जाति को यह अधिकार नहीं कि 


सेन में क्रान्ति | १४५९ 


वह किसी राष्ट्र का स्वच्छन्द शासन करे। स्पेन के निवासियों को ही अपने शासकों 
के बदलने का अधिकार था और किप्ती को नहीं । किन्तु, नेपोरियन का यह अति- 
क्रामक काय्य नीति के भी विरुद्ध था । नेपोलियन के माई शासन तथा युद्ध की कला 
में वेसे ही अनभिज्ञ थे, नेता नेपालियन उन में अभिन्न था | तब जोजफ से यह 
आशा रखना नेपोलियन की बड़ी भारी भूल थी |कि वह एक दूसरी जाति को अपने 
बुद्धिबल से या बाहुबल से काबू रख सकेगा । उसे स्वयं अपनी ही सेनाओं के 
साथ जोज़फ की रक्षा करनी पड़ेगी-यह पहले से ही स्पष्ट था। ऐसी हारत में, 
शक्तियों के बैंट जाने से जिस हानि की सम्भावना थी, वह भी बहुत साफ थी । 
किन्तु नेपोडियन ने यह सब कुछ नहीं सोचा, यह उस की पहली बड़ी भारी भूल 
थी । इस भूल का फल भी उसे पीछे से ख़ब मुगतना पड़ा । अस्तु । 

जोजफ को राजा बनाते हुए. जो घोषणापत्र नेपोलियन ने प्रचारित किया, उस में 
स्पेननिवासियों को यह सुझाने का यज्ञ किया गया था कि ये सब्र परिवत्तन उन के 
भले के लिये ही किये गये हैं; पहले राजाओं के अत्याचारों के हटाने के लिये ही 
यह सारा यत्न है। यह घोषणापत्र प्रचारित करके, नेपोलियन वहां से पेरिस को छोंट 
आया । अभी वह स्पेन को छोड़ ही पाया होगा, कि वहां पर हलूचल शुरू होगई। पाद- 
रियों ने ओर पुराने दबोरियों ने साधारण छोगों को भड़काना शुरू किया । स्पेन के 
देशभक्तों का रुधिर भी इस अनधिकारचेष्टा से उबल पड़ा । सब असन्तुष्टों ने मिल 
कर स्पेन के कृषकों को तथा अन्य छोगों को ख़ब उत्तेजित किया । इस उत्तेजना 
का फल यह हुआ कि थोड़े ही महीनों में सारा का सारा स्पेन शख्र लेकर जोजफ को 
देश से निकालने के लिये उद्यत हो गया। चारों ओर विप्लव की अग्नि महक उठी । 
राष्ट्रीयागराति का फल जोज़फ्‌ को शीघ्र ही मुगतना पड़ा । स्पेन की राजधानी 
मैड्रिड के छोड़ कर वह सेनासहित पीछे को लौटने लगा। बहुत सी फ्रांसीसी सेनारये 
स्पेन के योद्धाओं से घिर गंई । सेनाध्यक्ष ड्यूपोण्ट को २० सहस्न सेना के साथ 
अपने शख््र रखने पड़े । जोजफ ने नेपोलियन को कई खत लिखे, निन में उस से 
प्राथना की कि वह शीघ्र ही उस की सहायता यत्ञ करे, अन्यथा स्पेन हाथ से 
निकल जायगा । पहले तो नेपोलियन उसे उत्साहजनक वाक्यों से उत्साह देता 
रहा, ओर चाहता रहा कि किसी तरह उस के जाए विना ही काम चल जाय, 
किन्तु अन्त को भय इतना बढ़ गया कि उसे सेनासहित स्पेन की ओर की प्रयाण 
करना पड़ा । 

१० 


१४६ नेपोहियन बोनापार्ट । 


जब नेपोलियन क्षेत्र में पहुंच गया, तब फिर किस की शक्ति थी कि उस्च की 
मति को रोक सके ! आंधी की तरह चारों दिशाओं को गुंमाती हुई नेपोलियन की 
लेना स्पेन में पहुंची । आधा स्पेन तकरीबन ५ सप्ताहों में सर हो गया । राजधानी 
मेडिड के लेने में दो या तीन दिन छंगे । वहां के निवासियों ने स्वयं ही अपने 
शस्त्र धर दिये । राजधानी को अपने वश में करके नेपोलियन आगे बढ़ा । फ्रांस 
को कष्ट में पड़ा देख कर इंग्लेण्ड ने भी “आत्मोदय: परज्यानि ह्वंय॑ नीतिरितीयती' 
के सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए ३० सहस्र सेना के साथ सर जोन मूर को स्पेन 
पं उतार दिया था । अब मेड़िड से छुट्टी पाकर नेपोलियन ने उस का पीछा शुरू 
किया । योरप के विनेता की दृष्टि अपनी ओर नुड़ी देख, सर जौनमसूर ने भी स्पेन 
को छोड़ कर भागने की ठानी । नेपोलियन उस के पीछे हो लिया । कई दिनों की 
भागामभागी के पीछे नेपोलियन सर मोन से कवर चार दिनके अन्तर पर रह गया | वहां 
पर, रात के समय, आग के पास बेंठे हुए, उस न समाचार सुना कि उसे स्पेन के 
काय्ये में व्यम्र पाकर, ओर उस की सेना को भी स्पेन में छगा हुआ देख कर, आ- 
स्ट्रिया ने फिर से इंग्लेण्ण के साथ सन्धि कर ली है, ओर सीमाप्रान्त पर सना जमा 
करना शुरू कर दिया है। इस समाचार को सुन कर, एक क्षणभर के डिये तो नेपो- 
लियन का थेय्यंवारिधि विचालित होगया, किन्तु झटपट ही अपने आप को संभाल 
कर उस ने आगे नाने का विचार छोड़ दिया | सर जोनमूर का पीछा करने का 
काय्ये सेनापति सौल्ट को सौंप कर, वह स्वयं वहीं से फरांत को छोट पड़ा | उसे 
: पेरिस पहुंचने की अब इतनी जल्दी थी, कि कहते हैं उस ने घोड़े पर चढ़े हुए 
६ घंटे में “६ मील का मा तय किये । रास्ते में सवंथा आराम न लेते हुए वह अनवरत 
गति से पेरिसि की ओर को खाना हुआ । उस की यह यात्रा, देखने वालों को 
बहुत दिनों तक याद रही । चुपचाप और चिन्ताग्रस्त मुख से छक्षित नैषोलियन को, 
सरपट भागते हुए घोड़े की पीठ पर निन्‍्हों ने देखा था, वे बहुत दिनों तक उस 
का वर्णन करते रहे । इसी असाधारण शा्रियात्रा के पश्चात्‌ २२ जनवरी के 


दिन ( १८०९ ) वह पोरिसि के राजभवन में पहुंच गया । 





चतुथ परिच्छेद । 


आस्ट्यिन-विजय-यात्रा । 
अहे दुरन्ता बलबदिरोधिता | भारति; । 

संसार में बहुत सी स्थिर वम्नुएं प्रसिद्ध हैं, किन्तु उन में से इतनी स्थिर कोई 
नहीं जितनी स्थिर जातियों की स्मृतियं होती हैं । और सब कुछ नप्ट हो जाय, 
किन्तु जातिथे अपने माथ किये गये व्यवहारों को कभी नहीं मूली | यदि एक जाति 
ने किसी अन्य जाति पर एक वार अत्याचार किया, तो वह उस का बदला लिये विना 
नहीं छोड़ती । इंग्लेण्ड के राजाओं ने, मध्यकाल में, फ्रांस के राज्य पर अपना हक 
बता कर, उस पर थावा किया; फ्रांस के निवासी इंग्लेण्ड के राजाओं की इस चेप्टा 
की आज तक नहीं भूंछे । इसी प्रकार, नेपोलियन के समय में, जर्मनी और फ्रांस में 
विरोध चछ रहा है, वह न अभी तक कम हुआ है, ओर न उस के कम होने की 
आज्ञा है। इसी प्रकार भारतवर्ष के मुसलमानों ओर आर्य्यलोगों में निरन्तर विरोध 
की देख कर भारतवप के ओर बाहिर के भी विचारक सोचते हैं, क्रि यह विरोध 
हटता क्यों नहीं ? यह प्रतिदिन बढ़ता ही क्‍यों जाता है? उन को याद रखना 
चाहिये कि मातंण्ड ऊपर से नीचे हो जाय, किन्तु जातिये कमी भी अपन साथ 
किये हुए अच्छे या बुरे व्यवहारों को नहीं भूछ सक्ती । जाति की स्मृति आकाश 
के नीले रंग के समान है,-पानी उसे थो नहीं सक्ता, मिट्टी उसे मेला नहीं कर सक्ती 
ओर समय उसे फीका नहीं बना सक्ता । 

ऐसी ही हृढ़ और अक्षाल्य स्मृति से, आस्ट्रिया नेपोलियन के विरुद्ध तुछा हुआ 
था | तीन वार, इस पुराने तथा आहत साम्राज्य का सिर, उस के शम्रप्रहार से 
नवाया जा चुका था । वह उस की पुरानी ऐतिहासिक राजधानी वीना में भी अपनी 
तोष की गज सुना चुका था । इस अपमान की आस्ट्रियन नहीं भूल सक्ते थे ! 
नेपोलियन वीर था, वह विनेता था, किन्तु इन कारणों से आस्टिया उसे क्षमा नहीं 
कर सक्ता था । जब नेपोलियन की विजयिनी सेना उसे दबने के लिये बाधित कर 
देती थी, तब वह दब जाता था; किन्तु फिर समय पाकर शीघ्र ही वह उभड़ आता 
था। इस समय भी कई कारण हुए, जिन्‍्हों ने ढेटे हुए आस्टिया की फिर से उठा कर 
खड़ा कर दिया । 





१४८ नैषोलियन बोनापार्ट । 


जैपोलियन ने स्पेन के पुराने राजा को सिहासनच्युत करके अपने भाई को उसके 
स्थान पर राजा बनाया । इस क्रिया ने न केवल आस्ट्रिया को डरा दिया, उसने उसे 
खिजा भी दिया । यदि विनेता नेपोलियन पुराने राजाओं को राजगद्दियों पर से 
उतार २ कर, अपने भाई बन्धुओं को उन की जगह बिठाने छग गया, तो एकन एक 
: दिन आस्ट्रिया की भी वारी आयगी,-यह विचार था जिसने आस्ट्रिया के राजा को 
एक दम डरा दिया । एक नये अकुलीन राजा द्वारा, एक पुराने रानवंशीय नरेश को 
पदच्युत किया जाता देख कर, पुराने वेशीय राजाओं के दिलों में खिनाहट होनी 
आवश्यक थी । आस्ट्रिया के फिर से उठने के मुख्य दा कारण ये ही थे । 

किन्तु ये दो कारण ही पद्दालित आस्ट्रिया के हाथ में फिर से शस्त्र न पकड़ा 
सक्ते थे; नेपोलियन के श्र का भय उसे इतना साहसी नहीं बनने दे सक्ता था । इस 
बाधा को दूर करने के लिये, नेपोलियन स्पेन के झगड़े में फंस गया। स्पेनमें जोज्फ 
के आसन को स्थिर करने के लिये, उसे आए्ट्रिया की सीमा पर से कई सहस्र सेना 
हटानी पड़ी । साथ ही उसे आप भी परिस छोड़ना पड़ा । इन घटनाओं ने, आ- 
स्ट्रियन नरेश फरांसिस के मन में, फिर से प्िर उठाने का साहम उत्पन्न किया । 

ये सब कारण ही आस्ट्रिया को फिर से उठाने के लिये पय्योप्त थे । किन्तु जब 
नैपोलियन ने एक और तरह से उस के घाव पर नमक डिडक दिया, तत्र तो युद्ध 
अमन्दिग्ध हो गया । स्पेन तथा टर्की के झगड़ों का फेमला करने के लिये, नेपोलियन 
और रूस का जार फिर से यफेथे में इकट्ठे हुए । दोनों नरेशों ने एक दूसर के साथ 
खूब सलाह की । सारे यारप को आएस में बांट लेने के प्रस्ताव पर बड़ा आशाजनक 
विचार हुवा | इस सम्मेलन में आस्ट्रिया के महाराज को नहीं बुछाया गया । यह 
उसका बड़ा भारी अपमान था । नेपोलियन ने यह अपमान जान वृझ कर किया 
था । इस सम्मेलन से पूर्व ही, आस्ट्रिया की सेनायें फांस की सीमा पर इकट्ठी हो रही 
थी । नेपोलियन का मन इस से सन्दिग्ध हो गया । उसेने आस्ट्रिया के राजदूत 
को इसी पर झाड भी सुनाई थी। इस सम्मेलन के हो चुकने पर, उम्र ने, आस्ट्रियन 
नरेश की एक चिट्ठी लिखी | उस में उसने साफ २ लिख दिया कि इस सम्मेलन 
में आप को न बुढाने का कारण यही था कि आस्ट्रिया की. सेना का फांस की 
सीमा पर एकात्रित होना सन्देहननक है। शायद आस्ट्रिया फरांस से फिर लड़ना चाहता 
है! । पहले से ही खिजे हुवे आस्ट्रियन नरश को उत्तेजित करने के लिये, यह 
घटना पय्याप्त थी । 


मेन्‍्य मन्नाह । १४९ 


इस सम्मेलन के पीछे नेपोलियन को स्पेन में जाना पड़ा। आस्ट्रिया को यह 
अच्छा समय हाथ लगा। महाराज फ्रांसिस का छोटा भाई आकेड्यूक चालसे आस्टि- 
यन सेना का सेनापति था । वह दो छाख सेना को लेकर फ्रांस की सीमा पर आ 
जमा । उत्त की सहायतार्थ ३ छाख ओर सेना पीछे इकट्ठी हो रही थी। इतनी 
बड़ी शक्ति को साथ लकर, आर्केड्यूक चाल्से, अपने समय के सब से बड़े योद्धा के 
साथ मुट्ठभेड़ करने के लिये तय्यार हुवा । नेपोलियन ने इस आक्रमण का समाचार 
स्पेन में सना । निस रात उसने यह समाचार सुना, उसी रात स्पेन की सेना का 
आधिपत्य अपने भाई जोज्फ को सौंप कर वह पेरिस के लिये रवाना हुवा । बड़ी 
तीत्रगति से, इस के पहले कि किसी की उस के आगमन का समाचार मिलता, वह 
ट्यूलरीम के समाभवन में आ पहुंचा । 

पेरिस में आकर, नेपोलियन ने, अपनी सीमास्थ सेना को नियमबद्ध करना 
प्रारग्भ किया | उस का यह नियम था कि वह कभी भी शत्रु पर प्रथम प्रहार न 
करता था । नब शात्र उसकी या उसके किसी साथी राजा की भूमि पर आक्रमण 
करदे, तब वह उस का सामना करने के लिये उद्यत होता था। वह अब भी, पेरिस में 
बैठा हुवा, आस्ट्रियन सेना के प्रथमाक्रमण की प्रतीज्षा करने छगा । अन्त को 
आक्रमण का दिन भी आ ही गया । रात के बारह बजे उस ने सुना कि आर्केड्यूक 
चालस ने उस के मित्र बरेरिया नरेश की भूमि पर आक्रमण किया है। एक घण्टे की 
तय्यारी के बाद वह गाड़ी में सवार हुवा, और बाण की सी तीत्र गति से अपनी 
सेना के केन्द्रस्थान की ओर को प्रस्थित हो गया । 

सेना में आकर उसने देखा कि उस की स्थिति बडी ही भयंकर है। आस्ट्रिया 
की ९ लाख सेना का सामना करने के लिये उस के पास केवछ एक छाख सेना थी। 
इस एक लाख सेना से, इतनी बड़ी शत्रुसेना का सामना तभी हो सक्ता था, यदि 
वह अपनी सारी सेना को एक स्थान में एकत्रित करके, उस द्वारा शत्रु की बड़ी 
सेना को ध्वस्त कर देता । उस ने सेनापाते बर्दियर को पोरिस से ऐसी ही आज्ञा 
भेजी थी, किन्तु उसने अपनी बाद को भी बीच में लगाते हुंवे, सारी सेना को बीसों 
स्थानों में बलेर रक्खा था | जब नेपोलियन ने अपनी सेना की ऐसी दुरवस्था देखी, 
उसने अपने सेनापाति को बहुत धमकाया । उसने कहा कि “यादि इस समय 
शत्रु की सेना में कोई भी अच्छा साहसी सेनापाति होता, तो अब तक हमारी सेना 
सव्वेथा नष्ट हो गई होती” किन्तु व्यतीत चिन्ता में समय बिताना नेपोलियन की आदत में 


१५० नेपोलियन बोनापार्ट । 


न था । उसने उसी क्षण चारों ओर फैली हुवी सेना के सेनापतियों को, बहुत ही 
शीघ्र अपने पास सेनासहित पहुंचने की आज्ञा भेजी । उस के रणक्षेत्र में रहने का 
ऐसा प्रभाव था कि केवल दो दिनों में ही कई मील की दूरी में फेली हुईं सेना 
एकल्नित हो गई । 

आकंड्यूक न, यक्तम्रूल नाम के ग्राम के पास, अपनी एक छाखसेना को हद 
तया स्थापित किया । नेपोलियन ने अपनी अदम्य सेना के साथ उस पर आक्रमण 
किया । फ्रांसीसी सेना में इस समय ९० सहख्े सिपाही थ। बमसान युद्ध प्रारम्भ 
हुआ | ५ बण्टों तक सिवाय दोनों ओर जनकदन के ओर कुछ दिग्वाई न देता था । 
दोनो ओर की तोपों ने खूब ही हत्याकांड मचाया । अन्त का, पांच बरण्ट के पीछे, 
नंपोंलियन ने देखा कि शत्र की सेना थक गई हु । तब उस ने अपनी रक्षक बुइम- 
वार सेना को, अन्तिम आक्रमण कर के, शन्नु की सेना के भगा देने के छिय भजा । 
यह रक्षकसेना, सारी फ्रांसीसी सेना का निच्रोड़ थी | सत्र सेवीर तथा कुशल 
पांच सहख योद्धाओं की यह मेना नेपोलियन न ऐसे ही समयों के लिये तस्यार 
की थी। रक्षक मना सारे योरप के छिय भयानक राक्षससना हो गह थी। जब 
कभी भी युद्ध मे उस के जबदेस्त थोड़ा की ठप सुनाई देती, आर उन की 
ने पूंदे वायु में फहराते हुवे दिखते, तब योरप में कोह ऐसी सेना नहीं 
दिल न दहछ जांय । रक्षक सेना का आक्रमण युद्ध का अन्त ममझा 
जाता था | अब भी ५ घण्ट के बमसान य्रद्ध के पीछे, नप्रोडियन न अपनी रक्षक 

न्तिम लेंस करने की आज्ञा दी। क्षण भर में ५ सहस्न इूंद्ध हवा में 

नाआ की दृष्ट उधर ही जा पड़ी, निवर स * महस्न उच्च: 
श्रवाओं की टाप सुनाई दे रही थी । इस रक्षकसेना का सामना करने के छि 
उधर से भी आस्ट्रियन रक्षक सेना के घुड़सवार सन्नद्ध हुव । इन दोनों रक्षक 
सेनाओं के आतिरिक्त ओर सारी सेना केवक दशकमात्र हो गई | दोनों ओर की 
सेनायें जानती थीं कि आज के विजय का अवरम्ब रक्षकसेना के विजय पर है 
जिधर के घडसवार जीत जाय॑ंगे, वही सेना विजेत्री हो जायगी । इस अत्यन्त 
ओत्सुक्य से उत्पन्न हुई हुईं निरचेष्टता के साथ, दोनों सनाये इस अश्युद्ध को 
देखने लगी । 

दोनों दो में जो धोर युद्ध चछा, वह लेखनी द्वारा वार्णत नहीं हो पत्ता | 
फ्रेंच रक्षक दल, बीसों रणक्षेत्रों पर प्राप्त की हुई नीतों से गर्वित और अपने नायक 


म 
स्‌ 


मै 


यकूमूछ की लड़ाई। १५१ 


की अदम्यता से उत्साहित होकर, अनहोनियों को होनियें बना रहा था । आए्ट्रि- 
यन रक्षकदल भी, निराशा ओर अवमानता से खिन्न हो कर, भूखे शेर की तरह 
लड़ रहा था । कई वर्ण्ये तक बड़ा ही भयानक अश्युद्ध हुआ। किन्तु अन्त में, 
आधे से ज्यादः काटा जा कर आस्ट्रियन दर घबरा गया । घबरा कर उसने अपने 
ब्रोड़ों की बागें पीछे को मोदी ओर सारी समरभूमि महाराज जीवित रहें! के विनय 
सृचक नाद से गुब्जायमान हो गईं । रक्षकद॒ल के पांव उखड़ते देख कर आसः्ट्रियन 
सेना के भी दिल टूट गये । आकेड्यूक चालस अपनी सेना को पीछे हटाता हुवा 
डन्यूब नदी के पार छे गया | नेपोलियन को पोरिस से चले अभी केवढ् १२ दिन 
टी हुवे थे । इसी बीच में उसने पेरिस से डन्यूब के *चका रास्ता तय किया, 
विखरी हुईं सेना को एक स्थान में इकट्ठा किया, ओर अन्त में सारी प्रबल आएि- 
यन सेना को यक्मूल पर ऐमी शिकस्त दी कि जिस की उपमा इतिहास में बहुत 
थोड़ी मिलती है। महाराज नपोलियन की अपरिमेय शक्तियों का यह एक छोटा 
सा नमूना था। 

आकेड्यूक ने अपनी पराजित सेना के साथ डन्यूब नदी को पार करके, 
बोहीमिया के नंगे में शरण लेने का विचार किया । धीरे २ किन्तु पद २ पर 
सामना करता हुवा वह पीछे को हटने छगा । रोटिस्बन नामक नगर में दोनों 
सेनाओं का बड़ा घोर युद्ध हुवा | गलियों में ओर बानारों में फ़रांसीसी तथा आ- 
स्ट्रियन खूब लड़े | इसी नगर पर आक्रमण का प्रबन्ध करते हुवे, नेपोलियन के 
पांव में एक बन्दूक की गोली आ लगी। पैर की एड़ी का निचछा थोड़ा सा भाग उस 
गोली से छिछ गया । जब सेनामें नेपोलियन के आहत होने की ख़बर पहुंची, तब 
शोर मच गया । सारे सिपाही अपने प्रिय सेनानी के चारों ओर खड़े हो गये । 
नैपोलियन के पैर में झटपट पट्टी बांधी गई । चोट कुछ गहरी थी, तथापि सेना को 
प्रोत्माहित करने के लिये, नेपोलियन घोड़े पर चढ़ कर फिर युद्ध का प्रबन्ध करने 
लगा । नगर थोड़ी ही देर में ढेलिया गया, और आकंडयूक नदी के पार 
चला गया । 

इस समय यक्‍्मूल का विजेता आस्टिया की राजधानी वीना से २०० मील 
की दूरी पर था । वीना डन्यूब के उत्ती किनारे पर था, जिप्त किनारे पर इस समय 
नेपोलियन था । यद्यपि वह इस समय जीत गया था, तथापि बड़ी चिन्तनीय दशा 
में था। उस के चारों ओर शत्रु ही शत्रु थे। कहाँ अग्रेंन सेना और कहीं आस्ट्रियन 


१५२ नैषोलियन बोनापार्ट । 


सेना-बस चारों ओर उस के शत्रु की ही सेना दिखाई देती थी । इस समय सारा 
योरप समझता था कि या तो वह फिर आकंडब्ूक से छड कर आगे बढ़ेगा या वहीं 
ठहर कर शन्नु के आक्रमण की प्रतीक्षा करेगा | किन्तु यह कोई न सोच सक्ता था 
कि वह अपने पीछे शत्रुओं के समूह को छोड़ कर सीधा वीना को ही चल देगा । 
किन्तु, और लोगों के लिये जो कुछ असम्भव था वही नेपोलियन के लिये सम्मव था । 
उसने न आगा देखा न पीछा-सीधा वीना के प्रति प्रयाण प्रारम्भ किया । उसने 
अपने मन्त्रियां से कहा था कि * आस्ट्रिया को दबाने का एक यही रास्ता है कि 
उसकी राजधानी से ही उस का शासन किया जाय” बड़ी तीत्रगाति से सारी सेना के 
साथ वह राजधानी की ओर को प्रस्थित हुवा । रास्ते में कई स्थानों पर दोनों दलों की ' 
मुद्ठभेड़ हुईं; कई जगहों पर छोटे २ युद्ध हुवे; किन्तु उन सबमें जीतती हुई फुँचसेना 
के झण्ड, १० मई ( १८०९ ) के दिन, वीना नगर की दीवारों के सामने फह- 
राने लगे । 

नेपोलियन के पास पहुंचने का समाचार सुन कर, महाराज फ्रांपिस तो, अपनी 
सारी साम्राज्यलक्ष्मा को छोड़ कर, सात नो ग्यारह हो गये थे । फेंच सेना ने, नगरमें, 
महाराज के स्थान में, नगर के अध्यक्ष आकेडबूक मेक्सिसिलियन को पाया। 
नेपोलियन नहीं चाहता था कि ऐतिहासिक तथा प्राचीन वीना की दीवारों पर गोला 
बारी की जाय | इस लिये, उस ने, आकंडयूक के पास कहा भेजा कि ' यदि तुम 
नगर के दरवाजे फांसीसी सेना के लिये खोल दोगे, तो दीवारों को गोली से छेदने 
की आवश्यकता न होगी । योरपभर के पुरातन नगरों में से वीना भी एक है । इस 
के प्रासादों का ध्वेस करना मुझे अभीष्ट नहीं | इस लिये, यहीं अच्छा है, कि तुम 
द्वार खोल दो ” किन्तु मेक्सिमिलियन इन सलाहों को सुननेके लिये तय्यार न हुआ। 
शहर के अन्दर गोलाबारी शुरू हुईं | दस घण्टों तक बराबर तोरपों के मुंह खुले 
रहे । चारों दिशाओं में, अप्नि की ज्वालाओं और धूंए की धाराओं के प्िवाय कुछ 
दिखाई न देता था । जिस तरफ को गोले फेंके जा रहे थे उधर ही आस्ट्रियननरेश 
की लड़की बीमार पड़ी हुईं थी । जब नेपोलियन को इस बात की सूचना मिली, 
तब उसेने तोपों का मुख शहर के उस भाग की ओर से मोड कर दूसरी ओर 
को कर दिया । 

आलछिर कई घरोंका तथा प्रासादोंका सत्यानाश कराकर, आकेड्यूक मेक्सिमिलि- 
यन ने नगर के द्वार खोलनेका वचन दिया । नगर के द्वार तदनुसतार खोल दिंये गये। 


वीना का स्वामी होगया । १५३ 


सारा राजकोश तथा सांम्रामिक सामान विजेता के हाथ पड़ा । राजकीय प्रासाद में, 
महाराज नेपोलियन ने, अपना डेरा डाल दिया । सेना को यह कठोर आज्ञा दी 
गईं, कि वह शहर के किसी निवासी की सम्पात्ति या कलत्रादि को न छुए । चारों 
ओर कटोर नियमों का बन्धन रक्खा गया । शहर के निवासियों को कष्ट न हो; 
इस लिये विनेता ने अपनी सेना के लिये भोज्यादि पदाथ भी बाहिर से ही मंगवाये । 
इस प्रकार, नेपोलियन ने, अपनी दिगन्तविस्तारिणी कीत्तिनदी में वानाविजय का 
एक ओर स्रोत मिला दिया। 

नेपोलियन इस समय आस्ट्रिया की राजघानी में था । किन्तु वह सुरक्षित 
अवस्था में न था । करोड़ों की आबादी वाले विज्ञातीय देश में, केवल एक छाख सेना 
की सहायता से रहना कोई सहलू काय्य न था। विशेषतया ऐसी अवस्था में, जब 
कि डन्यूब नदी के परले किनारे, आकेड्यूक चालंस, एक लाख के समीप सेना 
के साथ, युद्ध करने के लिये तय्यार खड़ा था | अब, वीना को लेने के पश्चात, 
सब से प्रथम काय्य जो नेपोलियन को करना था,वह आर्कड्यूक की सेना का ध्वंस था। 
अपने एक साचिव को वीना का शासक निश्चित करके, सेनासहित अदम्य जेता 
डन्यूब नदी के तट पर आ जमा | 

वीना नगर के कुछ नीचे जाकर, इन्यूब में एक ऐसा स्थान था, जहां पानी कुछ 
कम गहरा था, तथा उसका वेग भी कुछ कम था । नदी का जो असली पुल था, 
उस श्र ने उड़ा दिया था | नेपोलियन ने, उसी ओछे पानी की जगहसे, नदी के 
पार करने का संकल्प किया । यद्यपि, वहां पानी गहरा कम था, तथापि उसका 
विस्तार बहुत था,-तकरीबन ९, ० ० गज पानी गुजर कर फिर फ्रेंच सेना पार पहुंच सक्ती थी। 
नदी के बीच में लोब्यू नाम का एक द्वीप था। वह द्वीप कोई तीन मील चोड़ा था । 
उस से नदी के दो भाग होते थे | उसी स्थान को पार करने के योग्य समझ कर, 
नेपोलियन ने किश्तियों के पुर तय्यार कराने शुरू किए । 

थोड़े दिनों में पुलो का सारा सामान तस्यार हो गया । १९ मई की रात के 
समय, सेनाओं ने पार उतरना शुरू किया । आस्ट्रियनसेना नदी से पांच मील की 
दूरी पर पड़ी थी। उसे फ्रेंच सेना के पार उतरने का समाचार प्रातःकाल पहुंचा । 
आर्कंड्यूक चारुसने यह समाचार सुनते ही, अपनी सेना को आज्ञा दी किवहभाग कर 
फ्रेंच सेना के पार उतरने को रोक दे । बड़ी तीज्र गाते से आस्ट्रियन सेना नदीतट 
के पास पहुंच गई । आस्ट्रियन सेना के वहां पहुंचने से पृषे, २० सहल फ्रेंच सिपाही 


१५४ नेपोलियन बोनापार्ट । 


एक छोटे तोपख़ाने के साथ पार पहुंच चुके थे । इस २० सहत्न सेना ने, नदी के 
तट पर के दो ग्राम काबू कर लिये थे। आस्ट्रियन सेना उन्हीं पर टूट पड़ी | बड़ा 
अमप्तम युद्ध प्रारम्म हुआ । एक छाख आस्ट्रियय २० सहस्र फ्रेंच सिपाहियों पर 
आग बरसा रहे थे। किन्तु शिक्षित मिंही की न्‍्याईं, अदम्य वहती सेना, अपने स्थान से न 
हिली । सेनापाति लेनस ओर मेस्सीना ने विशिप वीरता का परिचय दिया। इधर तो यह 
अम्तम युद्ध हो रहा था, ओर उधर उन्यूब पर बनाये हुए पुल का एक ठुकड़ा टूट गया । 
आस्ट्रियन सेना ने, ऊपर से बड़े २ वक्ष और अन्य मारी २ वस्तुएँ तेरानी शुरू की । उनकी 
टक्कर से सेतु का एक पक्ष धथक होगया । इसका समाचार जब फ्रेंच मेना में पहुंचा 
'तब जो निराशा वहां फेडी होगी, उसका अन्मान हो सक्ता है।विना ऑर सेना के 
आये अब २० या २५ सहस्र प्रीच सना का जीते रहना भी कठिन था । दूमेरे 
दिन पुल्ठ का टटा हुआ हिस्सा बनाया गया, किन्तु पानी के चंद़ाव से दूसरी वार 
सारा का सारा पुल बह गया। अब ता फ्रेचसेना बहुत हा विपदा मे पढ़ा । 
किन्तु वही मुंद्ठी भर सेना दो रोज तक बराबर एक छाख आस्ट्रियन सिपाहियों 
दांत खट्टे करती रही । वे दोनों गांव, सारी शत्रु सेना, अपने सारे तोपसान 
सहायता से भी, लेसकी ? यह युद्ध, नपोडियन की सेना के कई विनर्यों में भी 
अधिक गोौखयुक्त था । 

आगिर दसेरे दिन की रात आई । नदी के दूसरे पार पड़ी हुई सेना से अब 
किसी तरह की सहायता की आशा नहीं रही थी। ऐसी अवस्था में, सृष्टिमिय फ्रेंच 
सना, किस प्रकार से निरन्‍तर युद्ध कर मक्ती थी ! थ सब विचार कर के रात ही 
राद में सारी सेना इन्यूब के छोटे हिम्मे को पार कर के छोव्यू द्वीप में आगई । 
इम द्वोप में शत्रु की तोपों के गोछे नहीं पड़ सक्ते थे | इस स्थान को रक्षित समझ 
कर, नेपोलियन ने वहीं पर डेरा जमाने का विचार क्रिया । द्वीप में उपनेवेश डाल 
दिये गये । सेना के एक बढ़े भाग को वहां टिक्रा कर, महाराज ने कई बहुत हृढ 
तथा तिस्तृत पुरों की तय्यारियें शुरू की । इस वार ऐसे एल बनाने का सामान इकट्ठा 
किया गया, मो पानी के बढ़ने से या क्रिसी छोटी मोटी चीज्ञ की टक्कर से न टूट सकें 
इस प्रकार के चार पांच खब चोड़े २ पुल बना कर, ४ थी जुलाई की रात को नदी 
पर तान दिये गये । रात ही रात में, गुप्त रीते से, ७० हज़ार सेना नदी के 
परले पार पहुंच गई | आकंड्यूक के लिये यह आश्चर्य तथा विस्मय के उत्पन्न 
करने वाढी बात थी | वह भी लड़ने के लिये तय्यार तो पहले से हो रहा था, 


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2 ५३ 


रू १ 


वाग्राम का युद्ध । १५५ 


किन्तु उसे यह सम्भावना न थी के इतने शीघ्र नेपोलियन की इतनी बड़ी 
सेना पार उतर आयगी | 
दूसरे दिन प्रातः काछ ही, छोटी २ लड़ाइये प्रारम्म हो गई । किन्तु दिन भर 
गे३ बड़ा युद्ध नहीं हुआ । दोनों सनाये दूसरे दिन के अन्तिम सेग्राम के लिये 
य्यार हाती रहीं। सारी रात रणक्षेत्र पर ही गुजार कर, दसरे दिन प्रभात होते ही, 
| वृहती सेनाये भि्ट गई । वाग्रास का प्रसिद्ध युद्ध प्रारम्म हुवा । युद्ध का 
विस्तृत वशन करना असम्भव है । इतना कहना पयाप्त है कि आस्ट्रियन सेना फ्रेंच 
सना से दगनी थी, नेपोलियन के सेनापतिया में से दो सवथा निकम्मे हा गय थे । 
लेनम मरगया था; और बेम्सीयस बोड़े पर से गिरने के कारण सवंधा अशक्त हा 
गया था। इतनी न्यूनताओं के होने पर भी, सायकाल होने पूर्व ही आम्द्रियन सेना 
पीठ दिखा कर भागी जाती हुई दिखाई दी। न॑पालियन ने ऐसी व्यहरचना की थी कि 
आस्ट्रियन सना की अधिक संख्या किसी काम न आसक्ती थी। सेनापाति सेकूडानल्ड 
की आज्ञा दी गई कि वह अपनी परेदल सेना के साथ शजत्र सेना के एन मध्य मे छिद्र 
कर दे । एक चढायमान चट्टान की तरह, तोपा की श्रोणि के पीछे ९, उम्र की 
पंदल सना शत्रु के मध्य में वुमन लगी । ऊपर से आग बरसती थी, चारों ओर में 
गोलियिं बंध रही थीं, किन्तु मेक॒डहानल्ड की पदल सेना निरन्तर बदती चली गई 
ज्यों ही नेपोलियन ने दखा कि पदुल सना ने शात्रदरू के मध्य में छिद्र क 
उसे दो भागों में विभक्त कर दिया है, त्योही उस ने सेनापाति डीवू की आज्ञा 
कि वह एक पाश्वे पर आक्रमण करे। पाझ्वे पर आक्रमण होने से, ज्यों ही शात्रु 
सन्‍य में खत्बढी पड़ी, त्यों ही नेपोलियन ने अपनी तेज कटार रूपी रक्षकसना श्र 
पेट में बुसेड़ दी । नेस शेरके अन्दर आ पड़ने से भे्ठ बकरिये जहां स्थान पाती 
भाग निकलती हैं, इसी प्रकार रक्षकदल के प्रहार होते ही, आस्ट्रियन सेना भी 
चारों दिशाओं में बिखर गई । संग्राम जीत लिया गया। नेपोलियन अब आम्ट्रिया का 
अनिवाये स्वामी हो गया । 
इस युद्ध के पश्चात्‌ ही, आस्ट्रियन नरेश ने, सन्धि के ल्यि प्रार्थना भेजदी । नेपो- 
लियन ने उसे झट पट स्वीकार कर लिया । वह केवल शक्ति ओर शान्ति चाहता था, 
उसे संग्रामों की विशेष आवश्यकता न थी । थोड़े दिनों में ही सन्धि की शर्तें 
स्थिर हो गईं, और नेपोलियन पेर्सि को छोट पड़ा । किन्तु लोटने से प्रथम, आस्ट्या 
के भविष्यत्‌ विराध की कम करने के लिये, उस ने, वीना के चारों ओर के पूराने 


है। धन । हु 


4 


> /777 हि मे के आ। 


१९६ नेपोलियन बोनापार्ट । 
प्राकार को गिरा दिया । इन्हीं दिनों में, उस ने, रोम के पोप को भी पदच्युत कर 
के कैदी कर लिया, क्योंकि वह नेपोलियन के कथनानुसतार अपने बन्दरगाह ब्रिटिश 


जहाजो के लिये बन्द न करता था । 
इस प्रकार नेपोलियन की यह आस्ट्रियन विजययात्रा समाप्त हुईं । 


पञ्मचमपरिच्छेद । 


फांस का शासन ४ 
से वेल(वप्रवल्यम्परिखक्तसागग्मू । अनन्यशासनन्देशं शशासकपुरोपमम्‌ । (परिवर्तित)। कालिद!सः । 

नपालियन विनिता था, साथ ही वह शासक भी था । उस के विनयों के समाचार 
हम सुन चुके, अब शासन पर भी दृष्टि डालना निरथक न होगी। गत चार वर्षोतक, वह 
प्रायः युद्धक्षेत्र में ही रहा । पेरिस में आकर निवास करने का उसे बहुत ही थोड़ा समय 
मिला | जब कमी वह पोरिस में आकर बठा,तब भी बाह्य शत्रुओं ने उसे चैन नहीं लेने दी। 
इस अवस्था में, यह स्पष्ट ही प्रतीत होता है कि वह फ्रांस का शासन कुछ न कर सका 
होगा । किन्तु, यह स्पष्ट परिणाम ठीक नहीं हैं। यह परिणाम ठीक होता, यदि 
नेपोलियन केवछ साधारण शक्तियें रखने वाला मरृप्य होता-यदि उसके असाधथा- 
रण शरीर में असाधारण मन न धरा हुवा होता। किन्तु ऐसा नहीं था। वह अनन्य- 
साधारण शक्तियों से युक्त मनुष्य था। उस के लिये युद्धों में विजय यदि 
दाये हाथ की खेल थी, तो फ्रांम का शासन बाये हाथ की खेल से अधिक नथा । 
पेरिस से पन्द्रह २ सो मील दूरी पर बेठे हुवे, और सांग्रामिक चिन्ता में व्यस्त रहते 
हुए भी, वह फ्रांस का उसी तरह शासन किया करता था, जैसा अपने ट्यूछरीज के 
कार्य्याह्य में | यदि उस का इन पांच वर्ष के विनयों का वर्णन कई मनुष्यों के 
सांर जीवनों के विजयों के वणन के समान हे, तो उस की शासन कथा भी कुछ कम 
विस्तार वाढी नहीं | नेपोलियन की वह शक्तिरूपी नदी, जो दिग्विनय के लिये 
बहती हुवी चिरनिर्मित सामाज्यों को उख्ाड़ती और शासकों को उन्मूलित करती 
हुईं दिखाई देती थी, अपने घर में शीतलमलूवाहिनी ओर सर्वतापदाहिनी गंगा के 
समान प्रतीत होती थी । उस की वह तेजो रूपी बिद्युछता जो बाह्य संग्रामों में 
शत्ुसन्यों के महान्‌ पतों की चोटियों को गिरा २ कर चकनाचूर करती हुई 
चमकती थी, फ्रांस के घरों में पंखों के चलाने वाही ओर भोजन के तय्यार करने 
वाली जीवनशक्तिदायिनी अलक्तरसता अनुभूत होती थी। सारांश यह कि नेपो- 
लियन का शासन वैसा ही शान्तिदायी था, मैसा भयानक उसका विभयप्रसंग था । 

इस बात को नेपोलियन के शत्रु भी स्वीकार करते हैं कि उस की शासनयोग्यता 





१५८ नैषोलियन बोनापार्ट । 


बहुत ऊंचे दर्जे की थी। उस के शासन का हर एक काय्ये फ्रांस की शान्ति तथा 
समृद्धि के लिये था। यदि जरा ध्यान से उस के जीवन के कार्य्यों पर दृष्टि डाली 
जाय, तो प्रतीत होता है कि उस ने अपने सामने दो मुख्य उद्देश्य रक्खे हुए थे । 
प्रथम उद्देश्य फ्रांस में अपने राज्य को शान्ति तथा समद्धि द्वारा स्थिः करना और 
दूसरा उद्देश्य फ्रांस के साम्राज्य को विस्तृत करना था । फ्रांस के साम्राज्य को स्थिर 
करना कोई छोटा मोटा काय्ये न था । वह राजकुलीन नरेश न था किन्तु जाति 
का पत्र था; जाति ने उसे सत्राट्‌ बनने के योग्य समझा ओर बना दिया । अपनी 
योग्यदा और अपनी वीरता से वह राजा बना था, राजवंश में उत्पन्न होने के कारण 
वह राजा नथा । तब उसका साम्राज्य स्वभावतया स्थिर न था, उस के सिर का मृकट 
वैसी ही चलायमान इशा में था, जेंसे एक पत्मपत्र पर जलका विन्दु हुआ करता है। जन 
साधारण को हर एक सम्मति ओर हर एक कार्य क्षणिक मोजपर स्थित रहते हैं। 
ज्ेस वर्षाऋनु में क्षण २ के पीछे प्रकृति अपन रूप बदलती है, वमे ही जनसाधारण 
की मम्मतिये भी बदलती रहती हैं। नंपॉडियन जनसाधारण की उस सम्माति को 
स्थिर करना चाहता था । इस स्वमाव में विरुद्ध कास्ये के करने के लिये, असाधारण 
यत्न तथा किकनतव्यता अपेक्षित थे । नंपोलियन उन दोनो में कुछ दूर तक कृत 
कार्य हुवा | बहुत सम्भव था कि वह पूरी २ क्ृतकाय्यता को प्राप्त हो जाता, 
किन्तु उस सम्भव का समय आने से पत्र ही उस से एक बड़ी भारी गछती होगई । 
विशेधिरूपी मेघ असमय में ही उमड़ आया और उस के जमते हुवे साम्राज्य- 
प्रासाद को मिलियामेट कर गया । 

अपन सामाज्य को स्थिर करने का सब से प्रधान साधन वह यह समझता था 
कि अपने बल से प्राप्त किए हुए शासन को वह ढोगों के मनों में उसी प्रकार से 
जमादे, जिस प्रकार एक राजवंशीय शासक का शासन जमा रहता है। 
हर एक इतिहासज्ञ आंखें मूदूकर भी यह कह सकता है, कि उस समय फ्रांस को 
यदि किसी भी वस्तु की आवश्यकता थी, तो वह दृढ़ स्थिरता की थी। 
क्रान्तिरूपी पारवितंन ने उसकी पुरानी सैस्थाओं का समूलछ नाश करदिया था। 
पुराने केंटीले वक्ष उखड़ चुके थे । अब उद्यानको नये मुहावने तथा हृढ़ वर्गों की 
आवश्यकता थी । परिबर्तनप्रधान अवस्था में रह कर फ्रांस पर्याप्त शुद्धता को पा चुका 
था | अब उस दशा के हटाने का समय था । फ्रांत की उन्नति के लिये भी ओर 
योरप के अन्य राज्यों के लिये भी, अन्न फ्रांस का स्थिर शासन के नीचे आजाना 


शक्ति की स्थापना । १५९ 


ही अच्छा था । इस लिये ऐसा कोई भी विचारक नहीं हो सकता, जो नेपोलियन 
के इस उद्देश्य के साथ सहमत नहो । 

साम्राज्य स्थिर करने के ल्यि, सब से पृवे, क्रान्ति के सब चिन्हों का दूर 
करना आवश्यक था । नेपोलियन ने इस कार्य्य को भी वैसी ही बाद्वैमत्ता से किया, जैसी से 
वह रणक्षेत्र में अपनी सेना को चढाता था । सर्वसाधारण द्वारा नियामकसभा या 
शासकसभा के चुनाव से बढ़ कर क्रान्ति का चिन्ह ओर कोई न था । सर्वस्ाधारण- 
प्रजा सालमर खाने पीने ओर पहरने के सिवाय ओर क्रिसी चीज की परवा नहीं 
करती । उस की तीन प्रकार की आवश्यकतायें पूरी करदों ओर वह तम्हारे शामन 
की अगुमात्र भी परवा नहीं करते । ऐसी शान्तदशा में स्थित प्रजा को शासक- 
समा के चुनने के लिये इकट्ठा किया जाय, ओर फिर हरएक दल लोगों को अपना २ 
पक्ष सुझ्नाये, तब समझा जा सक्ता है कि परिणाम क्या होगा ? यदि सर्वसाधारण 
शिक्षित हैं, तो वे शान्ति की उचित सीमा में रह सकेंगे; किन्तु यदिवे अशिक्षिन तथा 
अज्ञ हैं, तो जो सब से अधिक भइकाने वाली बातें उन्हें सुनायगा वे उसी का कथन 
स्वीकार करेंगे । क्या क्रान्ति के फेल्यने वार इस से बढ़कर काई कारण हो प्क्ता है: 

नेपोल्यिन ने फ्रांस की साधारणप्रना को अशिक्षित पाया, अतः उसने सर्व- 
साधारण के चुनाव की रीति को उड़ाना चाहा । जिस अशुद्धि को कर के सोलूहवे 
ल्यूई ने फ्रांस की शान्ति और अपने जीवन को इकट्ठी तिलाब्जालि दे दी थी, वही 
अशुद्धि नेपोडियन फिर से न कर सक्ता था | पहले जब वह प्रथम शासक हुवा, तब 
उसंन यह नियम रखाया कि स्वसाधारण में से कुछ व्यक्तिनिर्दिष्ट कर दिये जाया 
करें, फिर उन में से नियामकपरिषद्‌ या शासकपरिषद्‌ के समासद्‌ चने जाते थे । 
फिर जब वह सत्नाद्‌ बन गया, तब तो सोरे चुनाव का आधेकार ही उसे था। 
इस प्रकार, यद्यपि उसने क्रान्ति की दी हुईं कई शक्तियें सबंसाधारण से छीन लीं, 
तथापि शक्ति स्थापना के लिये ऐसा करना आवश्यक था । जो देश क्राति से किरुद्ध 
थे, और उस के विरुद्ध अपनी सेनाएं भेज रहे थे, उन्हें नेपोलियन के इस कार्य्य से 
प्रसन्न होना चाहिये था । किन्तु, ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें किसी सिद्धान्त से 
डर न था, वे केबल फांस की बढ़ती से डरते थे । निस मुख से वे कल क्रान्ति पर 
गाश्यिं की बोछाड़ कर रहे थे, उसी मृख से आज वे नेपोलियन को अत्याचारी 
की उपाधि देने लगे। 

दूसरा कार्य्य नेपोलियन ने स्रह किया कि नियामक्रपरिषद्‌ (:4७०४/८) को 


१६० नैपोलियन बोनापार्ट । 


उड़ा दिया। १८०७ में, जब टिल्सिट की साथ्धिके परचात्‌ वह फ्रांस में आया, तब उस्त 
ने शासकसभा में ही नियामक सभा के भी सभासदों को मिला दिया । इस प्रकार से, 
शासनकाय ये को सहल करने के अतिरिक्त शासन का एक अनावश्यक अंग काट दिया गया। 

पुराने राज्यों की स्थिरता का एक बड़ा भारी कारण उनका धार्मेक उपजन 
होता है। हर एक राज्य अपने साथ किसी न किसी धर्म का सम्बन्ध बनाये रखता 
है । मध्यकाल में राज्य का उद्धव ही ईश्वर से माना जाता था । यह भाव केवल 
हमारे यहां के मन्वादिय्रन्थों में ही नहीं मिलता, योरप में भी प्रायः सवंत्र यही 
भाव विद्यमान था | पुराने राज्यों में रानतिह्क के समय भी धम्मोचार्य्यों का ही 
आशीवाद आवश्यक समझा जाता था । इस पुरानी रीति तथा भाव से, नेपोलियन 
पूरा छाभ उठाना चाहता था । अपने साम्राज्य की स्थिरता के लिये वह धर्म का 
आश्रय आवश्यक समझता था । इसी लिये, अपना रामतिलक उसेने स्वयं पोपक हाथ 
से करवाया। इस असाधारण मनृप्य की स्मी बाते असाधारण थीं। पोष का स्वयं 
पेरिस में आकर इसके सिर पर तान रखना एक नई घटना थी । फ्रांस देश का भी 
रोमन केयोलिक धर्म उमने आधोपित कर दिया था | यह कहना सर्वथा ही सत्य- 
शून्य होगा कि वस्तुतः उसे रोमन कैंथालिक पर्म्म से कोई प्रेम था | यह सारी उस 
की राननेतिक चाल थी, जिम का उद्देश्य अपनी स्थिरता द्वारा फ्रांस की सामाजिक 
स्थिति की रक्षा करना था । 

धर्म के पर्चात्‌ , साम्राज्यों का दूमरा आश्रय कुदीन छोग होते हैं । हरएक 
पुराने वंश के राजा के चारों ओर व्शिष २ कुलों का समूह एकत्रित होता है, जो न 
केवल राजा के कार्य्यों के उत्तरदातृत्व को बआंटता है, कष्टममय में उस का सहायक 
भी होता है। यदि धर्म साम्राज्यरूपी प्रामाद की ईटें के जोड़ने वाढ्य चूना है, तो 
यह कुलीन जनसभूह उस के धारण करने वाढी स्तम्भमाला है। स्तर्म्मों के बिना, 
किसी भी मकान का स्थिर रहना अप्रम्भव है । फ्रांस के पुराने सब बड़े २ वंश 
क्रान्तिरूपी वजूपात से चक्रनाचूर हो चुके थे, इसलिये नेपोलियन के लिये एक नई 
कुढीनभ्रणि का तय्यार करना आवश्यक था | अतः उस ने बंड़े २ वीरों, वि- 
द्वानों तथा कल्ामिज्ञों को सम्मानित कर के अपने सहायक बनाने के लिये (.८2४07 
० ०7०४०) छीजियन आव आनर की स्थापना की । इस उपाधि को प्राप्त करके, 
प्राप्त करने वाला फ्रांत के नवीन साम्राज्य का वैसा ही सहायक बन जाता था, 
जैसा पुराने साम्राज्य का सहायक पराना कुलीन होता था । 


नेपोलियन-स्माति । १६१ 


साम्राज्य की स्थिरता के ये सब साधन थे, किन्तु ये सब कुछ भी नहीं कर 
सक्ते जब तक प्रजा सुरालित तथा समृद्ध अवस्था में न रहे । साम्राज्य के स्तम्भ 
तथा चूने कितने ही हो जांय, उन से वह स्थिर नहीं हो सक्ता । साम्राज्यों की 
जड़ प्रजा की रक्षा तथा समृद्धि में हे। सवंस्ताधनसम्पन्न सम्राट्‌ भी अपने सिंहासन 
पर स्थित नहीं रह सक्ता, जब तक उस के साम्राज्य में रक्षा तथा समृद्धि नहों । 
रक्षा तथा समृद्धि की कमी ने ही फरांस में बोबोंन वेश का नाश किया, और उसी 
ने ही क्रान्तिरपी अग्नि को प्रज्वाछित किया । अतः, नेपोल्यिन का सब से मुख्य 
काय्य देश में शान्ति तथा सम्पत्ति की वृद्धि करना था। शान्ति तथा रक्षा की स्था- 
पना के लिये, उस ने नेपोलियन-स्माति (2००९ !९०००००॥) की रचना करवाई । 
इस स्मृति द्वारा, फांस के राजनियमों का बहुत ही संशोधन तथा सरढीकरण हो 
गया | यह बात सभी विचारकों द्वारा स्वीकृत है कि यह स्मृति नेपोलियन के ही 
सिर की क्ति थी। उस के महत्त्व से इंप्यों रखने वाले कई लेखक, इस स्मृति के 
बनने में, नेपोलियन के भाग को उड़ाना चाहते हैं । वे कहते हैं कि इस स्मृति के 
बनाने वाले तीन या चार वकील थे, जिन्हें नेपोलियन ने इस कार्य में नियुक्त किया 
था । उस का अपना भाग इस से बहुत न था । उन महाशायों से हम यह प्रश्न करेंगे 
कि क्‍या आध मेरेम्नो ओस्टर्लिंट्स और वाग्राम के विजय में भी नेपोलियन का कुछ 
हिस्सा मानते हैं या नहीं ? यदि मानते हैं तो कृपया बताइये कि वहां क्या नेपो- 
लियन ने स्वयं तोर्ष चलाईं थीं! क्या आप के ही तक॑ के अनुसार वे विनय भी उस 
के सेनापतियों के ही न थे ? किन्तु वस्तुतः बात यह है कि क्या स्मृति के बनाने 
में और क्या युद्ध के विजय में, जिस्त की बुद्धि तथा सलाह से सब काम होते हैं, 
उन का का वही कहा जाता है । इस स्मृति की रचना के लिये, वह कार्य्य में 
लगाये हुए वकी्ों के साथ कभी कभी दस २ घण्णे तक विचार किया करता था । 

इस स्माते से केवल फरांस के ही -राजनियम संशोधित हुवे हो ऐसा नहीं, 
आन सारे सम्य देशों के राननियमों पर नेपोलियनस्माति की मुहर छगी हुई है । 
दायभाग के नियम सब देशों में प्रायः नेपोलियन स्मृति के अनुकूल ही बनाये गये 
हैं। फांस में तो आज तक वही स्मृति प्रचलित है । यह अदूमुत राजनियम 
संग्रह, इस अदभुत मरुष्य की स्वेव्यापिनी अदभुत शक्तियों का परिचायक था । 
साथ ही इस ने देश में न्याय के सुधार द्वारा शांति स्थापना कर के नेपोलियन के 


सामाज्य को दृढ़तया स्थापित किया । 
११ 


१६२ नेपोलियन बोनापार्ट । 


इस स्मति के अतिरिक्त, नेपोलियन ने ओर बहुतसे सुधार फांस में किये । 
पुठीस के विभाग को दृढ़ किया, ताकि देश में लुट मार का बाज़ार सदे हो; 
कई बड़ी २ नह बनवाईं, जो आज तक उस के साधुशासन की साक्षिरूपा विद्य- 
मान हैं; कई लम्बी सड़कें भी उस ने तय्यार करवांई, जो व्यापार तथा वाणिज्य 
के ल्यि बड़ी ही उपयोगिनी सिद्ध हुई । आम तक किसी भी इतिहासज्ञ न इस 
बात से इन्कार नहीं किया कि नेपोलियन का शासन, फरांस के लिये रक्षा तथा समृद्धि 
का शासन था। इंग्लैंड के लिये उस ने अपने सब बन्द्रगाह बन्द कर दिये, अतः 
जो चीजें पहले इंग्लैंड से आती थीं, वे अब वहीं बनने लगी | शक्कर आदि कई 
वस्तुएं फांस में तभी से उत्पन्न होने लगी हैं । 

पाठक प्रश्न करेंगे कि इन सब प्रकार की उन्नतियों के करने के लिये नेपो- 
लियन को समय कब मिलता होगा ? युद्धों से तो उसे श्वास लेने तक का अवसर 
न मिलता था, राजनियमों का संग्रह करवाना, नहरें खुदवाना, पाठशालाये खुल- 
वाना, और रास्त बनवाना तो हुम्बे काम हैं। इतने कार्मो के होते हुए भी, नेपो- 
लियन न इतना कुछ किया, इस बात को साधारण मनुप्य का मन स्वीकार नहीं 
करता । किन्तु इस व्यक्ति का मन साधारण न था। उस के असाधारण दरीर में 
असाधारण ही मन स्थित था । इन सब देशोपयोगी कार्यों के लिये नेपोलियन को 
समय केसे मिलता था? इस के दृष्टान्त सुनने से मन एक दम आश्चर्यित हो जाता है। 
जब नेना और औरस्टर्लिट्स का युद्ध होना था, उस की प्रथम रात नेपोलियन को समर- 
भूमि में ही बितानी पड़ी थी । | दिन भर से सेनाओं को यथीचित स्थानों पर जमा 
दिया गया था । रात को सोई हुई सेना के बीच में और शत्रु के गोले की मार में बैठ 
कर, इस विचित्र मनुष्य ने पेरिस में एक कन्यापाठशाला खोलने के लिये विचार 
किया और वहीं पर उस के लिये सब मानचित्रादि तय्यार किये । क्‍या इतनी 
भय के उपमाने वाढी और विश्राम के चाहने वाढी दशा में आज तक ओर किसी 
जे भी ऐसे २ विचार किये हैं? नेपोलियन के मन में यही विकक्षणता थी । वह क्षण 
भर में अपने विषय को बदल सक्ता था | जब वह जिस विषय पर चाहता था, उसी 
पर विचार करता था; अन्य विषय उस पर दबाव न डाल पक्ते थे, 

नेपोलियन की एक यात्रा करने की गाड़ी थी | कहते हैं कि वह अब तक 
भी मिलती है। उस गाड़ी के देखने सेही, उसकी कार्य्यकारिता का परिचय मिल 
जाता है। उस गाड़ी में लेटने के लिये स्थान नहीं है-केवल जरा पीछे को झुक कर 


शासन-परिश्रम । १६३ 


ढासना लगाने की जगह है | बीच में एक छोटी सी मेन है, जिसके इधर उधर कुछ 
कागज कलम आदि रखने के लिये खाने बने हैं | गाड़ी में चारों ओर पुस्तकें रख- 
मे के लिये आल्य हैं, निनमे यात्रा प्रारम्भ करने से पूषे वह पुस्तकें भर लेता था । 
बैठने के स्थान के पीछे एक प्रदीप छगा था, जो पढने में सहायता देता था । 
यात्रारम्म से पूर्व ही वह आल्यों को नई पुस्तकों तथा युद्धादि के मान चित्रों से 
भर छेता था और सारे रास्ते में थोड़े से विश्राम के अतिरिक्त समस्त समय इन सब चीजों 
के अनुशीलन में व्यतीत करता था। साथ ही साथ देश के लिये नये २ सुधार सोच 
कर पडावों से दूतों के हाथ आज्ञाये पेरिस को भेजता जाता था। 

ये तो थे उसके युद्ध भूमि से शासन करने के उपाय। किन्तु जब वह युद्ध के 
पीछे पेरिस में छोट कर आता था, तब तो वह चमत्कार कर देता था। सैकड़ों मील की 
यात्रा घोड़े की पीठ पर या गाड़ी में तय करके, जब रात के या दिन के समय वह 
पेरिस पहुंचता, तभी सब से प्रथणथ उस का काम अपनी कींसिल को बुलाना 
होता था | सारी कौंसिल को बुलाकर आठ २ नो २ घण्ठों तक एक दम बैठा 
रहता, और जब तक अपने पीछे का सारा हिसाब किताब जांच न छेता, तब॒तक 
सांस न लेता था । इस काम से फेसठा पाकर और थोड़ा सा स्नान करके वह 
फिर शासक सभा में आ उपस्थित होता ओर नये २ नियम पेश करने प्रारम्भ कर 
देता । जब अपनी विचारधप्तभा में बेठ कर वह आज्ञायं लिखवानी शुरू करता, तब 
तो उसके बीच में कई वक्ताओं की शक्तियें आ जाती । उसेके सचिव कहते हैं 
के वह आज्ञाये ऐसी तेनी से लिखवाता था कि शीघ्र से शीघ्र लिखने वाले मनुष्य का 
भी साथ चलना कटिन था । कभी २ तो तीन २ चार २ सचिवों को इकट्ठा ही 
बिठा लेता ओर उन सब को भिन्न २ विषयों पर एक ही समय में आज्ञायें लिख- 
वाता । 

विचारसभा में वह अनथक था । उसके सारे सचिव थक जाते, कभी २ तो 
थकावट के मारे ऊंचने भी छग जाते, किन्तु सारा जन्म भर किसी ने उसे थके हुए नहीं 
देखा । वह कभी थकता ही न था । एक वार रात के एक बने उसकी जाग खुल गई । 
उसे तब एक आज्ञा लिखवाने की इच्छा हुईं। अपने डारू नाम के सचिव को उस ने 
जगाया । यह सचिव अपनी अनथक शक्तियों पर बहुत गर्बित था। डारू को उठाकर 
नैषोलियन ने आज्ञा लिखवानी शुरू की, किन्तु आल्स्य ने डारू को आ दबाया। लिखते 
लिखते वह सोगया । चुपके से नेपोलियन ने उसके हाथ से लेखनी ले ही और स्वयं 


जल 


१६१४ नेपोलियन बोनापा८ | 


लिखना प्रारम्भ किया | बहुत देरके पश्चात्‌ डारू जागा | सम्राट्‌ को स्वयं लिखते 
देख कर उस के होश उड़ गये | नेपोलियन ने उसकी ओर देखकर मुस्कराकर कहा 
कि 'ऐसा दीखता है कि तुमने क् शाम खब मने उड़ाये थे, तभी आज नींद आये 
जाती है |” उस बेचारे ने उत्तर दिया कि देव ! आप की ही आज्ञायें लिखता २ 
कल थक गया था, इसी लिये मुझे अब नींद आ गईं । अपराध क्षमा हो | ! 
धतब तो तुम आराम करो | में तुम्हें मारना नहीं चाहता' ऐस्ता कह कर नैषोलियन ने 
सचिव को विदा किया, और स्वयं लिखने बैठ गया । 

इस असाधारण पुरुष के ये शासन के अनथक प्रकार थे | यद्यपि वह फ्रांस में 
बहुत कम रह सका, तथापि उसने देश की दशा में अन्य अनेक राजाओं से अधिक 
सुधार कर दिये । उसके विरोधी छोग उसकी इन शक्तियों को स्वीकार करें या न 
करें, यह निःसन्देह है कि भावी सन्‍्तान के दिल्ली पर वे लोहे के अक्षरों से लिखी 
रहेंगी । यद्यपि वह अपनी शक्तियों द्वारा ही देश का शासन करता था, और प्रजा 
की सम्मति की विशेष परवा न करता था, तथापि उसकी सारी शक्तियां का व्यय 
फ्रांम की रक्षा विस्तृति और प्मृद्धि के लिये ही हुआ । 


१. १८०९ में नेपोलियन ने अपनी पहली पर्त्ना जोजफाइन को छोड कर, आस्ट्रिया की राजकुमारी 
मेरी ल्यूसी से विवाद कर लिया । कारण इसका यद्द था कि पदछी सवा से कोई सम्तान उतन्न होने की आशा 
न थी । नेपोलियन अपने सात्राज्य की स्थिरता के लिये सन्‍्तान का होना आवश्यक समझता था । पहले 
रूस के जार की वहन से विवाह करने का विचार हुवा था, कैन्तु जार की माता नेपोलियन के बहुत पक्ष 
में न थी। उसने जरा आगा पीछा किया । नेपोलियन ने झट आरिटया के सन्नाट को लिखा । परिणाम 
विवाद हुवा । इस नये विवाद से उसके एक पुत्र उत्पन्न हुवा>, जिसे रोम के राजा की उपाधि दी गई । 
इस विवाइ को दम थर्म की दृष्टि से बहुत उच्च नहीं कहेंगे, किन्तु इस में सन्देद नहीं कि नेपोलेयन ने यह 
काय्य विषयवासना से प्रेरित होकर न किया था, प्रत्युत राष्ट्रहित से प्रेरित होकर किया था । 


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पज्चम भाग । 


दुःखमय अन्त 


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प्रथम परिच्छेद । 


विधिवेपरीत्य । 


हत विधिलसितानां ही विचित्रो विपाक: ! माघ: । 

ग्रन्थ के प्रारम्भ में मैंने लिखा था, कि इस संसार में कोई भी घटना ऐसी नहीं 
होती जो विना प्रयोजन के हो । नेपोलियन का जीवन भी विना प्रयोजन के नहीं 
था । उस के द्वारा भी संसार का कुछ भला होना था । यदि वह संसार के भले के 
लिये न होता, तो एक वर्ष तक जीना भी उस के लिये असम्भव हो जाता । किन्तु 
वस्तुत: वह संसार में एक बड़ा भारी काय्ये करने आया था । उस के आने से कुछ पू्‌व 
योरप की क्‍या दशा थी ? यदि जरा ध्यान से देखा जाय, तो प्रतीत होगा कि 
सारा योरप उस समय रोगग्रस्त हो रहा था | किसी देश को कोई रोग था, और 
किसी देश को कोई रोग । फ्रांस में क्रान्ति होने से पूवे वह रोग सब जगह एक 
सा ही था। सभी जगह राजा तथा कुलीनों के दबाव के नीचे सर्वताधारण पिसत 
रहे थे । इन के अतिरिक्त, क्रिश्वियन धर्म्म के आचार्य्यों ने भी उन का लह्ू चूसने 
में कोई कप्तर न छोड़ी थी। राजा, कुडीन ओर पादरी साधारण प्रजा का मांस 
नोचने में एक दूसरे से बढ़ने की सिरतोड़ कोशैश कर रहे थे। फ्रांस में ऐसी कोशिश 
अन्य सब देशों से बढ़ चढ़ कर थी | साथ ही, फ्रांस के स्वेत्राधारण, ज्ञान भी कुछ 
अधिक रखते थे । इस लिये, वहां पर, इस मांस नोचने की क्रिया के विरुद्ध सब से 
प्रथम झण्डा खड़ा हुआ। फ्रांस में राज्यक्रान्ति हो गई । क्रान्ति हुईं तो रोगनिवृत्ति 
के लिये थी, किन्तु उन्हीं साधनों ने, निन्‍्हों ने फ्रांस के वास्तविक रोग के नाश 
करने का उपक्रम किया था, अपने आप को निबाध पाकर घोर रूप धारण किया, 
और स्वयं रोग के रूप में परिणत हो गए । कई ओर देश भी फ्रांस की क्रान्ति से 
प्रभावित हुए । उन में मी फ्रांस का औषधजन्य रोग विद्यमान था। क्रान्ति से 
अप्रभाषेत देश उसी रोग से ग्रस्त थे, जो क्रान्ति से पहले फ्रेंच राष्ट्र को क्ृश तथा 
अधमुआ बना रहा था। इस प्रकार प्रतीत होता हैं कि नेपोलियन के काये क्षेत्ररूपी 
रंगस्थली में अवतरण करने से पूर्व, योरप्‌ के सारे देश किसी न किसी रोग से अब- 
ध्य ही ग्रस्त थे । 





१६८ नेपोलियन बोनापाटे | 


योरप में विद्यमान रोगों के विनाश के लिये एक प्रचण्ड वेध की आवश्यकता 
थी । रोग इतना पुराना हो .गया भ्रा, कि कोई छोय्य मोटा मदुह्दय वैद्य उस का 
निवारण न कर सक्ता था । विना कठोरता के योरप कभी ओषध पीने के लिये कृत- 
मति न हो सक्ता था । वह वैद्य, जो योरप के गले के नीचे उस्त रोग की वास्त- 
विक ओषधि को उतारता, नेपोलियन था । फ्रांस के तथा अन्य क्रान्ति से प्रभावित 
देशों के लिये वह क्रान्तिरोगनाशक महोषध था । उस ने भयानक क्रान्ति का विध्वंस 
कर दिया और म॒दु विचारक्रान्ति को जारी रक्खा । जहां वह राष्ट्रीयसमिति 
ओर विचारसभा की क्रान्तिरूपी नदी के लिये प्रचण्ड आतप के समान था, वहां 
क्रान्ति की भावना के लिये वह कल्पद्रुम से उपमा रखता था | क्रान्ति का तत्त्व, 
या मुख्यमाव, गुणानुस्तार अधिकार देना था । क्रान्ति जन्म का तिरस्कार करती थी, 
और गुण कम्मे का प्राधान्य दिखाती थी। नेपोलियन इस प्रवृत्ति का ज्वलन्त उदा- 
हरण था । वह स्वयं गुणकर्म्मांईसार राजा हुआ था । सर्वताधारण ने उसे राजा 
बनाया था । इसी तरह वह भी नीचकुलोत्पन्न योग्य प्ृरुषों की देश की सबसे बड़ी उपा- 
धियों से विभूषित करता था । 
इयूरोक, नो पीछे से ड्यूक आव अबरेण्टीजके की उपाधि से विभूषित किया 
गया था, ओर साम्राज्य के स्तम्भों में से एक था, बहुत ही छोटे घराने का था । 
अनुपमेय स्वरा, जो घुड़सवारों का अद॒म्य सेनापति होकर नेपल्स का राजा बनाया 
गया था, एक सराय के मालिक का पूृत्र था। सेनापति क्लीबर, जिस ने मिश्र में 
आश्वर्यंदायक वीरता दिखा कर नेपोलियन से सम्मान पाया था, एक माली का लड़का 
था | सेनापति मैस्सीना साम्राज्य की सब से बड़ी उपाश्नि से विभूषित किबा गया 
था, किन्तु पहले वह जहानोों में कोले उठाने पर नौकर था । डयूक आव मौप्टैलो, 
जिस का प्रथम नाम लेनस था, ओर जो निस्सन्देह नेपोलियन का वीरतम और प्रियतम 
सेनापति था, एक साधारण व्यापारी के घर उत्पन्न हुआ था । 
ये दृष्टान्त पर्याप्तस्पष्टता से बताते हैं कि नेपोलियन गुणकर्म्माईसार वर्णा- 
घिकार मानता था, जन्‍्मानुसतार नहीं । इस अंश में वह क्रान्ति के भाव का विस्त्तारक 
था । किन्तु साथ ही राष्ट्रीय समिति ओर विचारसभा की क्रान्तियों का वह शरीरधारी निषेष 
था । उन की संकृचितहृदयता तथा नेसर्गिक क्रूरता का उस में हेद्ामात्न भी न 
था । फ्रांत की नल्ती हुईं क्रान्तिरूपी अप को बुझाने के लिये नेपोडियनमेष की 
बड़ी भारी आवश्यक्रता थी । उस ने फ्रांसरूपी अस्थिर समुद्र के सामने चट्टान का 


नेपोलियन का कार्य । १६९ 


कार्य किया । वह कान्ति के तत्त्व का प्रचारक किन्तु उस के क्रूरतायुक्त बाह्याखोल 
का कठोर विनाशक था। इसी लिये, वह फांस ओर फांस से इतर देशों के भी रोगों 
का वैद्य था। फांस में उस ने सामानिक अव्यवस्था का नाश किया और बाहिर उस 
ने उस समय की विद्यमान स्थिरता तथा अत्याचारं की जड़े हिला दीं । 


यह सब विचारका का माना हुआ सिद्धान्त है कि योरप के ओर विशेषतया 
जर्मनी के राजा ने, केवल नेपोलियन के दबाव से ही अपनी प्रजा को स्वाधीनता 
तथा समानता के अधिकार अपिंत किये । अन्य देशों में भी, केवछ अपनी सेना के 
साहाय्य से इस क्रान्तिपुन्न का सामना न कर सकने के कारण, नरेशों ने प्रजा 
को उस के विरुद्ध उठाना शुरू किया । योरप के राज्यों की वर्तमान उदारनीति 
का मूल यदि खोजा जाय, तो वह सम्मवतः नेपोलियन के पराक्र्मों में ही मिलेगा । 
पुराने राजवंशोद्धव नरेशों को कई वार सिहासनच्युत करके, तथा राजघानियों से 
भगा कर, सर्वंसाधारण के मन में उस ने यह भाव बिठा दिया कि राजा इंश्वर के 
प्रतिनिधि ओर अतएव अप्रहाय्य नहीं हैं, उन्हें एक साधारणऋुछ में उत्पन्न हुआ 
हुआ योद्धा भी केवल अपने मुजबल से हरा सक्ता है । 

ये कार्य्य थे, निन के करने के लिये नेपोलियन नेसे असाधारण पुरुष की आव- 
इ्यकता थी । यह उद्देश्य था; युद्ध ओर जनघात केवछ इस के साधन थे । 
सेनापाति से सम्राट होजाना ओर सम्राट से असाधारण विनेता हो जाना-यह सब 
कुछ इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये आवश्यक था। इस दृष्टि से देखने पर प्रतीत 
होगा कि नेपोलियन नरमांसलोलुप पिशाच न था, किन्तु संसार की उन्नति में सहा- 
यता देने वाला इंधवर का भेजा हुवा असाधारण पुरुष था। उसे किसी कार्य के 
करने के लिये भेना गया था, ओर उसने उस कार्य्य को बड़ी ही योग्यता के साथ 
किया । तुम उसे दुष्ट कहो, राक्षम कहो या नृशंस कहो, किन्तु उन्नति के मार्ग 
की साफ करने के लिये उस की जो आवश्यकता थी, उसे तुम तिरोहित नहीं कर 
सकते । योरप के घातक रोगों को दूर करने में जितना हिस्सा कोई व्यक्ति छे 
सकता था, नेपोलियन ने लिया । वाग्राम के युद्ध के पश्चात्‌, हम उसे अपना उद्देश्य 
पूरा कर के लौकिक गौरव और महत्त्व के शिखर पर बैठा हुआ पाते हैं । 


नेपोलियन का सद्भाव सप्रयोजन था-यह ठीक है। किन्तु उस के जीवन में 
फिर वही फ्रांस की राज्यक्रान्ति वाी कथा दोहराई गई । राज्यक्रान्ति फ्रांस के 


१७० नेपोलियन बानापार्ट । 


रोगों के निवारणार्थ उत्पन्न हुई थी। उसने पुरानी जमी हुईं सामानेक दशा को 
हिल दिया । पहली सामानिक दशा बड़े ही बल से जमी हुईं थी, उसे हिलाने के 
लिये पैशाचिक बल की आवश्यकता थी । क्रान्ति में वह पेशाचिक बल था, इस लिये 
उसने उसे हिला दिया | किन्तु, उसे हिला कर फिर उस के पेशाचिक बल को रोक 
कौन सकता था ? उस पेशाचिक बल का सामना कौन कर सकता था £ क्रान्ति की 
प्रतिबन्धरहित पैशाचिक शाक्ति ने वें क्रूर गाथायें तय्यार कीं, जिन का वन 
प्रथमभाग में हो चुका है। 

फिर नेपोलियन का आगमन हुवा । उस के आगमन का उद्देश्य फ्रांस की पै- 
शाचिकबल्सम्पन्न क्रान्ति को दबाना तथा योरप भर में जमी हुवी दृषित सामाजिक 
अवस्था का हिलाना था। क्या इन कार्यों के पूरा करने के लिये कम बल की आवश्य- 
कता थी ? नहीं, इन कार्यों के पूरा करने के लिये तो क्रान्ति केबल से भी अधिक 
बल की जरूरत थी। कम बल उसे दबाने में केसे शक्त हो सक्ता था ? तब, इन 
कार्यों के पूरा करने के लिये निस्त अतिपेशाचिक बल की आवश्यकता थी, वह 
निःसन्देह नेपोलियन में वर्तमान था। उस ने अपना कार्य्य भी थोड़े ही वर्षों में 
कर दिखाया | किन्तु अपना कार्य समाप्त कर के, वह भी थोड़े ही दिनों में प्रति- 
बन्धरहित हो गया । अब कोई भी मानुषीय शक्ति उस का सामना करने के लिये 
नहीं रही । कई देशों ने मिलकर अनेक वार उस पर धावा किया, किन्तु जेंसे ही 
आवेश में भरे हुए वे आये थे, वैसे ही छान्तभाव से मेरे हुए उन्हें छोौटना पड़ा । 
जब तक नेपोलियन के सिर में बुद्धि की मात्रा तथा उस के अधीन सेना विद्यमान 
थी, तब तक उस का प्रतिबन्ध करना मानुषीय शाक्ति से बाहिर प्रतीत होता था । 
मिले हुए दो या तीन देशों की सेनाये भी, उस की वृहती सेना के सामने भेड़ बकीरियों 
के गृल्ले के समान थीं; एक ही जमा हुआ युद्ध उन को निश्मत्त्व कर देने के लिये 

था। 

नेपोलियन का कार्य हो चुका था, अब संसार में उसकी आवश्यकता न थी। 
अब वह यदि संसार मे रहने योग्य हो सक्ता था, तो तभी हो सक्ता था, यदि 
वह विनयप्रसंग को छोड़ कर देश के शासन में लग जाता | तब वह राजनोतिक 
संसार से समा जाता । किन्तु, विजययात्रा के गौरव ने उस्त की आंखें फिरादी थीं। 
अब उसे अपने विजयव्यसन से छुटकारा नहीं मिल सक्ता था । तब उस से 
संसार का छुटकारा आवश्यक था । मानुषीय बल उस काय॑े के करने के लिये अशक्त 


प्रकृति से संग्राम । १७१ 


था, तब ईखवरीय बल या प्रकृति का बल उस कार्य के करने के लिये तय्यार हुवा। 
अब जिस युद्ध का हम वर्णन करेंगे, उस में प्रकृति से नैपोलियन का संग्राम है, 
मानुषीय शक्ति से नहीं । 


द्वितीय परिच्छेद । 
रुसी विपक्ति । 


मतिमतां च विलोक्य पराजयं विधिरदहो बलवानिति मे मतिः । 

जिस समय फ्रांस ओर रूस के सम्राट टिल्सिट में मित्रता गांठ रहे थे, उस 
समय उन्होंने कुछ वादे किये थे। फिर यफेर्थ पर उन वादों को दोहराया गया था। 
और सब वादे तो कैसे के वैसे दोहरा दिये गये, किन्तु एक वादा था निसे उस 
समय छोड़ दिया गया । वह वादा यह था कि रूस कुस्तुन्तुनिया में अपना दखल 
जमा कर, टर्की को अपने साम्राज्य में मिला सक्ता है। टिल्सिट पर यह वादा दोनों 
सम्रां ने कर लिया था । उस समय नेपोलियन जार को किसी तरह प्रसन्न करना 
चाहता था । कुछ देर पीछे ही उसने विचार किया, तब उसे पता छगा कि यदि 
टर्की रूस के साम्राज्य में सम्मिलित हो जायगा तो फ्रांस बहुत हानि में रहेगा । 
न केवल रुस का साम्राज्य ही बहुत विस्तारशाढी हो जायगा, रूस की सांग्रामेक 
स्थिति भी अदम्य हो जायगी । वह कुस्तुन्तानिया को पूर्वीय भूगोल के विनय की 
कुंजी समझता था। इस लिये यफंथे में उस ने यह वादा न किया। अलेग्नेण्डर को 
यह बहुत खटका । वह अपने साम्राज्य के लिये टर्की की प्राप्ति को इतना ही आव- 
इयक समझता था, जितना भयानक उसे नेपोलियन समझता था। सन्धि के पीछे अले- 
ग्जेग्डर ने कई वार नेपोलियन से इस विषय में पूछा, किन्तु उसने इस प्रश्न को 
टालना ही चाहा । 

इस बात से दोनों नरेशों के बीच में कुछ २ खिंचाव हो चुका था । किन्तु 
अलेगेण्डर इस शिकायत को, उस आदरबुद्धि के नीचे दबाने को तय्यार था, 
जो उसने नेपोलियन के लिये की हुईं थी । वह नेपोलियन की शक्तियों का बड़ा 
ही भक्त था । किन्तु, उस की माता नेपोलियन से घरणा करती थी । वह उसे 
अधमकुलोत्पन्न समझती थी । रूस के सब कुलीन भी राजमाता के पक्ष में थे । 
राजमाता ओर कुलीन मिरू कर सदा अलेग्जेण्डर को नेपोलियन के विरुद्ध भह्काते 
रहते थे । इस लिये, टर्की के निमित्त हुआ २ थोंडासा खिंचाव भी दिन प्रति 
दिन बढ़ता गया । 

खिंचावट की इसी अवस्था में नेषोलियन के दूसरे विवाह का प्रसंग आया । 








विरोध के कारण । १७ 


जार उस का मित्र था, इस लिये निसगेतः विवाह का पहला प्रस्ताव उसी के वेश में 
होना चाहिये था । यफैर्थ में जार की बहिन से नेपोलियन के विवाह का प्रसंग आया 
भी था, किन्तु उस्त समय कोई अन्तिम निश्चय न हुआ था । जब दूसरे विवाह के 
प्रश्न ने निश्चित रूप धारण किया, तब नैषोलियन ने एक दूत रुस के जार के 
पास भेजा। रूस के जार ने सम्बन्ध करने के लिये पूर्ण अनुमाति प्रकटकी, किन्तु साथ 
ही कहा कि विना अपनी मातासे पूछे वह कोईं वचन नहीं दे सक्ता। माैछा राजमाता 
के सन्‍्मुख पेश हुवा । राजमाता भी इस सम्बन्ध से सन्तुष्ट थी, किन्तु उस ने यह विचारा 
कि यादि वह एक दम नैपोलियन के साथ अपनी लड़की के विवाह को स्वीकार करेगी तो 
समझा जायगा कके सम्बन्ध जोइने के ।लिये रूस उतावछा हो रहा था । इस लिये, 
उसने कुछ दिन तक इस विषय को स्थागेत करने का विचार किया । नेपोलियन 
की यह बहुत बुरा छगा। उस के साथ राजपृत्री के विवाह के विषय में विचार कैसा! 
क्या वह फ्रांस का सम्राट्‌ नहीं ? क्या उसेने दो वार रूस नरेश का मुकुट पर के टुडे 
से नहीं हिछाया ? फिर उस के साथ ऐसा वतोव क्यों ? ऐसी बातों का विचार कर 
के उस ने झटपट एक दूसरा राजदूत आप्ट्रिया के महाराज के पास भेज दिया | आस्ट्रिया 
के महाराज की राजधानी नेपोलियन के विजयद॒ण्ड की पर्याप्त चोट भुगत चुकी 
थी; साथ ही नेपोलियन से सम्बन्ध नोड़ कर रूस को नीचा दिखाने का भी उसे 
अवसर प्राप्त हुआ । आस्ट्रियन दरबार ने झट पट इस विवाहसम्बन्ध के प्रस्ताव को 
स्वीकार कर लिया । स्वीकृति के अनुसार, आए्ट्या की राजपृत्री मेरिया ल्यूसी 
के साथ नेपोलियन का विवाह हो गया । रूस के जार के मन में यह बात तीर सी 
चुभ गई । दोनों मित्र एक दूसरे से उतने ही प्रथक्‌हो गये, जितने पहले वे एक दूसरे 
के पास थे | 

यह निश्चित होगया कि रूस ओर फ्रांस में अवश्य युद्ध होगा | तब फिर एक 
बहाना मिलने की देरी थी। जार ने कहला भेजा कि नेपोलियन ने टिल्सिट की 
सन्धि के विरुद्ध कई कार्य्य किये हैं, इस लियि जबतक वह उन सब का शोध न 
करंदे तब तक उन दोनों में मित्रता नहीं हो सकती। नेपोलियन ने उत्तर में 
जार के पास एक दूत भेजा, जिसने जाकर जार को न केवल सन्धि की शर्तों के 
पूरे २ पालन करने के लिये ही कहा, प्रत्युत अन्य भी कई रियायते देने के लिये वचन 
दिया । किन्तु रूस को इस से भी सनन्‍्तोष न हुआ । उसे तो नेषो७डियन का यह 
काय्ये और भी निर्बह्ताजनक प्रतीत हुआ | उसने न आगा सोचा न 


१७४ नेपोलियन बोनापार्ट । 


वीछा-झट से युद्ध आधोषित करदिया। यद्यपि नेपोलियन युंद्ध के लिये उत्सुक न ह 
था, तथापि युद्ध आपड़ने पर वह तय्यारी में कोई कसर भी न छोड़ता था। 
अनथक शक्तियों से उसने रूस पर आक्रमण करने के लिये अपनी वृहती सेना को 
एकत्रित करना शुरू किया। युद्ध की तस्यारियों के साथ २ उसने अन्य देशों से 
शान्ति करना भी उपयुक्त समझा । रूस कोई उपेक्षणीय शत्रु न था; उसे नीतने 
के लिये नेपोलियन की समग्र शक्ति आवश्यक थी । इस लिये, द्विविधा में पहने से 
बचने के लिये, उसने इंग्लैण्ड के पास सन्धि का प्रस्ताव भेज दिया । कुत्ते की दुम सीधी 
होजाती, किन्तु उस समय की ढन्दन की कैबिनट सीधी नहीं होसक्ती थी। उसने सन्धि के 
प्रस्ताव का बड़े गर्वित शब्दों में निषेध किया। शायद इन्हीं दृष्टान्तों से सिद्ध होता है 
कि नेपोलियन रुधिर का प्यासा राक्षत था ओर लन्दन की केबिनट शान्ति की देवी। 

युद्ध आधोषित होगया था; अब देरी करने के लिये समय न था।९ 
मई ( १८१२ ) के दिन नेपोलियन पोरिस से सेना के नयन करने के लिये रवाना 
हुआ । पहले वह डूस्डन नाम के नगर में ठहरा | वहां पर उसेने अपने सब अर्धीन 
राजाओं तथापि मित्र नरेशों को मिलने के लिये आमंत्रित किया था । वहां पहुंचते ही 
उन के 'मित्र नरेशों? ने उसका स्वागत किया । वह दृश्य भी देखने ही योग्य 
था । एक मरुष्य के सिर तथा भुनाओं की शक्ति क्या कुछ कर सकती है इसका वह 
दृष्टान्त था । सर्वसाधारण की इच्छा नरेशों के मुकुठों को कैसे रोंद सकती है- 
इस का वह ज्वलन्त उदाहरण था। आस्ट्रिया के महारान और प्राशिया के राजा 
के साथ जौर भी बीसों छोटे बड़े नरेश, समय के विजेता को नमस्कार करने के 
हिये वहां आये हुए थे । विनेता की डथोढ़ी दिन रात समागत नरेशों से ठप्ताउस 
भरी रहती थी । एक चतुर सचिव, निस नेपोलियन बहुत कार्य्यकृशल समझता था, 
डूस्डन में एक दिन नियत समय से देरी में आया । नेपोलियन समयातिक्रम का कभी 
सहन नहीं कर सक्ता था। उसने उसे डपण और पूछा कितुम विलम्ब करके क्यों आए! 
उस धूत ने समयोचित उत्तर दिया कि 'देष की ड्योढ़ी नरेशों से इतनी भरी हुई 
थी कि मुझे आने के लिये स्थान न मिला! । नेपोलियन का मुख इस उत्तर से बन्द होगया। 

इस प्रकार अपने पुराने विजय के फर्क को देखता हुआ और विनयश्री से 
अन्तिम बड़ी मुलाकात करता हुआ नेपोलियन ११ जून को आगे प्रस्थित हुआ । 
उस के थोड़ा आगे फ्रांस की वृहती सेना डेंरे डाले पड़ी हुईं थी। इस अवसर पर 
एकत्रित की हुईं सेना अवश्य वृहती सेना कहाने के योग्य थी । जिन्‍्हों ने उस 


बृहती तेना की निबंलता । १७५९ 


सेना को देखा है वे कहते हैं कि ऐसी सेना योरप में पहले शायद कभी नहीं देखी 
गई । सेना के सारे योद्धा छः छाख से कम न थे, उने छः छाख के साथ तोपोंका भी 
एक बड़ा भारी समूह था। सेना के सारे अख्न शख्त्र सवंथा नवीन प्रणाली के थे, 
ओर उन की मार का सामना रुस के जड्डली लड़ाकू कदापि न कर सकते थे। सेना 
के उर्पनिवेश में पहुंच कर महाराज स॒न्नद्ध श्रेणियों के बीच में से गुजरा । वहां पर उस 
ने अपनी सब विजयों के साक्षी तथा विजय श्री के सहमोजी सैनिकों की चमकती 
खड़्गों को देखा । एक वार उसने चारों ओर दृष्टि दोड़ाई, तो उसे प्रतीत होने छुगा 
कि वस्तुतः वह अनन्तशक्ति का स्वामी है । एक रूस क्या सो रूस मिलकर भी उस 
की शक्ति का पार नहीं पासकते। सारी सेना का निर्रक्षण करने के अनन्तर वहती सेना 
की चलने की आज्ञा दी गई | सारी सेना के ६ छाख सिपाहियों के लिये सब स्थानों 
में भोजनादि के सम्मारों का मिलना काठन था, इस लिये बहुत सा मोजन भी साथ 
ही छे लिया गया । सेनाओं की गत प्रारम्भ हुवी । सारा योरप इस अभूतचर 
सेना को देख कर परिणाम के लिये उत्सुक हो रहा था | सच मच यह सेना भयानक 
रूप वाली थी । किन्तु इस में कुछ भी सन्देह नहीं कि इस सेना का बाह्य रूप 
ही भयानक था, अन्दर से यह वेसी भयानक न थी जैसी ने नेपोलियन के वाग्नाम तथा 
फ्रीडलेंड के युद्ध जीते थे। जानने वाले सेना के इस राक्षसी प्रासाद के बीच २ में 
कच्ची रेतीली इंटेंको देख रहे थे, तथा नेपोलियन के भाग्य में सन्देह कर रहे थे। इस बहती 
सेना में, फ्रांस तथा पोलेण्ड के भक्त सिपाहियों के सिवाय, बहुत से भाड़े के ट्ट्टू भी 
भेरे हुवे थे । ऐसे सिपाही तभी तक लड़ सकते हैं जब तक उन्हें विशेष कष्ट न हो; 
किन्तु जहां सेना पर आपत्ति आई, वहां वे बोरिया बुगचा संभाल कर दस नो ग्यारह हो 
जाते हैं । नैपोल्यन के ६ लाख सिपाहियों में से दो छाख के समीप २ सिपाही ऐसे 
ही थे । शाल्मली तरु कितना ही बड़ा हो, यदि उसके अन्दर खोख विद्यमान है तो 
वायु के जरा से झोंके से वह गिर सकता है । नेपोल्यिन की यह सेना भी ऐसी ही 
थी । टके के गुछाम सिपाहियों के सद्भाव के अतिरिक्त एक और भी निर्बलता इस 
वृहती सेना में विद्यमान थी। वह निबेलताइस सेना का आकारगौरव था । ६ छाख 
की अनगरसमान सेना में वैसी फुरती नहीं होसक्ती, नेसी छोटीसो ८ “हमार की सर 
समान सेनामें हो सकती हैं । जिन्‍्हों ने यहां तक नैपोलियन के जीवन का अनुशीलन 
किया है, वे जानते हैं कि उस के सम्पूर्ण तथा सुहम विनयों के कारणों पं से मुख्य उसकी 
सेना की तीत्रगाति थी। रूस पर धाषा करने बारी वृहती सेना में वह असम्मव थी । 


१७६ नैपोलियन बोनापार्ट | 


इन उपय्युक्त दो कारणों के अतिरिक्त कई ओर भी कारण थे, जो इससेना में 
तथा नेपोलियन की पहली सेनाओं में भेद करते थे | उन में से मुख्य नेपोलियन की 
अपनी शिथिल्ता थी। अब महाराज नेपोलियन वह सेनापति नेपोलियन न था जिसने इटली 
तथा मिश्र के विजयों में रात ओर दिन एक कर दिये थे । अब नेपोलियन बदल 
गया था। साम्राज्य के आराम ने उस के शरीर के वज्मय बन्धों को कुछ ढीला 
कर दिया था। वह मोटा तथा कुछ भद्दा हो चछा था | यह सिद्धान्त इतिहास के 
अनुशीलन से स्वथा सिद्ध हो चुका है कि संसारके भाग्य सूक्ष्मकाय मनृष्यों के हाथों 
में रहते हैं, स्थूलकाय मनुष्यों के हाथों में नहीं। स्थूलकाय मनुष्यों में चर्बी द्वारा 
प्रतिभा की तथा शारीरिक चेष्टा की क्षीणता हो जाती है। संसार में शासन करने 
की शक्ति, प्रतिभा तथा शारीरिक चेष्टा में ही है। नेपोहियन भी, इस समय, गम 
पानी के स्‍्नानों तथा गद्ेदार विस्तरों पर सोने के कारण कुछ मोटा तथा विश्राम- 
प्रिय होगया था । उसकी पुरानी विद्युदगाति विलुप्त हो गई थी । पहले दिनों में 


कि । 
| 4] 


वह प्रायः चलता २ घोड़े पर से उतर कर सड़क के किनारे खड़ा हो जाता, और 
सारी सेना की अपने सामने से गुजारता था। जहां कहीं जरा सी भी न्यूनता देखता, 
उसे ठोक करवादेता, ओर एक २ सिपाही से बात चीत करता था। इन कार्य्यें से उसकी 
प्ेना उस के सर्वथा काबू में रंहती थी। हर एक सिपाही को वह पहचानता था, और 
सब सिपाही उसे पहचानते थे। किन्तु इन सब बातों में से अब एक भी शेष न रही थी। 
न महाराज ही अब घोड़े पर से उतर कर सारी सेना का निरीक्षण करता था, और न 
सेना ही अपने सेनापति को पहचानती थी । उन में इतने जमन आस्ट्रियन और 
पोल भेरे हुवे थेकि आधी से अधिक सेना नेपेलियन से सवेथा अनभिज्ञ थी। वह सेना 
को न पहचानता था, और सेना उसे न पहचानती थी । ऐसी सेना विपत्ति के 
आते ही फ्रेंच झण्डे के तले से सरक गईं, तो इस में विचित्र क्या हुवा ! 

अस्तु | वृहती सेना ने अपना प्रयाण शुरू किया । जार अपनी सेना को लिये 
नीसन नदी के परले पार पड़ा था। नीमन नदी रूस के राज्य की अवधि है। 
फ्रेंचसेना उसी ओर को बढ़ी । ज्यों ही फूँचसेना नीमनम तक पहुंची, रुसी 
सेना नदीतट को छोड़ कर पीछे को लछोटने छूगी । फांसीप्ीसेना उसके पीछे २ चली। 
नेपोलियन ने सुना कि ज्ञार अपनी सेना को स्मालेनक नाम के नगर में लड़ाई के 
लिये तय्यार कर सहा है । यह सुन कर उसके आनन्द की सीमा न रही । उसने 
समझा इस युद्ध के साथ ही, अलेग्जेण्डर अशक्त हो मायगा । रात भर युद्ध की तय्यारियों 


जार की चतुंरता । १७७ 


में बीती । प्रातः कार उठ कर नेपोलियन धांवे की आज्ञा देंने को ही था कि उस 
ने रूसी सेना का पीछे हटना सुना । रुसीसेना रात ही रात धोखा देकर कई मील 
पीछे छौट गई थी । न केवछ विनय का अवसर ही नेपोलियन के हाथ से निकल 
गया, शात्रु की सेना भी साफ़ बच निकछी । अब विचार में समय न खोकर, नेपोलियन 
ने रूसी सेना का पीछा शुरू किया। रूसी सेना भी निरन्तर पीछे को हटती गईं। उस 
सेना का रोज यही काय्य था । रात को एक स्थान पर ठहरी, गुद्ध के पूरे 
सामान - किये, जब फ्ुँचसना पास पहुंची तो अपना बोरिया बिस्तर उठाकर पीछे 
को चल दी । इसके साथ ही जिस २ स्थान से रुसीसेना जाती थी, उस २ स्थान को 
सर्वथा उनाड़ करती हुई जाती थी | खेती तथा आबादी को स्वेथा नष्ट कर दिया 
जाता था; ताकि फुचसेना को भोजनाच्छादनादि की प्राप्ति न हो । 

फ्रांसीसी सेना को युद्ध में अनय्य समझ कर जार ने नये ही मार्ग का अव- 
लम्बन किया । उसे यह निश्चय था कि छः छाख सेना के लिये नेपोलियन घर से 
भोजन नहीं छा सक्ता । तब यदि उसे रूस में लूट का भोजन न मिले तो उसकी 
सेना अवश्य ही भूखी मर जायगी | साथ ही यह भी वह जानता था कि यदि उस 
इसी तरह बेषरबार रूस में घूमते घूमते शीतऋतु हो गई, तब फिर उसकी सेना 
का बचना कठिन होगा। रूप के घोर तथा बातक शीत को जार जानता था, किन्तु 
नेपोलियन न जानता था। जब फ्रेंचसेना अभी जा रही थी, तभी उसके एक घोड़े की 
ठाप को सड़क पर पड़ा हुवा देख कर, एक रूसी छुहार कह उठा था क्री यदि इस 
सेना को रूस में सर्दियें पड़ गईं, तो इध्त में से एक भी आदमी बच कर न जायगा। 
बात यह थी कि फ्रांस की सेना के धोड़ों के पेरों के नीचे नालें नहीं थी, और रूप 
की बफे पर विना नाछों के कोई घोड़ा चल न सक्ता था। इधर भोजन का टोट- 
उधर सर्दी का जोर, बस जार को निश्चय था कि यदि नेपोलियन को रूस में देरी 
हो जायगी तो फिर उसकी चिता रूस में ही बन जायगी। जार का अनुमान ठौक निकला। 
नेपोलियन की मति ने तथा भाग्यों ने पछठा खाया, और यदि नेपोलियन की अपनी 
नहीं तो उसकी सेना की चिता तो रूस में बन ही गई। 

रूसी सेना आगे २ और फ्रेंचसना पीछे २- इसी प्रकार रूस की राजधानी 
मोस्को की तरफ यात्रा प्रारम्भ हुई । जार सेना को छोड़कर, पहले ही, मोस्को 
होता हुआ सेण्टपीटसेंबगे पहुंच गया था। रूसी सेनापाति कुडुसौफ अपनी सेना को 
संभाल कर पीछे को लौट रहा था। वह केवक एक स्थान पर ठहरा। मौस्क्‍्वां नदी के 


१२ 


१७८ नैपोलियन बोनापार्ट । 


तट पर बोरोडिनो नाम का एक गांव है। वहीं पर रूसी सेना ने अपना झण्डा गाड़ 
दिया । दूसरे दिन युद्ध हुआ । युद्ध में विजय नेपोलियन की हुई। यह युद्ध नेपोलियन 
के महान्‌ तथा भयानक युद्धों में से एक था । दोनों ओर की सेनाएं संख्या में प्रायः 
समान थीं । रूसीसेना ने बड़े ही हठ तथा पैय्थ के साथ सामना किया । फ्रेंचसेना 
को, बोरोडिनो पर अधिकार करने के लिये, बड़ा ही घोर संग्राम करना पड़ा । दोनों 
ओर से मिलाकर पचास साठ सहस्र मनुष्यों का बध हुवा । दोनों ओर के कई वीर 
सेनानायक भी मोरे गये तथा आहत हुवे । विजय का सेहरा नेपोलियन के सिर 
पर बंधा । किन्तु यह विजय नेपोलियन के पराभव के समान था। शन्रुंदेश के ऐन 
मध्य में, उसके २९५ या ३० सहस्त सैनिक मर गये, किन्तु शत्रु का विध्वंप्त न हुवा । 
शत्रु रात के समय धीरे २ फिर पीछे को हटने लगा । आखिरकार रुसीसेना पीछे 
हटती २ राजधानी मोस्के से भी पीछे हट गई । नेपोलियन की विजयिनी सेना 
१४ सितम्बर के दिन नगर में प्रविष्ट हुई । इस से अधिक हे का समय नेपोलियन 
ओर उसकी सेना के लिये न हो सक्ता था। किन्तु, उनके मुंह पर दृष्टि डालियि-तो 
आप को पता लगेगा कि वहां हर के स्थान पर मुर्दैनी छाई हुई है। प्रिय पाठक ! 
आप को जिक्ञासा होगी कि इस्त हष के समय में शोक कैसा ? सुनिये । 

यह यांत्रा यद्यपि विजययात्रा के नाम से ही कही जाती है, तथापि वस्तुतः 
प्रारम्भ से अन्त तक यह पराजय यात्रा ही थी । रूप्तनरेश की प्रयोग की हुई 
चतुरता पहले से ही फलनी शुरू होगई थी। निश्त॒ दिन से फ्रेंचसेनाने नीमन- 
नदी को पार किया, उसी दिन से भोनन का टोठा अनुभूत होने छूगा था । रास्ते में 
अन्न की कमी तो थी ही, साथ ही सदी भी कुछ २ अपना रोब दिखा रही 
थी + सेनाएं बहुत कष्ट में थीं | वे सिपाही, निन्हें सिवाय टके के और कोई चीज 
सेना में रखने वाली न थी, चुपके २ चलते बने | शेष सैनिकों में से बहुतसे भूख और 
थकान से मर गये, ओर बहुत से कठोर शीत के लिये वलि हुवे | इन दृश्यों को देख 
कर किस मनुष्य का मन प्रस्न रह सक्ता था ? सेना के कष्ठों से सेनानी भी 
विचलित हो रहे थे | सेना के संभालने की कठिनता के अतिरिक्त, सेनानियों को 
अपने रहन सहन की भी बढ़ी तह्की थी । महाराम के लिये तो किसी न किसी तरह 
निवास तथा भोजन का प्रबन्ध हो ही नाता था, किन्तु और सब बहुत तक अवस्था में 
थे । इसी लिये सब के मुँह पर मुर्देनीछाई हुई थी । सैनिकों तथा सेनानियों के 
असन्तुष्ट रहते हुए, मढछा नेपोीहियन को सनन्‍्तोष क्या हो प्क्ता था ! इसी मान- 


मौस्को का जलना | १७९, 


पछ्तिक व्यया के वश्शीमृत होकर नेपोलियन ने रातें जाग कर कार्टी; तथा अनेक 
दनाओं को सहन किया । इसी यात्रा में, पेरेस से एक दूत उस के पास 
उप्त की राज्ञी, तथा राजपुत्र के चित्र छाया था। उन से, क्षणमर तो उस का चित्त 
कुछ प्रसन्न रहा, किन्तु शीघ्र ही फिर उसी चिन्तारूपी गढ़े में झुकने लगा । 
राम २ नपते मोस्को नगर प्राप्त हुआ । सब के दिलों में कुछ २ आशा का 
संचार होने लगा । सब ने समझा कि अब तक तो हम बिना घरबार रहे; किन्तु 
अब यहां रहने को घर तथा खाने को भोनन मिलेगा | और कुछ नहीं तो पर 
छुपाने की जगह तो भी मिलेगी । सारी फ्रेंचसेना नगर में चारों ओर बिखर गई । 
नेपोलियन ने राजकीय महरू पर अधिकार जमा लिया | वहीं उप्त का द्रबार लगने 
लगा | चारों ओर कुछ प्न्तोष तथा विश्राम के चिन्ह दिखाई देने छंगे | दो 
रात सारी सेना बड़े आनन्द से सोई। किन्तु तीसरा प्रभात होते ही, चारों ओर उसे 
अपने भाग्यों का प्रासाद दुग्ध होता हुआ दृष्टिगोचर हुआ । नेपोलियन ने खिड़की 
खोल कर देखा, तो जार का प्राचीन नगर कई स्थानों में नल रहा था। चारों ओर 
आग ही आग के दृश्य दिखाई देते थे। आग बढ़ती गई, ओर प्वारी सेना को तथा 
नैपोलियन को शहर छोड़ कर फिर मेदान में डेरे डालने पढ़े । इस में सन्देह नहीं 
कि इस वार मौस्कों से बाहिर होते हुए, मेंचसेना के हर एक सिपाही का हृदय 
निराशारूपी अन्धकार में डूब रहा था । नेपोलियन भी इस मयानक आग के ऊपर 
मंडलाने वाले घुएँ में, अपने ऊपर भविष्यत्‌ में आने वाल्ली विपत्तियों के दृश्य देख 
रहा था। तीन दिन और तीन रात तक मोस्की जलता रहा " जब आग बुझी तो 
पता छगा कि पुराने महान्‌ नगर का सँवा हिस्सा भी अब शेष नहीं रहा । रूस के 
जार की नीति की यह अन्तिम चाछ थी, तथा स्वातन्व्यरक्षाथ अन्तिम तथा भारी 
स्वार्थत्याग था । इस एक नीति के काय्ये ने न केवछ रूस के डूबंते हुए जहाज को 
बचा दिया, नेपोलियन के चमकते हुए कीर्तिदिवाकर को भी आपत्ति के बादल में 
घिरा दिया । 
मौस्की के न जाने पर, फुँचसेना में, निराशा तथा उदासी का पूरा आधिपत्य 
होगया । उस पांच छाख की सेना में से, भिप्त ने कुछ दिन पूषे नीमन नदी को पार 
किया था, केवठ दो छाख के ऊगभग सिपाही शेष थे। शेष सब कार की गाल में 
विलीन हो चुके थे । इन दो छाख को भी भोगनाच्छादन के ढिये कुछ न मिलता 
था । सारी सेना बड़ी ही करुणायोग्य दशा में पड़ी हुईं थी । सेनानी छोग भी 


१८० नैपोलियन बोनापार्ट । 
कष्ट ओर वेदना से विहल होरहे थे । आपत्तियों की लहरों के थपेड़े खाता हुआ 
नैपषोलिंयन किक्लत्तेव्यताविमूढ़ होरहा. था । इस में सन्देह करने का जरा भी स्थान 
नहीं कि इस सारी यात्रा में नेपोलियन की बुद्धि ठिकाने न थी । उ्त की बुद्धि के 
ठिकाने न रहने का पहला सबूत इस युद्ध को प्रारम्म करना था | इतने गुप्त शत्रुओं 
के होते हुए, एक इतने बड़े ओर शत्रु को बना छेना प्रकट कर रहा था, कि 
विजेता की बुद्धि हिल गई थी-भब वह अस्थिर होगई थी। अकृल ठिकाने न रहने का 
दूसरा प्रमाण यह था कि नेपोलियन इस यात्रा में प्रारम्म से ही बहुत धीरी चाह 
से चल रहा था | एक २ स्थान पर पन्द्रह २ दिन ठहर कर आराम लेता था 
और रूपसियों को सकुशढ चुड्कक से निकछ भागने के ।हिये समय देता था । आने 
वाली ध्र्दियों तथा कज्जाकराक्षप्तों करा कुछ भी विचार न करके, रूस के गर्म में 
इतनी देर तक बसे रहना, उप के बुद्धिमान्य का तीसरा प्रमाण था | मोस्को जरू 
चुका था, और उप्त के महर्ों के साथ ही फेंचसेना के विश्राम की आशा भी 
खाक में मिल चुकी थी । इस अवस्था में नेपोलियन के लिये दो ही रास्ते खुले थे। 
या तो वह मौस्क्रो से भी आगे बढ़कर सेण्टपीटसब्र्ग पर चढ़ाई करता, ओर जार 
को वहां से भी निक्रा कर रूस के विनय को पूरा करता; या दूसरा रास्ता उम्र 
के लिये यह था कि वह अब मितना शाघ्र हो सक्ता, सीधा उल्टे पांव फांस की 
ओर को लोटता | किन्तु उप्त ने इन दोनों मार्गों में से किसी का भी अवलूम्ब न 
किया । उप्त के सेनानी आगे बढ़ने के विरुद्ध ये; इस लिये वह आगे न बढ़ा और 
सीधा पीछे छोटने को वह अपमानननक प्तमगझता था, इस लिये पीछ भी न छोटा | 
इन दोनों मार्गों को छोड़ कर उप्र ने तीसेरे ही रास्ते का अवहुम्बन किया | जड़े 
हुए नगर में से नो मकान बचे थे, उन्हीं में उस ने एक माप्त तक डेरा जमाये 
रक्‍्खा । इस एक मास्त की देरी का फछ यह हुआ कि उस के छौटते २ बढ़ी ही 
भयानक शीतऋतु आन पहुँची | 

नेपोलियन के मीवनचारित छिखने वालों में से बहुतों की सम्मति है कि इस 
समय से कुछ पूव ही, नेपोलियन की मानसिक तथा शारीरिक शाक्तियों का हाप्त 
प्रारम्म होंगया था; या दुसरे शब्दों में इसी को यूं कह सक्ते हैं कि उस की मह- 
त्वाकाक्षायें उप्त की शक्तियों से बहुत बड़ी होगई थीं। इस सम्मति में, बहुत सा 
सत्य का अंश प्रतीत होता है । इस यात्रा का साथन्त वृत्तान्त, इस पम्मति की 
पुष्टि क लियि उपस्थित किया ना सक्ता है । ऊपर उन अशुद्धियों का उल्लेख 


मृत्यु के मुख में पीछे छौटना.। १८१ 


किया जा चुका है, नो इस यात्रा में नेपोलियन ने की | किन्तु अब भी उन 
अशुद्धियों का अन्त नहीं हुआ । मौस्कों में एक महीने तक निश्चेष्ट बेठे रहने की 
अशुद्धि करने के पीछे, उसने फांप् को छोटने का विचार दृढ़ कर लिया। १८ अक्तूबर के 
दिन पीछे को यात्रा प्रारम्भ हुवी । पीछे की यात्रा का स्पष्ट अमिप्राय परानय का 
चिन्ह है | इस चिन्ह को छिपाने के लिये, नेपोलियन ने एक नये ही रास्ते का 
अवलम्बन किया | सीधे रास्ते को छोड़ कर, उसने एक टेढ़ा रास्ता पकड़ा । टेढ़े 
रास्ते को पकड़ने में इस एक के अतिरिक्त और भी कई उद्देश्य थे। उसे आशा थी 
कि इस नये टेढ़े रास्ते में, खाने पीने के सामान उप्त की सेना को अच्छे मिल 
सकेंगे । किन्तु, इस टेढ़े रास्ते ने सिवाय देरी छगाने के और कोई छाम फ्रेंचसना को 
नहीं पहुंचाया। इस रास्ते में थोड़ी दूर माकर ही नेपोलियन को पता छगा के आगे 
रूसी सेना बड़े पक्के दुर्ग बांध कर उस का सामना करने के छिये डटी हुई हैं । 
रास्ता साफ कर के आगे बढ़ना अप्म्भव समझ कर, उस ने फिर उस्ती सीध 
रास्ते से लौटना शुरू किया, मिस्र से वह आगे बढ़ा था । 

इस समय से उस इतिहामप्रप्तिद्ध दु।खमय नाटक का प्रारम्भ हुआ, मिस 
की उपमा इतिहास में अन्यत्र मिनी कठिन हैं । यह यात्रा क्या थी-दुःखमय 
संसार में विचरण था । यात्रा प्रारम्म होने के साथ ही कठोर सर्दी ने अपना राज्य 
आ नमाया | रात के समय, बड़े जोर की काटने वाली वायुएं चलने रुगी। रास्तों मे 
चारों ओर बफ ही बर्फ होगई-कहीं हरा पत्ता देखने को भी न मिलता था । 
दिन का खाने के लिये मिलना मुशिकिक था ओर रात को सर्दी से बचना कठिन था। 
सदी ओर भूख से धड़ाघड़ छोग मरने छगे । सर्दी और भूख द्वारा डाली हुई 
विपत्ति की अंशपूर्ति के लिये, रूम्ती सेना के कज्जाक राक्षप्त, सेना के चारों ओर 
घूम रहे थे । ये निर्देय योद्धा अकस्मात्‌ रात को छापा मारते ओर जितने भी सिपा- 
हियों को पाते, मार देते; या नंगा करके सर्दी ओर हवा की करुणा पर छोड़ नाते। 
ग्रामों के किस्तान भी, अपने देश के ऊपर आक्रमण करने वाढ्ों से पूरा * बदला 
लेने के लिये, तुले हुए थे | वे भी नहां कहीं किसी फरांपीसी सिपाही को अकेछा 
दुकेला पाते, पकड़ कर सण्टियों से उधेड़ डालते । 

इसी अकथनीय दुद॑शा। में से होती हुई फेंचसेना अपने घर की ओर को मुड़ने 
हगी | सब से आगे महाराज रक्षकसेनासहित जाते ये। शेष सारी सेना उन 
के पीछे २ चढ्तती थी, और एृष्ठ की रक्षा के. ढिये सेनापति ने और डीवू निश्चित 


१८१३ नेपोलियन बोनापार्ट । 


किये गये थे । सेनापति डीवू तो थोड़े दिनों बाद अगली सेना के साथ मिल गया, किन्तु 
माशलने सारी सेना की एष्ठरक्षा का काये अन्त तक करता रहा। यह सेनापति निन रे 
कठिनाइयों का सामना करता था, उन का अनुमान करना भी दुष्कर है ।शत्रु की 
सेना अब एक छाख से कम नथी । वह रूसी सेना, नो बढ़ते हुवे नद के सामने मागती हुई 
चढी गई थी, अब उसे छौटता देख कर पीछे २ हो ली । दीन दशा में पड़ी हुई फरेंच- 
सेना को पीछे से घकेलने के ढिये, इस समय, कम से कम छाख रुप्तीसिपाही 
पहुंचे हुए ये । वे केवल शत्रुप्रन्य को धकेलत ही न थे, उस के आगे आकर उस 
का रास्ता मी कई वार काट देते थे । कमी २ तो फांस के पांचसो सिपाही शत्रु के 
पचास २ सहस्त सैनिकों से घिर जाते थे; किन्तु फिर भी साहस तथा परिश्रम से 
किप्ती न किप्ती तरह निकल ही जाते थे। सेनापति ने सब से अधिक मुसीबत में 
था । उसे पृष्ठस्‍क्षा का कार्य दिया गया था | जब तक अगली सारी सेना बहुत 
आगे न निकछ जाय, तब तक शत्रु को रोके रखना ही उस्रका कार्य था। इस कार्य 
के करने में वह कमी २ पच्रास साठ आदमियों के साथ, बन्दूक हाथ में लिये हुए, तीस 
तीस सहस्न सिपाहियों का सामना करता था । एक वार की बात है कि वह सारी 
सेना से बहुत ही पीछे रह गया; उप्त के तथा फरेंचसना के मध्य में पचाससहस्र से 
अधिक शज्रुसेन्य था | वह शत्रु की सेना को चीर कर अपने साथियों से मिलना 
चाहता था । किन्तु, इस काये के करने के लिये, उप्त के पास्त केवह ९ सहख्र थके 
मांदे योद्धा थे । एक साधारण सनापति एसे समय निराश होकर निश्रेष्ट हो नाता, 
किन्तु सिंहसमान ने ने साहस नहीं छोड़ा, और शन्रुसैन्य में घुसने का उपक्रम 
किया । रूस्ती सेनापति ने की इस वीरता को देख कर दँग रहगया, ओर वॉरोचित 
सोजन्य के प्रकट करने के लिये अपना दूत सेनापति ने के पास्त भेजा । दूत ने 
आकर मार्शि को अपने सेनापाति का संदेशा सुना दिया। सन्देश में कहागया था 
कि 'में जानता हू कि तुम बढ़े वीर तथा साहसी सेनापाति हो । में तुम्हारे इन 
गुणों का बड़ा भक्त हूं | किन्तु, इस समय, तुम ऐसी बुरी तरह से घिरे हुए हो, 
कै कोई भी बचने का अवसर तुम्हारे लिये छूटा नहीं है । तुम्हारे सामने इस समय 
पचांस सहस सेना पड़ी है, यदि मेरे कथन में विश्वास न हो तो अपना एक सिपाही 
मेन दो, वह सब कुछ देख आयगा' | शत्रु के सेनापति के इस सन्देश का उत्तर 
सेनापति ने ने यह दिया कि 'नाओ अपने सेनापति से कह दो ।क्िमैं उस्त की सेना 
को कुछ नहीं समझता, ओर अवश्य उले पार कर माऊंगा! 


बीरों में से वौरतम । १८३६ 


युद्ध शुरू हुआ । ने अपने पांच सहस्न योद्धाओं के साथ पचास सहख्न सिपा- 
हियों के उमड़ते हुए समुद्र में घुत गया । तोषों ने अपने मुंह उस पर खोल दिये; 
चारों ओर पहाड़ थे, पहाड़ों की हरएक कन्द्रा ने अभ्रिकोष का रूप धारण कर 
कर लिया | फ्रेंचसना भुनने छगी । ने आगे बढ़ता गया । गोों की 
वर्षा और भी गाढ़ी हुवी; फेंचसेना और मी वेग से बढ़ने छमी । वेग से बढ़ती 
बढ़ती वह शत्रुमैन्य के ऐन मध्य में आगई । माशल ने ने पीछे दृष्टि दोड़ाई तो उसे 
केवल अपने पांच सौ लिपाही दिखाई दिये | चार हज़ार पांचसो सिपाही भूतलूशायी 
हो चुके ये । किन्तु, फिर मी साहस न हार कर उसने आंख पीछे से मोडछी, और 
बन्दुक चढ़ाये आगे को बढ़ना शुरू किया । अकस्मात्‌ शत्रु की तोषों के मुंह बन्द हो 
गये, ओर सफेद झण्डा दिखाई दिया । थोड़ी देर में एक दूतने आकर सेनापति ने 
से शस्त्र रख देने के लिये कहा । इस कथन का नो उत्तर माशैल ने ने दिया था, 
वह चिरस्मरणीय है। उस ५ कहा:- 

ऋ्रांस का सेनापति मरना जानता है, किन्तु शस्त्र 
रखना नहीं जानता”। 

यह उत्तर पाकर रुसीसेना ने फिर तोपों के मुंह खोल दिये। सेनापति ने 
ने अब आगे बढ़ने के स्थान में पीछे छोटना शुरू किया। धीरे २ पीछे छोट कर, ओर 
शत्रुसैन्य में से निकछ कर, वह एक और ही नि्मन मार्ग से होता हुआ आगे निकल 
कर फूचसेना में ना मिला | जब से सेनापाति ने पीछे रहगया था, नेपोलियन को चैन 
नहीं आती थी। वह रात दिन इस पृरुषसिंह की खोन में रहता था। जब उसने सुना कि 
उप्र का सम्मानित सेनापति अपनी वीरता और घीरता से इतने बड़े शन्रुदछ को छका 
कर चला आया है, तब वह आसन पर से उठ कर उसे लेने के लिय आगे बढ़ा 
ओर कन्परे पर हाथ रख कर उसे ' वीरों में से वीरतम” की उपाधि दी । 

२३ दिन तक बराबर इसी प्रकार की दुःखयात्रा होती रही । सेनापतियों या 
महारान में से कोई मी छेशों से राहित न था । सिपाहियों की संख्या प्रति दिन 
घट रही थी | मौस्को से दो छाख के लगमग सेना छोटनी शुरू हुई थी, किन्तु 
इस समय सारी फुँचसेना में तास सहल से अधिक सिपाही न थे । सारे सेनापति 
मी यके हुए और असन्तुष्ट थे | नैपोडियन को सेना की इस चिन्ता के अतिरिक्त 
ओर भी कई चिन्ताय चिपटी हुई थीं । उसे इसी मार्ग में पता रूगा, ॥के उसे 
इन छेशों के अन्दर पड़ा हुआ देख कर, प्रशिया ने फिर से सिर उठाया है । अन्य 


१८४ नेपोलियन बोवापार्ट । 


भी उस के नीते हुए देश, नो केवल समय की प्रतीक्षा में थे, अपनी २ कमरें कप् 
रहेये। इन सब बाह्मशत्रुओं की तय्यारियों के अतिरिक्त, पेरिस में मी एक ऐसी घटना हो 
गई निस्त से नैपोलियन की चिन्ता दुगनी हो गड्ढे। मैलट नम के एक मनुष्य ने, शहर 
मेंप्रसिद्ध कर दिया, के महाराज रूप्त में मारा गया है, ओर कुछ साथियों को मिला 
कर कैंदखानों पर आक्रमण किया । वहां से कई कैदी छुड्टा दिये ओर उन के 
साथ शहर में गड़बड़ मचानी शुरू की । शहर की पुलीस को शीघ्र ही इस घटना 
का पता छूग गया, और उन्होंने मेलट को साथियों सहित पकड़ कर विद्रोह को शांत 
कर दिया | यह घटना यद्यपि स्वय कोई बड़ी घटना न थी, तथापि, इस से कम से 
कम इतना तो अवश्य सिद्ध होता था कि नेपो]ढियन के सिरपर राजमुकुट अभी स्थिर 
नहीं हुआ है-अभी वह थोड़े से व्यत्यय से भी हिल सत्ता है। साथ ही इस बात ने 
यह भी स्पष्ट कर दिया कि छोग नेपोलियन के परत्न को अमी उप्त का उत्तराधिकारी 
नहीं समझते । उस्त के मरने का समाचार सुन कर, उस्त की राज्ञी या प्रृत्न की ओर 
न देख कर, छोगों का विद्रोह की ओर आंख उठाना इस में सष्ट साक्षी था। 

इस घटना का तथा प्रशिया की तय्यारियों का वृत्तान्त सुन कर, नेपोहियन ने 
शात्र ही पेरिस को छोटन का विचार किया | अपनी सेना को नेपल्सनरेश सेना- 
पति मूरा के आधिपत्य में छोड़ कर, पांच नवम्बर के दिन वह दो तीन मन्सत्रियों के 
साथ पेरिप्त की ओर को प्रस्थित हुआ | उस के नाने के पीछे, सेना की दशा, ओर भी बुरी 
हो गई । सर्दी बहुत ही बढ़ गई | .तापमापक का पारा शून्य से मी ६० अश 
नीचे चछा गया था । सेना का. कष्ट अपरिमेय था । नेपोडियन के चले जाने 
ने चोट पर नमक का काम किया । सारी सेना न उप्त के चले जान को विश्वास- 
घात का कार्य समझा । इस प्रकार से द्विगुणित दुःखबाढी निःसहाय सेना धीरे २ 
पीछ का छोटने लगी । सेनापति ने अपने अदम्य साहस से शत्रु को रोकता रहा। 
अन्त को, अनेक कष्टों को झेल कर ओर विपत्तिसागर को पार कर के, यह बदन- 
सीतर सना, १३ दिसम्बर के दिन, नीमन नदी के पार आगई । नीमन नदी को पार 
करन के साथ ही वह शात्रु के देश में से निकछ आई । सेनापति ने, नीमन- 
नदी के पार करने वालों में से अन्तिम पुरुष था | जब सारी सेना पार हो ग३े, 
तब वह पुछ पर आया | उप्त ने अपने हाथ की बन्दुक नदी में फेक दी, और स्वयं 
कपड़े झाड़ कर पार हो गया । 








लीसरा परिच्छेद । 





जथ ओर पराजय 
परेग्पय्यासितवीस्यसम्पदां पराभवोडप्युत्सव एव मानिनाम्‌ | मारति: । 

मनुष्य असाधारण काय्ये कर सक्ता हे, किन्तु वह असम्भव कार्ये नहीं कर 
सक्ता । नो कुछ सम्भवता की परिधि के बीच में है, ओर निसे असाधारण बुद्धि तथा 
असाधारण शक्ति कर मेक्ती है, वह साध्य है, इस से आगे असाध्य है । वह कार्य्य 
जो मानसिक तथा मोतिक नियमों से परे है, किसी द्वारा भी नहीं किया जा सक्ता। 
प्रकृति भी असाध्य को साध्य नहीं बना सक्ती, तब अल्प शक्ति मनुष्य के लिये यह 
कैस सम्मव है? नेपोलियन ने अस्ताध्य करने का यत्न किया और वह अक्तकार्य्य 
हुआ । उस ने प्राकृतिक शक्तियों का सामना मानुषिक शक्तियों से करना चाहा, 
ओर उसे जबईस्त घक्का खाना पड़ा | पहले धक्के का वृत्तान्त पाठक लोग पढ़ चुके | 
अब नेपोलियन के लिये संभछन का समय था । उस की सैनिक तथा शारीरिक शक्ति- 
यों का हास हो चुका था, तब उसे थोड़े दिन तक अपने आप को तस्यार 
करना चाहिये था। तभी यह सम्भव था कि वह अपने पूर्व गोरव को प्राप्त कर सक्ता। 

किन्तु नंस ऊपर कहा गया है, अतुल शक्ति न उप्त की साध्यासाध्य और सम्भवा- 
सम्मव में भेद करने की बुद्धि को नष्ट कर दिया था । वह अब यह न पहचान म्रक्ता 
था कि सम्भव क्‍या है और असम्मव क्या ? रूस का विपात्ति के पीछे, उस्त के लिये किसी 
बंढ़े युद्ध म॑ं विजयी होना असम्मव था | अपनी असामान्य शक्तियों से वह क्षणिक 
विजय प्राप्त कर के, किन्तु दाब्ुसख्या के सामने उस की शक्ति उपहास्य 
थी । योरप में कोनसा ऐसा बड़ा नरेश था, ननिस के दिछ में उसके लिये नलन न 
थी ? कोनसा एसा शासक था निसर्की आंखों में वह कांटे सा न चुभता था ! रुस, 
प्रशिया ओर आस्टरूया की रानधानियों का दहन करके, वह इन देशों के शासकों 
को प्राणान्त शत्रु बना चुका था;उन के दिलों में वह आहतगव से उत्पन्न होनेवाली 
अग्नैज्वाडा उत्न्न कर चुका था | नब तक वह आकाश के मध्य में देदीप्यमान 
था, सब चुप थे। कैन्तु जहां विपाति ने उसे कुछ सद्धम किया वे सब जले 
दिछ अपना .२ बदढा निकाढने के हिये उस पर कूद पढ़ेंगे-यह स्पष्ट बात थी | 


१८६ नेपोलियन बोनापा्ट । 


इंग्लैंड ने तो नेपोलियन के विरुद्ध कप्तम खाई हुईं थी-बह उम्र को क्षय करने वाढ़े 
पर अपना सर्वस्व वारने के लिये तय्यार था । इस प्रकार, योरप की सारी बड़ी शक्तियों 
के विरुद्ध रहते हुए, नेपोलियन का विजयी रहना दो अवस्थाओं में ही सम्भव हो 
सक्ता था । या तो उस्त की सैनिकर्शक्ति पूषबद अदम्य रहती, और या वह अब 
शञ्रयुद्ध को छोड़ कर नीतियुद्ध का आश्रय छेता, और शत्रुओं को सन्धिभेद्‌ 
द्वारा वश में कर लेता । पहला साधन स्पष्टदृष्टि से विनष्ट हो चुका था, तब दूसरे 
साधन का अवलम्ब आवश्यक था | किन्तु, उसी भाग्यरूपी अंकुश ने; निप्त से प्रेरा 
जाकर वह रूस की हिमानी में गलने के लिये घुस गया था, उसे दूसरे मांगे के पीछे 
न जाने दिया । उस्त ने अब इस अवस्था में मी अपने उल्टे माग्यों का मुँह तत्वार 
द्वारा ही फेरना चाहा | यह अप्तम्भव के हिये यत्न करना था। नेपोलियन ने, गर्वित 
हृदय के साथ, इस असम्भत के करने का यत्न किया । आगामी एक वर्ष का इतिहास 
इसी असाध्य को स्ाध्य बनाने की चेष्टाओं का वृत्तान्त है । 

असाध्य को साध्य नहीं बनाया नाम्तक्ता, इस लिये नेपोलियन भी अपनी चेष्टा 
में अक्ृतकाय्ये हुआ । किन्तु इस में जरा भी सन्देह नहीं कि आगामी एक वर्ष के 
इतिहास में निम्न वीरता और धेय्ये का हम वर्णन पायंगे, उप्त की उपमा अन्यत्र 
इतिहास में मिलनी कठिन हैं। नेपाहियन अपनी मुट्ठी भर सेना और थोड़े से सेना- 
पतियों के साथ जि्त तरह एक वर्ष तक अपने अगणनीय शत्रुओं के कदम रोकता 
रहा और उस्त की छाती को वेधता रहा, उस्ते पढ़कर और स्मरण करके चित्त यही 
समझने ढगता है कि 'नेपोहियन न असम्भव को सम्भव कर दिखाया |” नेपोलियन के 
सब इतिहापलेखक एक शब्द होकर कहते हैं कि उस के बारह बरसों के विनय इस एक 
व के विनयों के सामने तुच्छ हैं| वह अप्तम्भव को सम्भव करना चाहता था, इस 
लिये हम उस पागुठ कह सक्ते हैं; ओर वह केवछ अपनी और फ्रांस की शक्ति के 
लिये छड़ रहा था, इस लिये हम उप्र की सत्यता में सन्देह कर सक्ते हैं। यह सब 


कुछ हम चाहें तो कर सक्ते हैं, किन्तु उस्त की वीरता तथा अक्षाधारण प्रतिमा में 
संशय करना हमारे लिये असम्भव है। 


इस साधारण भूमिका के अनन्तर हम इस चरित को फिर आरम्भ करते हैं। रूस 
की विपत्ति ने नेपोलियन के शत्रुओं की दबी हुईं गदेनें कुछ २ उठादीं । वे परानित 
नरेश, नो उसे अदम्य समझ कर अब तक दबे बैठे थे, कुछ प्तोच में पड़े । उन्हें अब पता 
लगा के नैषोलियन अद॒म्य नहीं है| साथ ही उन्हें यह मी ज्ञात हो गया ।क्ि अब 


युद्ध के लिये गुद्द । १८७ 


उसकी पुरानी सेना नष्टप्राय हो चुकी है, अब उस सेना की दुम का एक 
बार ही शष रह गया है । यही सिर उठाने का समय था । जब 
अभी नेपोलियन रूप्त के मेंदानों में शीत और कज्जाकों की चोटें खा रहा था, 
प्राशिया का नरेश उसी समय से स्ेष्ट हो गया था। वह अन्य सब नरेशों की अपेक्षा 
नेपोलियन से आधिक जहा हुआ था। रुप्त की विपात्ति का वृत्तान्त सुनते ही 
उस न अपनी पराजय को थो डालने का निश्चय किया। ऐसा निरचय होते ही प्रशिया 
की सेनाएं सन्नद्ध होने ढुगीं। उन के सन्नाह में इंग्लैंड के घन ने ओर भी सहायता 
दी । मौका पाकर ब्रिटिश कैबिनट ने फिर पीतिमूर्ति ऐन्द्रजाडिक का मार फेलाना 
प्रारम्भ किया । प्रशिया उत्त जाल में सब से पहले फेसा । आस्ट्रिया को पीतिमूर्ति 
दिखाई गई, किन्तु कई कारणों से उस ने अभी सीधा विरोध आधोषित न किया । 
अपने जामाता के विरुद्ध, इतनी शीघ्रता से, विना विशेष कारण शखत्र उठाना उप्त ठीक न 
प्रतीत होता था; स्लाथ ही अभी उप्त की सनायें भी संग्राम के लिये तय्यार न थीं; 
वाग्राम का आधात अभी पूरा २ न भरा था। 

ज्यों ही नेपोहियन रूस की सौमा को छांब्र कर जर्मनी में आया, त्यों ही 
अछेग्जेण्डर भी सेप्टपाटसंबर्ग को छोड़ कर उस्ती ओर को रवाना हुआ । नेपोलियन 
पेरिस में पहुंचा और जार सेनास्रीहत जमंनी में आगया । अलेग्जेण्डः ने अब यह 
निश्चय कर लिया था कि या तो वह स्वये राज्यच्युत होगा ओर या नेगेलियन को 
राज्यच्युत करेगा । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये यह उसे आवश्यक प्रतीत होता 
था कि नेपोलियन को नई सना तय्यार न करने दी जाय, ओर जितना शीघ्र हो सके 
उप्त पर थावा किया जाय । वह नेपोलियन की गाड़ी के पीछे २ ही अपनी सेना 
के साथ जमंनी में आ पंहुचा । वहां प्रशियननरेश ने ओर जार ने मिलकर योरप के 
आततायी का क्षय करने की प्रतिज्ञा की । आस्टिया से भी इस गुद्ट में मिलन की 
प्राथना की गई, किन्तु उप्त ने अभी उदातध्तीन रहने की इच्छा प्रकट की | इंग्लेंड 
तो नेपोहियन के शत्रुओं का सावीदिक साथी था , वह भी साथ हो छिया । इन 
तीनों देशों की प्म्मिलित शक्तियों ने फ्रांत की सीमाओं की ओर को 
प्रस्थान किया । 

सम्मिलित शक्तियों में, सारे सैनिकों की संख्या चार छाख से कम न थी। 
किन्तु, फ्रांस के सम्राद के नाम की धाक ऐसी थी कि अब भी वे अपनी सेना को पर्याप्त 
न समझते थे । अब भी उन्हें विश्वास न था के वे सेनाराहत नैपोडियन को पराजित 


१८८ नेपोछियन बोनापार्ट | 


कर सकेंगे । इस लिये, उन्हों ने, इस सेनोगुड्ट को स्वाधीनतायुद्ध के रूप में परिणत 
करने का सड्डल्प किया । जमनी ही प्रथम से अब तक मुख्यतया नेपोलियन की 
समरभूमि रहा था; वहीं पर उप्त के अधिक युद्ध हुए थे । प्रम्मिल्ित रानाओं ने 
जमेनी को नैपोलियन के अत्याचारों के विरुद्ध मड़काना शुरू क्रिया | "नेपोलियन 
आततायी है, हम उस आततायी से तुम्हें छुड़ाने आये हैं । हमारी सेनाओं में तथा 
राज्यों में तुम छोगो को पूरी स्वाधीनता तथा समानता प्राप्त होगी ।  साम्मिलित 
नरेशों के इन यत्नों से सैन्ययुद्ध बहुत कुछ राष्ट्रीययुद्ध के रूप में परिणत होगया | 
नेपोलियन भी इतने दिनों तक निश्चेष्ट नहीं रहा | वह अपनी कठिनाइयों को 
अपने शत्रुओं से भी अधिक मानता था । वह युद्गंस नीता, था और युद्ध से ही स्थिर 
रह सक्ता था | सिवाय सांग्रामिक शक्ति के ओर किसी शक्ति से वह अभिन्ञ 
न था। इस लिये, रूस से छोट कर पहला कार्य्य उप्त ने सैन्यसंग्रह का किया । 
चारों ओर फेली हुई सेनाओं को एकत्रित करने के अतिरिक्त, एक छाख नये नी- 
जवान सिपाहियों को भी भर्ती किया । इन नये नोनवान सिपाहियों को शीघ्र ही 
शिक्षित तथा अभ्यस्त कराकर युद्धमूमि के ।डिये रवाना किया गया । अपने देश के 
शासन का प्रबन्ध कुछ दृढ़ करके, ओर सचिवों के सिर पर राज्यमार सोंप कर, वह 
१५ अप्रेल के दिन पेरिस से चल दिया ' दोनों सेनायें संग्राम के लिये ठौक रे 
सन्नद्ध होकर, फांत की सीमा की ओर को चलने छगी | यदि केवछ सडझूयाओं 
पर तथा सेना की अम्यस्तता पर ही ध्यान दिया जाय, तो शत्रुओं की सेना नेपो- 
लियन से बहुत बढ़ी हुई थी । केवल नम्नचश्ठु से ही देखने स नेपोलियन का क्षण 
भर में परानय निश्चित था, किन्तु प्रतिमा ओर असामान्य शक्ति ने इस 
पराजय में जो विन्न डाले उनकी कथा सुनिये । | 
ल्यूट्जून नाम के मैदान में, दोनों सेनाओं की पहली मुद्द भेड़ हुवी | २ मई 
के दिन नेपोलियन की सेना पर शत्रुओं की सेना ने एकाएक धावा किया । धावा 
होने से प्रथणथ नेपोलियन को उसका गुमान भी न था | शज्नुओं की सेना किसी 
ऊंची जगह के पीछे छुपी हुई थी, वहां से निकक कर एक दम फूचसेना पर टूट 
पड़ी । नेपोलियन बड़ी ही सोच की दशा में पड़ गया | शत्रु की सेना १३००००, 
से कम न था ओर उसकी रंगरूट सेना केवल ८० हजार थी | शत्रु के पास चालीस 
सहल्ल घुड़सवार थे, उसके पास ४ सहख् से अधिक न थे। फिर वह युद्ध के 
लिये तय्यार मी न था । इतनी न्युनताओं के होते हुए यह युद्ध प्रारम्म हुआ | 


शत्रुओं का परानय । १८९ 


युद्ध ८ घंटे तक होता रहा । दोनों ओर से हजारों सिपाही भूशायी हुंब । पहले 
पहल तो नेपोलियन के रंगरूटों के पैर उखड़ गये, किन्तु थोड़ी ही देर में उप्तकी 
उपस्थिति ने उनके अन्दर रूह फूंकदी । 'महारान चिरजीवी हों! का शब्द करती हुई 
फंचसेना शत्रुओं पर टूट पड़ी । ८ घंटे के घोर युद्ध के पीछे शत्रुओं के पैर उखड़ 
गये । रक्षकदल ने हिली हुईं शत्रुसना के शेषांश का पीछा किया और उन्हें 
बहुत दूर भगा दिया | फिर भी नेपोलियन विजयी हुवा । रूस की विपत्ति ने उस 
की शक्ति में कोई कमी न की थी। वह वैसा ही अदम्य बना हुआ था। इन विचारों 
को मन में लाकर शत्रु मी घबराने लगे । 

नैपोलियन ने भागते हुवे शत्रुओं का पीछा किया । कई दिन तक भागने के 
पश्चात्‌ उन्होंने बौदूजन नामक नगर में अपनी स्थिति की । नेपोलियन ने वहां 
भी उन पर प्रहार किया, वे चारों ओर से बेर लिये गये ओर थोड़ी ही देर में 
तितर बितर हो गये । सम्मिलित शत्रुओं का दृझ फिर पराजित हुवा । नेपोलियन 
का प्रतापदिवाकर फिर मध्याकाश में चमकने लगा | 

शत्रुओं ने मैपोलियन की शक्तिनदी को सूखा हुआ समझा था, किन्तु उन्हें 
पता लगा कि उप्त में अभी इतना जल है नितने को वे सब मिलकर भी पार नहीं 
कर सक्ते । वे सब इन दो पराजयों से घबरा गये, उन्हों ने देखा कि रणभूामि 
में नीतने के लिये नेपोलियन को सेना की आवश्यकता नहीं है, केवल अपनी - 
उपस्थिति की ही आवश्यकता है । निराश होकर उन्हों ने उस के पाप्त सन्धि के 
लिये प्रार्यनापत्र भेजा | नेपोलियन ने झटपट उसे स्वीकार कर लिया | सन्धि के 
नियम निधोरित होने लगे। आस्ट्या, नो अब तक उदासीन था, सत्तपि का प्रस्ताव 
होते ही बीच में कूद पड़ा | अपने आप को सरपंच बना कर, आस्ट्रया के सम्राट 
ने, अपना एक दूत नेपोलियन के पास मेना | उप दूत ने नेपोहियन के पास आ- 
कर अपने महाराज की इच्छा सुनाईं। आस्टियननरेश ने, इस समय शुगालकार्य्य 
करना शुरू किया । वह इतनी देर से केवल यह ताक रहा था कि ऊंट क्रिस 
करवट बैठता है! अब युद्धं ठहरते ही वह आन मौजूद हुवा | आरिट्या के राजदूत 
ने नैपोलियन को कहा कि 'हमारे महारान इस समय आप के साथ अपनी सेनाओं 
को मिलाने के लिये तय्यार हैं, किन्तु आप को मी इटली, हाढैंड, स्पेन आदि में से 
अपनी सेनायें उठा लेनी चाहियें। यादे आप इस शाते को मानने के लिये तय्यार न 
'होंगे, तो आर्ट्यिनंसेना इसी समय शत्रुओं के साथ मिल भायगी ।” नैपोडियन 


१९० नेपोलियन बोनापार्ट । 


सन्धि के लिये तो तय्यार था, किन्तु अपने तथा फांत के छिये अपमानोत्पादक 
शर्तों को वह न मान सक्ता था | अपमान का भार सिर पर उठाने की अपेक्षा 
आस्टिया को भी अपने शत्रुओं के साथ ही मिलने देना उप्तने अच्छा समझा । 
वह मानी था और मानी पुरुष मान के सामने प्राण की भी कोई परवा नहीं करते । 
पराजयों का कल विभयनर से धोया जा सकता है, किन्तु अपमान का कलझू 
किसी मी उपाय से नहीं धोया जा सकता । 

आस्टिया की दो छाख सेना भी शत्रुओं की पांच छाख सेना के साथ आ 
मिली । इस बन्धुद्रोह के काय्ये के लिये, इंग्लैंड ने छाखों रुपये आर्टिया की 
भेंट किये । सन्धि के प्रस्ताव उठा लिये गये, और युद्ध फिर से शुरू हुवा । शत्रु- 
ओ की समुद्रसमान सेना ने ड्स्डन नगर में जमी हुई फ्रेंचसेना को घेरना 
प्रारम्भ किया । नेपोलियन स्वयं अपनी रक्षकंसना सहित वहां विद्यमान था | निरन्तर 
दो दिन तक युद्ध चलता रहा | नेपोछियन के पास एक लाख सिपाही थे, ओर 
घेरने वाले योद्धाओं की संख्या दो छाख से कम न थी । तब भी दो दिन तक वह 
शत्रुओं का ख़ब सामना करता रहा । इन दो दिनों में उस रात और दिन घोड़े 
पर ही सवार रहना पड़ा । तिप्त पर भी आकाश के ताले बन्द न होते थे। मूसल- 
धार वर्षा दिन और रात होती थी | इन कष्टों ने, तथा शीतोष्णव्यत्यय ने नेपो- 
लियन को तीप्रे दिन बीमार कर दिया | वह सवेथा अशक्त हो गया, ओर युद्ध 
का सारा भार सेनाध्यक्षों के उपर पड़ा । काई निरीक्षक न रहा, ओर उस का फल 
यह हुआ कि फांसीसी सेना पद रे पर हारने छगी। 

संसार में शायद ही कोई ऐसा मित्र हो, नो विपत्ति के समय में विपरीत 
न हो जाय | नेपोलियन पर विपत्ति पड़ी हुवी देखकर उसके साथियों ने भी मुंह 
मोड़ना शुरू किया। उठती हुईं शक्ति के साथ मिढ्वकर सम्रद्धि प्राप्त करना कोन 
नहीं चाहता ? बैवारिया ओर वुद्दन॒बगे आदि छोटे २ नमननरेशों ने नेपो- 
लियन का साथ छोड़ना प्रारम्भ किया । जो पहढे उसके द्रवाजों पर धूल 
चाटते २ न थकते थे, अब वेही 'अत्याचारी अत्याचारी” का शोर मचाते हुवे 
शत्रुओं के दल में आ मिले | नेपल्स के राजा झ्रा ने भी फूचसेना का साथ 
छोड़ कर शत्रुओं की शरण छी । यह सूरा वही था, नो नेपोलियन के उदय के 
साथ उदित हुवा था । उसे एक साधारण सेनाध्यक्ष से नरेश बनानेबाढ्ा नेपो- 
लियन ही था। किन्तु टुकड़ों को याद रखना मनुष्यमाति का धम नहीं है । 


डूस्डन का घेरा । १९१ 


कृतज्ञतागुण देवों का है, मनुष्यों का नहीं। मूरा ने भी चुपके से आपक्वत 
स्वामी का साथ छोड़ दिया, ओर अपनी वीरता पर सदा के लिये क्ृतन्नता का 
धन्बा छूगा दिया | मनुष्यनाति की कृतज्ञता का यह हाल है, ओर तब भी 
मनुष्य कृतज्ञता पर भरोसा रखता है । नो सजान मनुष्यनाति की कृतज्ञता पर 
भरोसा रखता है, उसे चाहिये कि वह एक वार नेपोलियन के चरित के अन्तिमभाग 
का अनुशीलन करे | वहां वह कृतन्नता और विश्वासरधात के ऐसे २ दृष्टान्त देखेगा, 
जो उसे मनुष्यनाति के विषय में प्रम्मति बदलने के लिये बाधित करेंगे । 

नैपोलियन के मित्र एक के पीछे दूसरे उप्त का साथ छोड़ने छगे । वह चारों 
ओर से निराश्रय होने लगा । साधारण मनुष्य इस निराश्रयद्शा में हताश होकर 
बैठ जाता, किन्तु महापुरुष सहल में ही वैय्ये नहीं छोड़ते । नैपोलियन ने भी अपना 
बैय्यें नहीं छोड़ा । चैय्ये छोड़ना तो एक ओर रहा, ज्यों २ उस के शन्नुओं की 
संख्या बढ़ती थी, त्यों २ उस का साहस प्रगुणित होता जाता था । डस्डन से 
निकाले जाकर, उप्त ने एक नया ही युद्धक्रम सोचा । अपने सब बड़े सेनाध्यक्षों 
को इकट्ठा कर के, उन के प्न्मुख उसने अपनी सेना सहित बर्लिनपर आक्रमण करने 
का विचार प्रकट किया | वह समझता था कि वहां पर आक्रमण करने से, शत्रु द्विविधा 
में पड़ नायेगे के वे फांछ पर आक्रमण करें या बर्लिन की रक्षा करें ? इस शड्ढा 
से छाम छेकर नेपोलियन फां्त को सुरक्षित करना चाहता था। किन्तु, उस्त के 
सेनाध्यक्ष, बारह बरस तक निरन्तर युद्धो से थक्र कर ओर रूस की विपत्ति से परी- 
क्षित होकर, अब इतने बड़े साहसिक काय्य के करने से घबराते थे | उन्होंने एक 
स्वर॒होकर महाराज के इस प्रस्ताव का विरोध किया | उन सब ने अपने आप को 
एक नये मौस्कों में पहुंचाने के लियि अनिच्छा प्रकट की । नैपोलियन को इस 
अनिच्छा तथा विरोध से बहुत कष्ट हुवा | उप्र के स्रोचे हुए काय्येक्रम का उस 
के सेनाध्यक्ष विरोध करें-यह उसे सह्य न था । किन्तु अवश्यभावी के सामने दबना 
ही पड़ता है। जब सेनाध्यक्षों को ही जाना अमीष्ट न था, तब अकेला नेपोलियन 
मर्ता क्या कर सक्ता था ! 

बलिनप्रस्यान का विचार छोड़, अब उसने लीपासिक नगर में अपनी 
सारी शक्ति को एकत्र कर के शन्नुओं को पछाड़ने का सड्ुल्प किया | नगर के 
चारों ओर खूब दुर्गबन्दी की गई । सेना और तोपों की ऐसी दीवारें बांध दी गईं, 
कि उन में से पक्षियों और वायु का गुज़रना भी कठैन था । यद्यपि फ्रांस की 


१९२ नेपीलियन बोनापांट । 


सेना शत्रुओं की सेना से आधी से मी न्‍्युन थी, तथापि निश्त वीरता तथा साहंस से 
उप्त ने इस नगर की रक्षा की, इतिहास उप्त की मुक्तकण्ठ से प्रशप्ता करता है। 
दो दिनों के युद्ध में, नेपोलियन घोड़े पर सवार हो कर सरे युद्ध में घूमता 
था । जहां कहीं शत्रु की ताप भयानक गोलाबारी करतीं, वह झट वहीं पर 
पहुंच नाता ओर अपनी सेनाओं को उत्साह देता | जब उसे इतने भय में पड़ा 
हुआ देख कर कोई सिपाही उप्त स्थान से हट जाने के लिये प्राथेना करता, तब वह 
उत्तर देता कि 'अभी वह गोला संसतार में तय्यार नहीं हुआ, जो मुझे बींघ दे ।” 
दो दिन तक फंचसेना हिमालय की चट्टान की न्याई दृढ़ता से खड़ी हुई 
शत्रुओं की सेना की गति का रोकती रही । शत्रु इस रोक को देख कर धबरा 
गये ओर निराश होकर पाछे को छोटने की तय्यारियें करन रूग | नेपोलियन ने 
जब यह देखा, तब उप्र के हपे की सीमा न रही । वह चारों ओर से आक्रमण 
करके शत्रुओं को भगा देने की आज्ञा देने वाला ही था, जब उम्र ने सुना कि 
उस्र के कोष में केवल दो घण्टे तक फेंकने के योग्य गोछे रह गये हैं । यह बड़ा 
ही भयननक समाचार था । यदि दो घेटे में गोले समाप्त हो गये ओर शत्रु न 
भाग गया, तब सारी सेना का क्‍या हार होगा : इस समाचार ने विनयोन्मुख फंच 
सेना के दिल तोड़ दिये | ऐसी निबेछ दशा में शत्रु का सामना करने को भयावह 
समझ कर, नेपोलियन ने भी पीछे को छोटना ही निश्चित किया | रात के समय 
लोटना शुरू हुआ । रात भर तनायें नगर छोड़ती रहीं, प्रातःकार ही शत्रु को 
यह समाचार मिल गया। शत्रुओं क-हपनाद से स्तारा आकाश गूज उठा। विनेता 
नेपोलियन शत्रुओं के सामने भागा जा रहा हे, इस से अधिक हर्ष की बात शत्रुओं 
के लिये क्या हो सक्ती थी ? फचसेना के पीछे २ वे लिप्सिक में दाखिल हुवे । 
उप्त की दूसरी ओर अल्स्टर नाम की नदी थी। उस पर से फेच सेना गुजर 
रही थी । नेपालियन पार उतरता हुआ एक बड़े अधिकारी को यह आज्ञा दे गया 
था कि जब सारी फरेंचसना उस पर से गुजर जाय, तब वह पुक उड़ा दिया जाय । 
वह अधिकारी बहुत कत्तेन्यपरायण न था। जब शजुप्न्य पाप्त २ आने छुगा, उप्त ने भी 
अपनी जान बचानी आवश्यक समझी । एक साधारण सिपाही को, सेना के निकल 
जाने पर पुल उड़ाने की आज्ञा देकर, उप्त ने अपने घोड़े के एड़ी दी, और चम्पत 
होगया । सेनाओं के सहूद्द में उस सिपाही की अकृ मारी गई, ओर उम्र ने 
आगा देखा न पीछा, झट पुर के नीचे रक्खे हुवे बारूद में आग दे दी । सेनाओं 


फिर झ्ुद्धासम्स । १९३ 


ओर गाढ़ियों से भरा हुआ प्र आकाश में उड़ा और पानी ग्ें गिर पढ़ा । वे से- 
निक जो छुछ के ऊपर थे, नदीगर्भ में विछीन हो गये ओर वह पच्चीस्न सहख सेना नो 
अभी पार न गई भरी, शत्रु के चार छाख फोन के अन्दर फेस गई । उस पच्चीस 
सहस्र में से जो वीर थे, वे लड़ मरे; जो भाग्यशाली थे वे पार पहुंच गये; और 
जो कायर थे वे कैदी हो गये । ज्षेष सत्तर अस्सी हजार सैन्य को लिये हुए नेपो- 
लियन परिस की ओर को बढ़े वेग से मुड़ता रहा। 

शत्रुओं की सेना के बहुत पीछे रह नाने पर अपनी सेन्य का आधिपत्य अपने 
सेनापतियों के अधीन करके ५ नवम्बर ( १८१४ ) के दिन नेपरालियन पेरिप्त 
नगर में प्रविष्ट हुआ । वहां पर आकर उसने अपने सलाहकारों से पढ़ाह ढी 
और रानसमाओं से अधिक सेनायें तय्यार करने की अनु्मात के छी । राज्यकास्थे 
की दो तीन दिन तक देख भार करके, ओर अपनी राज्ञी ओर पुत्र का अन्तिम 
आहिश्लन करके, वह शीघ्र ही फिर अपनी सेना में जा मिला ।.इस वार पेरिस 
से आते हुए वह अपने साथ मरने या मारने की प्रतिज्ञा छाया था। पेरिस में शत्रु के 
आज्ञाने का अर्थ न केबल नेपोलियन का नाश ही था, किन्तु फांस के गौरव का प्वे् 
भी था | इस लिये अब वह अन्तिम सामना करने के हिये तत्पर हुआ । फांस 
नितने सैनिक उप्रत्यित कर सक्ता था, वे उस ने इस समय चूस लिये । सारे कोणों 
से जवान सिपाहिया की सेनाये तथ्यार कर २ के उस ने रणक्षेत्र में भर्जी | इन नई 
रंगरूट फोनों ओर परानी सेनाओं को मिछाकर इस समय उस के पाप्त बुद्ध 
करने योग्य ७०,००० सिपाहियों का सैन्य था । इस सुष्टिमेय सेन्य के बल से, 
चार छाख शत्रुपैन्य के आक्रमण को रोकने के लिये वह तय्यार हुआ । 

इस बात में इतिहास साक्षी है, के नेप्रोलियन की इस समय का ग्ुद्ध-बेष्टा, 
असामान्य थी। इतने थोड़े सैनिकों के साथ, महीनों तक इतनी बढ़ी विनयोन्मुख सेना 
के दांत खट्टे करना इसी अमानुषिक शक्तिश्ञाली मनुष्य से सम्मव था; अन्य प्ले 
नहीं । पेरिस से चल कर २८ जनवरी के दिन वह अपनी सेना क्रे साथ जा मिल्ता। 
सेना में पहुंचते ही उप्तने अपनी तथा शत्रुओं की सेनाओं की स्थिति पर विचार 
किया । ख़ब पूछ पाछ, ओर देख भाऊ के पीछे उस पता लरूगा कि उम्रकी दशा 
बहुत ही चिन्तनीय है । शत्रु दो मार्गों में विमक्त होकर, अनिवाय्ये बेग से पेरिस 
की ओर बढ़ रहा था; नेपोलियन के सेनाध्यक्ष स्थान स्थान पर परामय खा- 
कर पीछे को हट रहे थे । ब्रीने नगर में-महां बाल्यावस्था में नेप्रोलियन वे शिक्षा 

१३ 


१९४ नेपालियन बोनापार्ट । 


पाई थी-प्रशियन सेनापति ब्छूथर एक लाख सैन्य के साथ पढ़ा हुआ था। 
उसकी सेना का अग्रमाग सेण्टडिजीयो तक पहुंचा हुआ था| दूसरी ओर उस्र से 
कुछ ही दूरी पर सेनापति रूवाटेनजरों अपना उपनिवेश जमाये बैठा था। सेनापतियों 
के पीछे ओर भी बड़ी सेनाओं को साथ छिये रूप तथा. आर्टिया के महाराज 
दिग्विमय का आनन्द लेते हुए आ रहे थे। ऐसी भयानक दशा थी, निप्त समय 
नैपोलियन अपनी सेना में पहुँचा। एक दिन देखें भाछ कर उस ने अपना काय्य- 
क्रम शीघ्र ही निश्चित कर लिया | उस्त के शत्रुओं ने उस के डर से अब यह 
नीति पकड़ी हुईं थी कि जहां कहीं स्वय नेपोलियन हो वहां से पीछे भाग जाना, 
और जहां उस के सेनापति हों वहां वार करना। इसी नीति का अवरुम्ब करते हुए वे 
अब फांस के तृतीयभाग को पार कर चुके थे । नेपोलियन ने, शत्रु की इस पूतो- 
ता का प्रतिकार करने के लिये चुपके चुपके उसे दबाने का विचार किया । 
ब्लूचर ब्रीने में अपनी सेना को टिकाये हुवे निःशझ्र बेठा था | वह अभी तक यही 
समझता था कि महारान पेरिस में हैं । नेपोलियन ने अचानक ही उसप्ते दबोच लेने 
का सड्डल्प कर के २९ जनवरी के दिन कूच कर दिया । ब्छूचर इस आकस्मिक 
विपत्ति के सहने के लिये तय्यार न था, नेपोडियन की गति ने उसे विमोहित कर 
दिया ; बहुत देर तक वीरता से छड़ कर उसकी सेना के कदम उखड़ गये । वह 
बिखर गई ओर शीघ्र ही पीठ दिखा कर भाग निकली | 

इस एक ही विनय ने जहां हरे हुए हुए शत्रुओं के दिलों पर मुरझझावट्सी डाड 
दी, वहां फांसवासियों के सूखे हुवे निराश चित्तों को हरा मरा कर दिया । फ्रांस 
की आश्ञाओं का वृक्ष फिर फूलन लगा । ्रैन्तु सम्पत्ति के पीछे विपक्ति और 
विपत्ति के पीछे सम्पत्ति के रास्ते को कोई नहीं भान सक्ता । इस असामान्य विजय 
के दूसरे ही दिन ब्लूघर और रच्याटेनबगे दोनों ने अपनी सेनाएं मिलाकर 
नेपालियन पर आक्रमण किया । अ्रेंचसेना शबन्रुसना की एक तिहाई से कुछ ही 
अधिक होगी ; फिर वह कई महीनों के वेग-युक्त प्रस्थानों और निरन्तर युद्धों से 
सबथा श्रान्त हो चुकी थी । पहले पहले तो शत्रुसना की लहर के सामने फ्रेंच- 
सेना चह्टान की तरह डटी रही; किन्तु शत्रु का संख्याबाहुल्‍य अन्त को विभयी 
हुआ | महारान अलेग्ज़ेण्डर और प्रशियानरेश स्वयं परिशिष्ट सेनाओं को ढछिये 
स्थान स्थान पर युद्ध का भाग्यनिश्चय कर रहे थे । घण्टों के धोर युद्ध के पश्चात्‌ 
नेपोलियन अपनी विनय को असम्मव समझ कर फिर पौछे को छौटने छया। 


ब्लूचर को मार भगाया | १९५ 


इस प्रमय फ्ेंचसना की नेस्ती निराशाग्रक्त और शत्रुओं की नैस्ती उत्साह- 
युक्त दशा थी, पाठक उस्त का स्वय ही अनुमान कर सक्ते हैं। तालियों ओर नय- 
नादों से दिशाओं को प्रतिध्वनित करते हुवे द्ान्रुओं ने फूचसेना का पीछा प्रारम्भ 
किया । सारे देश में इस परानय का घातक समाचार फेल गया; निराशा ओर 
चिन्ता का'चारों ओर राज्य हो गया | आततायि-दकू भी समय पाकर राज- 
धानी की ओर को बढ़ चढा | 

नैपोलियन ने बड़े ही वेग से पीछे को छोटना शुरू किया । उस का वेग 
ऐप्ता असाधारण था कि थोड़े ही दिनों में वह शात्रु की आंखों से ओझल होगया । 
उन को यह भी पता न रहा कि फेंचलेना किस ओर को छोटी है ? सेनापति 
रच्वाटेनबग को उप्त का पीछा करने की आज्ञा दी गई थी, किन्तु वह 
नेपोलियन की इ्येनगति को न पा सक्ता था । किन्तु सेनापीत ब्छूचर बहुत 
साहसिक तथा वीर था । उस ने युद्धव्द्या में नेपोलियन को गुरु बनाया था । 
शत्रु के परानित करने का मूलम्रन्त्र उस ने अनेक-रानधानी-विमेता से सीखा था । 
नेपोलियन जब शात्रु के देश में विनयाथ नाता था तब न पीछा देखता न आगा, 
सीधा राजधानी में घुस जाता था | राजधानी देश की चाबी होती है, उस के 
काबू आते ही नेपोलियन सारे देश का शासन कर लेता था । ब्लूचर ने भी अब 
वही प्िद्धान्त सामने रकखा । उस ने अपना मुंह सीधा पेरिस की ओर को मोड़ा, 
और प्रति दिन ग्रामवासी किसानों ओर गृहस्थों को खंदेहता हुआ आगे को बढ़ने 
लगा ।नेपोढियन न कुछ दिन तक इस साहसी वीर को आगे बढ़ने की छुट्टी दे दी। 
किन्तु जब वह अपनी सेना से बहुत आगे बढ़ आया तब, नेपोलियन के 'मन में उसी 
देवीशक्ति का प्रादुभीव हो आया, निप्त के बल से वह बड़ी से बड़ी विपत्ति में 
भी शत्रु का ध्वेस कर के, उस के नीने और मरने के प्रश्न का निश्चायक हो नाया करता 
था | पचास हज़ार सिपाहिया की मृुष्टिमिय सेना के साथ वह एकाकी पढ़े हुए 
ब्लृयर के ऊपर ना पढ़ा । ब्लूचर के पास इस समय एक छाख से अधिक सेना 
थी, किन्तु नेपोियन ऐसा चुपके. २ पहुंचा, कि शत्रुओं की सेना को कपड़े 
समारने का भी समय न मिला। नेपोछियन अपनी सेना के अग्रभाग से शम्रुसैन्य 
के छिलके में छेद करके ऐन मध्य में छुस गया। वहां से उस्त ने एक एक करके 
चारों पाश्वों को परानित कर दिया । आकस्मिक परानय से धबराया हुवा ब्लूचर थोड़े 
से शरीररक्षक्ों के साथ भाग निकढा । नेपोरियन समर नेता रहा | दूसेरे दिन 


१९६ नेपोलियन ब्रोनाप्रा्ट । 


साठ हज़ार प्ेना को इकट्ठा करके ब्लूचर ने फिर नेपोलियन पर धावा करना 
चाहा, किन्तु आन उसकी पहले दिन से भी बुरी गति बनी। 

सेनापीत स्च्वाटेनबगें ने नब सुना कि नपोलियन ब्लूचर के साथ 
भिड़ा हुवा है, अपना रास्ता साफ समझ कर उस ने पेरिस की ओर को भाग 
शुरू की । वह अभी बहुत दूर न पहुँचा था, कि ब्लूचर को पृवोक्त दो संग्रामों 
में हराकर, एक रात ओर एक दिन में पचास साठ मीलका रास्ता तय करके, फुंच- 
सेना उसके पृष्ठणाग पर आपड़ी। बड़ा ही भयानक संग्राम शुरू हुवा । रूचवाटेन- 
बगे की दो छाख सेना इस्त निर्मेष आकाश से गिरे हुवे वज्ञपात को न सहार सकी । 
नेपोलियन फिर विनेता रहा । शन्रुद थोड़ी ही देर में टूट गया और पीछे को 
भाग निकछा । नेपोलियन की पचास पघहस्त थकी मांदी सेना ने चार पांच दिन में 
ही पेरिस की ओर को उमड़ती हुईं आततायि-सेना के पेर उखाड़ दिये । इतिहास 
साक्षी देता है कि आज तक किप्ती भी योद्धा ने इन युद्धों की उपमा उपस्थित 
नहीं की । 

शत्रु के दोनों बढ़े द पीछे को छीटने छगे । रूस, प्रशिया ओर आ्टिया 
के समाों के विनयोछाप्तित मन कुम्हालने छगे | वे किंकतैव्यताविमूढ़ हो गये, 
और शर्रुतन्य का कार्यक्रम अनिश्चित प्रतीत होने छुगा । शलत्रुदक के प्रबन्ध 
में ऐसी गड़बड़ देख कर, नेपोलियन ने एक नया ही सह्कूल्प किया । पेरिस्त को 
राम भरोसे छोड़ कर, और रुूच्वाटेनबगे के पैंछे की ओर जाकर, शत्रु- 
सेनाओं का सम्बन्ध जपेनी से काट देने का निश्चय कर के वह घूम गया ओर 
शाम ही पेरिस के विजय के लिये बढ़ते हुए शत्रुओ ने अपनी रानधानियों को 
ही स्वथा अरक्षित होने के कारण नेपोलियन के चुड्जल में पाया। ज्यों ही नेणे- 
ढियन ने जमनी की ओर को मुख मोड़ा, त्योंही सारी शब्रुतेनाओं ने मिरू कर 
उप्त का रास्ता रोकने के लिये पोरेस की ओर पीठ की | आर्किस पर चालीस सहस्त 
फूंचसेना का डेढ़ छाख शत्रुओं के साथ घोर संग्राम हुवा | नेपोलियन की छोटी सी 
सना ने शत्रु पर दुर्दंभ आक्रमण किये; शत्रु ले भी कई स्थानों पर उसकी सेना 
को छेद दिया, किन्तु युद्ध अनिश्चित रहा। हानि फांत की अधिक रही; नैपो- 
लियम का जमैनी की ओर को प्रस्थान रुक गया | इस प्रकार इस महान्‌ शक्तिशाली 
मनुष्य की देशरक्षा की अन्तिम चेष्टा समाप्त हुहैं।.' 

अब नैपोडियन के पास वुहृती सेना के अत्थिपम्नर के, और अपने नाम के 


परिस पर शत्रु का अधिकार । १९.७ 
सिवाय कुछ न रहा था। केवेठ चालीस सहल्न सेना की सहायता से एक मनुष्य भो 
कुछ कर सक्ता था, नेपोलियन ने उप्तका सहस्नों गुणा कर दिखाया। किन्तु अब वह 
वर्ष हुए मेघ की न्याई अशक्त हो गया था । अपनी निर्बछ दशा को नेपोलियन 
भी खूब मानता था, ओर उसके शत्रु मी ख़ब जानते ये । शत्रुओं ने पहले सेना के 
दो भाग करके नेपोलियन को छक्काना ओर तह्ल करना चाहा था, किन्तु उनकी यह 
नीति फली नहीं; उल्टी उप्तकी विद्यत्समान गति से वें वारवार परानित होने लगे। 
अब सम्मिलित नरेशों ने मिलकर नया काय्यक्रम निर्धारित किया । तीन छाख से 
अधिक सारी सेना को इकेट्टा करके, एक साथ ही पोरिस पर चढ़ाई करने का विचार 
किया गया । दूसरे दिन से ही यह अद्ृष्ट पूर्व जनसमृह रानधानी की ओर को 
बढ़ चछा । नेपोलियन के लिये अपनी थोंड़ी सी सेना के साथ इस महासागर के 
प्रवाह का रोकना असम्भव था । अब उप्तके लिये एक ही रास्ता खुला था | वह 
शत्रुओं से पहले पेरिस में पहुंच कर, उप्तकी रक्षा का कोई उपाय कर सक्ता था। 
किन्तु इसमें भी एक काठनता थी । दात्रुओं की अपेक्षा वह पेरिस से बहुत दूर था; 
शत्रु उत्त से चार- दिन पहले राजधानी में पहुंच सक्ते थे। यह स्पष्ट था कि अब 
देशरक्षा की कोई आशा नहीं रही । 
शत्रुओं का सेन्यसागर शीघ्र ही पेरिस की दीवारों के आसपास जा पहुंचा । 
नेपोलियन का भाई नोज़फ्‌ वहां का स्थानीय शासक था । उसकी सहायतार्थ 
सोट्यिर ओर सार्मोण्ट दो सेनापति थे । शन्नुओं की किचों की चमक॑ देखेत 
ही उन के दिल निराशा में डूंब गये। विना किसी प्रकार का सामना किय, उन्होंने 
रानघानी शत्रु के हाथ में अर्पित करदी । जब नेपोडियन शीघ्र गति से चलता 
छुआ रात के समय पेरिस के पास पहुंचा, तब उसे पता रूगा कि उसके आदमियों ने 
देशरक्षा की अन्तिम आशा पर कुशहाड़ा चला दिया है। उसने इस समाचार को सुनकर 
दुईख से मरा एक लम्बा खास लिया ओर सेना के शाप भांग को पेरिस के बाहिर 
फौण्टेनब्ल्यू नाम के अपने विश्रामस्थान में ठहरने की आज्ञा दी । 

शत्रुओं की सेना ने पेरिस पर पूरा अधिकार कर लिया | कुछ ढरं से, और कुछ 
कृतन्नता से, पेरिस की सेंनेट ने नेपोलियन को राभगद्दी पर सें उतारने का निश्चय 
किया । मह।राभ की विपद्वुत दंशा को देख कर, फ्रेंच सेनाकतीयों ने भी स्वामिद्रोह 
कंरेना झुरू किया । निनके शरीर का मांस मी नैपोंडियन की ईपां का फछ भा, 
और मिन्हें साधारण पुरुष की दशा से उठाकर उसी ने सेनापति बनाया था, वे भी 


१९८ नेपोलियन बोनापार्ट | 


एक २ करके शत्रुओं के सामने प्िर झुकाने लगे । नेपोलियन की दशा प्रति दिन 
निबेल होने लगी । 
... इन्हीं दिनों में सन्धियें भी चलती रहीं | नेपोलियन के दूत पारेस में भेने गये । 
वहां पर रूस, प्राशीया, आरिठृया और इज्ूलैंड के रानाओं तथा राजप्रतिनिधियों 
की सभा के सामने नेपोलियन और फ्रांप्त के माग्यनिश्चय का प्रश्न उपस्थित हुवा । 
विचार बहुत ढम्बा तथा पेचीदा था | उपयुक्त देशों को नेपोलियन कई वार परा- 
जित कर चुका था, तथा उनकी रानघानियों में भी अपनी विनयदुन्दुभि बना 
चुका था | अब उनकी बारी थी । वे भी उप्तका सवनाश किये विना केसे रह सक्ते 
थे ? बहुत विवाद के अनन्तर यह निश्चित किया गया कि नेपोलियन को आधिफ्त्य से 
हटाकर पुराने बोबोन रानाओं को उसके स्थान पर फ्रांस का शास्तक बनाया 
जाय; नेपोलियन को महारान की उपाधि रखने का अधिकार दिया जाय तथा 
एल्जा नाम का द्वीप उप्ता निवास स्थान हो, उस्त द्वीप का पूरा शासन नेषो- 
लियन के हाथों में हो । गुज्ञारे के लिये उसे फ्रांस के कोष सै कुछ मासिक धन 
मिलने का भी निश्चय करके शत्रुओं ने अपना उद्देश्य समाप्त किया । 

जब इन सारी शर्तों और सन्धियों का समाचार नेपोलियन को मिला, 
क्रोध और निराशा से वह आप से बाहिर होगया । उप्त ने फिर से शख्ज्र 
उठाकर युद्धक्षेत्र में लड़ मरने का सझ्डूल्प किया । किन्तु कह विचार उसे फिर से 
लड़ाई प्रारम्भ करने से रोकते थे | कई फ्रेंच छोग अब शत्रु से जा मिले थे; फिर से 
युद्ध करने का अभिप्राय अपने देश वासियों से छड़ना था, ओर नेपोलियन को 
वह पसद्य न था। साथ ही यह सुनते सुनते उप्तके कान थक्र गये थे, कि सारे 
योरप की अशान्ति का कारण एक नेपोलियन है। उस के पास शक्ति भी अब बहुत 
थोड़ी रह गई थी। उसके बहुत से सेनापति तो शत्रुओं से भा मिले थे, ओर जो शेष 
थे, उनकी हिम्मतें टूट चुकी थीं। इन सब विचारों को सामने रखकर नेपोढ़ि- 
यन ने उपयुक्त सन्धि को स्वीकार कर लेने का ही निश्चय किया | 

निस शान्ति तथा पैय्ये के साथ नेपोढियन ने इस विपात्ति को सहा, वह उस के 
आत्मा की महती शक्तियों के जतलाने वाढ़ी थी । विजय में तो सभी धीर रह 
सक्ते हैं, किन्तु धीर वह कहाता है नो परानय में घीरता का धारण करता है और 
विपत्ति में चट्टान बनता है ! नैपोष्ियन ने मिस्र वैय्ये से इस आपत्‌ को सहा वह 
उसकी शक्ति का परिचायक था। यथपि पहले पहलछ इस ।पिंहासनपात का 


एल्या को जाना | १९९ 


समाचार सुन कर वह निराश हो गया था, और कई कहते हैं कि उसने निराशा 
में ही आत्महत्या के विचार से विष भी खा ली थी, तथापि सर्वतोमावेन उप्त ने उस 
कष्ट का सहन बहुत धीरता से किया | क्‍ 

अन्त को, फ्रांत की भूमि का त्याग करके एल्बा के लिये प्रस्थित होने का 
समय आया । बड़े ही स्नेह के साथ वह अपने सब मित्रों तथा सेनापतियों से मिला ; 
फिर उसने अपने खामिमक्त तथा वीर रक्षकद॒ढ के योद्धाओं के साथ अन्तिम मुलाकात 
की; और सब दर्शकों के साश्ुनयनों से निरीक्षित, और कमिपत हुदयों से आलिश्वित 
होता हुवा वह केवल छःसे सिपाहियों को साथ लेकर फ्रांस से अपने नये राज्य तथा 
कारागार के लिये प्रस्थित हुआ | 

चब्चला राजरक्ष्मी के विश्रमों की गति विचित्र है | कल का समूद्‌ आज का 
कैदी बन गया है ओर कल के विभित आज विनेता बन रहे हैं! क्या इस पर मी कोई 
मनुष्य इस चपला के कृपा-कटाक्ष पर भरोप्ता रख पक्ता है ! 


चलुथ परिच्छेद । 
एल्या ओर फ़िर पेरिस 0४ 


एल्बा द्वीप फांस से दो सौ मील की दूरी पर स्थित है। वहां की जल्वायु 
स्वास्थ्य के लिये उत्तम है, ओर वहां की प्रकृति भी सबंया सोन्दय्ये-रहित 
नहीं है । द्वीप यद्यपि छोटा है तथापि मनुष्य के एकान्तवास के लिये पय्याप्त है। 
इसी द्वीप में शासन करने के लिये, महाराम नेपोलियन अब फांस से प्रस्थित हुआ। 
विधि भी बड़ा बलवान है | वह मनुष्य, निसे कल सारे योरप का साम्राज्य भी 
थोड़ा प्रतीत होता था ओर निस की महत्त्वाकांक्षा लाखों मनुष्यों के बध करने पर 
भी शान्त न होती थी; आज एक छोटे से द्वीप में बन्द होने के लिय नहाज़ पर 
सवार होता है । नेपोलियन अप्रैल मास की २८ तार्राख़ के दिन एक ब्रिटिश नहाज़ 
पर चढ़ कर एल्बा की ओर को चल दिया। ६ दिनों तक मनोरम समुद्र की वायु 
के झोकों के आनन्द लेकर, मई मास की तीसरी तार्राख के प्रातः ही उस ने, दिगन्त 
में उठते हुए एल्बा द्वीप के हरे २ वक्षों से लूदे हुए पवेतों को दृष्टिगोचर किया। 

नेपोलियन एल्बा में जब तक रहा, बड़ी ही चेन ओर शान्ति से उस के दिन 
कटे | अपने छोटे से साम्राज्य की आय बढ़ाने, उसे रास्तों, पुलों और कुवों से 
सज्जित करने, ओर पढ़ने लिखने तथा बातचीत करने में ही वह दिन बिता देता था । 
अपनी प्रमा की देख भाल के लिये प्रायः वह घोड़े पर चक्कर लगाया करता था ।उत्त 
के साम्राज्य का विस्तार इस से ही अनुमित हो सक्ता है कि घोड़े पर सवार होकर 
बह उसपर के एक किनारे से दूसरे किनारे तक दो घण्टे में ही घूम आ सक्ता था । इसी 
छोटे से द्वीप में, अपने थोड़े से साथियों के साथ, विद्या और प्रकृति का अनुशीलन 
करते हुए उस ने अपने दिन व्यतीत करने शुरू किये । वह छोटा सा द्वीप उस के 
निवास के कारण योरप मर के बड़े २ मनुष्यों की यात्रा का केन्द्र बन गया | उस 
के पास से गुजरते हुए समी छोग, उस द्वीप में उतरते ओर सन्नाटू से बातचीत 
करते थे | प्रायः अंग्रेन छोग भी बहां उतरते रहते थे। वे छोग नेपोलियन की सद्वी 

छोटी सी सृन्दरमूत्ति को देख कर, आश्चर्यित होते थे । उन्हों ने पन्नों में पढ़ 


फांस में बो्बोने राज्य । २०१ 


रकूखा था कि नैपोंलिथन एक रुधिरपिषासु राक्षस है; वह बदसूरत और मथानक है। 
- वे भब उस की कोमल तथा मधुरमूर्ति को देखते, तो उन के आइचय्य की सीमा 
म रहती थी । नो नैपोलियन के पुराने परिचित थे ओर साम्राज्य के समय में उस 
के आचार व्यंवहारों को देख चुके थे, उसे वत्तमान दशा में ऐसा सन्तुष्ट तथा 
आल्हादित देख कर, उप्त की शक्तियों पर मोहित थे | जो किप्ती दिन पृथ्वीके राज्य 
से भी सन्तुष्ट न दीखेता था ओर दिन रात नई २ विमयों की चिन्ता में छगा 
रहता था, उस का एलब्ा में प्रसन्न चित्त होकर रहना उस की अद्धत शक्तियों 
का परिचायक था | 

इसी एकाकी दशा में रहते हुए उस को १० मास व्यर्तीत हो गये । इन दूस 
महीनों में फांप्त के राममैतिक क्षेत्र पर कहे फसलें हुईं और कट गई। वह इन मास्तों 
में अद्भुत गोल्माल का केन्द्र बना रहा | जिस दिन नेपोलियन को राज्यच्युत 
किया गया था, उसी दिन से फांत्त की गद्दी पर बोबोन का अठारहवां ल्यूहे 
अधिष्ठित हुआ । साम्राज्य प्राप्ति के समय ल्यूई लंदन में था, वहां से अधिकार 
पाने के लिये वह शीघ्र ही फांस में आ गया । साधारण प्रजा द्वारा भय से 
ओर विदेशीय नरेशों ओर रानपक्षपातियों द्वारा हष से अमिनानदित होता हुआ, 
वह पेरिस में प्रविष्ट हुआ । पेरिस के निवासी इस अदूसुत मूर्सिवाले राजा को देख 
कर बहुत सन्तुष्ट नहीं हुए | नहां वे पहले छोटे से किन्तु सुन्दर समाट के स्थिर 
कदमों को देखने के अम्यास्ती थे, वहां उन्हें अब गठिया का मारा हुआ अशक्त, 
और बूढ़ा ल्यूई दिखाई पड़ा | उसे देख कर ही फूच छोगों को घृणा होगई; 
फिर नब उन्हें यह ध्यान आया कि यह अशरक्त पुरुष विदेशियों द्वारा उन पर 
बिठाया गया है, तब उन की घृणा की सीमा न रही । 

पहले बोबॉन राभाओं के फांस में तथा, अब के फांस में बड़ा अन्तर था | 
क्रान्तिरूपी सन्‍्ध्या ने इन दोनों समयों में दिन और रात का सा अन्तर कर दिया 
था । अब प्रभा उन वाहियात और गद्णीय व्यवहारों को न सह सक्ती थी, निन्‍्हें 
तब की प्रजा सहर्ष सिर पर धारण करती थी । समय बदछ गये थे; ओर साथ 
छोगों के चित्त मी परिवर्तित होगेये थे । वह स्वाधीनता का भाव जो फांत निवा- 
सियों के अन्दर घर कर चुका था, किसी साधारण शक्तिद्वारा नहीं दबाया ना 
छक्तों था। उसे दबाने के लिये नेपोियेन नेती शक्तियों काले मनुष्य की ही आव- 
श्यकती यी। गेंभारे स्यूई में उसे शे्िं का रक्षोंश मी ने था । यदि स्थूई में केवल शक्ति 


२०२ | नैपोलियन बोनापार्ट । 


का अभाव ही होता तब भी खूर थी, किन्तु साथ ही बोबोनवंश की स्वाभाविक 
शठता और अन्धता भी उस में विद्यमान थी। जहां अब नेपोलियन के सामाज्य 
का विस्मरण कराके नये शासन के प्रति प्रेम उत्तन्न करने के लिये बड़े ही उदार तथा 
नीतियुक्त शासन की आवश्यकता थी, वहां ल्यूई ने अपनी नैप्तागिंक ज्ञानान्धता से 
देश में अशान्ति की आग भड़कानी शुरू की । 

राज्यपरिवतेन के समय जो संस्था आधोषित की गई थी, उस्त द्वारा सब 
फास निवासियों को राज्य की नोकरियों के समान अधिकार दिये गये थे; ल्यूई ने पड़ते 
ही उन का मंग करना शुरू किया । सेना में से पुराने अम्यस्त सेनाध्यक्षों को 
निकाल कर उन के स्थान में अशिक्षित कुलीन प्रवासियों को भर्ती कर दिया । 
नेपोलियन के वीर तथा योरप-विर्यात सेनापतियों का अपमान करना उप्त ने अपना 
कर्तव्य समझ लिया, और जितने सामाज्यकार्लीन बड़े पुरुष थे उन का भुलाने तथा 
बदनाम करने के लिये विशेष साधन किये । कई सेनाओं को विसर्नित कर दिया 
गया । विसनित सिपाही जब अपन २ ख़तों में पहुंचे तो विदेशियों के आक्रमण से 
उन्हें तबाह हुआ पाया | सिवाय बुड़बुड़ाने के उन के पास कोई साधन न था । 
कृषि का बुरा हाल होने पर वाणिज्य भी बेसुरा होने छगा | शासन का प्रवाह १८ 
वर्षों को स्वथा उपेक्षित करके, फिर पीछे को छोट चछा । साधारण प्रना इस दशा 
को डर से तथा आशझ् से, ओर समझदार लोग सम्मावना से देखने लमे । हरएक की 
आंखें परिप्त से हट कर एल्बा द्वीप पर टिकने ढगीं। यह प्रप्तिद्ध किया गया कि देश 
के दुःख मुक्त करने के लिये एक विशेष प्रकार के वस्खों का रिवान सर्दियों में 
चलाया जायगा । जब सर्दियं आई तो प्रत्येक मनुष्य के कपड़ों पर एक छोटीसी 
मुढ़ी हुईं तिकोन टोपी, ओर हरे कोखाले आदमी की तस्वीर दिखाई देने छगी। हर- 
एक मनुष्य यह अनुभव करने छग्ा कि शीघ्र ही क्रान्ति होने वाली हे । सारे चिन्ह 
निरिचत क्रान्ति का निर्देश कर रहे थे, यदि सन्देह था तो क्रान्ति के उद्धवस्थान में 
था । क्रान्ति उत्पन्न कहां से होगी ? पेरिस से या एटवा से ! 

हर एक मनुष्य की आंखें क्रान्ति के लिये पेरिप्त पर लगी हुई थीं, किन्तु देव 
को कुछ और ही अभीष्ट था। निन दिलों में फरांत देश क्रान्ति के लिये तस्यार होरहा 
था, उन्हीं दिनों में नेपोलियन के चित्त में भी क्रान्ति के सामान पेदा हो रहे थे । 
वह योरप के पत्रों में फ्रांस के समाचार बढ़े ध्यान से पढ़ता रहता था । वहां पर 
अशान्ति तथा असन्ताष का वृत्तान्त पत्रों तथा कात्रियों द्वारा निरन्तर उसे मिरता 


भागने की तस्यारी | २०३ 


रहता था। साथ ही उसे यह भी पता कछगता जाता था कि एशब्ा में मी वह स्वेथा 
रक्षित नहीं है; पत्नों में यह चर्चा बड़े जोर शोर से चछ रही थी कि उसे योरप 
समीपवर्ती एल्बा द्वीप से हटाकर सेण्टहेलीना में भेन दिया नाय, नहां से 
लोटना उप्त के लिये सर्बथा अप्रम्मव हो जाय । सेंटहेलीना की एकाकिता और 
अस्वस्थता को वह अच्छी प्रकार नानता था । उस सुखे द्वीप में सुखने के लिये 
जाने से वह बहुत घबराता था | उस के माप्तिक व्ययाथ जो धन फांस के राजकोष 
से देना निरिचत हुआ था, वह एक वार भी नहीं दिया गया था । यह भी ख़बर 
चारों ओर फेल रही थी कि एक हत्यारा नेपोलियन को मारने के लिये बोबोन रा माओं द्वारा 
निश्चित किया गया है । इन सब समाचारों ने उस्त के मन को ओर मी चढायमान 
कर रक्‍्खा था | 

नेपोडियन की यह मानाप्तैक दशा थी जब बऔैरन चाबोलन नाम का उप्त 
का एक पुराना सेवक तथा राजसभा का समास्तद्‌ उस्त के पास पहुंचा । वह सीधा 
फ्रांस से आरहा था । उस्त से नेपोलियन ने वहां के समाचार पूछे तो उसे पता लगा 
कि सारा देश बोबोन लोगों से अप्तन्तुष्ट होकर उस्नी की ओर निहार रहा है । बेरन 
ने नेपोलियन को बताया कि ऐसा एक मी राजनैतिक नेता फांस में इस समय नहीं है 
जो बोभोन राजाओं को चाहता हो । साथ ही उस ने यह भी कहा कि बढ़े २ कई 
सेनापति तथा रानप्तचिव अपने आन्तरिक दिल से नेपोलियन के पुनरागमन की आकांक्षा 
रखते हैं । नेपोलियन के चालित मन में इस वातोछाप ने और भी गति देदी, और 
वह एक बढ़े ही इतिहास-प्रप्तिद्ध साहापक कार्य के ढिये उद्यत हुआ । 

एल्जा में पहले प्ब विनेत्री शक्तियों न अपना एक २ प्रतिनिधि बन्‍्दी की 
देख भाल के ढिये रक्खा था, किन्तु दूस महीने के अनुभव ने उन्हें बता दिया था कि 
उन का बन्दी बड़ा ही शान्त तथा निर्चेष्ट हे; वह एल्‍्त्रा को छोड़ने की कोई इच्छा 
नहीं रखता । इस लिये, वे सब प्रतिनिधि धार २ इधर उधर खिसकने रंगे, ओर 
उन का बन्दी अपने ६ सौ रक्षक सिपाहियों की रक्षा में रहने हूगा। २६ फरवरी 
के दिन, नेग्रेलियन की बहिन ने द्वीपवासी सब बढ़े २ आदमियों को एक सहभोग में 
निमन्त्रित किया । नेपोडियन भी उत्त सहमोज में विद्यमान था, और उप्त का वार्त्ता- 
लाप यथापूर्व खुछा और प्रसन्नतासूवक था | उस सहमोज में राजदबारों के प्रतिनिधि 
थों को मी निमन्त्रण था, किन्तु उन में से कोई भी द्वीप में उपस्थित न था, अतः 
सहभोन कुछ सुना सा प्रतीत होता था । नेषोलियन के दो एक सेनाध्यक्ष भी 


२०४ मैपीलियन बोनापांट । 


उस में वियेमान थे। सहमोभ ही चुकने पर उस ने उन्हें अपने कमरे में बुंछाया 
और कुछ गुप्त आज्ञा उन के कानों! में देंदी | रात॑मर वे दोनों सेनाथ्यक्ष चुपचाप 
उस्त आज्ञा के पालन में रैगे रहे | प्रभात के समय, सूर्योदय से प्रथम ही, शरीर- 
रक्षक दल के ६ सौ सिपांहियों ने अपने आप की एक छोटे से पोत के ऊपर संमुद्र- 
यात्रा के लिये सज्जित पाया । किस्ती को भी पता न था कि यह नोका किधर को 
प्रस्थान करने लगी है । सभी यात्री बढ़े विस्मितचित्तां से एक दूसरे के साथ बातें कर रहे 
थे, जब उन्हें सामने से मुड़ी हुई परिचित टोपी दिखाई दी, और थोड़ी ही देर में छोटे २ 
कदम रखता हुवा सम्राट नेपोलियन उन के प्तामने आखड्डा हुवा । तोपों का शब्द किया 
गया, और नहाज़ के बादबान फैला दिये गये । नब पोत किनारे से कुछ दूर चला 
गया तब नेपोलियन ने सेना के सामने आकर कहा,-'वीर सेनिका ! आज हम फांप 
का साम्राज्य नीतने के लिये प्रास्थित होते हैं । क्या तुम इस कारये में भेरे सहायक 
होगे ” केवल नेपोलियन की बुद्धि पर भरोसा रखते हुए तिपाही चिल्ला उठे, 
'भहाराम की जय हो! । 

पांच दिन तक यह देशविनयाथ सन्नद्ध नहाज्ञ प्मुद्र पर चलता रहा । 
रास्ते में कई स्थानों पर उसे इंग्लिश नोकाओं का सामना हुवा, पर उन्हों ने उस्त केवल 
वणिक्पात समझकर छोड़ दिया । मार की एह प्रविष्टा के दिन नेपोलियन कैनस 
नाम की बन्दरगाह पर पहुंच गया, और फिर दूसरी वार फांस का साम्राज्य प्राप्त 
करने के लिये उस ने साहसिक यात्रा प्रारम्म की | आन तक ऐसी विनययात्रा का 
वृत्तान्त मी किसी ने न पढ़ा होगा । कई छाख फोश, और राजधानी के स्वामी 
एक सम्राट्‌ की, ६०० प्विपाहियों की सहायता से हराने का भी आजतक किसी ने 
यत्र न किया होगा | नो आमतक किसी ने नहीं किया था, उसी के करने के लिय 
हमारा नायक तय्यार हुआ, और निःसंदेह उस ने उप्ते बहुत ही कृतकाय्येता से 
कर दिखाया । 

फांत की मूमि पर उतरने के अगले ही दिन उत्त ने विनययात्रा प्रारम्भ की | 
जहां कहीं वह पहूँचा, वहीं पर उत्तका स्वागत हुआ | नहाज पर ही उस्त ने प्रमा के 
नाम घोषणापत्र लिखवा रक्खें ये, उंस ने उन्हें बेंटवाना प्रारम्म किया । फांत की अविश- 
धूणे प्रजा बोबोन रानाओं के देस महीनों के राज्य से ही तह आचुंकी थी। निस्त नगर 
में अपने सिंह-सभान वीर॑ सिपाहियों के साथ नैषो|डियन पंहुंचा,उसीमे अपने दरवाजे खोल 
दिये । नो सेनां उस के साथ रहने के ।हिये मेनी गई, वही उस के सोथ मिल गई । 


रक्तरहित वित्य | २०९ 


ओऑनोजबल नगर के पास राजा की भेमी हुई ६ सहख सेना नेग्रोक्षीयन का रास्ता रोकने 
के लिये खड़ी थी । जब उसे यह समाचार मिला, तब उस्त ने एक अद्भुत साहसिक 
. चाल चली ।ै सारी सेना को पीछे छोड़ कर वह अकेला ही उप्त सेना के सामने 
चला गया | सामने ६ सहस्न सिपाही बन्दू्के कन्धों पर रक्ख चट्टान की तरह 
खड़े थे, वह शने! २ उन के पास आने हूगा । सेना न हिली । जब वह सेना से 
केवछ १० कदम की दूरी पर रह गया, तब सनापति ने सिपाहियों को आज्ञा दी कि 
'प्रहार करो?। आज्ञा पाकर सिपाहियों ने अपनी बन्दू्के समालनी शुरू कीं । नेपोलियन 
ने अपनी छाती पर से हरे कोट के बटन खोलते हुंव ऊँचे शब्दों में कहा,- 
सैनिकों ! क्‍या तुम में से कोई ऐसा है जो अपने सम्राट और सेनापति पर गोडी 
चलाए ? यादि कोई है तो वह वार करे, मेरी छाती खुली है। ” सम्राद्‌ के चिर 
परोचित शब्द सुनते ही हरएक सिपाही की बन्दृक का मुंह नीचे को होगया । 
सेनापातियों ने घबराकर अपने घोडों के एड्रियें लगाई ओर रफ्चकर होगये । 

अब तक परिस में नेपोलियन के आने का समाचार पहुंच चुका था; ल्यूई ने 
घबड़ाकर पुराने सेनापति ने को बुलाया ओर नेपोड्ियनका रास्ता रोकने के लिये 
कहा । ने यद्यपि वीर था तथापि उसका सिर वीरता के अनुकूल न था । ल्यूई के 
सामने उप्त ने नेपोलियन को पिव्नरे में बन्द करके लाने की प्रतिज्ञा की, और सेना 
साहित रास्ता रोकने के लिये चल दिया | ज्यों ही वह अपने पुराने सम्नाट्‌ के पास 
पहुंचा, त्यों ही उप्त का दिल द्रवित हो गया! अपनी शपथ को भूलकर, अपनी सारी 
सेना के साथ वह भी अपने पुराने स्वामी के पीछे २ हो लिया | इस्र प्रकार प्रति दिन 
अपनी शक्ति को बढ़ाता हुआ, नेपोलियन पेरिस के पास पहुंचने लगा। जब ल्यूई ने 
सुना कि साहसी कोर्सिकन पेरिस से केवल एक दिन के रास्ते पर है, तब उस के 
तो गठिया के मारे हुए शरीर में कंपकंपी छूट गई । अपने परिवार और मुकुट के रत्न 
सहित गाड़ी में सवार होकर वह सब से छोटे रास्ते से फ्रांत के बाहिर होगया । 

२० माचे के दिन नेपोलियन पोरिस में प्रविष्ठ हुआ । अपने पुराने शान्दार 
समूद्‌ के आनेपर पोरिस्त ने नो हष प्रकट किया, वह अस्तीम था। वह पेरिस के द्वारतक 
गाड़ी में आया किन्तु आगे चलना उप्त के लिये अप्म्भव था| जोश में भरे हुए 
छोगों ने उस्त के देह को गाड़ी मेंसे उठा लिया ओर हाथों ही हाथो पर वह राजमहरू तक 
पहुंचाया गया। सारे मार्गों में कही तिल धरने को स्थान न था। स्वभावोज्ज्वल पेरिस उम्र 
दिन असाधारणतया उज्ज्वल होगया। उसी पैनेट के सम्यों ने, निस्॒ ने दस मास पूर्व 


२०६ नेपोलियन बोनापार्ट । 


उस की राज्यच्य॒ति का ठहराव पास किया था, आम उस के स्वागत में भाग लिया। 
रुधिर की एक भी बूंद गिराये बिना, २० दिन में फांस के सारे देश को जीत ढेना तथा 
स्थित राजा को भगा देना नेपोलियन का ही कार्य्य था। 


पड5चमपरिच्छेद । 


८२००००००७७०००“ विवाह पक्की 





ऐप 
बाटले । 
+ ''ए़॥०१00 छ३५ एशञा0९॥ ॥ (6 700४8 0 0९5079.7 १०७०।९०॥. + 
“बाटलू देव की परस्तक में छिखा जा चुका था । नेपोलियन ।” 

पेरिस में पहुंच कर नेपोलियन का प्रथम काय्य देश की अव्यवस्था को दूर 
करना था। बोर्बोन राजा जिस दुन्येवस्था में राष्ट्‌ को छोड़ गय थे, उसके रहते हुए, 
वह अपने आप को कदापि राक्षित नहीं कर सक्ता था । साथ ही वह अब फिर से 
अपने आप को फ्रेंचप्रमा का राजा बनाना चाहता था । इस लिये उसने सारे देश के 
वासियों से अपने समाट होने के विषय में सम्मतियं मांगी | बड़ी भारी बहुसम्मति 
से वही समूद्‌ निश्चित किया गया | समयालुकूल संस्था में कुछ परिवतेन करके, उस 
पर भी देश भर की सम्माति ली गई । बहुसम्मति ने उन परिवर्तनों को मी स्वीकार 
किया । इस प्रकार एश्ब्रा से छोट कर फ्रांस के समूट्‌ बनने की चेष्टा को नियम 
पूर्वक बनाकर, वह योरप-गर्भ में से उठती हुईं आंधी का सामना करने के लिये तय्या- 
रियों म॑ लगा । 

सारे योरप के समाद्‌ तथा रानप्रतिनिधि वीना की सभा में देशों का भाग्य- 
निएचय कर रहे थे, मिस समय उन्होंने सुना ।के नेपोलियन एल्बा से निकल आया हे, 
ओर पेरिस ने उसका अदृष्टचर अभिनन्दन किया है । इस समाचार को सुनते - ही 
योरप की कांट छांट में गे हुए इन सब विनेता नरेशों के आश्चय्थे तथा भयमिश्र- 
विस्मय की सीमा न रही । निम्न काय्ये को करके वे विश्राम छेने के लिये बेठे थे, 
वही काय्ये सवेथा नये सिरे से करने योग्य हो गया | निप्त शत्रु को वे सर्वथा नष्ट 
हुआ समझ रहे थे, उसीकी चमकींढी खड़ग-धारा उन्हें अपने प्रिरोंपर दीखने छगी। 
वे खुशियें और विरासत, मिनका दौर दौरा चल रहा था, इस समाचार के साथ ही 
शुन्य हो गईं | सम्मिद्तित राजाओं की सारी शक्तियें पहले निःस्तत्त्व हो गई, किन्तु 
शीघ्र ही पहले धक्के का प्रभाव उतर गया, ओर सब राभा तथा राजमप्रातिनिषि 
फिर से नैपोलियन को आसनच्युत तथा जीवनच्युत करने के उपाय सोचने लगे | 

बहुत विचार के पीछे प्म्मिलित राजाओं ने फ्रांस के सिंहासन पर से नेपोकियन 


# 


२०८ नेपोलियन बोनापार्ट । 


को उतार कर, उस्त के स्थान पर बोबोन राजाओं को ही बिठाने का निर्वय किया। 
साथ ही उन्होंने एक घोषणापत्र निकाला मिस द्वारा एलबा से भाग आने को राज- 
नेतिक पाप बताते हुए, नेपोलियन की सम्यप्तमाज के सब नियमों से बाह्य करार 
दिया गया । साथ ही शत्रुओं ने यह खुचना भी फ्रेंचप्रजा को देनी चाही कि वे 
फ्रांस के विरुद्ध युद्ध नहीं कर रहे हैं, किन्तु उनका मुख्य विरोध अकेले नेपोलियन 
से हे; नब वे नेपोलियन को फ्रांस के सिंहाप्तन पर से उतार देंगे, तब फिर से फ्रांप 
स्वार्धीन हो जायगा, ओर योरप में शान्ति की स्थापना होगी । 

शत्रुओं की इस आधोषणा ने फ्रांस के कई स्थाना में जोश फेला दिया, ओर 
कई स्थानों में उनलते हुए मोश पर पानी छिड़क दिया । नहां पर लोग नेपोडियन 
के बहुत पक्ष में थे, वहां पर इस घोषणा ने उन में आग फूंक दी; किन्तु ऐसे स्थानों में 
जहां अभी बोबॉन राजाओं का प्रभाव बहुत बढ़ा हुआ था, लोगों के दिल नेपोलियन 
से फिर गये । शन्नुओं के वाक्यों को सत्य समझते हुए उन्हों ने सोचा कि यदि ये 
सारे युद्ध-ये सारे मय-केबल एक व्यक्ति के कारण ही हैं, तो उस एक का नाश 
करके शान्ति की स्थापना क्‍यों न की जाय ? कैन्‍्तु वे बेचारे नहीं नानते थे कि सम्मार्त 
राजाओं के वाक्योंका मूल्य भी उतना ही है, नितना नेपोलियन की प्रजा के राज्या- 
घिकार बढ़ान के विषय की आधोषणाओं का | 


इस घोषणापत्र को विस्तारित करके शत्रुओं ने अपनी सेनाओं की बागें पेरिस 
की ओर को मोड़ीं, ओर आठ छाख सेना मृत्यु के दूत की तरह गनती हुई फ्रांस 
के ऊपर चढ़ चली । किन्तु नेपोलियन अन्न युद्ध न चाहता था, ओर वह जानता था 
कि वह अब युद्ध करमी नहीं सक्ता । उस्त के पास न सेना थी, और न कोष था। 
कई सेनापतियों ने शत्रु का आश्रय ले लिया था, और कई निरन्तर युद्धों से थक 
कर विश्राम कर रहे थे । शत्रु, काले मेत्रों कीतरह उमइते हुए चारों ओर घिर रहे 
थे, ओर नेपोलियन के पास उनका सामना करने के लिये प्ताथन न थे | तब 
किसी मी उपाय से सन्धि करने का ही उप्त ने सक्लल्प किया | सब देशों के राजा- 
ओ के पास सन्ध्रि के लिय उप्तन अपनी दृस्तख्रती चिट्ठियें भे्जी-चारों ओर शान्ति 
की झण्डियों को लिये हुए राजदूत दोड़ाये | किन्तु अब बहुत विलम्ब हो चुका था; 
वारवार की पराजयों से अपमानित ओर इस महाप्तत्व प्राणी की शक्ति से 
. थका हुआ योरप अब उसको नामशेष करने के लिये तुछझा हुबा था । उस के 


अन्तिम युद्ध का प्रारम्भ _ २०९ 


सन्धि के प्रस्ताव को या शान्ति के केतु को किसी ने भी सत्य तथा गम्मीर नहीं 
समझना; किसी ने उसपर विचार करने का भी कष्ट न उठाया। 

शान्ति ओर सन्धि से अपनी स्थिति को असम्मव देख कर, अब सम्पूर्ण 
शक्तियों को उसने सेना की तय्यारी में गाया । चारों ओर से सेनायें एकत्र कीं; 
तथा नह सेनायें मर्ती कीं | दिन रात परिश्रम करके कोषों में से उन सेनाओं के 
पालने योग्य धन भौ इकट्ठा किया, ओर थोड़े ही दिनों के परिश्रम से उसने अढ़ाई 
लाख के समीप सेनाये शास्त्रों से सज्नित कर ढीं। उप्त अढ़ाई छाख सेना में से 
आधी को पेरिप्त की तथा देश के अन्य भागों की रक्षार्थ स्थापित करके, शेष आधी 
को लेकर वह १२३ जून (१८१५) के दिन फ्रेंचसीमा के बाहिर से घिरते हुए 
शत्रु का रास्ता रोकने के लिये प्रस्थित हुआ। 

अगले दिन वह अपनी सेनाओं के उपनिवेश में पहुंच गया। वहां पहुँच कर उसने 
शत्रुओं की तथा अपनी व्यवस्थिति पर विचार किया । उसने देखा कि उस से थोड़ी 
ही दूर सामने शत्रु की दो मुख्य सेनायें पड़ी हुई रूसीसेना के आने की प्रतीक्षा 
कर रही हैं । सेनापति ब्लूचर १,३०,००० सेना के साथ नैसर नगर को दुगे- 
बद्ध करके, उस में उर्पनिवेश डाले पड़ा था । उस से कोई नो दस मील की 
दूरी पर ब्लूस्सल्स में अग्रेन सेनापति बैलिंग्टन अपनी एक छाख संगीनों से उम्र 
की सहायता करने के छिय तय्यार था । फुंच महाराज ने शत्रु की इस अवस्थिति 
को देख कर एक साहसिक कार्यक्रम सोचा | उसने सोचा कि सब से प्रथम अकस्मात्‌ ही 
ब्हूचर की सेना पर धावा कर दिया जाय तथा उसे ऐसा घेरा जाय कि उस की शक्ति 
का बहुत ही छोटा माग शेष रह जाय, जो माग शेष रहे वह भी उधर को न जा सके 
जिधर को अंग्रेजों की सेना पड़ी हुईं है | इस प्रकार से एक सेना का विच्छेद करके 
फिर वैलिंग्टन पर धावा किया जाय और उसे भी पीछे को भगा दिया माय । 
वहां से मगाया जाकर वैलिंग्टन सिवाय समुद्र के कहीं आश्रय न पाप्तक्ता था । 

यह था साहसिक कार्यक्रम, नो नेपोलियन ने निश्चित किया | इस सारे क्रम की 
सफलता इसी बात पर आश्रित थी, कि शन्नु की सेनाओं पर अचानक आक्रमण किया जाय | 
यह बहुत कुछ सम्भव भी था, क्योंकि अभी तक शत्रु के किसी भी, सेनापाति को 
यह पता न लगा था कि नेपोकियन पेरिस से चल दिया है | किन्तु इसी समय एक 
ऐसी दुषेटना हो गई मिस्त ने न केवढ इस कार्यक्रम को बिगाड़ दिया, साथ ही 
: मैपोड़ियन के विनय में सर्वथा सन्देह डा दिया । बोसलोण्ट ताम का एक सेना- 


३१३४ 


२ १० नेपोलियन बौनांपारे | 


ध्यक्ष, मिसे नाराज होकर पहले समाट्‌ ने अपनी सेना से निकाछ दिया था , कंई 
सेनानियों के कहने पर फिर से मती कर लिया गया था । वह झुंद्ध के ऐन शुरू 
में, शत्रुओं की सेना में ना मिला । यह स्वामिंद्रोही नेपोलियन के सारे कार्यक्रम को 
सुन गया था, ओर साथ ही सब सेनापातियों को जो २ आज्ञाये मिली थीं, उन से 
भी अमिज्ञ होगया था । ढलूचर को उस ने सब कुछ सुना दिया, और उसे 
सचेत कर दिया । इस घटना ने नेपोलियन का अकस्मात्‌ वार करना असम्भव 
कर दिया | 

तथापि अपनी सेना की वीरता पर भरोसा रख कर, उस ने अगले दिन ब्लूचर 
पर आक्रमण कर दिया । वैलिंग्टन से उस्त के मेल को रोकने के लिये, नैमर 
और ब्रूस्सल्स के बीच में बसे हुवे एक छोटे से क्काट्रेच्नास नाम के ग्राम पर 
अधिकार जमाना आवश्यक था | इस काये के लिये उस ने सेनापति ने को 
मेना । सायंक्रा] के समय सेनापति ने उस ग्राम से चार पांच माल दूर रह गया । 
उप्त की सेना बहुत थकी हुंडई थी और ग्राम में कोई भी शत्रु देखने को न था। 
ने ने समझा कि अब आगे जाने से क्या छाभ, यहां आराम करके प्रातःकाल 
ग्राम पर अधिकार कर छेंगे । यह विचार कर उप्त ने वहीं पर अपने डेरे डाल 
दिये, और समूद्‌ के पास एक दृत यह कहने के डिये मेन [दिया कि क्ाटल्नास पर 
अधिकार जमा लिया गया है । नेपोलियन को जब यह समाचार मिला तो उस ने और 
सब प्रबन्ध ठीक समझ कर ओर शत्रुओं के मिलने को अस्म्मव करके ब्लूचर 
की सेना पर धावा किया । थोड़े ही युद्ध में ब्लूचवर की एक छाख से आधिक 
सेना के पेर उखड़ गये; अब सेनापति ने का समय था; भागती हुईं प्राशियन 
सेना को काटने के लिये ही उप्त क्काद्ेब्रास पर भेना गया था, किन्तु वह वहां 
कहां था ! प्रातःकारू उठ कर ने ने देखा कि निप्त ग्राम को वह अपना समझ कर 
सोया था, वैलिंग्टन उसमें अपनी प्रबल सेना की लिये पढ़ा है | उल्न ने कज्ा और 
निराशा से खिन्न होकर कई धावे ग्राम पर किये, किन्तु वैडिंगटन की अचल सेना 
न चली । जरासी नींद ने हाथ में आई हुई मीत को फिप्तक जाने दिया ! थोड़ी 
सी भूल न फ्रांस का साम्राज्य पल्ट दिया | 

हारी हुई प्रशियनसेना पीछे को छोटने हगी; वैलिंगटन ने मी उच्त के साथ 
मे करन के लिये पीछे मुडना शुरू किया | नेपोलियन ब्लूचर का पीछा करने के लिये 
सेनापति ग्रोच्ची को छोड़ कर, स्वयं वैढिंग्टन का घ्वंस करने के लिये, ब्रस्सल्स की 


वाध्दू का अंद्धे । २११ 


ओर को मृदा । वैहिंग्टन थोड़ा सा पीछे जाकर बाद नाम के स्थान पर ठहर 
गया और वंहां पर अपनी सेना को प्रबल स्थिति में स्थापित करके शत्रु ओर 
ब्लूचर की प्रतीक्षा करने छूगा | रात से पूर्व ही उम्त के सामने की भूमि में फुंच- 
सेना के भी डरे छूग गये | दोनों ओर से रात मर तथ्यारियें होती रहीं; योरप के 
भाग्यनिश्वायक अंतिम युद्ध के लिये दोनों सेनायें सन्‍नद्ध होती रहीं । 

शनेः २ रात बीत गईं ओर प्रमात का समय हुआ । इस सारे काल में 
निरन्तर वर्षा होती रही थी, इस हिये प्रातःकारू सारी की सारी भूमि गीली पढ़ी 
थी । गीली भूमि में तोपों का हिलना कठिन होता है, ओर नेपोडियन सेनापाति ही 
तोपों का था ; तोपं ही उप्त के विनय का मुख्य कारण होती थीं । शत्रु की 
सेना में छिद्र करने का उप्त का यही उपाय था कि उस के मध्य में 
गोलों की मूसछूधार वषों की माय । जहां सेना के म्रध्य में छिद्र हुवा, वहां 
नैपोलियन की पेदल सेना घुसकर शत्रु को दो भागों में विभक्त कर देती थी। तब बड़ - 
सवारें की बारी आती थी । वे छिल्न हुई हुई शन्नुस्तेन के एक २ भाग पर पृथक्‌ २ 
वार कर के उन्हें नष्ट कर देते थे | भिन तोपों के आश्रय नेगरोडियन विनय पाता 
था, आज उन्हीं का चढ़ना कठिन था। वैलिंग्टन के लिये यह कठिनाई न थी । वह ऊँच 
स्थान पर पहले से ही अपना दुगे बांधे डटा हुआ था, उप्ते केवछ अपने स्थान की 
रक्षा करनी थी । 

ग्यारह बने के रूगमभग भूमि कुछ सुखी, तब युद्ध प्रारम्भ हुवा | जो छोग 
युद्धविद्या से अमिज्ञ हैं वे कहते हैं कि ऐसा घोर युद्ध ओर कोई देखने में नहीं 
आया । दोनों ओर की सेनाये अपने २ प्रकार से अतिवीर थीं। नेपोलियन से 
नीत हुई फ्रेंचसेना का आक्रमण, बिनली के आकरिमक धक्क से कहीं प्रबल 
होता था । दूप्ती ओर अंग्रेज थे। अंग्रेजों की दृढ़ता को कोन नहीं मानता ? नित- 
ने आक्रमण से और देशों की सेना में मानई पड़ जाती है, उतन आक्रमण से 
डेग्लिश सेना का एक कदम भी पीछे नहीं पड़ता । तब फिर युद्ध की मयानकता में 
क्या सन्देह था ! 

युद्ध के प्रारम्भ से ही फांस की सेना ने दुर्निवार आक्रमण शारू किये | कुछ 
चंण्टों के युद्ध में ही अंग्रेनी सेना के दोनों पाश्वे बहुत पीछे धकरेल दिये गये । मध्य 
भाग, जहां स्वयं बेलिंग्न खट्टा हुआ था, अविचालित रहा । यह देख कर 
नैफेलियेंन ने अपनी ३९५०० घुड़सवारों की वीर सेना को मध्य भाग के तोड़ने के 


२१२ नेप्रोलियन बोनापाे । 


हिये मेना । उस ने मुद्ध कर पास खड़े हुए सेनापति ने की ओर देखा ; ने ने 
अपने कोष में से तलवार निकाली, नेपोछियन को प्रणाम किया ओर वह घुड़सवारों के आगे 
हो लिया । तब एक विचित्र दृश्य उपस्थित हुआ । इस सेना के घुड़सवारों के धोड़े 
ऊचै:श्रवा के समान ऊंचे तथा वेगवान्‌ थे | उन के ऊपर ऊंचे २ मुकूटों को 
धारण किये हुए सवार देवसेना के समान शोभायमान हो रहे थे । हरएक सैनिक 
एक हाथ में लगाम, ओर दूसरे में पिस्तोक लिये हुए, दांतों के बीच में तलवार 
दबाये हुए, ओर शत्रु की सेना की ओर को आंखें किये हुवे खड़ा था । आज्ञा 
दी गई, दुन्दुभि बनने लगी, वादित्र का गान शुरू हुआ ओर यह घुड़सवारों की 
सेना शत्रु के मुख्य भाग को काटने के ढिये प्रस्थित हुई । 

सामने पहाड़ी के नीचे इंग्लिश पेदुछ सेना खड़ी हुईं थी । उसे यद्यपि ओझल 
होने के कारण इस सेना के प्तिपाही न दीखते थे तथापि ३५ सो धोड़ों की एक 
कार्लीन टाप को वह भी सुन रही थी ।रबाच २ में महाराज की जथ हो' का नाद 
करती हुई और वायुसमान घोड़ों के एड़ी छगाती हुईं सेना पहाड़ी की चोटी पर 
पहुंची । शत्रु ने उसे देखा ओर उप्र का दिल जोर से धड़कने ढुगा। ३५ सो 
मुकुठों की ज्योति और ३५ सौ धोड़ों की ठाप ने उसे सशहू कर दिया । अंग्रेजी 
सेना सहम गई; फेंचसना शत्रु के मध्य को उड़ा हुआ समझ कर प्रप्तन्न होने ढूगी। 

घुड़सवारों को मी शत्रु का सैन्य दीख पड़ा, उन्होंने अपने धोड़ों का वेग 
और भी बढ़ा दिया । इसी बढ़ाये हुए वेग से नाते हुए घुड़तवारों की अगली 
पंक्ति ज्याही पंत की समाप्ति पर पहुंची कि न जाने कहां गई । दूसरी, तीसरी 
और चौथी पंक्ति पहाड के अन्त तक पहुची ओर वह भी वहीं विल्ीन हो गई । 
पहाड़ के अन्त में एक १३ फीट गहरी खाई थी, उप्त का किप्ती ने ध्यान भी न 
किया था। ज्योंही घोढ़े वहां पहुंचे, वे डरे, जरा झिप्लके; किन्तु अब झिझकने का समय 
न था | पिछले सवारों के धोड़ों का बह अनिवाय्ये था । घोड़े और सवार पढ़ाघड़ 
खाई में पुर होने लगे | ३५०० में से आधे के लगमग सवार इस खाई के अपंण हुए, 
तब वह खाई भरी । शेष सवार उस भरी हुई खाद पर से पार हुए । उन्होंने शत्रु 
की सेना में जाकर प्रढय मचा दिया | हर एक को अपनी जान के छाठे पड़ गये। 
एक २ घुड़सवार ने बीस २ शत्रुओं को यमद्वार दिखाया । थोड़ी ही देर में शत्रु 
का मध्यभाग छित्न मिन्न होता हुआ नज़र आया, किन्तु वह सर्वथा ध्वस्त नहीं 
हुआ । यदि वह खाई की दुघेटना न होती तो इस वार में अंग्रेजी फौन के बारे 


रक्षकतना का आक्रमण | २१३ 


न्यारे थे। किन्तु देव ही नेपोलियन के विरुद्ध था ! यह वाटलू के परानय का 
प्रथथ कारणथा । 

यद्यपि इस आक्रमण से शन्नु का नाश नहीं हुआ, तथापि उस के पेर उखड़ गये। 
अंग्रेजी सेना धीरे २ पीछे को लौटने लगी। चट्टान के समान दृढ़ बैलिंग्टन के मुख पर 
मी चिन्ता की रेखाये पड़ने लगी। दिन मर तो वह पीछे न लोटने पर तुला रहा, किन्तु 
फूचसेना का आक्रमण अनिवाय्ये था | वह केवल ब्छुचर की सेना की प्रतीक्षा 
कर रहा था, किन्तु सायंकाल के तीन बन गये और ब्डुचर नहीं पहुंचा । वैलिंगटन 
का दिल टूटने लगा । सायंकाल के पांच बने थे । वह वार २ घड़ी निकाल्ता और 
कहता-कि “ अब रात्रि या ब्लूचर में से कोई आना चाहिये ” किन्तु उन दोनों में 
से कोई भी न आता था । अंग्रेजीसेना को पीछे छौटता हुआ देखकर नेपोल्यिन 
चिला उठा कि अब मैदान मार लिया । किन्तु अमी उस का यह वाक्य समाप्त भी 
न हुआ था कि उस ने अपने पीछे की ओर दृष्टि उठाकर देखा तो सेनापति ब्लृघर 
की ५० हजार सेना पहाड़ी पर से उतर रही है । 

पेचीदा समय उपस्थित हुआ । वैहिंग्ट सहायक को देखते ही लोटता २ 
ठहर गया, नेपोलियन का दिल एकदम घड़कने लगा । दिन भर के युद्ध से फ्रेंच- 
सेना बहुत ही थक चुकी थी । मेरे हुआ की भी संख्या कम न थी, इस समय उस 
के पास ९० सहस्त सैनिकों से अधिक काठनता से होंगे; ऐसी अवस्था में शज्नेसन्य में 
उतनी ही ताजी सेना का योग होनाना डरावना था-धातक था । 

अब नेपोलियन के पास केवछ एक ही उपाय था। वह किसी तरह ब्लूचर 
के पहुंचने के प्रथम ही यदि वैलिंग्टन को भगा सके तो ब्लूचरर का आना 
निरथंक किया ना सक्ता था । किन्तु सारी फ्रेंचसेना थकी हुईं थी, इस भगाने 
के कार्य्य को कोन करता ! केवल रक्षकसना शेष थी, वही इस समय काम आ 
सक्ती थी । अपनी सारी चार लाख सेना में से अच्छे २ सिपाहियों को चुन कर 
_नैषोलियन ने यह रक्षकसेना तय्यार की हुई थी । प्रायः उस के सारे बड़े २ विजय 
इसी सेना के अन्तिम धावे से सम्पूर्ण हुए थे। सारा योरप इन ५ सहल्न घहसवारों 
के नाम से कौपता था । नेपोलियन ने अब इसी रक्षक्सना से कास्ये लेने का विचार 
किया ! ब्लूचर का प्रतिरोध करने के लिये १० सहस्न सैनिकों को नियत करके, उस 
ने रक्षकसना को अन्तिम आक्रमण की आज्ञा दी । अदम्य ले सिर झुका कर 
रक्षकदक के आगे हुआ | 


२१४ नेश्नेत्रियन बोनापार्ट । 


हरएक सैनिक समझ गया कि अब अन्तिम समय आ गया है | दोनों ओर की 
पेनाये जानती थीं कि उन का भविष्यत्‌ इसी क्षण पर अवरूम्बित है | उन का भवि- 
प्यत्‌ क्या, सारे योरष का भविष्यत्‌ इसी क्षण पर अवरम्बित था । यह दल नेपोलियन 
की दक्षिण भुजा था, यदि इस का वार खाली गया तो समझो कि नेपोलियन का 
दाहिना हाथ कट गया । ९ सहस्न जगद्विस्थात सैनिकों के ऊंचे मुकुठों और हवा 
में फहराते हुए फून्दों को उद्यत देख कर फ्रेंचसेना आशाभरे शब्दों में चिल्ला 
उठी-'महारान चिरजीवी रहें।” साथ ही अंग्रेजी सेना अपने मृत्यु दूतो को सामने खड़ा 
रखकर स्तम्मित होगई । दुन्दुभिनाद शुरू हुआ और रक्षकदल के घोड़े हवा होगये । 
योरप का भविष्यत्‌ निश्चित होने का समय निकट आया। आज तक कभी रक्षकदल का 
वार खाली नहीं गया था, उन के मृकु्टों पर कभी पराजय का कलंक न लगा था; 
देखे आज क्या होता है : 

रक्षकदल शत्रुसेना के पास पहुंचा । प्तामने खड़ी हुई अंग्रेजीसेना के सिपाहियों 
का साहस नहीं पड़ता था कि वे गोलिये मारे । नेपोलियन के बीसों विनयों को 
एकदम अपने ऊपर गिरता देखकर उन के जी सहम गये । किन्तु ड्यूक आव 
बैलिग्टन स्वयं वहां पर आया और उसने सिपाहियों को निशाना मारने की आज्ञा 
दी । उम्ती समय २०० के लगभग तोपों के मुंह खुछ गये । रक्षकद॒छ पर धांय २ 
गोले बरसने लगे | नेपोलियन एक ऊंचे स्थान पर खड़ा हुआ अपने इस अन्तिम यत्र 
को देख रहा था । पहले उसे रक्षकद्छ बढ़ता हुआ दीखता रहा, फिर उप्त ने गोलियां 
और गोला से उस के अगले भाग को भुनते हुए देखा, और थोड़ी देर में सिवाय छुंवे के 
कुछ भी न दीखता था । रक्षकदछ शत्रुगरभ में घ्रस गया । २० मिनट तक यही 
हाल रहा । फिर एकदम गोछों का चलना बन्द हुआ । घुंवा आकाश से साफ 
हुआ । तब नेपोलियन ने देखा कि ऐन शत्रु गर्भ में र्कदर के केवल शेष रहे हुए 
सो सिपाही खड़े हुए हैं, ओर सब नष्ट हो गये । 

भुनते २ रक्षक केवल सो रह गये, किन्तु फिर भी उन्हों ने पीछे को कदम 
नहीं रकखा । वीरता की इस पराकाष्ठा को देखकर बैलिंग्रन ने उन पर गोे 
चलाना बन्द करके उन के पास्त शान्ति की झण्डी भेजी ओर श्र रख देंने के लिये 
कहा । रक्षकद्ल के सेनापति कैस््लोन ने इस कथन का जो उत्तर दिया वह इति- 
हास में सबेदा स्मृत रहेगा । उस ने कहा कि “ रक्षकदल का सिपाही मरना जानता 
है, किन्तु शख रखना नहीं जानता । ? यह महाभारत की वीरता का आइचे था। 


पेरिस में नेपोलियन । २१५ 


फिर से तोर्षों ने अपने मुंह खोल दिये, और पांच मिनट में वे सौ सिपाही भी शून्य 
शेष हो गये । इस प्रकार , वाटई के युद्ध में, नेपोलियन की सारी विजयों का हेत् 
यह रक्षकदुल बिल्कुल नष्ट हो गया । 

अब फ्रेंचसेना को कोई आशा न रही । जिसे जिधर रास्ता मिला; वह उघः 
ही भाग निकछा । ब्छूचर की सेना ने फूँचसेना का पीछा किया और शेष क 
भी ध्वंस कर दिया । नेपोलियन ने भी निराश होकर अपने घोड़े के एड्ी लगा 
ओर पेरिस का रास्ता लिया । दो दिन तक रास्ता तय करता हुआ, फटे हुए कपड़ं 
और मिट्टी सेलिप्ति मुंह के साथ, २१ जून के दिन नेपोलियन पेरिस छोट आया। 

अगे जो कुछ हुआ, वह थोड़े में ही कहा जा सक्ता है । विजय के सा: 
लोकप्रियता निवास करती है । विशेषतया उन लोगों के लिये, जो केवल विजय व॑ 
सीढ़ियों द्वारा ही उपर चढ़े हों, पराजय मृत्यु के समान होता है । जो कुछक्रमा 
गत राजा हैं, पराजय उन की उतनी हानि नहीं कर सक्ता, जितनी बाहुबल ; 
उन्नति प्राप्त करने वालों की कर सक्ता है। वाट के पराजय ने पोरिस में नेपोलिय 
के विरुद्ध एक बड़ा भारी दह खड़ा कर दिया । पेरिस में जाकर, उस ने अपने 
मन्त्रिसभा से शत्रुओं के रोकने के लिये उचित अधिकार मांगे । मन्त्रिसभा दे: 
को तय्यार थी किन्तु लोकप्रतिनिधियों की नियामक सभा में उस के विरुद्ध एव 
बड़ा भारी दल खड़ा होगया था । उस में से कई स्वार्थ से उस का विरोध करते थे 
तथा कई सच्चे दिल से उसे फ्रांस की अशान्ति का मुख्य हेतु समझते थे । इनसः 
ने मिक्त कर नेपोलियन से प्रार्थना की कि वह देश की रक्षा के लिये सम्राट पद ईं 
म॒क्तिपल दे दे । सारी सेना और पेरिसपुरी उस से युद्ध में चलने की प्रार्थना कर रह 
थी , छोग उस की नेता बनाकर शत्रुओं पर टूट पड़ने को तय्यार थे, किन्तु नेपो 
लियन की दृष्टि भविष्यत्‌ पर जमी हुईं थी । उस के मन में यह विचार बड़े बल है 
काम कर रहा था कि केवल अपने आधिपत्य के लिये, इस समय, देश में आन्तरिव 
ग्रुद्ध उत्पन्न करना उसे भविष्यत्‌ सन्‍्तानोंकी दृष्टि में गिरा देगा । इस लिये उस « 
, नियामकसभा के प्रस्ताव के सामने सिर झुकाया और अपने पुत्र के नाम राज् 
लिख कर स्वयं सम्राट्‌ पद से मृक्तिपत्र दे दिया | 

नैपोलियन के सम्राट्‌ न रहने पर एक सामयिक शासमससंस्था बना ली गई 
जिस का मुख्य धूर्त फूशा हुआ । यह फूशा बड़ा ही नीच था। वह ऐसा नीः 
था कि निस का नोकर होता था, उसे दूसरे के हाथ बेच देना भी उसके लिये स्वाभ 


२१६ नैषोलियन बोनापार्ट । 


बिक बात थी । नेपोलियन के निपात का मुख्य कारण वही हुआ | उस का पृली- 
साध्यक्ष रहते हुए भी फूश्ा ने उस के शत्रुओं से मेल कर लिया, और उस के बि- 
रुद्ध एक जबर्दस्त पार्टी खड़ी कर ली । इस फुज्ञा ने अपनी कुटिल नीतियों से नई 
शासनसंस्था में मुख्यस्थान पाकर भी शान्ति न की । एक नीचता से सन्तुष्ट न हो 
कर, उस ने नेपोलियन को शन्नु के हाथ में बेचने का भी निश्चय किया । 
सम्राट्‌ पद से मृक्त होकर नेपोलियन थोड़ेसे मिन्नों के साथ पेरिस से दूर 
रहने लगा । किन्तु उसे यह ज्ञात था कि उसके शत्रु उसे कैद करने या पकड़ने 
का पूरा यत्र करेंगे, इस लिये उस ने फ्रांस की भूमि को छोड़कर 
अमेरिका में जीवन का शैप्र भाग बिताने का विचार किया । फुशा ने ऊपर से तो 
नैपोलियन के इस विचार के साथ सहानुभूति प्रकट की और उसकी यात्रा के लिये दो 
नौकारय तय्यार करवादी, किन्तु जब नेपोलियन नोका में सवार होगया तो नौका 
को आगे जाने से निषेध कर दिया ओर साथ ही बहाना बना दिया कि जब तक 
अब्लेजी सरकार नेपोलियन के अमेरिका जाने के साथ सहमत न हो, तब तक वह 
अनुमति नहीं दे सक्ता । 
नेपोलियन बड़ी द्विविधा में पड़ा । अब वह सवेथा कुटिल शह्मुओं के हाथ में 
था । न वह नौका में छोगों को अपने साथ चलने के लिये उभार सत्ता था और 
न ही सेना की सहानुभूति अपने साथ खींच कर शत्रुओं का पराजय कर सक्ता था । 
ऐसी अवस्था में, उसने, काठिनता से छूटने का एक नया उपाय सोचा । इड्ललेण्ड देश स्व- 
तनल्ता की भूमि प्रसिद्ध है । सब जानते हैं कि वहां हरएक निवासी को समान 
स्वाधीनता प्राप्त रहती है, इस लिये उसने उसी के आश्रय का निश्चय किया। कैलरो- 
फोन नाम के एक अक्लरेजी जहाज के अध्यक्ष से उसने पूछा कि क्‍या वह उसे 
इड्जलेण्ड पहुंचा देगा ! अध्यक्ष ने उसका ले जाना स्वीकार कर लिया । नेपोलियन 
अपने साथियों सहित केल्रोफ़ोन पर सवार हुवा । केल्रोफ़ोन भी इक्लेण्ड 
की ओर चढ़ा, किन्तु उसने अपने यात्रियों को इंग्लेण्ण की भूमि पर उतारने की 
जगह नैदेम्बरलेंड नाम के एक और जहाज पर उतार दिया । तब नेपोलियन को 
बताया गया कि उसे अब रंग्लेण्ड में न उतारा जायगा, किन्तु ब्रिटिश सरकार की 
आज्ञाजसार सेटहेलीना नाम के द्वीप में कैदी रकखा जायगा । 


बचन्चु परिच्छेद । 


सेण्टहैलीना । 


सवव क्षयान्तः निचया; पतनास्ता; समुच्छृया:। 
संयोगा विग्नयोगान्ता मरणान्तं च जीवितम्‌ ॥ (बाल्मीकि:) 


हरएक जाति के इतिहास में कई ऐसे भाग पाये जाते हैं, जिन के वहां न 
होने से कोई भी हानि न होती-उल्टा कोई न कोई लाभ ही होता । इतिहास के 
ऐसे भाग, उस जाति के लिये सदा छजा के, ओर इतिहास-लेखकी के लिये सदा 
दुःख के स्थान होते हैं । अब जिस इतिहास के भाग का हम वर्णन करने लगे हैं वह 
ऐसा ही है। सेप्ट्हेलीना में नेपोलियन की स्थिति का इतिहास किप्ती भी देश के 
इतिहास के मुख को उज्ज्व न ही करता, और न ही वह भाग नेपोलियन के चरित्र 
का प्रकाशमानं भाग है। नैसे लाडेरोज़बरी ने निष्पक्षपात दृष्टि से सेप्ट्हेलीना का 
वृत्तान्त वर्णन करते हुए कहा है, हम भी कहते हैं कि 'हम प्रसन्न होते यदि नेपो- 
लियन कैदी होकर इंग्लेण्ड के हाथ न पड़ता;हम प्रसन्न होंते यदि नेपोलियन कैद ही 
न होता, और उस के प्रथम ही किसी युद्ध में-वाटडू में या डूस्डन में-गोली के 
आघात से समाप्त हो जाता! । सेप्टहेलीना में केद होकर वह भी स॒द्दा अपने पहले न 
मर जाने पर शोक प्रकाशित किया करता था। किन्तु यदि उसने कैद होना ही था, तो 
इग्लेण्ड के हाथ कैद होना बहुत बुरा था-न यह नेपोलियन के लिये अच्छा था 
और न ही यह इंग्लेण्ड के लिये अच्छा था?। 

नेपोलियन यदि इंग्लेण्ड के सिवाय किसी और देश का कैदी होता तो निः- 
सन्देह पांच बरस तक उसे अपना शरीर कारागृह में न सड़ाना पड़ता । अवश्य शीघ्र ही 
उसका बंध कर दिया जाता ओर इसे तरह उसका अकीर्तिकर परन्तु सुछुम अन्त 
हो जाता । साथ ही नेपोलियन को कैद करना इंग्लेण्ड को बंहुत ही मेहगा पड़ा। 
वह सारे योरप के अशान्तिमन्दिर का पुजारी समझा जाता था, तब शान्ति के 
पावन उद्देश्य को पूरा करने के लिये उसे कहीं पर बन्द करना आवश्यक था | उस 
बन्द करने के लिये कई प्रकार के बन्चन भी आवश्यक ये । वे बन्धन योरप के सम्राद्‌ 
के गौरव के कदापि अनुकूछ न हो सक्ते थे । तब इतने बंड़े आदमी को केद 
करके कुछ न कुछ बदनामी का कमाना इज्नकैण्ड के लिये आवश्यक था । किन्तु यदि 








२१८ नेपोलियन बोनापार्ट । 


केवल इतना ही होता-यदि केवल आवश्यक बन्धनों पर ही बस की जाती-तो बद- 
नामी का मान सुलम था ! किन्तु रे । से उस समय इंग्लेण्ड की गवन्मेंप्ट 
विचित्र राजसचिवों के हाथों में थी। लाडें लिथपूल की गवन्मेंप्ट जैसी ही योग्यता- 
रहित थी, वैसी ही हठीली थी। गवन्मेंण्ट के बनाने वाले सारे सचिवों में से एक 
भी विशेष राजनेतिक दूरदर्शिता रखने वाला न था । जब नेपोलियन को पहले पहल 
कैद किया गया तो ला्डेलिवर्पूल ने अपने एक सहयोगी को लिखा था कि 'मेरी 
यह इच्छा है कि इस बदमाश बोनापार्ट को हम फ्रांस के नये राजा के हाथों में मार 
देने के लिये दे दें ।” जो मनुष्य एक योरपविजयी महापुरुष को गोढी से मरवा 
देने की इच्छा रखसक्ता है, निःसन्देह वह बहुतही छोटे दिल का होगा | लाडेलिवपूंल 
के इसी छोटे दिल ने इंग्लेण्ड के इतिहास पर बहुत बड़ा धब्बा छोड़ दिया हैं । 
इंग्लेण्ड की दिगूदिगन्त में प्रसिद्ध हुईं हुई न्यायाप्रियता और स्वाधीनता को इस सड्ूचित 
विचार वाले सचिव ने बहुत ही बड़ा धक्का पहुंचाया था । हम समझते हैं कि 
यदि नेपोडियन के कैद होने के समय उसका योग्य वेरी विलियखमपिट राज- 
सचिव होता, तो इन पांच बरसे का इतिहास वैसा अकीर्तिकर न होता जैसा अब 
हुआ है । नेपोलियन के साथ जो बतांव किया गया, उस से सारे निष्पक्षपात अंग्रेज 
शर्मेन्दा हैं, और निःसन्देह इंलियट,पिम, फ़ोकूस, शरिडन और ग्लडस्टन जैसे स्वगेत 
उदार नीतिज्ञ मी, अपने देश के एक सचिव की इनसझ्कुचित त्रेष्टाओं को याद कर 
के दुःखित होते होंगे । इंग्लेण्ड का दुर्भाग्य था कि ऐसे महत्त्व-पू्ण तथा उत्तर- 
दाथेता के समय में उसे ऐसे अयोग्य तथा अनुदार सचिव प्राप्त हुए, जिन से 
इन पांच बरसों का इतिहास सब के लिये दुःखमय होगया । 

नोदेम्बरलैण्ड नाम का जहाज़ सम्राट्‌ को लिये हुए १६ अक्टूबर (१८१५) 
के दिन सेप्टहेलीना के तट पर उपस्थित हुवा । नहाज्ञ पर से उतार कर उसे एक छोटे 
से घर में टिकाया गया । पहले पहल तो उसे जो घर दिया गया वह बहुत ही छोटा 
तथा गन्दा था, वह नेपोलियन के एक धोड़े के सोने योग्य भी न था। दूसरा घर 
बहुत कुछ बड़ा था, किन्तु बड़प्पन भी सपेक्षक होता है । जिप्त घर में फ्रांस के 
भूतपूर्व समूट्‌ को ठहराया गया, उसमे केवल तीन कोठरियें थीं, जिन में से एक 
उस के सोने और विश्राम करने के लिये, तथा दूसरी पढ़ने लिखने तथा बैठने के लिये 
थी । तीसरी कोठरी में वह स्नानादि किया करता था। ये दोनों छोटी २ कोठरियें साथ 
ही साथ लगी हुई थीं, और पदों द्वारा उन में भेद किया जाता था । कोठरियों का फूट 


सेप्ट्ड्रेढीना में धृदामाव । २१९ 


कच्चा था, ओर चूहों की बिलें उसे ओर भी उपहास्य बनादेती थीं । बड़े २ चूंहे 
दिन रात उन कोठरियों की दीवारों तथा घरों में घूमते रहते थे और नेपोलियन को तेग 
किया करते थे । 

इन्हीं छोटी २ कोठरियों में थोड़ी सी मासिक आय के सहारे, नेपोलियन 
साथियों सहित दिन बिताता था | ब्रिटिश सरकार ने उस का वार्षिकवेतन १२ सो 
पोण्ड रक््खा था। इन बारहसो पोंडों के आधार पर पढने के लिये २५ व्यक्ति थे। सेप्ट- 
हेलीना में आने से पूर्व नेपोलियन को चार साथी चुनने का अधिकार दिया गया था। 
उप्त ने लेसकेसस, कौक्टबटेरैण्ड, सेलकौस और गोगोंड अपने 
के साथी चुने। वे सब, उन में से दोके परिवार और अन्य भृत्यादिकों को मिला- 
कर २५ मनुष्य नेपोलियन के परिवार में थे । फिर यहभी सब लेखकों द्वारा 
स्रीकृत बात हैँ कि सण्ट हेलीना में सभी कुछ मंहगा बिकता था; वह ऐसा 
मनहस द्वीप था कि वहां पहले से ही बहुत थोडा वस्तुएं थी, और जो होती थीं 
वे भी बहुत अधिक मूल्य से प्राप्त होती थीं। कभी कमी तो नेपोलियन को धन के 
लिये बहुत ही तंग होना पड़ता था । एक वार भोजन तय्यार करवाने के लियि 
पय्याप्त घन भी उस के पास न रहा । उसने अपने भृत्यों को चांदी की एक तइतरी 
तोड़ कर बेच देने की आज्ञा दी | बटरेण्ड ने वह तश्तरी लेली, किन्तु तोड़ कर बेची 
नहीं । दो एक दिन में धन सम्बन्धी कष्ट दूर हो गया, तब उस ने वह तदतरी 
समूद्‌ के सामने रखदी । और एक वार जलाने के लियि एक भी हकड़ी न रही । 
तब नेपोडियन ने अपने नोकर को आज्ञा दी कि वह उस की चारपाई तोड़ कर 
उसे काम में छावे | ये इश्य विचित्र प्रतीत. होते हैं। यदि ये सत्य न होते तो 
शायद इन्हें कोई खीकार न करता, किन्तु इस बात के सिद्ध करने के लिये सेण्ट- 
हैलीना में रहने वाले हर एक मनुष्य की साक्षी उपस्थित की नास्तक्ती है, कि नेपो- 
लियन सदा धनसम्बन्धी कष्ट में रहता था । 

एक धन सम्बन्धी कष्ट ही इन बरसे को दुःखमय बनाता हो, ऐसा नहीं। और 
भी अनेक प्रकार के कष्ट थे, निन्हें लिखता हुवा सेप्टहेलीना का इतिहास-लेखक आंखों 
में आंसू लाये विना नहीं रह सक्ता । नेपोलियन का शरीर कार्य और परिश्रम के 
बिस्तरे में पछा हुआ था | उस के अनथक शरीर को न्यायाम और परिश्रम करने का 
अभ्यास पड़ा हुआ था। उसे अब निर्रचष्ट जीवन में पड़ना पढ़ा। नो नेपोलियन दिन में 

अठारह घण्टे काये करके भी न थकता था, उसे अब सिवाय हाथों पर प्तिर रखने 


. ३२० नैषोलियन बोनापार्ट । 


के कोई काये न रहगया । ऐसी भयानक तथा दुःखदायिनी अवस्था से वचने के 
लिये, उसने प्रतिदिन घोड़े पर चढ़ कर कुछ दूर तक सैर करने का विचार किया। 
द्वीप के शासक से पूछा गया तो उसने कहा कि बोनापाट भ्रमण के लिये जासक्ता है, 
किन्तु उस के साथ एक अंग्रेज सिपाही अवश्य रहेगा | जब कभी नेपोलियन 
कहीं घूमने जाता, तमी उस के साथ कोई न कोई पहरेदार अवश्य रहता । यह दशा 
उस के लिये असह्य हो गई । करोड़ों मनुष्यों के ऊपर जो मनुष्य किसी दिन 
अधिकार चला चुका हो, वह दिन मर एक पहरेदार की दृष्टि में रहे, यह उस्त के लिये 
सहनातीत था | इसी लिये उसने घर से बाहिर जाना छोड़ दिया । किल्तु, इस पर भी 
छुटकारा न था । द्वीप के शासक ने अपने एक आदमी को आज्ञा दी कि वह दिन भर में 
कैदी को एक वार अवश्य देख लिया करे । इस आज्ञा का नेपोडियन को भी पता 
लग गया । उस ने और भी अदृश्य रहना शुरू किया । कमी २ तो दिन रात में 
एक वार भी वह बाहिर न निकहृता था | निस्न दिन वह ऐसा करता, शासक के 
आदमी को बड़ा ही कष्ट होता । कभी २ तो वह बारह २ घण्णों तक नेपोलियन की 
कोटरियों के चारों ओर प्ले झांकियें मारता रहता, कभी दरवार्जों के छिद्रों में से देखता, 
और कभी बारी की सीखों मेंसे नजरें दौड़ाता। नेपोलियन के नोकर उसे ऐसा करते देखकर 
हसा करते, तो वह बेचारा शार्मेन्दरा होकर कोने में दबक जाता । किन्तु वह क्या 
करता ? उस का काये ही यह था । स्वामी की आज्ञा का पालन आवश्यक था | 
नेपोलियन भी उसे खूब ही छकाया करता था । 

जिस घर में नेपोलियन रहता था उस के चारों ओर सनन्‍्तरी दिन रात पहरा 
देते थे । इन सम्तरियों के अतिरिक्त सारे द्वीप में थोड़ी २ दूरी पर सिपाहियों के कैम्प 
लगे हुए थे । द्वीप के किनारे पर बड़े प्रबल पहरे थे, ओर प्रत्येक पहाड़ी की 
चोटी पर भी रक्षा का ख़ब प्रबन्ध किया हुआ था । सब जगह तार का ऐसा प्रबन्ध 
था कि हरएक स्थान से अधिक से अधिक दो मिनट में समाचार शासक तक 
पहुंच जाता था । द्वीप के इन आन्तरिक प्रबन्धी के अतिरिक्त बाहिर भी बड़ी 
चोकस रक्खी गई थी । द्वीप से निकलने के केवल दो रास्ते ये; शेष सारे तट ऊंचे नुकीले 
पत्थरों की चट्टानों से आवुत थे | उस पर से एक मनुष्य का तट पर जाना बहुत ही 
कठिन था । दोनों निकलने के स्थानों पर सज्जित बेड़े हर समय तस्यार रहते थे। 
इन सब के अतिरिक्त दो नौकायें द्वीप के चारो ओर निरन्तर चक्कर काटा करती थी। 

इतनी रक्षा थी, मिस्र के मध्य में ब्रिटिश सरकार ने फ्रेंचसमाद्‌ को कैदी 


सर हडसपन लो । २२१ 


किया हुवा था । किन्तु तब भी, द्वीप का शास्रक उसे विना तंग किये न रह सक्ता 
था । नेषोलियन को रोज़ देखने की आज्ञा के विषय में ऊपर लिखा जाचुका है। उस के 
अतिरिक्त कभी २ विशेष मनुष्य भी नेपोलियन के देखने के लिये भेमे नाते थे । 
जब वह अपने आप को दिखाने से इन्कार करता तो किवाड तोड़ कर घुसने की 
धमकी दी जाती थी । 

इस प्रकार के अनेक कष्ट थे जो नेपोलियन को सहन करने पड़ते ये। किन्तु 
इन सब की शिकायत सुनने वाला कोई न था । जो मनुष्य ब्रिटिश प्रकार द्वारा उस 
द्वीप का शासक नियत किया गया था, वह पूरा २ पिशाच था। उस की शह्तल सूरत 
ही भद्दी थी, ऐसा नहीं; वह व्यवहार में भी बड़ा बेसमगझ और क्र था । यह ब्रिटिश सरकार 
का दौभीग्य था कि उसे ऐसा मनुष्य सेप्ट्हेलीना की शासकता के लिये प्राप्त हुआ। 
इस शासक का नाम सर हडसन लो था। इस नैसता बदनाम शायद ही कोई और पुरुष 
इतिहास में मिल सके | इस का नाम आज दिन साहित्य में नीचता तथा क्रूरताका 
सूचक हो चुका है। सेप्ट्हैलीना के सारे अनावश्यक दुःखों का बड़ा भारी कारण यही मनुष्य 
था। यह बड़ा ही सन्देही, हठी तथा निरूज़ था। नेपोलियन का जान बूम्करअपमान करना 
इसने अपना कत्तेन्‍्य समझा हुआ था । तब ऐसे मनुष्य के पास दुःखों की शिकायत 
क्या हो सक्ती थी ? हाँ, इंग्लेण्ड की सरकार के सामने ये कष्ट उपस्थित किये जा 
सक्ते थे, किन्तु उस द्वीप के सारे पत्रव्यवहार खोलने का अधिकार शासक को 
प्राप्त था। तब भला अपनी शिकायत वह आगे क्‍यों भेजने रूगा ! 

किन्तु अकेला हडसन लो भी दूषित नहीं कहा जा स्क्ता । उप्त के ऊपर जो 
सचिव था, वह अनुदारता में कई वषे तक उसे भी पाठ पढ़ा सक्ता था । 
उस्त ने भी कैदी के साथ कठोर व्यवहार करने की आज्ञा देंने में कमी नहीं की । 
यदि करने वाढ्ा नीच लो था, तो कराने वाला लाड़े बैथस्ट था । नेपो४हियन को 
अनावश्यक दुःख देने में यदि पाप हुआ तो दोनों को, और यदि पुण्य हुआ तो दोनों 
को । इन दोनों जेलरों के रहते नेपोलियन के कष्टों का दूर होना असम्भव था । 

शासक के साथ या सचिव के साथ किप्ती विषय में पत्रव्यवहार करना एक 
और कारण से भी कठिन था । ब्रिटिश सरकार की यह इृद्प्रतिज्ञा थी कि वह नेपो- 
लियन को कभी भी राजा, महाराज या सम्राद्‌ न बुलायेगी । यह प्रतिज्ञा नैप्ती ही 
वृथा थी, वेसी ही अनुदारता के प्रकट करने वाढी थी | लाड़े रोज़बरी ने अपने 
[०००९०॥-॥९ [.,95: ?॥956 नामक ग्रन्थ में इस विषय पर बहुत अच्छा विवाद 


२४२ नेपोलियन बोनापार्ट । 
किया है । आपने बहुत अच्छी तरह से दिखा दिया है कि नेपोलियन हर तरह से 
सम्राट्‌ पद का अधिकारी था । यदि किसी अन्य देश के शासक को राजा कहने 
का अविकार था तो नैषोलियन को भी सम्राट कहांने का अधिकार था | वह केवल 
राजा का पृत्र होने से राजा न था, किन्तु सारी फरंचनाति के चुनाव से सम्राट 
था| यदि एक जाति का चुनाव किसी मनुष्य को समाट्‌ नहीं बना सक्ता, तो और 
क्या बना सकेगा ! ऐसी अवस्था में, नेपोलियन को समूट्‌ न लिख कर केवल सेना- 
घ्यक्ष नेपोलिबन लिखना उस समय की ब्रिटिश सरकार की अन॒दारता को प्रकट 
करता है। इसी कारण से नेपोलियन का किसी भी ब्रिटिश राज करम्मचारी के साथ पल व्यव- 
हार या बात चीत करना असम्भव था। वे उसे सेनाध्यक्ष बुलाने पर उतारू थे, वह इसे 
सहन नहीं कर सक्ता था | वह कहता था कि “मुझे सम्राट न बुलाने में वे केवल मेरा 
अपमान नहीं करते, किन्तु सारी फूचनाति का अपमान करते हैं। मुझे सारी फेचजाति 
ने समाद की उपाधि दी थी । ” उस समय नेपोलियन के साथ ऐसा व्यवहार हो रहा 
था कि चपेडई मारूं ओर रोने न दूं! । 

इन सब कष्टी तथा दुःखों को झेलत हुए, नेपोलियन ने कैद के ये पांच बरस 
बितांय । बाहिर के सब सुखाों से वाचेत होकर पढ़ने लिखने तथा बात चीत करने 
में नो आमोद हो सक्ता है, उस ही वह प्राप्त करता था । अपने साथियों के साथ 
बात चीत करने तथा उन्हें अपने विनयों तथा पराक्रमों के वृत्तान्त लिखाने में ही 
उस के दिन बीतते थे । कभी २ वह शरीर का कुंछ व्यायाम करने के लिये 
बाग में भी कार्य किया करता था । किन्तु प्रायः उसका सारा दिन कोठरी के अन्दर 
बन्द होकर ही बीतता था । अपने अनुयायियों के साथ वह यथाप्तम्मव प्रसन्न होने का 
यत्र करता था, किन्तु उस के भाग्य में अब प्रसन्नता न छिखी थी । संसार में 
ऐसी आकास्मिक उन्नति और ऐसा आकस्मिक निपात और कहीं देखने में 
नहीं आया। | 

वह अनथक शरीर नो पांच २ दिनों तक घोड़ों पर से न उतरता था, इस 
निष्कियता से रोगी तथा शिथिल होने लगा । वे शक्तियें, जिनके सामने आधे योरप 
का शासन भी हंसी ठट्ठा था, निकम्मी होकर मनुष्य के शरीर को ही कतरने लगी। 
दुःखा और कष्टा ने नेपोलियन के अनथक और अदभुत शरीर को ५ वर्षों में ही 
रूण कर दिया । वहं धीरे २ बीमार तथा शियिलू होने लगा; उस का जीवन-प्रंदीप 
शुनेः २ नि्वांणोन्मुख होने लूगा। पुराने विजयों और वत्तेमान पराजय ने उस के दिल 


अन्तिम पर्दा । २२३ 


के टुकड़े २ कर दिये । वह प्रतिदिन कमजोर होने छगा । कमजोरी की 
अवस्था में उस पर पुराने रोगों ने आक्रमण किया 4 उसका पिता पेट में फोड़ा हो 
जाने से मरा था । उसी रोग ने उसे भी आ दबाया । उस के पेट में फोड़ा निकल 
आया | वेदना दिन २ बढ़ती गई । थोड़ी बहुत चिकित्सा, जो उस सूखे कटीले द्वीप 
में हो सक्ती थी की गई, किन्तु विधि को कौन रोक सकता है? आंधी और तूफान 
सारे द्वीप को जड़ों से उखाड़ने की धमकी दे रहा था और प्रकृतिंदेवी अपने रुद्रतम 
रूप में परिणत थी, जब ५ मई (१८२१) के दिन एक छोटी सी कोठरी में १९ वीं 
शताब्दि के संब से बड़े पृरुष के प्राण पखेरू आकाश गामी हुए । 

नेपोलियन के मृत शरीर को उस के साथियों ने फांस में ले जाना चाहा, किन्तु 
ब्रिटिश सरकार ने आज्ञा नहीं दी । उसी द्वीप में, एक नदी के पास जगह खोदकर, 
सम्रांट्‌ का मृतकशरार गाड़ दिया गया। कबर परनेपोलियन के अनुयायियों ने-प्म्राट्‌ 
नैषोलियन' या केवल “नेपोलियन” लिखना चाहा, किन्तु द्वीप के अग्रेम शासक ने यह 
भी स्वॉकार न किया । बीस बरसों तक महान नेपोलियन की समाध विना किसी चिन्ह 
के एक एकाकी निमनस्थान में पढ़ी रही । उस समय के पीछे, १८४० में फांस- 
नरेश ल्यूई फ़िलिप ने ब्रिश्शि सरकार से अपने देश के महत्तम मनुष्य की शव मांगी । 
ब्रिटिश सरकार ने यह मांग स्वीकार करी, ओर बड़ी ही शान के साथ कई जहारनों 
के मध्य में आहत होता हुवा नेपोलियन का मृतशरीर फांस में छाया गया । इस 
मुतशरीर का फूंस में उतना ही आदर हुवा, मितना जीवित शरीर का होता था । 
आज भी फूँचनाति की देवपूना का चिन्हरूपी नेपोलियन का बुत पेरिस की 
शोभा बढ़ा रहा है । 


सप्तम परिच्छेद । 


सिंहावलोकन । 


एक दिन था जब नेपोलियन के विषय में कोई निष्पक्षपात सम्माति बनाना बहुत 
ही असम्भव था । उस के सम्बन्ध की घटनायें अभी इतनी नई थीं कि ठण्डे सिर 
से विचारना बहुत ही काठैन था । उस के मित्र और भक्त, उस के विनयों और 
पराक्रमों से इतने मोहित थे कि उन्हें उस के मानुषीय शरीर में कोई भी दोष नहीं 
दीखता था-जो स्पष्टटया असम्भव है । दूसरी ओर ऐसे भी पुरुष थे जो उस 
असाधारण मनुष्य के शरीर में सिवाय पेशाचिक शक्तियों के और कुछ भी न देखते थे । 
जो उस के मित्र थे, वे उस के गोरव पर मोहित थे; जो उस के शत्रु थे वे उसके 
कार्य्यों से बहुत कुद्ध थे । किन्तु आज वह दिन नहीं है । आज समय बदला हुवा 
है। बरसों के युद्धों से उबछा हुवा रुधेर अब शीतरू हो गया है और फटे हुए ज्वाला- 
मुखी पर्वत से निकला हुवा गर्म मसाछा मृण्मय हो गया है । पुराने द्वेष भूल गये 
हैं, और शत्रु और मित्र कुछ २ ठीक सोचने के योग्य हो गये हैं । इसलिये, अब, ' 
नैषोलियन के विषय में कोई सम्माते बनाना बहुत कठिन नहीं है। 

किन्तु यह काय्य॑ बहुत सहल भी नहीं है । नेपोलियन का जीवन एक पहेली है, 
जिसे वूझना बहुत कठिन है । यद्यपि नितना साहित्य नेपोलियन के विषय में उत्पन्न 
हो चुका है, उतना किसी भी एक मनुष्य के विषय में नहीं है, तथापि ऐसी घुण्डिये 
आज तक विद्यमान हैं निन के खोलने के लिये हमारे पास कोई भी सामान नहीं 
है। इस असाधारण पुरुष का जीवन ऐसा चक्करदार है, और उस के कई रास्ते ऐसे गुप्त 
हैं, कि तत्त्वोद्देश्य पर पहुंचना बहुत दुष्कर कार्य्य है। तथापि, नेपोलियन के चारित 
लेखकी ने इस विषय में बहुत सिर पच्ची की है, और जीवन-चारित पढ़ने का लाभ भी 
यही है । यदि हम चरितनायक के तत्व को ही न समझ सके, तो हमने जीवन कया पढ़ा? 

नैषोलियन के चरित की मुख्य २ सारी घटनायें हम अपने पाठकों को सुना 
चुके हैं । नेपोलियन ने क्या किया ? इस प्रश्न का उत्तर दिया ना चुका है । इस 
परिच्छेद में हम इस प्रश्न का उत्तर देने का यत्न करेंगे कि नेपोलियन क्या था ! 





क्‍या नेपोलियन महापुरुष था ! २२५ 


वह एक असाधारण पृरुष था, इस में सन्देह नहीं। किन्तु क्या वह महापुरुष भी था! 
और क्या वह सत्पुरुष भी था? ये दो प्रश्न हैं निनका उत्तर देना बड़ा कठिन काय्ये 
है। किन्तु ये दो ही प्रश्न हैं जिन के उत्तर पा लेने पर हम समझ सकेंगे कि 
नेपोलियन क्या था ! 

क्या नेपोलियन महापुरुष था 

महापुरुष शब्द का विस्तृत लक्षण निश्चित करना यहां अभीष्ट नहीं है, केवल 
इतना कह देना पय्योप्त है कि महापुरुष शब्द से वह पुरुष अभिप्रेत है निसकी 
मानसिक तथा असाधारण शक्तियें साधारण पुरुषों से बहुत महत्तर हों, ओर निम्तके 
"काये उन दशाक्तियों के पूरे २ चिन्ह रखते हो । यदि महापुरुष शब्द के ये ही अथे 
ठीक हैं, तो नेपोलियन महापुरुषों का भी महापुरुष था | वह संसार के उन महा- 
पुरुषों में से एक था जिनकी कीर्ति और मानता को देश परिमित नहीं कर सक्ता, 
समय मिटा नहीं सक्ता और भविष्यत्‌ घुंधछा नहीं कर सक्ता | वह उन महापुरुषों 
की श्रोणि में से एक था जिन में सिकन्दर ओर सीजर प्रताप और शिवाजी के 
नाम लिखे जाते हैं । उस की युद्ध करने की शक्तियों से आज तक न किसी ने 
निषेध किया है, ओर न कोई करेगा । सेनापाति पियोली कहा करता था कि इस 
कोर्सिकन का शरीर सिकन्दर का है, ओर सिर सजिर का है । अंग्रेज इतिहासज्ञ 
एलिसन कहता है कि “आज तक किसी भी एक मनुष्य को नेपोलियन की अपेक्षा 
बड़ी शक्ति, तीक्ष्प्रतिमा और प्रबल क्रियाशीढता नहीं दी गई | उस के सारे 
संग्रामों का एक साधारण अनुशीलन यह विश्वास कराने के लिये पय्याप्त है कि 
उस की युद्धशक्ति असाधारण थी; युद्धविद्या से सवथा अज्ञ अध्येता भी उन 
का वृत्तान्त पढ़ता हुआ समझ मक्ता है कि उस की सी गति की तीत्रता, भविष्यत्‌ 
के सोचने की शक्ति, शत्रु के स्थान तथा अवस्थिति को समझ लेने की प्रतिभा, 
सहुटनाशक्ति, और सेना में अपने आत्मा को फूंक देंने की कुशलता, उस के 
शत्रुओं में न थी। उस के शत्रुओं में ही क्या-ओर भी दो एक के सिवाय अन्य 
ऐतिहासिक योद्धाओं में नहीं पाई जाती । वह वाटलू में हार गया, इस में सन्देह 
नहीं; किन्तु उ्त की हार एक सेनापाति की हार न थी | वह हार सेनापाति से 
सेनापाति की हार न थी, किन्तु दैव से एक महापुरुष की हार थी। जब तक उस 
में और वेलिंग्टन में युद्ध रहा, निःसन्देह नेपोलियन का पलड़ा भारी रहा | विजय 
उसी की ओर को झुक रही थी । किन्तु, ग्रोची का ब्लूचर का पीछा न कर सकता, 


१५ 


२२६  नैपोलियन बोनापार्ट । 


और तोप के शब्द को सुनकर भी सहायता्थ न उपस्थित होना, नेपोलियन के 
वश में न था। यदि ब्लूचर की नई सेना ऐन थकावट के समय पर न पहुंच जाती, 
या ग्रोच्री निदेशाजसार युद्ध में हाथ बँटाने के लिये समय पर पहुंच जाता, तो योरप 
का वर्तमान इतिहास बहुत भिन्न होता । किन्तु शत्रु पराजित हो सक्ते हैं, देव पराजित नहीं 
हो सक्ता । अन्तिम युद्ध में नेपोलियन देव से लड़ रहा था, शन्रुओं से नहीं । 

केवल युद्धविद्या, यदि उस के साथ शासनचातुर्य न मिला हुआ हो, कुछ 
भी नहीं । तेमूर लज्ञ ओर चज्नेजखां विनेता थे, बड़े योद्धा थे, किन्तु इतिहास 
उन्हें उस कोटि में नहीं रखता जिस में नेपोलियन ओर पिकन्दर रक्खे जाते हैं । 
सिकन्द्र के विजयों की कीर्ति हम सुनते आते हैं, इस में सन्देह नहीं; किन्तु 
बहुत प्रशंसायोग्य तथा अच्रम्भे में डालने वाल्ली बात यह है कि निरन्तर युद्धों तथा 
विजयों मे फंसे रहते हुए भी, इतनी थोड़ी आयु में वह एक सुरक्षित ओर विस्तृत साम्राज्य 
छोड गया । शासनविद्या में, संबटनाशक्ति में, तथा राजानियम समझने में, नेपो- 
लियन सिकन्दर से कहीं बढ़ कर था ; उस के समय का समद्ध फंस, अद्म॒त- 
नियमशास्त्र, नेपोलियन स्मृति और आन्तरिकशक्तियुक्त विस्तृत साम्राज्य, ये सब 
डेके की चोट उपस्तकी अस्ताधारण शासनशाक्तियां का परिचय दे रहे हैं । 

वह स्वभावतः इन सब विद्याओं से सम्पन्न था, यह नहीं कहा जा सक्ता | किन्तु 
उस के अन्दर इन विद्याओं के आत्ममय करने के योग्य शक्तिये विद्यमान थीं, यह निः- 
सन्देह है। युद्धविद्या उसने किसी से नहीं सीखी । जब वह प्रथमशासक बना, तब शासन 
कार्य्य से वेसा ही अनभिज्ञ था, जैसा एक साधारण सिपाही। किन्तु अपनी असाधारण 
प्रतिभा से उत्त ने तत्तद्विषय के विद्वानों से उन २ विषयों का ज्ञान प्राप्त करना शुरू 
किया । छोटी से छोटी शासन सम्बन्धी बात पृछने में भी वह न शमोता था । 
उस की अस्लाधारण प्रतिभा ने जिस बात को एक वार जान लिया, फिर उस के 
पूछने की आवश्यकता न होती थी। इस प्रकार से ज्ञान इकट्ठा करते २, थोड़े ही दिनों 
में, वह शासनविद्या में अपने गुरुओं से बहुत अधिक हो गया, ओर शासन ओर 
युद्ध उसके बाय हाथ के खेल हो गये । जहां वह अपने समय में प्रथम योद्धा था, 
वहां प्रथम शासक भी था । 

शासन और युद्ध की जिन करामातों को उस ने किया, उन्हें पाठक ऊपर पढ़ 
आये हैं । उन करामार्तों के करने के लिये नेसी मानसिक तथा शारीरिक शक्तियों 
की आवश्यकता होती है, वैसी उस में बहुतायत से विद्यमान थीं। उस की बुढ़े 


नेपोलियन के उद्देश्य । २२७ 


तथा शरीर अनथक थे । जब तक अभी वह साम्राज्य के विलासों में पड़ कर तथा 
पीछे से एल्बा की आरामतस्तब्री मे रहकर मोटा न होगया था, तब तक कभी भौी 
किसी ने उसे थका हुआ या ऊंघते हुए न देखा था।सैकड़ो मील की यात्रा घोड़े की 
पीठ पर करके, कई युद्ध रास्ते में लड़कर, दिनों का जागता हुआ जब वह पेरिस 
में लोट कर आता, तो उस का पहला काम आरामचोकी पर लेटना न होता था, 
किन्तु वह सीधा अपनी मन्त्रिसमा का अधिवेशन बुछाता, आठ नो घणष्णों तक उस 
सभा का कार्य्य करके फिर नई इमारतों या अन्य स्थानों को देखता, ओर फिर कहीं 
जाकर आराम लेता। आराम भी उस का कया था! एक घण्टे तक गम पानी में स्नान 
किया और बस, फिर वैसे के वेंसे चुम्त । 
उस की शक्तिय निःसन्देह महती थीं, किन्तु उस के उद्देश्य केस थे ! जो 
कुछ लीला उसने योरपरूपी रह्जडस्थली पर दिखाई वह किस उद्देश्य से थी ? क्‍या 
वह सारे काय्य केवल स्वार्थवश होकर, अपनी प्रसिद्धि के लिये ही करता था, या 
उस का कोई ओर भी उच्च उद्देश्य था : ये प्रश्न हैं, जो पहले प्रश्नों की अपेक्षा 
बहुत कठिन हैं । आन तक उस के किसी जहरीले से जहरीले शत्रु ने भी, उस की 
असाधारण शक्तियों पर सन्देह नहीं किया, किन्तु उद्देश्य के विषय में कुछ न पूछिये । 
इस विषय में तो नितने मुंह उतनी बात वाढी कहावत चरिताथ होती है| उसके 
मित्र या भक्त उसे समानता ओर स्वाधीनता के लिये, फ़ांस की उन्नति तथा रक्षा के 
लिये लडता हुआ समझते हैं, किन्तु उस के शत्रु उसके सब युद्धों तथा विनयों में सिवाय 
आत्मोदय की आभिलापा के कुछ नहीं देखते । जहां उस के भक्तों की दृष्टि में वह 
आदर्श राजा था, वहां उस के विरोधियों की दृष्टि में वह आदशे पिशात्र था। 
वस्तुतः उस के उद्देश्य क्या थे ? यह ढूंढ निकालना कितना काठिन है , यह 
उपय्युक्त मतमेदों के निरीक्षण से स्पष्ट है । जहां दो प्रबल स्रोत एक दूसरे से स- 
वेथा विरुद्ध इतने जोर से चल रहे हों, वहां मा एक मध्यगामी स्रोत का 
चलना सुलम कैसे हो सक्ता है ! किन्तु, तथापि, इस विषय पर प्रकाश डालने का 
हम पुस्तक में यत्न करते आये हैं। 
वह पूरा २ पिशाच नहीं था, यह ठीक है, किन्तु वह सर्वथा 
स्वाथरहित देवता था, यह कहना भी प्रमाणों से पिद्ध नहीं होता । अपने 
पर्व जीवन में, साम्राज्य से पूर्व, वह फ्रांस की कीर्ति के लिये बहुत करने को तय्यार होता 
था, हम यह भी कह सक्ते हैं कि उस समय वह देश की नामवरी तथा शाक्ति के लिये ही 
विनय तथा शासन में नियुक्त होता था, किन्तु पिछले नीवन में अवस्था बदल गई थी । ज्यों २ 


२२८ नैषोलियन बोनापार्ट । 


उसे अपनी शक्तियों पर भरोसा होता गया, ओर ज्यों २ विनय का प्यारा उसे 
पीने को मिलता गया, त्यों २ उसकी कामनायें और इच्छायें अपने आप में केन्द्रित 
होती गईं; वह अधिक से अधिक स्वारथपरायण होता गया । रूस पर आक्रमण 
में हम उसे केवल अपने व्यक्तिगत झगड़े के लिये लाखों मनुष्यों का प्राणहरण करता 
हुआ पाते हैं । 

उसके उद्देश्यों का प्रश्न उसके आचरणों का स्मरण कराता है, 
और हम इस प्रश्न पर आ पहुंचते हैं कि क्या वह सतूपुरुष था? या इसे अधिक उप- 
युक्त बनाने के लिये यूं रखसक्ते हैं कि क्‍या वह दुष्ट पुरुष था ? क्या उसका सामा- 
जिक जीवन स्थाह था ! 

यह प्रश्न फिर वैसा ही विवादग्रस्त है, नेसा उद्देश्यों का था।हर एक रह्ज की 
सम्मतियं सुनाई देती हैं । ऐसे भी कई प्रसिद्ध लेखक हो गये हैं, भिन्होंने नेपोलियन 
की परे दर्नें का दुराचारी, तथा राक्षप्प्रकृति माना है, किन्तु इसके अतिरिक्त 
दूसरी ओर ऐसे भी कई विज्ञ लेखक हो गये हैं, नो उसके व्यक्तिगत चरित्र को 
बहुत शुद्ध मानते हैं | यदि कोई आदमी एक विनेता राजा से महात्मापृरुषों जैसी 
उदारता तथा निःस्वाथमाव की आशा रखता हो तो वह भूल पर है। विजयों और परा- 
क्रमों के साथ उन प्रिय और सुन्दर गुर्णो का अवस्थान बहुत काठिन है, नो एक स्वाधीन 
तथा चारुचरित गृहस्थ में पाये जाते हैं। किन्तु यदि जरा सापेक्षक दृष्टि डाल कर 
देखें तो कहना पड़ता है कि उस के आचरण तथा व्यवहार शुद्ध थे, या कम से 
कम अशुद्ध न थे। उसे पापाचार ओर विलास के जितने सामान प्राप्त हो सक्ते थे, 
वे अचिन्तर्नीय हैं । किन्तु उन सब्र को छात मार कर आचारों को शुद्ध रखना 
कोई छोटी बात नहीं | यद्यपि ऐसे भी कई इतिहासज्ञ हैं जो उसे विलासप्रेमी मानते 
हैं, किन्तु उनकी संख्या अब घट रही है। जेसे इश्डलेण्ड के प्रप्िद्ध काबि औस्कार 
ब्रौनिड्भ ने लिखा हे जितना ही अधिक हम उस के विषय में जानते हैं, उतना 
ही अधिक आदर उसके लिये हमार मन में उत्पन्न होता है, उसकी क्रियाये उतनी 
ही अधिक सहेतुक प्रतीत होती हैं, तथा उसके ऊपर कलक लगाने वाली गाथाये 
निर्मूल प्रतीत होती हैं |” ला्डरोजबरी की भी सम्मति है कि 'उस के आचरण 
ऐसे स्याह न थे जैसे वार्णित किये जाते हैं।! 

वह अपने घर में बड़ा अच्छा गृहस्थ था । अपनी अधोड्लिनी के साथ उसका 
व्यवहार प्रेमयुक्त था । पृत्र से उसे अगाध प्रेम था, अपने भाइयों को वह यथा- 


उस के आचारों पर विचार । २२९ 


शक्ति आराम देता था । उसके माइयो ने चाहे उसके साथ कितनी ही क्ृृतन्नता 
या कम से कम अक्वतज्ञता दिखाई हो, इस में सन्देह नहीं कि उसका उनके साथ 
व्यवहार बहुत ही अच्छा रहा । क्रोध, तथा मोह उस के अपने वश में थे। कहते 
हैं कि क्रोध उसके गे तक आता था, इस के ऊपर सिर में कभी भी प्रवेश न 
करता था। उसके क्रोध की दो एक गाथायें प्रप्िद्ध हैं। एक वार एक दाशनिक 
के यह कहने पर कि फ्रांस बोबोन राजाओं को चाहता है, उसेने उस के पेट में 
इतने जोर से ठुड्डा मारा कि बेचारा निबल दाशानिक मूर्छ्ित गिर पड़ा । इसी प्रकार 
एक वार उसने अपने मुख्य न्यायाधीश को मृक्तियों से ख़ब ही सीधा किया था । 
किन्तु ये केवठ दो तीन ही अपवाद क्रोध के दृष्टान्त हैं । अन्यथा उसका क्रोध पर 
निहन्द्र राज्य पाया जाता है। 

आमोद प्रमोद में वह कदापि लिप्त नहीं हुआ। उसका यह पूछना सर्वथा ठीक 
था कि 'मुझे आमोद प्रमोद ओर विलछास के लिये दिन रात में समय ही कहां मिलता 
है ? ? उसका समय कार्यो से ऐसा व्यापृत था कि विलाप्त भोगों के लिये अन्तर निका- 
लना कठिन था | साथ ही विलासी की शक्तियें स्थिर नहीं रह सक्तीं, नेपोलियन 
इस बात का अच्छी तरह जानता था। कमी भी विषयों ने उसे अपनी ओर आक्ृष्ट नहीं 
किया, यह कहने की हम तय्यार नहीं, किन्तु इस से उसके आचार में दोष नहीं 
आता । वह मनुप्य ही नहीं जिसे विषय कभी भी अपनी ओर नहीं खींचते । आ- 
चारशुद्धता यदि इसका नाम है कि जीवन के किसी भाग में भी विषय आकर्षण न 
करें तो संसार में कोई भी शुद्धाचारी नहीं हो सक्ता । शुद्धाचारी वह है जो विषयों 
के आकषण को परे हटाकर अपने काये में लग जाता है, ओर उनके वशीभूत नहीं 
हो जाता । हम यह दांवे से कहते हैं कि इन अर्थों में नेपोलियन सदाचारी था। 

किन्तु पहली अधा्डिनी को छोड़ कर दूसरा विवाह करने की घटना हमारे 
इस कथन को सन्देह में डाल सक्ती है। यदि वह शुद्धाचारी था तो उसने दूसरा 
विवाह क्‍यों कराया ? हमारी समझ में यह प्रश्न आचारसम्बन्धी न होकर धमे 
सम्बन्धी है। उसने दूसरा विवाह विषयवासना को पूरा करने के लिये नहीं किया 
था, यह सब मानते हैं। पहली पत्नी जोजफाहन के साथ उसका प्रेम अखण्डित 
था, किन्तु दूसेरे विवाह का उद्देश्य फ्रांस के लिये मविष्यत्‌ राना का सदूभाव करना 
था । उसकी पहली पत्नी निःसन्‍्तान थी, और आगे भी नेपोलियन के सन्‍्तान होने की. 
आशा न थी । फ्रांत के शासन की स्थिरता के लिये, नेपोलियन के उत्तराधिकारी 


२३० मैपोलियन बोनापार्ट । 


का होना अत्यावश्यक था । यह उद्देश्य था जिसने उसे दूसरा विवाह करने पर 
वाधित किया | अतः विषयवासना का पूरा करना उप्तका उद्देश्य न था । हाँ यह 
अवश्य कहा जा सक्ता है, कके यह दूसरा विवाह धर्म की दृष्टि से सवेथा निन्दित 
था । यदि नेपोलियन धार्मिक होता तो राजनीति की दृष्टि से इस आवश्यक काय्थ 
की न करता । किन्तु क्या वह धार्मिक न था ! 

यह बताना बहुत कठिन है कि उस का पम्मे कौनसा था ? या उप्र का 
कोई धम्म था भी या नहीं ? फांस में उस ने क्रिश्चियनधर्म को स्थापित किया था, 
यह ठीक है, किन्तु इस से वह क्रिश्चियन था यह सिद्ध नहीं होता । वह राजनोतिक 
जीवन में धमे की आवश्यकता को खूब समझता था, ओर उस से पूरा काम लेना चाहता था। 
घम के आश्रय पर वह अपने राज्य को तथा फांस की सामाजिक दशा को स्थिर करना 
चाहता था। अपना उस का कोई धर्म न था। वह इंसाई तो था ही नहीं। इंसाई घम की अपेक्षा 
वह मुहम्मदी धर्म को अच्छा ध्रमझता था। उसने यह कई वार कहा था के वह ईसाई घमम 
की अपेक्षा मुहम्मदी धर्म को बहुत सरल तथा सत्य के समीप समझता है। मिश्र देश 
के विनय के समय उस ने कुरान ओर मृहम्मद की प्रंसा भी खूब की थी। 
किन्तु इस से वह मुसलमान था, यह भी नहीं कह सक्ते । वह एक इंश्वर को मा- 
नता था, ओर आचारशाख्र को स्वीकार करता था । बाकी धार्म्मिक सिद्धान्तों पर 
उस का विश्वास न था। वह प्रायः कहा करता था कि में इंसाई घम को स्वीकार कर लेता 
यदि वह सृष्टि के प्रारम्भ से प्रकाशित हुआ होता। जो धर्म सरष्टि के आरम्भसे नहीं है, 
वह इंस्रीय भी नहीं हो सक्ता । शोक कि वेद का शब्द उस तक न पहुंचा था, 
जिस से पुराना कोई भी पुस्तक या ज्ञान संसार में नहीं पाया जाता। 

युद्ध ओर शासन में, घर ओर दरबार में, वह दयालु तथा कृपाशील था इस में 
सन्देह नहीं । उस के जीवन में ऐसे सैकड़ो से अधिक उदाहरण हैं, मिन से पाया 
जाता है कि वह थोड़े से उपकार का बहुत बड़ा बदूछा देने के लिये हर समय 
तय्यार रहता था; ओर उपकार के सामने पुराने सब दोषों को झट 
से ही भूल नाता था । एक द्रजी, जिसने छोटी अवस्था में उस के लिये कुछ 
कपड़े थोड़ी कीमत पर बनाये थे, उस के सम्राट्‌ बनने पर मालामारू कर दिया 
गया था; और एक सरायवाली को, निस ने प्रारम्भ समय में उसे घर में आश्रय 
दिया था पीछे से जन्म भर के लिये पेन्शन दी गई थी । पहली वार आंसनत्याग 
के समय जो सेनापति स्वामिद्रोह करके शत्रु से जा मिले थे, एल्बा से लौट कर 


गुण और दोष । २११ 


नेपोलियन ने फिर उन्हें अपने २ स्थान पर नियुक्त कर दिया था । ये सब उस की 
दयाठुता तथा क्षमाशीलता का फल था | 

नेपोलियन के सामानिक जीवन के विषय में बहुत कुछ जान कर, इस जिज्ञासा 
का होना स्वाभाविक है कि उप्तका व्यक्तिगत चरित कैसा था ? क्‍या वह घर में 
ओर परिवार में भी वैसा ही क्रूर और निर्देय था, जैसा समरभूमि में / वह जब 
समरभूमि में तोपों की बाढ़ों पर बांढ़ें छोड़ता था तब सहस्नों ही आदमी भुन जाते थे, 
उनकी भुनते हुए देख कर भी वह गोला की वर्षा को बन्दन करता था, ननहत्या के 
साथ २ उसका अवेश ओर क्षोम अधिकराधिक बढ़ता था । उसकी युद्धप्रणाढी का 
बीजमन्त्र था ही तोप का गोछा । जो मनुष्य युद्धभूमि में ऐसा निरपेक्ष घातक 
हो सत्ता था, वह अपने घरेलू जीवन में कैसा था ? क्या वह अपनी अधोड्डिनी के 
साथ तथा परिवार के अन्य समभासदों के साथ भी क्र्रतायुक्त व्यवहार करता था 
ये शझ्लाएं हैं, जो स्वभावतः पाठक के मन में उत्पन्न होती हैं। इनका कुछ थोड़ा 
सा उत्तर हमने ऊपर दिया है। किन्तु यहां व्यक्तिगत और सामानिक जीवनों का परस्पर 
सम्बन्ध दिखाना भी फल से रहित न होगा । 

उपय्येक्त शह्ला ओं का मन में उत्पन्न होना स्वाभाविक है तथा आवश्यक भी है। 
मद॒ष्य के व्यक्तिगत चरित का ज्ञान ही उसके सामानिकचरित के ज्ञान की कुत्ली है। 
सामाजिक जीवन इतनी भिन्न २ प्रकार की घटनाओं और पेचीददा संयोगों का मेल है, 
के उसमें भूसे ओर अनाज का प्रथक्‌ २ करना बहुत ही कष्टसाध्य हैं। समाज 
स्वयं बहुत ही भिन्न २ प्रकार की इकाइयों का समूह है | तब उसमें एक सामानिक 
जीवन रखने वाले मनुष्य के लिए एक प्रकार का तथा ऊँच नीच ओर पेसेराहित जीवन 
रखना असम्भव है। जब साम।जिकनीवन ऐसा सरल नहीं होसक्ता, तब उसप्का 
वास्तविक विश्लेषण साधारणतया कैसे सम्भव हो सक्ता है? सामाजिकनीवन 
के विश्लेषण को सहरू करने का एक ही उपाय है, ओर वह उपाय व्यक्तिगत 
जीवन का अनुशीलन है । कोई मनुष्य कैसा ही.असाधारण क्यों न हो, वह अपने 
-सामाजिकनीवन को व्याक्तिगत जीवन से सवेथा एृथक्‌ नहीं कर सक्ता । दोनों जी- 
वर्नो में ढांचा एक ही रहता है, बदलता है केवल खोल । सामानिकनीवन, व्यक्ति- 
गत जीवन की केवल बढ़ी हुई छाया है। नेपोलियन के सामानिक जीवन की कुझ्ली 
थाने के लिये आवश्यक है कि हम उसके व्याक्तैगत चरित पर एक दृष्टि डालें; और साथ 
ही यह भी देखे कि उस के निजू जीवन का उस के सामानिकमीवन से क्या सम्बन्ध थाः 


२६२ नैषोलियन बोनापार्ट । 


हम उपर बता आये हैं कि अपने गृहस्थ में वह बड़ा दयालु तथा उदार गृह- 
पति था । अपनी अधांड्रिनी नोजफाइन के साथ उसका अगाघ प्रेम था। हमारे 
इस कथन के साथ, किसी भी इतिहासज्ञ की अनत॒माते नहीं है कि उस का और 
उस की पहली ख्री का पारस्परिक प्रेम सच्चा ओर हार्दिक था । वह जोजफाइन पर 
सदा दयालु रहता था, और जब तक वह अपने घरेलू जीवन को त्याग कर उसके 
राज्यकार्य में हाथ न डालती थी, तब तक कभी भी उसे कोई आल्लेपक शब्द न 
कहता था | नोजफाइन के साथ उसका सच प्रेम इस दोषाभास के खण्डन के लिये पर्याप्त 
है कि नेपोलियन हृदयरहित पिशाच था । 

किन्तु, अब एक कदम आंगे चलिये । वाग्राम के युद्ध के पश्चात्‌ नेपोलियन 
दूसरे विवाह का विचार करता है। उस के दूसरे विवाह का कारण क्‍या था 
जोजफाइन के नेपोलियन से तब तक कोई सन्‍्तान नहीं हुई थी, ओर न आगे होने 
की आशा थी। इस सन्तानाभाव से उसकी महत्त्वाकांक्षा का प्रतिबन्ध होता था। 
वह फ्रांस में एक नय राजवंश को स्थापित करना चाहता था; उसकी आकांक्षा 
थी कि वह योरप का साम्राज्य अपने बार बच्चो के हाथों में छोड़ जाये । किन्तु तब 
तक उसके कोई बाल बच्चा न था, और न ही आगे होने की आशा थी । बस इसी 
विचार ने, उसके ओर जोजफाइन के विवाहसम्बन्ध को तुड़गा दिया । इतने बरसों 
के स्थिर हुए हुए पवित्र पतिपत्नीभाव पर चोका फिर गया । नेपोलियन ने दूसरा 
विवाह कर लिया और जोजफाइन अल्हदा एक महल में रहने लगी | 

नेपोलियन के सामानिक जीवन का अन्तःसार समझने के लिखे इस घटना का 
निरीक्षण पयाप्त है । यह गृहस्थसम्तनन्धिनी घटना क्या बतछाती हैं? यह बतराती 
है कि नेपोलियन हृदयवान्‌ पुरुष था। प्रेम, दया आदि मानुषीय गुण उस में विद्यमान 
थे | किन्तु साथ ही उसमें एक ओर चीज भी थी ओर वह महत्त्वाकांक्षा थी। वह 
महत्त्वाकांश्षा पहले परिमित थी। समय के साथ ही वह बढ़ती गईं। आ- 
ख़िर वह बढ़ती २ उस हद तक पहुंच गड्र, जहां पर उसका नाम महत्त्वाकांक्षा के 
स्थान में पागलपन हो गया । उस समय उस महत्त्वाकांक्षा ने प्रेम नेंत पवित्र 
सम्बन्ध को भी तुढ़वा दिया । स्वभावतः नेपोलियन मनुष्य था, किन्तु महत्त्वाकांक्षा 
उसे मनुष्य से अतिरिक्त कुछ और बना देती थी। ड्यूक आव औरन्‍्गियां का कैद करवाना 
तथा उस पर अभियोग चलवाना भी इत्ती घटना के समान है। वह नहीं चा- 
हता था कि किसी बोबोंन वंश्ीय रानपृत्र का प्राणवात करे, या उसे कैदी बनाये, 


पारिवारिक जीवन । २३३ 


किन्तु, जब वे उसकी एक मात्र इच्छा-महत्त्वेच्छा-के सामने क््रिरूप होने लंगे तब 
उस से न रहा गया, और उस ने वह काय्य कर डाछा, जिसके विना वह आने 
वाली आधी आपत्तियों से बचा रह सक्ता था । 


तथापि, जब तक महत्वाकांक्षा की काही छाया बीच मे न पड़ती थी, तब 
तक नेपोलियन एक सुशील मतुष्य के समन रहता था । अपनी अधोज्लिनियाँ से 
उस का पतिप्रेम प्रशंसनीय था, पत्र के साथ उसका स्नेह असीम था, और क्योंकि 
किसी तरह की भी महत्वाकांक्षा का प्रतिबन्ध उसके ओर उसके छोटेसे प्रत्र के 
बाच में नहीं आसक्ता था, इसलिये पत्र से उसका प्रेम बहुत ही बढ़ा हुआ ओर 
निष्कलड् था । अपने पारार के अन्य छोगों के साथ भी उसका व्यवहार बुरा न 
था । उस के भाई यद्यपि निगुंण ओर कायर थ, तथापि वह वारंवार उनपर रक्ष्मी 
की वर्षा करता था; उन्हें राना बनाता ओर सिंहासनों पर स्थित करता था । 
जोज़फाइन के पहले पत्र यूगन के साथ भी उसका बहुत गाढ़ा स्नेह था। 
सारांश यह कि जब तक महत्वाकांक्षा उसके ग्रृहस्थ प्रेम में विन्न नहीं डालती थी, 
तब तक वह सम्मानयोग्य गृहपति था । 


उसका स्वमाव बाल्यकाल से ही कुछ असन्तोषी तथा खिजू था| वह थोड़ी 
ही बात में नाराज हो जाता था । साम्राज्यप्राप्ति से पृ प्रथमशासकता के समय में, 
वह अपने घर में कभी २ पाखिार के सारे लोगों के साथ भागा करता था । उसका 
कद छोटा था, इसलिये वह तेज न भाग सक्ता था। किन्तु किसी से पीछे रहना 
उसके स्वभाव में न था | वह अपनी सारी शक्ति का व्यय करके अन्धा होकर भागता 
था । मागते २ कमी २ गिर भी जाता था । तब एक विनित्र दृश्य दिखाई देता था। 
भागने में गिर जाने पर मरा किसे हंसी नहीं आती ? किन्तु नेपोलियन के गिरने 
पर हस देना मोत को बुछाना था । किसी की भी मजाल नहीं होती थी कि कोई 
उस पर हंस दे । किन्तु हंसी रुके कैसे ! हेसी को रोकना असम्भव देख कर, सारे 
उपस्थित जन-जोजफाइन भी-हंसी छुपाने के लिये यत्न करते थे । कोई उद्यान में 
घुस जाता, कोई मकान की ओर को भाग निकलता-जिसे जहां छुप कर हंसने 
का स्थान मिलता, वह वहीं पहुंच जाता । यदि नेपोढियन किसी को हँसते देख 
ढेता, तो हंसने वाढे की शामत आजाती । 


'नैषोल्यन स्वभाव से ही चपल था, ओर कभी निकम्मा न बेठ सक्ता था । 


२३४ नैपोलियन बोनापार्ट । 


जब वह अपने आसन पर बैठता था, तब चाकू से उसके सिरे छीरूता रहता था; 
वह आसन चांदी का बना हुआ है या सोने का, यह विचार उसके लिये निकम्मा 
था | उसका निजमन्त्री प्रातःकाल मेज पर अच्छी से अच्छी निब कलम में लगा 
कर रख देता था, ओर जब सायंकाल के समय मेज साफ करता था, तब वहां पर 
सिवाय छोट २ छोहे के टुकड़ों के और कुछ न मिलता था। शासक का चब्चल हाथ, 
विना एक अक्षर लिखे ही, निबों के टुकड़े २ कर देता था। घर में जब कभी वह खाली 
होता, तब अपनी बन्दूक उठा कर जोज़फाइन के पालतू पक्षियों के निशाने किया 
करता । बेचारी जोजफाइन चुप हो रहती थी। किसी दूसरे मनुष्य से बात करते २ 
भी उसके लिये अपने हाथों की निचिल्ले रखना अमम्भव था, वह प्रायः उसके 
कान को पकड़ कर मरोड़ा करता था ओर उसके सेनापाति तथा मन्त्री इस कथन 
में एक शब्द हैं कि उसके हाथ बहुत अशक्त न थे। जब वह कान को मरोड़ता 
था, तब चुपके २ सहते जाना ओर न चिल्हा उठना बड़े बैये का कार्य्य था । नेपोलियन 
के आदमी इस सहने की कछा में प्रवीण हो गये थे, कितु बाहिर के आदमी के लिये 
बहुत कठिनता थी । ये सब स्वमाव बताते हैं कि वह प्रक्कोति से जहां दया और 
ज्लेह से रहित न था, वहां उसके अंग प्रत्यज्ञ में गति तथा विनाशकता भरी हुईं थी, 
वह उनके विना रहही न सक्ता था लोग शज्ढा करते हैं कि वह इतने बड़े साम्राज्य 
को पाकर निचिल्ला क्‍यों नहीं बैठ गया? उनकी शह्ला का यही उपयुक्त उत्तर है। 
वह स्वभाव से ही गातिशील था, ओर उसकी गतिशीलता व्शिषतया रचना की 
ओर न झुक कर विनाश की ओर को झुकती थी । 

इस प्रकार हम देखते हूं ककि उस में गुण भी थे ओर दोष भी थे । मनुष्य 
कहाता भी वही है निस॒ में गुण दोष दोनो हों । वह भी मनुष्य था, किन्तु 
असाधारणता उस में भेद करती थी। उस की शक्तियं असाधारण थीं, उस के 
गुण ओर दोष भी अप्ताधारण ये । वह गुणों या दोषी- नो कुछ भी था, असाधा- 
रण था । जो छोग उस के गुणपक्ष पर दष्टे डाछते हैं, वे उस्त में असाधा- 
रण गुणों का समूह पाते हैं; और वे जो उस के दोषपक्ष पर दृष्टि डालते हैं, उसे 
अप्ताधारणतया दोषी देखते हैं । जब दोनों दल एकपक्षदर्शी हैं तब क्‍यों न हम 
उप्र के दोनों पक्षों पर दृष्टि डालें ओर उत्त के पिछले जीवन के स्वाथेभाव और 
किसी धर्म पर भी अविश्वास न होने पर शोक प्रकाशित करते हुए, उस की असाघा- 
रण शक्तियों तथा उस्त के अनेक आदरणीय गुणों की प्रशंसा करें ! 


अन्तिम निवेदन । २३२५ 


इस प्रकार हम इस 'मनुष्यः के चरित का समीक्षण समाप्त करते हैं। हम 
उसे “मनुष्य” कहते हैं क्यों कि वह इस से अधिक अच्छे ओर किसी नाम से नहीं 
बुलाया जा सक्ता । आज भी फ्रांत्त में जाइये और ग्रामों में घूमिय | आप को पता 
लंगेगा कि वहां के ग्रामीण छोग नेपोलियन को विनेता या प्म्नाद के विशेष नाम से नहीं 
पुकारते, और नहीं जानते हैं। वे उसे मनुष्य नामसे जानते हैं, ओर उसी नाम से पुकारते 
हैं। आज भी वहां के बहुत बूंढ़े पुरुष अपने बच्चों को कहते हुए सुने जाते हैं कि “बच्चा ! 
इस ग्राम के बीच में से मेने उस मनुष्य को जाते देखा था और उस के पीछे 
अनेक राजाओं की पंक्ति जा रही थी।” वह मनुष्य था, और मनुष्य के सारे गुण उस 
में विद्यमान थे । साहस, वीरता, वैये ओर उदारता की वह मूर्ति था । यदि वह 
स्वार्थी था, तो भी उस में मनुष्य का ही गुण था, क्यों कि अस्वार्थी मनुष्य 
देव कहाते हैं, मनुष्य नहीं । 


परिशिष्ट । 
परिच्छेदों के आदि में दिये हुए श्लोकों के अथे । 


42005७७ ५७ कक 





प्रथम अध्याय । 
प्रथम परिच्छेद--( पृष्ठ १ ) पत्थर भी रोने लगता है, और वज्र का हृदय भी फट पडता है। 
द्वितीय परिच्छेद--( पृष्ठ ९ ) क्रान्तिरूपी वेगवान्‌ जल्मवाइ को कौन रोक सक्ता है ! 
तृतीय परिच्छेद--( पृष्ठ १५ ) विव्रेक से गिरे हुओं का ऐसा निषान द्वोता है, कि फिर उठना कठिन दो 


जाता हे । 
दितीय भाग | 


प्रथम परिच्छेद--( पृष्ठ २५ ) जिस घुरुष के माता पिता तथा आचार्य्य श्रेष्ठ हो, वह्दी शानदान होता ह। 

द्वितीय परिच्छेद--( पृष्ठ ३० ) नवोदित यव्य की किरणें भी पहाड़ों के सिरों पर ही पडती हैं । 

तृतीय परिच्छेद--( पृष्ठ ३५ ) हे मध ! एसे कंड समयों में अमृत से सींचते हुए तुझे विषात्ा ने 

न जानें कहां से भेज दिया है !? 

चतुर्थ परिच्छेद--( छूछ ४३ ) छोटी सी भी मणि विष के प्रभाव को उतारने के लिये पय्यौप्त बल रखती 
हैं; जो स्वभाद से ही तेजस्व्री हैं, उन के छोटे या बंड भारी शरीर पर उन का प्रभाव 
अवलम्बित नहीं रहता । 

पद्चम परिच्छेद--( एछ ५४ ) शूर इतज्ञ ओर दुढविक्रम वाले पुरुष के पास निवासाथ लक्ष्मी अपने 
आप ही जा पहुंचती है।... 

पष्ठट परिच्छेद---( ए४ ६१ ) ग॒ुण हो पूजा के स्थान दें, केवल चिन्ह या आयु से पूजा नहीं होसक्ती। 

सप्तम परिच्छेद--( र० ६६ ) स्वभाव से द्वी जो बड़े आदमी दोते हैँ, वे न जानें क्‍यों सदा ऐसे दी 
कार्य्य को प्रारम्भ करते हैं, जो बहुत महान्‌ हो ? 


त॒तीय भाग । 
प्रथम परिच्छेद--( ४४७९ ) आग की शिखा को नीच करदो तो भी वह ऊपर को ही जाती है । 
द्वितीय परिच्छेद---( एृष८७ ) अन्य साधारण लोग जिन नियमों से बांधे जाते हैं, वे असाधारण पुरुषों 
पर लागू नहीं होते । ह 
तृतीय परिच्छेद--( पृष्ठ ९७ ) विजयी और उठते हुए नरेश को देख कर प्रजायें उस का ऐसे ही 
स्वागत करती हैं, जेसे द्वितीया के चन्द्रम का किया जाता दे । 


चतुर्थ परिच्छेद--( पृष्ठ १०७ ) गुण लोग अपने गुणों से उज्ज्वकता को प्राप्त होते हैं, जन्म की 
वहां कोई गिनती नहीं होती । 


चतुर्थ भाग । 


प्रथम परिच्छेद--(पृष्ट ११९) लक्ष्मी साहस में निवास करती हे । 

द्वितीय परिच्छेद--(पृष्ठ १२७) शत्रुरूपी अन्धकार का नाश करके, हे राजन्‌ ! लक्ष्मी तुझे वेसे ही 
प्राप्त हो, जैसे प्रभात के समय वह सूस्‍्य को प्राप्त द्वोती दे । 

तृतीय परिच्छेद--€ पृष्ठ १३९ ) अपने घर की थोड़ी सी फूट स्वामी का नाश कर देती है । 

सतुर्थ परिच्छेद--( प४ १४७ ) बलवानू पुरुष से विरोध का अन्त सदा बुरा होता है । 

पश्चम परिच्छेद--( पृष्ठ १९७ ) वह जिस समस्त देश का शासन करता था, वह एक नगरी केसमान - 
प्रतीत होता था । तठस्थ प्रेत उस के चार दीवारी के समान थे, समुद्र उस में 
परिखा का काय्य देता था और उस पर अन्य कोई सी शासन न चछता था। 


पंचम भाग । 


प्रथम परिच्छेद--( प४ १६८ ) खोटे भाग्यों का फल विचित्र दी होता है । 

द्वितीय परिच्छेद--( पृ४ १७२ ) वृद्धिमान्‌ लोगों को संसार में पराजित होतः हुआ देखकर कहना 
पडता है कि “ देव ही बलवान है ? 

तृतीय परिच्छेद---( पृष्ठ १८५ ) जिन मानी लोगों का बरू पराजित नहीं हुआ, यदि वे पराभत्र को 
प्राप्त होजांय, तो भी उन के लिये शोक का स्थान नहीं । 

चतुर्थ परिच्छेद--( प० २०७) सारे समूहों का क्षय आवश्यक है; सब ऊन्नतियों का अन्त निपान में 
ही होता है; सारे संयोगों के पीछे वियाग बंधा हुआ है; ओर जीव्रन का अन्त मरण 
में ही होता दे । 


सहछ्छमप्रचारक । 
आसय्यभाषा का साप्ताहिक पत्र। 


ध्म्स्न्‍लअड:ुद कक: डेइडेसलरससिपा+--- सन 
>मकना-उक ७०>०ज+- पक मामा न्प्य्य् सिम नमन्‍_ 





यह पत्र ससारमात्र को मित्र की दृष्टि से देखता हुआ उसका साप्ताहिक 
निर्रक्षण करता है। 

यह पत्र प्राचीन गुरुकुलशिक्षाप्रणाली के विजय की घोषणा देने वाला 
दूत है । 

यह पत्र प्राचीनतम वैदिकधमे को ही मनुष्यमात्र के कल्याण का हेतु 
समझता हुआ उसी का प्रचारक है | 

यह पत्न विज्ञान साहित्य ओर इतिहासादि की उन्नाति करना अपना 
कर्तव्य समझता है । 

यह पत्न देशभर की भाषा आयेभाषा ओर देशभर की लिपि देवनागरी 
लिपि करने के यत्न में हे । 

यह पन्न पंजाब के शिक्षित समाज में विशषतया ओर देश के शिक्षित 
समाज भें साधारणतया बहुत सम्मानित है । 

यह पतन्न वरोमान सभ्यता की अशान्तिमयी चंचलता के दूर करने के 
लिये विशेषतया यत्नवान्‌ हे । 

वार्षिक सूल्य-सबे साधारण से ३॥) विद्याथियों से २॥) और भा- 
रत विभिन्न देशों से ४८) नियत हैं । 

' जो इस पत्र को मंगवाना चाहें निज्न लिखित पते से मंगवालें- 
पुबन्धकता-सहुमंप्रथारक 
गुरुकुल कांगड़ी 


भारतवर्ष का प्राचीन इतिहास । 


प्रथथ भाग--5ितीय संस्‍्कण॑ 


“>ौ++- ८5४ के 85८७-७० “7 
( श्री० प्रोफेसर रामदेवजी विरचित ) 
इस इतिहास में प्राचान आय्यों की धार्मिक, राजनैतिक, 
आर्थिक, सामाजिक, मानसिक तथा आत्मिक दशाओं का वणन है। 
पुष्ठ प्रभाणों से यह सिद किया गया है कि प्राचीन आसय्ये 
ऐतिहासिक विद्या से भली भांति अभिज्ञ थे | उन दिनों भारत- 
ब्ष में प्रजातन्त्र राज्य था, बडी बडी युनिवर्सिटियां थीं, शिक्ष्ता 
के कई केन्द्र स्थान थे, और शिक्षा के नियम निधारित थे । भारत- 
वासी ज्योतिष, रेागणित, वीजगणित, अड्भुगणित तथा भूृगो- 
लादि से भली भांति अभिन्ञ थे, राजधम्मे और प्रजाधम्म के 
मम्से को समझते थे, कई प्रकार के शिल्पों को जानते थे, अद्व- 
तरी तथा सैरावति आदि सझद्र पर चलनेवाली नौकाओं को 
थी बनाते थे। इसी भाग में उन प्रमाणों की समालोचना भी 
की गई है जिन्हें यूरोपीय विद्वान अपने इस पक्ष के समथन में 
प्रस्तुत किया करते हैं कि प्राचीन आये यज्ञों में पश्ुवध करते थे, 
तथा वे गोमांसभक्षक थे, और यह भी बताया गया है कि ब्राह्मण- 
ग्रन्थ का अलड्जार विकृत कथा के रूप में प्राचान चैल्डियावालों 
के डैल्यूज़ टेब्लेट, तथा इसाइयों में बाशेबिलादि में भी वर्णित है। 
इस हातिहास की सुप्रसिद् विदानों ने बड़ी प्रशंसा की है 
और इस पुस्तक की उपयोगिता का अनुमान इसी से करना 
चाहिये कि प्रथम संस्कण तीन मास में समाप्त हो गया था। 
और दूसरा संस्कणे हाथों द्ाथ बिक रद्या है। 
मूल्य प्रति पुस्तक केवल १।) सवा रुपया है। जिन महाद्ययों 
को इस पुस्तक के देखने की इच्छा हो, वे निम्नलिखित पते से 
मंगावे।-- 
मुख्याधिष्टाता 
गुरुकुल काइड़ी ( हरहार ) 


ओश्म । 


वैदिक मेग्जीन 





अग्रेजी भाषा का एक मासिक पत्र है। जिस का उद्देश्य 
गुरुकुल शिक्षा प्रणाली का समथेन करना तथा वैदिक विज्ञान 
और प्राचीन आय्यों की ओज पू्ण सभ्यता के लिये श्रह्ला उत्पन्न 
करना है। श्री० प्रो० रामदेव जी इस के अवैतनिक सम्पादक हें 
इस पत्र ने भारतीय पत्रों में अपना उच्च स्थान बना लिया है। 
भारत वे सें उच्च कक्षा का यह सब से अल्प मूल्य का पत्र है 
और इस पत्र को बड़ा विस्तृत और उदारनीति पर चलाया जा- 
ता है। देश के कई एक सुप्रसिड और योग्य विडानों के अत्यु- 
समलेख प्रति मास प्रकाशित होते हैं । वार्षिक मूल्य केवल ३) है। 


पता निम्न प्रकार है ;-- 
प्रबन्धकत्तों, वेदिक मेगज़ीन, 
गुरुकुल काडुडी, 
डा० शामपुर, 


( बिजनौर ) 





माल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी, पुस्तकालय 
4..2,38, ॥//97व4 4ट442४07 ० 44#0757व//9, 70479 


स्नस्त्री 


ए5$800श९ 


यह पुस्तक निम्नांकित तारीख तक वापिस करनी है । 
रग्नांड 500 45$ 40 96 धपा7९0 ०ा 06 96 98 ४ंधा)92९0 





उधारकर्त्ता 
की संख्या 
80709७८7१$ 
७०. 


कक हक नरनकबणम»-«>+म्क»»« + कनज+ 





दिनांक उधारकर्ता दिनांक 
की संख्या 
7096 80770 ए८77$ [09९ 
0, 
5 0 चल 
0. । 944.05 


२ 
24998 


(.38/3/8/8 


8 | 












५ (0 ० 09 
की अवाप्ति सं ० 
७00८०. २०. हल लीतट 
सं पुस्तक से 
हर >> छ00: '७०...००००९०*९**** 
(]9$$ ०0... .****०******* ॥॒ 
लेखक भैपी।शयन पौनापार्ट वो ४ 
/७॥07.<-०*९: है पत्र 6४0० बेड बेड ह ५ 
को ॥न्‍ है हि न 0 8 
| किला 
32:20 ६0 टी न्न्न 
द्रपय छिनाक | उधारकर्ता की सं. | हैं (00७४८ _ 





2४ रथ: >> 3 (५8587#/8)]ऐ 


५.5 848%500॥8 8#&87॥ 
चित 20609 0० 407775078 (07 
सभिए800पनाष्ट 


थक ४०. ।2-५""0१0 


|, 0008 #76 880७० 07 5 00५8 07९४ 9७६ 
शाओए ४७ ६७० 02७ 7804 #/त॑ ७७४767 #॥ छाइुक्षा८ 
॥४।७ 7७५७।7७४. 

मा 0स्‍छान्तप6 लीधा तू ० 25 7489 एक तं8ए 907 
सत0पा।ह र४ी। के दाना ह७0ऐ ५ 

9800/08 पाए $ ॥8769#760 07 /0089४७87, 687 !७ 
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